CHIRAG KA JINN Sourabh Vashishtha द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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CHIRAG KA JINN

चिराग़ का जिन्न

सौरभ

अधीक्षक की सोच थी कि अधीक्षक हो स्टिक (यानी स्ट्रिक्ट) और बाबू हो क्विक......... दफ्‌्‌तर ताइयों चलदा।

लोहा और बाबू अगर बेकार पड़े रहें तो उन्हें जंग लग जाता है। लोहा गरम होने पर ही काम आता है वैसे ही बाबू भी काम करते करते गरम रहना चाहिए। वैसे भी बेकार दिमाग़ शैतान का घर। इसलिए अधीक्षक दफतर के बाबूओं को किसी न किसी काम में लगाए रखता। कुछ नहीं तो टाईप ही करवाता। दिन मेें एकाध लेटर ही टाईप के लिए होता। जब बाबू टाइप करके लाते तो चोरी से उसे फाड़ देता। नए नए भर्ती हुए बाबू एकदम ऊर्जावान्‌्‌ होते हैं। वे जिन्न की तरह काम करते हैं। जैसे च़िराग से निकले एक जिन्न ने शर्त रखी थी कि मुझे हमेशा काम में लगाए रखना नहीं तो वापिस चिराग में चला जाऊंगा। मालिक ने मैदान में एक खम्बा गाड़ जिन्न को उससे उतरने और चढ़ने का काम दे दिया।

अधीक्षक बनने तक तो आदमी वैसे ही फैल कर घोंघे सा सुस्त और चिपकू हो जाता है। दो नथूनें निकाल फायलों पर ऐसे रेंगता है जैसे चिकनी धरती पर पसर रहा हो। सरकार के संसर्ग में आने से फुर्तीला नौजवान भी प्रोमोशन के साथ धीरे धीेरे सुस्त और निकम्मा हो कर घोंघा बन जाता है।

अधीक्षक का मानना था अगर कहीं फंस गए तो बात ‘क्लेरिकल एरर' पर ड़ाल दो। क्लेरिकल एरर बहुत बड़ी चीज़ है। इससे बड़े बड़े अपराधी बच जाते हैं। जब वह बाबूओं छुटि्‌टयां काटता तो रजिस्टर में इस एरर के सहारे काम करता। होता यह कि छुटि्‌्‌्‌टयां बची हैं पांच तो काटी दो और शेष भी दो। यानि दो जमा दो पांच। जब अपनी बारी आती तो एरर कुछ इस तरह का होता कि छुटि्‌टयां बची हैं पांच तो काटी दो और शेष बची तीन। पकड़े गए तो क्लेरिकल एरर, गाड़ी चलती रही तो चलती भी रही। सरकार में हिसाब किताब निराला है और अपने ही ढंग से होता है।

ऑफिस टाइम के बाद बाबुओं से अधीक्षक की दोस्ती हो जाती। वह उनके साथ घूमता खाता—पीता, कभी कभार पैसे भी चुका देता। यानी आम के आम और गुठलियों के दाम। बेचारे बाबू मरते क्या न करते दिन भर अधीक्षक से उत्पीड़ित होते रहते शाम को उसके साथ हंसी मजाक करते।

आज रविवार था तो ‘क्विक बाबू' जिसे घर पर ‘स्लो पति' कहा जाता था, घर पर ही था। सुबह से पत्नी ने सब्जी का राग मल्हार छेड़ दिया था। आज लोकल मण्डी भी लगती थी तो स्लो पति ने सोचा थोड़ी सब्जी ही ले आए। थैला उठाया और चल दिया। बाजार पहुंचा तो सोचा थोड़ा घूम ले। सड़क के किनारे भीड़ लगी हुई थी। एक आदमी पुरानी चीज़ें जैसे पुराने टेलिफोन, दूरबीन, शंख आदि सजा कर बेचने की कोशिश में था। स्लो पति भी भीड़ में खड़ा हो गया।

सहसा उसकी नज़र एक पुराने चिराग़ पर पड़ी। नज़रें बचा कर उसने चिराग़ की तरफ हाथ बढाया। चिराग़ उठा कर हथेली पर घिसा। कुछ नहीं हुआ। तभी दुकानदार की नज़र स्लो पति पर पड़ी। वह सकपका गया। दुकानदार ने कहा....जिन्न का चिराग़ है बाबू जी, ले जाईए। केवल एक हज़ार का है।

‘बाबू' सम्बोधन से वह एकदम स्लो पति से क्विक बाबू बना गया। क्विक बाबू ने मजाकिया लहजे में कहा ‘भई जिन्न—विन्न भी है चिराग़ में कि ख़ाली ही है‘।

दुकानदार झल्ला गया...असली जिन्न का चिराग़ है भईया, लेना है तो बात करो। वैसे जिन्न अलग से भी मिल जाएगा....उसने आंख मारी। क्विक बाबू को वहां से खिसकने में ही भलाई नज़र आई। वह थोड़ा आगे बढ़ा तो पुरानी किताबों की दुकान नज़र आई। बाबू पुरानी किताबें खंगालने लगा। तभी उसकी नज़र एक फटी पुरानी किताब पर पड़ी जिसमें लिखा था— पुराने तंत्र मंत्र की काली गोपनीय किताब। क्विक बाबू ने वह किताब उठा ली और उसे पलटने लगा। किताब को उलटा पकड़ कर दुकानदार से सरसरी तौर पर पूछा भाई क्या रेट है। दुकानदार दूसरे ग्राहक के साथ व्यस्त था। उसने कहा सभी सौ सौ की रुपये की है, कोई भी उठा लो। बाबू ने तुरंत सौ का नोट निकाल कर दुकानदार को पकड़ा दिया।

पुनः स्लो पति बनने हुए सब्जी लेकर बस के लिए खड़ा हुआ तो बहुत भीड़ थी। एक बस छोड़ी दूसरी छोड़ी फिर तीसरी भी छोड़ दी तब जाकर कुछ भीड़ छंटी तो बस पकड़ कर घर पहुंचा। घर पहुंचकर पहला काम यह किया कि नज़रें बचाकर उस किताब को एक पुराने ट्रंक में छिपा दिया।

रोज़ की तरह अगले दिन क्विक बाबू या स्लो पति दफ़तर के लिए लेट हो गया। आज फिर अधीक्षक झंड़ाई करेगा। सोच सोच कर बाबू परेशानी की हालत में दफ़तर पहुंचा। किस्मत अच्छी थी स्टिक अधीक्षक किसी कार्य से सचिवालय गया था। बाबू ने पसीना पोंछा और चाय पीने बैठ गया। गपशप जो शुरु हुई तो दो घण्टे कैसे बीत गए पता ही न चला। इतने में अधीक्षक भी आ धमका। सीट पर बैठते ही अधीक्षक ने घंटी बजाई सेवादार हाजिर हुआ, कुछ सोच कर अधीक्षक बोला ‘कुछ नहीं'। दिन भर में अधीक्षक लगभग तीस बार घंटी बजाता उसमें से पन्द्रह बार यही कहता ‘कुछ नहीं'। बार बार घण्टी पर हाथ रख उसे दबा देना, अधीक्षक कीे आदत थी या अदा, यह सेवादार सालों में भी समझ नहीं पाए। घण्टी पर हाथ न हो तो फोन न करने पर भी फोन पर हाथ रखे रहता। हाथ हटाता ही नहीं। कोई दूसरा फोन नहीं कर पता। अधीक्षक हाथ हटाए तभी दूसरा फोन को हाथ लगा पाए।

अधीक्षक एक सरकारी पत्र टाईप को देता और दिन भर उस एक पत्र को सुधारता रहता। इस चक्कर में वह एक पत्र दसियों बार टाईप होता। फाईनल फिर भी नहीं होता। सनकी है साला.... सब कहते।

अधीक्षक टिप टॉप होकर दफ़तर आता। छुट्‌टी वाले दिन भी अगर वह किसी को बाज़ार में नज़र आता तो टाई सहित। किसी ने भी उसे कैजुअल कपड़ों में नहीं देखा। हमेशाा फॉरमल ड्रेस में रहता था। यह अधीक्षक ही था जो बंद गले की बास्कट के साथ भी टाई लगता था चाहे सर्दी में बास्केट का बटन बंद करना पड़े। वैसे टाई दिखाने के लिए वह बास्केट के गले का बटन बंद नहीं करता था। चूंकि वह दफ़तर में बतौर अधीक्षक ही भर्ती हुआ था, इसलिए गाहे बगाहे कहता ‘मैं तो अफसर ही भर्ती हुआ था, तुम प्रोमोटी लोगों की तरह नहीं। वरीयता सूची के मुताबिक मैं प्रथम क्रम पर हूं। तुम्हें तो सालों लग जाएंगे एड़ियां घिसते घिसते।' उसने अपनी नेम प्लेट में भी लिख रखा था : ‘‘अधीक्षक ग्रेड वन''।

क्विक बाबू अधीक्षक का सताया हुआ प्राणी था। दिन भर कोल्हू के बैल की तरह लगा रहता पर मजाल अधीक्षक दो मीठे बोल बोल दे। उलटा उसे डांटता फटकारता। क्विक बाबू डिपरेस होने लगा था। दिन रात यह सोचता की जीवन तो नरक हो गया है। अधीक्षक अभी जवान है, रिटायर होने को भी लगभग बीस साल हैं। तब तक प्रोमोशन न होगी और रगड़ाई अलग से।

कबीर जयंती की छुट्‌टी थी मगर क्विक बाबू को अधीक्षक ने कार्यालय बुलाया हुआ था। काम तो कुछ खास नहीं था पर क्विक बाबू ड्‌यूटी पर था। आज भी वह स्लो पति से क्विक बाबू बन गया। अधीक्षक चूंकि दफतर के पास ही रहता था, अक्सर छुट्‌टी वाले दिन कार्यालय आता था। साथ में एक सेवादार और बाबू को भी फरमान होता। यह महीने में दो—तीन बार तो होता ही। बाबू बेचारा मन मार कर दफतर आता। बस में दफतर पहुंचने में लगभग एक घण्टा लगता तो बाबू को साढे आठ बजे ही घर से चलना पड़ता।

आज बाबू ने एक काम किया था। वह जन्तर मन्तर वाली किताब साथ लाया था। अधीक्षक अभी पहुंचा नहीं था। बाबू ने पहले तो अखबार फाड़कर किताब को जिल्द लगाई फिर उसे पढ़ने लगा। उसमें कई तरह के मारण, मोहन, उच्चाटन आदि मंत्र, तंत्र तथा यंत्रों का बखान था। बाबू अनायास ही मारण मंत्र के बारे पढ़ने लगा। उतने में अधीक्षक आ धमका। आते ही बाबू को काम समझाया और यह कहकर चलता बना कि शाम पांच बजे काम चैक करने आएगा। बाबू को भीतर ही भीतर बहुत गुस्सा आया। खुद तो चला गया, मुझे फंसा गया, यह काम तो कल भी हो सकता था। मेरी छुट्‌टी बरबाद कर दी। बाबू फटाफट काम निपटाने में लग गया।

काम से फारिग हुआ कि किताब की याद आई। उसमें मारण मंत्र तथा यंत्र के बारे में विस्तृत रूप से दिया गया था। बाबू के मन के शैतानी कीड़े जागने लगे थे। बाबू ने मारण मंत्र अधीक्षक पर आजमाने की ठान ली।

जैसा जैसा किताब में लिखा था बाबू ने ठीक वैसा की मंत्र अधीक्षक पर छोड़ दिया। एक सौ एक बार मन्त्र का उच्चारण भी सही ढंग से कर लिया। और तो और ‘ए—फॉर' शीट पर एक सौ एक बार टाईप भी कर डाला।

देखते देखते दो महीने बीत गए। अधीक्षक तंदरूस्त था। बाबू ने सोचा सौ रुपए का नुकसान हो गया। आख़्िार एक दिन ख़बर आई अधीक्षक बहुत बीमार है। अस्पताल में भर्ती है। क्विक बाबू की उम्मीद जगी। अधीक्षक को देखने बाबू अस्पताल गया। सोचा, देखूं माजरा क्या है। वहां पहुंचकर पता चला कि अधीक्षक को लाईलाज बीमारी हो गई है। अब उसका बचना नामुमकिन है। बाबू ने सोचा उसके हाथ अनमोल खजाना किताब के रूप में मिल गया है। वह मन की मन प्रफुल्लित था। थोड़े ही दिनों में अधीक्षक चल बसा कुछ दिन बाद सभी बाबूओं की प्रोमोशन हुई तो उसकी भी हो गई। बाबू अब खुश था।

कुछ समय चैन से बीता कि एक हिला हुआ अफसर दफतर में नियुक्त हो गया। सब स्टॉफ वालों ने एक मत से उसका नाम ‘हिल्लेया माह्‌्‌णू' रख दिया। हिल्लेया माहणू इसलिए क्योंकि इस नए अफसर के हाथ, कान, गाल यानि जो शरीर का अंग दिखाई देता था वह हिलता रहता था और वह भी जो नहीं दिखता था। उसका सिर भी पैण्डुलम की तरह हिलता रहता। आते ही उसने पूरे दफतर को नचाना शुरु कर दिया। पता नहीं वह तम्बाकू में क्या खाता था कि खाते ही हिल जाता। वह न सुबह के दस बजे देखता, न शाम के पांच, न लंच बे्रक को देखता और न ही कोई छुट्‌टी......हर दस मिनट बाद हथेली में सफेद चूना ले कर देर तक मलता और दाढ़ के नीचे छिपा देता। बस्स, कुछ देर बाद हिलना शुरू कर देता जैसे देवता के भीतर प्रवेश पर देवता के गूर हिलते हैं।

क्विक बाबू तो अब निश्चिंत था। उसने अपनी किताब खोली और छोड़ दिया मंत्र। एक सौ एक बार टाईप करके सफेद कागज़ उसके सिर के ऊपर से भी गिरा दिया। महीना बीता, दो बीते, छः महीने बीते। देखते देखते पूरा एक साल बीत गया, हिल्लेया माह्‌्‌णू हिलता रहा पर कभी गिरा नहीं। शायद इस पर किसी तांत्रिक की कृपा है, बाबू सोचता।

इस दौरान बाबू ने किताब के सभी टोटके आजमा लिए पर हिलते हुए माह्‌्‌णू पर रत्ती भर भी असर न पड़ा। सरसों के दाने पोटली में बान्ध उसके दराज़ में डाले, लाल सिन्दूर की पुड़िया उसके डोर मेट के नीचे रखी।

क्विक बाबू का किताब से मोह भंग हो गया। एक दिन गुस्से में उसने वह किताब जंगल में जा कर आग के हवाले कर दी। जब किताब आधी जल चुकी थी तो बाबू को अन्दर ही अन्दर पछतावा भी हुआ पर मन मसोस कर उसने किताब को जल जाने दिया।

क्विक बाबू को न दिन में चैन मिलता न रात में आराम। इसी दौरान कई लोग रिटायर होकर चले गए। बाबू को अपनेे पुराने लोग जो रिटायर हो गए थे याद आते। समय गुज़रा तो हिल्लेया माहणू भी रिटायर हो गया। अब एक नया साहब आ गया जो लक्कड़ की तरह अकड़ा हुआ रहता। उसकी गर्दन टेढ़ी होते हुए भी पेड़ के मोटे तने की तरह खड़ी रहती।

एक दिन क्विक बाबू ने कार्यालय के नियम आदि पढ़ रहा था तो अचानक उसका माथा ठनका। नियमों की एक पुरानी फायल जिन्न के च़िराग की तरह हाथ लगी। चूंकि यह कार्यालय एक ऑटोनोमस बॉडी था इसलिए इसके नियम सरकार से कुछ भिन्न थे। उसने फायल की धूल झाड़ उसे चिराग़ की तरह फटका तो नियमों में रिटायरमेंट की उम्र साठ वर्ष लिखी निकली मगर पिछले कर्मचारी और अधिकारी तो अट्‌ठावन वर्ष में ही रिटायर कर दिए गए थे। बाबू ने अपने सीनियर से बात की तो सीनियर ने बमुश्किल रिकार्ड रूम से नियमों की मूल प्रति ढूंढ निकाली। उसमें भी रिटायरमेंट की उम्र साठ वर्ष ही थी। फाईल से निकला जिन्न उनके हाथ आ गया। बहुत बडा सकैण्डल हो गया था। अब तो मारे जाएंगे। क्विक बाबू ने सोचा बचाव का कुछ उपाय तो करना ही होगा। उसने सीनियर से पूछ कर सरकार को एक नोट भेजा जिसमें लिखा कि सभी कार्यालयों में रिटायरमेंट की उम्र अट्‌ठावन वर्ष है अतः हमारे कार्यालय की रिटायरमेंट उम्र भी अट्‌ठावन किया जाना प्रस्तावित। अकड़ा हुआ साहब भी मन नही मन खुश हुआ कि दुनियां के पहले मूर्ख हैं जो रिटायरमेंट की उम्र बढाने के बजाए घटाना चाहते हैं। उसने भी फायल सरकार को भेज दी जिसे सरकार ने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। इतने कर्मचारियों का दो साल का वेतन भार बचेगा।

अब बाबू को थोड़ी राहत मिली। क्या पता ‘हिल्लेया माह्‌णू' दोबारा कुर्सी पर आ बैठता।

इतने में तीन रिटायरमेंट और थीं तो नोट के हवाले से उन्हें भी अट्‌ठावन वर्ष में चलता कर दिया गया। समय बीता तो बाबू के सीनियर की रिटायरमेंट आ गई। रिटायरमेंट करीब आने पर अब बचे हुए कर्मचारी घबराने लगे।

सीनियर से दो माह पूर्व एक चौकीदार की रिटायरमेंट थी। सीनियर ने बाबू को बुलाया और कहा कि एक आईडिया है ये जो चौकीदार रिटायर हो रहा है इससे कोर्ट में केस करवा देते हैं कि रिटायरमेंट की उम्र साठ वर्ष है और जो सरकार ने अट्‌्‌ठावन वर्ष सभी नियमों को ताक पर रख कर कर दी है। बड़ी मुश्किल से रिटायर होने वाले चौकीदार के लिए मुफ्‌त में वकील किया गया।

वकील को कविता लिखने का बीमारी थी। उसे कभी कभार कविता पाठ के लिए बुला लिया जाता। जब भी कार्यालय हिन्दी दिवस मनाता, वकील को भी कविता पाठ के लिए आमन्त्रण जाता। पत्रिका में कभी कभार उसकी ज़िरह की तरह लिखी कविता चेप दी जाती। अतः वह कार्यालय के सभी केस लगभग मुफ्त में डील करता था।

एक शुभ दिन रिटायर हुए कर्मचारी द्वारा कार्यालय को कोर्ट से नोटिस भिजवाया गया कि उसे गलत रूप से अट्‌्‌ठावन वर्ष में रिटायर कर दिया गया जबकि असल में रिटायरमेंट की उम्र साठ वर्ष है। क्विक बाबू ने वकील से मिल जवाब तैयार किया गया।

कोर्ट में केस हो गया। दो तीन पेशियों के बाद जज साहब ने कहा कि सरकार ने रिटायमेंट की उम्र सभी नियमों को ताक पर रख कर घटाई गई है और नियमों के सर्वथा विपरीत है। अतः कार्यालय की रिटायरमैंट की उम्र साठ वर्ष रिस्टोर की जाती है।

क्विक बाबू और सीनियर बहुत खुश थे, चलो सांप भी मर गया और लाठी भी न टूटी। बाबू और सीनियर निश्चिंत थे और बतिया रहे थे कि दफतर के काम तो चलते ही रहेंगे। चलो चाय का एक—एक कप हो जाए।

क्विक बाबू अब ‘स्लो बाबू' और ‘क्विक पति' भी बन गया।

बिना अफसर के दफतर नहीं चलता जैसे बिना बैल के गाड़ी। सरकार ने मरणासन्न हुए इस ‘आपदा संस्थान' में सचिवालय के एक अफसर को अतिरिक्त चार्ज दे कर नियुक्त कर दिया। यह अफसर कुछ ज्यादा ही मस्तमौला था। ज्वाइंन करके तुरंत उठ गया और गया तो कई दिन लौटा ही नहीं। कर्मचारी रोज कुर्सी को प्रणाम कर लौट जाते। कभी कभी वह नज़र भी आता तो उसके आने के ख़बर के बजाए फुसफुसाहट होती......वह गया! वह गया!! वह गया!!!

अतिरिक्त यानि ‘फालतू' चार्ज में यह सुविधा रहती है कि इधर का स्टाफ सोचता है, साहब उधर है और उधर का इस भ्रम में रहता है कि साहब इधर हैं। ऐसे में साहब की व्यस्तता ज्यादा ही बढ़ जाती है। ऐसे एडिस्शनल जार्च योग्य अधिकारियों को ही दिया जाता है।

अफसर का नाम था : ‘‘अनघड़िया देव''......एक सुंदर सुघड़ पीतल की चमकदार नेम प्लेट आने से पहले ही दरवाजे के बाहर लटका दी। ऊपर अंग्रेजी में लिखा : ‘ए0 देव' और नीचे हिन्दी में ‘अनघड़िया देव'। अब बड़े साहब का सेवादार कबीर की तरह गुनगुनाने लग गया :

‘‘अनघड़िया देवा : कौन करे तेरी सेवा!''

आपदा प्रबन्धन संस्थान में वैसे भी कोई काम न था। किस आपदा का प्रबन्धन किया जाना है, यह किसी को ज्ञात न था। आपदा तो सरकार पर आई रहती हर तीसरे दिन। कोई न कोई घोटाला उजागर होता और विपक्ष सड़क पर आ जाता। या सरकार के भीतर से ही कोई भीतरघात कर देता। सरकार का सारा समय इसी प्रबन्धन में लग जाता। इस निगोड़े, कर्मजले संस्थान की ओर नज़रेकरम करे! यह तो मेरे मौला के ही आसरे था।

एक दिन साहब का सेवादार भीतर बात कर रहा था। कर्मचारियों ने सोचा, साहब आ गए हैं। स्लो बाबू ने भीतर झांका तो कोई न दिखा मगर सेवादार बतिया रहा था। स्लो बाबू दबे पांव लौट आया कि हो न हो साहब भीतर ही हो। फिर एक एक कर सभी दरवाजे से कान लगाए खड़े हो गए। अंदर खुसर फुसर हो रही थी।

अचानक फटाक्‌ से दरवाज़ा खुला और सेवादार पानी का ख़ाली जग लिए व्यस्त सा बाहर निकला। सभी डर के मारे एकदम पीछे हट गए।

.....तुम लोग दरवाजे के पास क्या सुन रहे थे। तुम्हारी गंदी आदतें नहीं गईं। साहब गुस्सा हो रहे थे.....चलो, हटो....सब अपनी अपन सीट पर जा कर काम करो....निख़ट्‌टू कहीं के।.....सेवादार ने ऐसी डांट लगाई कि सब खिसियाने हो कर बिल्ली की तरह दबे पांव धीरे धीरे खिसक गए। बड़े अफसर के चपरासी का बड़ा रौब होता है।

सेवादार के जाने के बाद सिनीयर ने हिम्मत कर भीतर झांका। भीतर कोई न दिखा तो वह दबे पांव बाहर आ गया। इतने में सेवादार पानी का जग लिए वापिस आ गया।

......कहां हैं बे साहब!...वह फुसफुसाया।

.......अरे साहब तो मिट्‌टी का भी बुरा होता है। साहब नहीं है तो क्या हुआ, साहब की कुर्सी तो है....सेवादार ने डांट लगाई तो सीनियर उल्टे पांव लौट गया और कुर्सी पर बैठ पसीना पोंछने लगा।

सुबह दस बजे से पहले सेवादार साहब की मेज़ गंदे बदबूदार पोचे से पोंछता जिसकी बास बड़ी देर मेज़ के आसपास फैली रहती। फिर लंगड़ाता हुआ पानी का ख़ाली जग ले कर बाथरूम में घुस जाता। साहब के पीने का पानी वह वाश बेसिन के नलके से भरता था।

यह सेवादार सब से सीनियर था। उस की क्या उम्र होगी, कोई नहीं जानता। उसे अकेले में बोलने की आदत हो गई थी। बैठे बैठे, चलते हुए बुदबुदाता रहता।

दिन में जब सीनियर या जूनियर बाबू डरते डरते भीतर जाते तो कुर्सी पर कोई नहीं दिखता। हां, मेज़ पर फायलें कभी बिखरी होतीं तो कभी सलीके से रखी हुई। पूरा सामान रोज़ इधर से उधर होता रहता.....कोई आता तो जरूर है, वे सोचते।

कभी दिन में फोन की घण्टी बजती तो लगता कोई फोन सुन रहा है, कोई बातें कर रहा है।

क्विक से स्लो बाबू बना शख्स पछता रहा था कि उसने वह चिराग़ क्यों नहीं ख़रीद लिया। तन्त्र मन्त्र की किताब जल्दबाजी में जला कर भी एक बड़ी गलती कर दी।

सौरभ

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ई—मेल sourabhvashishtha@gmail.com