शून्यकाल Sourabh Vashishtha द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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शून्यकाल

ज्ञानी

सौरभ

बाबा ज्ञानी थे। कम से कम लोग तो यही समझते थे। बाबा बड़े सीधे साधे संत माने जाते थे। उनके आश्रम के पास अरबों की प्रापर्टी थी। एक बार बाबा के दो खास चेले एयर क्रैश में मारे गए। शाम का सतसंग चालू था। एक भक्त ने सूचना दी कि वह लोग प्रचार से वापस लौट रहे थे कि प्लेन गिर गया। बाबा की आंखों से अश्रुधार बह गई ।

घोषणा हुई, बाबा ने कहा, ‘मुझे लगा कि मेरे दोनों बाजू कट गए‘। बाबा उदास थे। कुछ समय बीता। बाबा विदेश में थे कि उनके पिता गम्भीर रूप से बीमार हो गए। देश में सरकार विरोधी लहर चल रही थी। बाबा ने अपना विदेश दौरा रद्‌द कर दिया। वापिस पहुंचते ही बाबा ने उसी दिन सरकार के विरूद्ध बनी संघर्षरत कमेटी के सदस्यों से भेंट की। उन्हें शांत किया।

पिता जी का उसी दिन देहान्त हो गया।

भक्त आश्रम में इकट्‌ठे हुए। सोचा बाबा का दुख बाँंट आँए। शाम के सतसंग में बाबा ऐसे मुस्कुराते हुए आए जैसे कुछ हुआ ही न हो। भक्तों को सम्बोधित करने हुए बोले कि आत्मा का आना जाना लगा रहता है। दोनों ही समय उत्सव मनाना चाहिए। आश्रम की दिनचर्या रोज की तरह ही चलती रही।

लोगों ने समझा बाबा सुख दुख से ऊपर हैं। ज्ञानी हैं। आश्रम और फलने फूलने लगा।

94180—40859 हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला—171009

साम्यवादी होनेके दुख

सौरभ

अरविन्द देवता के गूर (पुजारी) का बेटा था। थोड़ा पढ़ लिख गया तो साम्यवादी हो गया। मीट का शौकीन था। उसका बस चले तो दिन में तीन टाईम मीट ही खाए। मीट खा—खा कर कोलेस्ट्रोल बढ़ गया। मधुमेह की बीमारी भी हो गई। फिर भी वह बाज नहीं आ रहा था। सरकारी अफसर था, जब भी कहीं दौरे पर जाता मीट, मुर्गे पर टूट पड़ता था। उसे सारे अड्‌डों का ज्ञान था। साम्यवादी विचारधारा का माना जाता था थोड़ा बहुत लिख भी लेता था। एक दिन उसके साम्यवादी दोस्त ने फोन पर बताया कि कविता की एक कार्यशाला लग रही है। सभी साम्यवादी कवि उसमें आ रहे थे, उसने भी हामी भर दी।

कार्यशाला शुरु हुई। बड़े—बड़े कवि आए हुए थे। सभी ने अपनी लिखी हुई रचनाएं पढ़ीं। अरविन्द की भी सभी से दोस्ती हो गई। एक बहुत बड़े कवि श्री प्रयोग जी से अरविन्द की बात—चीत हुई। बातों ही बातों में अरविन्द को पता चला कि प्रयोग जी के दो बेटे हैं। दोनों ही अमेरिका में सैटल हैं। श्री प्रयोग की जब अपनी रचना सुनाने की बारी आई अपनी रचना में पूंजीवाद की भर्त्सना की, उसे गरीबों के लिए काल बताया। अमेरिका को गरीबों का दुश्मन बताया। इसी तरह एक दूसरा लेखक जो करोड़पति था (वैसे कम ही लेखकों को यह सौभाग्य मिलता है) जो पूंजी और पूंजीपतियों के खिलाफ बोला। अरविन्द की भी बारी आई। अरविन्द की कविता देवताओं को दी जाने वाली बली के विरोध में थी। कविता में देवताओं को मांसाहारी राक्षस बताया गया । सभी कवियों ने अरविन्द के भाव की तारीफ की। उसके साम्यवादी होने पर गर्व जताया। उसके भाव इतने उच्च थे कि सभी तारीफ करते न थके। सम्मेलन समापति पर अरविन्द अपने मित्रों के साथ मांसाहार करने चला गया।

94180—40859 हिमाचल कला स्ंस्कृति भाषा अकादमी शिमला—171001

हाईकू

सौरभ

जापान से एक हाईकू कवयित्री आई हुई थी। उसका हाईकू पर व्याख्यान था। सभी गणमान्य लोग एवं कवि, लेखक आदि आए हुए थे। व्याख्यान से पहले कवयित्री का स्वागत हुआ। उसे शाल ओढ़ाई गई। सभी ने उसकी तारीफ में कसीदे पढ़े। व्याख्यान शुरु हुआ। व्याख्यान में जापानी कवयित्री ने हाईकू के बारे में काफी जानकारी दी कि हाईकू क्या होता है वह कब और कैेसे शुरु हुआ। व्याख्यान के दौरान उसने उदाहरण भी दिए। एक उदाहरण उसने एक जापानी हाईकू कवि के हाईकू का दिया और बताया कि हाईकू में क्या—क्या गुण होते हैं। फिर उसने भारत के गुरु रविंद्रनाथ टैगोर के हाईकू को उठाया और समझाया कि यह हाईकू नहीं है और यह निम्न स्तर का है। सभी गणमान्य लोग गम्भीरता से इसे समझ गए और व्याख्यान के अंत में हद तब हो गई जब एक प्रशासनिक अफसर ने इतना तक कह डाला कि रवींद्रनाथ एक अच्छे हाईकू कवि नहीं हैं तथा उनके हाईकू निम्न स्तर के हैंं तथा वह एक हाईकू होने की शर्तों को पूरा नहीं करते। उपस्थित साहित्यकारों में कोई कुछ नहीं बोला। यह सब सुन जापानी कवयित्री मुस्कुरा दी। मैं भौचक्का रह गया कि किस सफाई से इस कवयित्री ने भारत के सबसे सम्मानित कवि को निम्न स्तर का बता दिया तथा वहां मौजूद तथाकथित लेखकों से मोहर भी लगवा ली। मेरी समझ में कुछ—कुछ आया कि भारत क्यों अंग्रेजों का गुलाम बना और किस कारण भारत की तरक्की नहीं हो पायी।

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बाबा जी

सौरभ

दुनियां में दो तरह के लोग पाए जाते हैं । एक मूर्ख और दूसरे बुद्धिमान। बुद्धिमान वह, जो दूसरों को मूर्ख बनाना जानता हो तथा मूर्ख वह, जो बुद्धिमान के हाथों मूर्ख बने । बुद्धिमान यह जानता है कि मूर्ख चाहते हैं कि उनका सारा काम चमत्कार से हो जाए। कैंसर हो तो एक मऩ्त्र पढ़ लें, दूर हो जाए। गरीबी हो तो जिस काम वह हाथ डालें वह सफल हो जाए। कोई हाथ घुमाए और सब दुख दर्द दूर हो जाए। माथे पर भस्म लगाएं और इन्टरव्यू में निकल जाएं। सारा साल न पढ़ें और मन्त्रपूत कलम से पास हो जाएं। यानि हींग लगे न फटकरी रंग चोखा।

आजकल के बाबा यही वादा करते हैं। यह कहना चाहिए कि बुद्धिमान सदा ही मूर्खों का फायदा उठाते रहे हैं। इसलिए बाबागिरी आजकल का सबसे सफल बिजनेस है जिसमें इन्वेस्टमेंट जीरो है तथा रिटर्न ही रिटर्न है । तभी आजकल जहां जाओ दो तरह के लोग फलते—फूलते नज़र आते हैं; एक हैं नेता तथा दूसरे हैं बाबा। एक बाबा लोगों को गोलगप्पे खिलाकर कृपा बरसाते नज़र आते हैं तो दूसरे मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्ति की बात करते हैेे। कहते हैं यहां तुम्हें भोग भी मिलेगा और मोक्ष भी तो दूसरे कहते हैं योग करोगे तो भोग कर पाओगे। अब बताईये भोग, और मोक्ष व योग और भोग का भला क्या लिंक है। एक बाबा कहते हैं मोक्ष के लिए कुछ नहीं करना, यहां आ गए हो बस इतना की काफी है। सभी बाबा कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहते इसलिए खुद को खुदा बताते हैं। बाबों में भगवान कृष्ण का भी खूब क्रेज है शायद रासलीला के कारण। सभी बाबा कहते हैं कि वह कृष्ण हैं शायद तभी वह फिल्मीं हिरोइनों तथा भर्ती हुई तथाकथित साध्वियों को करीब रखते हैं। भगवान के इतने सारे अवतार एक साथ हैं, उन्हें कृष्णावतार ही भाता है।

सभी बाबों के फिक्स रेट हैं (नो डिस्काउंट) जो दो हज़ार से शुरु होते हैं। एक बाबा से मिलने का अलग रेट है तो आशीर्वाद लेेने का अलग। पर एक बात तसल्ली की है कि एक मुफतखोर दूसरे मुफतखोरों पर राज कर रहा है। इन बाबों के आसपास की भीड़ को देखकर लगता है कि भगवान ‘ऑन सेल' हैं। जिसकी जेब में माल है वह उठा ले जाए। कोई बाबा लोगों के काले धन को सफेद करने में लगा हुए हैं तो कोई अपना साम्राज्य फैलाने में। दुनियां का कौन सा ऐसा पाप है जो बाबों के आश्रमों में नहीं पलता। कोई बाबा मर्डर केस में अन्दर जाता है तो कोई बच्चों के ऊपर तांत्रिक क्रिया करने के जुर्म में।

कबीर दास कां वो समय, जब वह सतसंग भी किया करते थे और कपड़े बुनकर अपना गुज़ारा चलाया करते थे, चला गया। अब तो हाईटेक ज़माना है। सतसंग वेबकास्ट होता है। जेट एज है। अब बाबा विदेशी कारों में लाल बत्ती लगाए घूमतें हैे। अखबार में एक खबर थी एक मशहूर बाबा लाल बत्ती वाली गाड़ी में सतसंग करने आए। एक पत्रकार ने गाड़ी की फोटो खींचनी चाही तो पहले उन बाबा ने उसे झांपड़ रसीद किया फिर अपने चेलों से पिटवाया।

इस युग में अगर किसी ने ध्यान सीखना हो तो उसे कम से कम दस हज़ार रुपए देकर शिविर में जाना होगा यानि भोग तो छोड़ो मोक्ष भी गरीबों की पहुंच से दूर हो गया है। यानि जीवन में अगर सफल होना है और भोग की पराकाष्ठा भोगनी है तो बाबा हो जाईए। इस देश से अगर बाबा और नेता विदा हो जाएं तो यह स्वर्ग तुल्य हो जाए।

94180—40859 हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला—171009

वापसी

सौरभ

‘नहीं—नहीं साहब हम एैसे नहीं हैं, काम वैसे ही करेंगे जैसा आप कहेंगे‘—

मिस्त्री कह रहा था। मकान की चिनाई के लिए एक मिस्त्री और एक बेलदार आए थे।

‘वह है न हमारा ठेकेदार, राजाराम। वह मार्बल टाईल सब काम जानता है, आपका सारा काम बढ़िया कर देगा।‘

‘ठीक है तो मन लगा के काम करना समझे, ईंट को पानी में भिगो—भिगो कर चिनाई करना समझे।‘

दोनों मसाला बनाने लगे। ‘अरे भई अपना नाम तो बता दो,‘ मैने कहा।

‘बेलदार का नाम श्री राम है और हमारा नाम व्यास मुनि है साहब,‘

मिस्त्री ने बताया।

‘कहां से हो भई दोनों।‘

‘यू0पी0 के हैं साहब, गोरखपुर के हैं। ट्रेन में हमसे सब डरते हैं, जो बिहार के लोग हैं ना साहब वो भी हमसे कांपते हैं। सब लोग अपनी सीट छोड़ देते हैं, गोरखपुर बड़ा मशहूर है। चाहे तो अपने बहादुर से पूछ लीजिए, ट्रेन में हमें कोई दिक्कत नहीं होती।‘

‘अच्छा!‘ मुझे अचम्भा सा हुआ।

चिनाई का काम चलने लगा। फिर एक दिन यकायक दोनों गायब हो गए। एक दिन गुजरा फिर दूसरा भी बीत गया। मैने राजाराम ठेकेदार को फोन कर खूब झाडा।

‘साहब मिस्त्री बीमार हो गया था, कल से दोनों आ रहे हैं।‘

‘चलो ठीक है।‘

मैं आशवस्त हो गया। फिर अगला दिन भी गुजर गया दोनों फिर नहीं आए। अबकी बार तो मैनें ठेकेदार को खूब आड़े हाथों लिया। खैर अगले दिन दोनों हाजिर हो गए।

‘क्या करें साहब हमने कुछ उलटा—सीधा खा लिया और फिर पेट में दर्द और दस्त ऐसे शुरू हुए कि अभी भी हमारा बुरा हाल है।‘ कहते—कहते व्यास मुनि ने पानी की बोतल उठाई बड़बड़ाते हुए जंगल की ओर भागा।

‘और भई तुम्हारा क्या हाल है,‘ मैने बेलदार से पूछा।

‘साहब बुखार है कि टूट ही नहीं रहा है। अपने गांव में तो हम सारा—सारा दिन पानी में घुसे रहते थे, खूब मछली पकडते थे, आज तक कभी भी बीमार नहीं पड़े, यहां पता नहीं क्या हो गया साहब,‘ श्रीराम रूंआसा हो उठा।

‘अरे भई शरीर है कुछ ना कुछ तो लगा ही रहता है, दुनियां में कौन है ऐसा जो बीमार नहीं पड़ता।‘ मैने ढाढस बंधाते हुए कहा।

खैर, दोनों बेदिल से काम करने लगे। दोनों की हालत ठीक नहीं थी।

‘अरे भई कोई दवा वगैरा ली या नहीं।'

‘दवाई कहां से लेंगे साहब,‘ व्यास मुनि जैसे फट पडा, ‘ठेकेदार ने हमें पैसा ही नहीं दिया, उलटे कल शाम उसने दारू पी के हमें मां—बहन का गाली दिया साहब, मां—बहन का। हम तो अपना सामान बांध लिए थे वापिस जाने को पर क्या करते हमारे पास पैसे ही नहीं थे, ठेकेदार ने हमें पैसा ही नहीं दिया।‘

व्यास मुनि की लाचारी उसके चेहरे से टपक रही थी। मेरी समझ में सब आ रहा था। मैने जो डांट ठेकेदार को पिलाई थी वह उसने इन दोनों बेचारों पे उतार दी। मैं दवाई लेने लपका।

दोनों दवाई खाकर थोड़ा खुश दिख रहे थे। दो—तीन घण्टे तक काम करके व्यास मुनि एकदम पस्त हो कर बैठ गया, ‘नहीं होता साहब हमसे नहीं होता।‘

‘अरे भई हौसले से काम लो सब ठीक होगा।‘

मुझे लगा कि अगर काम समय पर नहीं हुआ तो बरसात का महीना निकल लाएगा फिर पानी की किल्लत आएगी। मेरी मजबूरी उनकी हालत से बडी हो गई थी। मैं चाह रहा था कि काम चलता रहना चाहिए। खैर, जैसे तैसे उन्होंने काम खत्म किया।

शाम को ठेकेदार राजाराम का फोन आया। वह कहने लगा कि उन्हें पैसे मत दीजिएगा। अगर दोनों चले जाते हैं तो मैं अपने दूसरे बन्दे भेज दूंगा। काम करने वालों की कोई कमी नहीं है।

अगले दिन सुबह दोनाें काम पर आए।

‘व्यास मुनी जी अब तबीयत कैसी है।‘

‘ठीक है साहब मेरा पेट अब एकदम ठीक है।‘

‘देखा अगर आप लोग काम पर आ जाते तो पहले ही ठीक हो गए होते, और कहीं दो दिन और ना आते तो तुम्हें हस्पताल में गुलूकोज चढाना पडता। पेट के लिए तो मेरे पास रामबाण दवाई है,‘ मैने कहा।

‘और भई श्रीराम तुम्हारा बुखार कैसा है, आओ तुम्हारी नब्ज देखूं। हां नब्ज तो तुम्हारी तेज ही है , दवाई खाते रहो,‘ मैने कहा। और मन ही मन कहा काम करते रहो। शाम को व्यास मुनी कहने लगा ‘साहब हजार रूपया है, कोई गांव जा रहा है उसके हाथ भिजवा देंगे।‘

‘नहीं भई मेरी जेब में तो केवल सौ रूपए ही हैं।‘ मुझे आशंका होने लगी।

‘ठीक है सहब चलते हैं,‘ दोनों धीरे—धीरे चले गए।

शाम को ठेकेदार के फोन से पता चला दोनाें गांव वापिस चले गए।

अगले दिन दूसरे बन्दे काम पर तैनात हो गए।

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गुर जी

सौरभ

संकट महोदय एक सरकारी दफतर में वरिष्ठ सहायक थे। सुबह लगभग साढे़ दस बजे कार्यालय पहुंचे तो मूड खराब था। घर में श्रीमती जी से कहा सुनी हो गई थी। काम में मन नहीं था तो कनिष्ठ लिपिक के साथ गप्पें हांकने लगे। कहने लगे दुनियां में कोई अपना नहीं है। उपर जो अधीक्षक बैठा है वह राहु है, और जो साहब है, वह शनि है। इस तरह पूरे दफतर का पंचाग उन्होंने खोल दिया जिसमें कोई केतु था तो कोई शुक्र। इनका मानना था कि शनि को जितना खुश रखेंगे वह उतने ही उच्च भाव में होगा। उनकी उपमाएं खतम नहीं हुई थी कि अधीक्षक महोदय का बुलावा आया। वह बड़े अदब से उनके सम्मुख उपस्थित हुए, थोड़े झुके, हाथ जोड़े और शुरु हो गए ‘गुर जी आप महान हैं, मैं आपका गुलाम हूं, आप ही धरती हैं, और आसमान हैं।‘, अधीक्षक महोदय मूछों में निश्चिंत भाव से मुस्कुराए। हाल चाल पूछा। संकट महोदय ने फरमाया ‘गुर जी अगर कोई मुझे पूछेगा तो मैं आप के पीछे छिप जाऊंगा।'

ग्रह शांत हो गया था। सीढियां उतरते हुए संकट महोदय गुस्से में बड़बड़ाते हुए सेवादर से टकराते टकरातेे बचे। उसी शाम उनकी एक अधिकारी से अनबन हो गई। अगली ही सुबह उनकी सीट बदल दी गई बैठने का स्थान भी। वह महीना भर साहब को गाली देते रहे।

साहब की रिटायरमैंट आई जिसकी पार्टी में संकट जी आदतन थोड़ा लेट पहुंचे। पहुंचते वह शुरु हो गए, ‘हमारे साहब महान रहे हैं, दफतर की ये शान रहें हैं।‘ साहब प्रसन्न थे। संकट जी शांत थे। एक ओैर नीच स्थान का ग्रह टाल दिया गया था।

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ब्याह

सौरभ

बेटा जवान हुआ तो शादी की चिन्ता हुई। सरकारी नौकरी थी। कई लोगों ने आंखें गडाईं पर बेटा तैयार नहीं हुआ। होते—होते पैंतीस वर्ष गुजर गए। जिनके रिश्ते आए थे, वे सब मां बन गई। बेटा अभी भी तैयार नहीं हुआ। माता—पिता को चिंता हुई। रिशतेदार, जिन्होंने कभी फोन नहीं किया, उनके फोन अकसर बेटे को आने लगे। बेटे को पता नहीं किस बाबा का भूत चढ़ा था। वह टस से मस नहीं हुआ। अब तो हद यह हो गई कि जानकारों के फोन भी आने। लोग फोन पर ही रिश्ता देने लगे। बेटे को लगा कि शादी कर लेनी चाहिए । बेटे के दफतर में कार्यरत एक महोदय ने अपनी भांजी का रिश्ता दिया। मिलने का समय निश्चित हुआ। लड़का—लड़की ने इक दूजे को देखा, आंखों ही आंखों में प्यार हो गया। फिर जन्म कुंडली मिलाई गई। सब शुभ हो गया तो रिश्ता तय हो गया। समय का फेर था शादी को कुछ ही महीने शेष थे, बेटे की नौकरी पर खतरा मंडराने लगा। हालत यह हो गई कि अब गई कि तब गई। लड़की वालों ने बड़ी चालाकी से बेटे की जन्म कुंडली मंगवाई । शादी रद्‌द हो गई, लड़की वालों के पुरोहित ने इन्कार कर दिया था। जैसे—जैसे नौकरी की खबर फैली। रिश्तेदारों के भी फोन बंद हो गए। बेटा किसी बाबा का भक्त हो गया।

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कवि की संवेदना

सौरभ

हाल खचाखच भरा हुआ था। स्थानीय कवि अरविन्द को कविता बांचने हेतु बुलाया गया। मुसकाते—मुसकाते सिल्क का कुरता पहने कवि अरविन्द मंच पर आए, मुसकान के साथ सबका अभिवादन किया और कविता बांचने लगे। उनकी कविता ‘‘मां!'', मां बेटे के मधुर संबन्धों पर भावनात्मक कविता थी। सभी भावाविभोर हो गए। वहां बैठी कवियित्रियां तो रूआंसी हो आइर्ं। बेटे के लिए मां का क्या स्थान है, उनके सम्बन्धों का ऐसा जीवन्त चित्रण था कि सभा में कविता की हर पंक्ति पर वाह—वाह हुई। ‘एक बेटा ऐसा भी हो सकता है......!‘, मैने सोचा। कवि अरविन्द मेरे वरिष्ठ और ज्येष्ठ तो थे ही, आज पूजनीय हो गए।

कविता पाठ के बाद देर तक इसकी चर्चा होती रही। सभी को मां याद हो आई थी। खैर सम्मेलन समाप्त हुआ। मैं और कुछ साथी कवि सोच ही रहे थे कि क्या किया जाए। अचानक एक स्थानीय कवि ‘रूपेश' ने हम सब को अपने घर चलने का न्यौता दिया। सब उनके साथ हो लिए। रूपेश ठहरे साहित्य के पुजारी, तो उनके घर चाय के साथ समकालीन साहित्य पर चर्चा चली, साथ में फल, मेवे, हलवा आदि का दौर भी चल रहा था। सांझ ढ़ल रही थी, कवि शरद धीरे—धीरे उतावले हो रहे थे। हों भी क्यों ना, उनके जाम का समय हो चला था, अतः वह बार—बार एक ही बात दोहरा रहे थे कि इतना खाएंगे तो पेट में अजीर्ण हो जाएगा चलिए, अब चलते हैं।

सब लोग चलने लगे तो बाहर ही कवि अरविन्द टकरा गए। मैंने पूछा हुजूर कहां रह गए थे। वह मुसकुराते हुए कहने लगे कि मां को दवाई देने गया था, ‘ओह! तो वह सच ही बीमार है!ं‘ साथी कवि ने चिन्ता जताई। ‘हां, उन्हें कैंसर है, फाईनल स्टेज पर है, पी0जी0आई0 हॉसपिटल से उन्हें घर वापिस भेज दिया है।‘ उन्होंने ख़बर दी। ‘अरे यह तो बहुत बुरा हुआ।‘ मैंने कहा।

सारी बात का जैसे अरविन्द पर कोई असर न हुआ, वह लगभग मुसकुराते हुए कहने लगे, ‘जीवन है, चलता है।‘ मेरे भीतर जैसे कुछ उतर रहा था।

सब कवि लोग होटल पहुंचे जहां ठहरे हुए थे। कवि शरद के कमरे में मण्डली जमा हो गई। मैं होटल की लॉबी में था। तभी अरविन्द भी पहुंच गए और सीधे कवि शरद के कमरे में घुस गए। मैं चाय के साथ अखबार बांचने लगा। लगभग आधा घण्टा गुजरा, कवि शरद के कमरे से आवाजें बाहर आने लगीं। जाहिर है सुरा अपना रंग दिखाने लगी थी। उन ठहाकों में तथा वहां से बाहर सुनाई देते प्रसंगों में एक आवाज बार—बार मेरे दिल से टकरा रही थी। वह थी कवि अरविन्द की आवाज जो मदहोशी में जाने क्या क्या कह रहे थे। उनके ठहाकों ने मेरे मन को विचार शून्य कर दिया। यह वही कवि अरविन्द थे जिनकी कविता ‘मां‘ सम्मेलन में छाई हुई थी और जिनकी ‘मां‘ मृत्यु शैय्‌या पर थी, शायद बेटे और दवाई के इंतजार में।

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जिन्न की वापसी

सौरभ

अधीक्षक की सोच थी कि अधीक्षक हो स्टिक (यानी स्ट्रिक्ट) और बाबू हो क्विक......... दफ्‌्‌तर ताइयों चलदा।

लोहा और बाबू अगर बेकार पड़े रहें तो उन्हें जंग लग जाता है। लोहा गरम होने पर ही काम आता है वैसे ही बाबू भी काम करते करते गरम रहना चाहिए। वैसे भी बेकार दिमाग़ शैतान का घर। इसलिए अधीक्षक दफतर के बाबूओं को किसी न किसी काम में लगाए रखता। कुछ नहीं तो टाईप ही करवाता। दिन मेें एकाध लेटर ही टाईप के लिए होता। जब बाबू टाइप करके लाते तो चोरी से उसे फाड़ देता। नए नए भर्ती हुए बाबू एकदम ऊर्जावान्‌्‌ होते हैं। वे जिन्न की तरह काम करते हैं। जैसे च़िराग से निकले एक जिन्न ने शर्त रखी थी कि मुझे हमेशा काम में लगाए रखना नहीं तो वापिस चिराग में चला जाऊंगा। मालिक ने मैदान में एक खम्बा गाड़ जिन्न को उससे उतरने और चढ़ने का काम दे दिया।

अधीक्षक बनने तक तो आदमी वैसे ही फैल कर घोंघे सा सुस्त और चिपकू हो जाता है। दो नथूनें निकाल फायलों पर ऐसे रेंगता है जैसे चिकनी धरती पर पसर रहा हो। सरकार के संसर्ग में आने से फुर्तीला नौजवान भी प्रोमोशन के साथ धीरे धीेरे सुस्त और निकम्मा हो कर घोंघा बन जाता है।

अधीक्षक का मानना था अगर कहीं फंस गए तो बात ‘क्लेरिकल एरर' पर ड़ाल दो। क्लेरिकल एरर बहुत बड़ी चीज़ है। इससे बड़े बड़े अपराधी बच जाते हैं। जब वह बाबूओं छुटि्‌टयां काटता तो रजिस्टर में इस एरर के सहारे काम करता। होता यह कि छुटि्‌्‌्‌टयां बची हैं पांच तो काटी दो और शेष भी दो। यानि दो जमा दो पांच। जब अपनी बारी आती तो एरर कुछ इस तरह का होता कि छुटि्‌टयां बची हैं पांच तो काटी दो और शेष बची तीन। पकड़े गए तो क्लेरिकल एरर, गाड़ी चलती रही तो चलती भी रही। सरकार में हिसाब किताब निराला है और अपने ही ढंग से होता है।

ऑफिस टाइम के बाद बाबुओं से अधीक्षक की दोस्ती हो जाती। वह उनके साथ घूमता खाता—पीता, कभी कभार पैसे भी चुका देता। यानी आम के आम और गुठलियों के दाम। बेचारे बाबू मरते क्या न करते दिन भर अधीक्षक से उत्पीड़ित होते रहते शाम को उसके साथ हंसी मजाक करते।

आज रविवार था तो ‘क्विक बाबू' जिसे घर पर ‘स्लो पति' कहा जाता था, घर पर ही था। सुबह से पत्नी ने सब्जी का राग मल्हार छेड़ दिया था। आज लोकल मण्डी भी लगती थी तो स्लो पति ने सोचा थोड़ी सब्जी ही ले आए। थैला उठाया और चल दिया। बाजार पहुंचा तो सोचा थोड़ा घूम ले। सड़क के किनारे भीड़ लगी हुई थी। एक आदमी पुरानी चीज़ें जैसे पुराने टेलिफोन, दूरबीन, शंख आदि सजा कर बेचने की कोशिश में था। स्लो पति भी भीड़ में खड़ा हो गया।

सहसा उसकी नज़र एक पुराने चिराग़ पर पड़ी। नज़रें बचा कर उसने चिराग़ की तरफ हाथ बढाया। चिराग़ उठा कर हथेली पर घिसा। कुछ नहीं हुआ। तभी दुकानदार की नज़र स्लो पति पर पड़ी। वह सकपका गया। दुकानदार ने कहा....जिन्न का चिराग़ है बाबू जी, ले जाईए। केवल एक हज़ार का है।

‘बाबू' सम्बोधन से वह एकदम स्लो पति से क्विक बाबू बना गया। क्विक बाबू ने मजाकिया लहजे में कहा ‘भई जिन्न—विन्न भी है चिराग़ में कि ख़ाली ही है‘।

दुकानदार झल्ला गया...असली जिन्न का चिराग़ है भईया, लेना है तो बात करो। वैसे जिन्न अलग से भी मिल जाएगा....उसने आंख मारी। क्विक बाबू को वहां से खिसकने में ही भलाई नज़र आई। वह थोड़ा आगे बढ़ा तो पुरानी किताबों की दुकान नज़र आई। बाबू पुरानी किताबें खंगालने लगा। तभी उसकी नज़र एक फटी पुरानी किताब पर पड़ी जिसमें लिखा था— पुराने तंत्र मंत्र की काली गोपनीय किताब। क्विक बाबू ने वह किताब उठा ली और उसे पलटने लगा। किताब को उलटा पकड़ कर दुकानदार से सरसरी तौर पर पूछा भाई क्या रेट है। दुकानदार दूसरे ग्राहक के साथ व्यस्त था। उसने कहा सभी सौ सौ की रुपये की है, कोई भी उठा लो। बाबू ने तुरंत सौ का नोट निकाल कर दुकानदार को पकड़ा दिया।

पुनः स्लो पति बनने हुए सब्जी लेकर बस के लिए खड़ा हुआ तो बहुत भीड़ थी। एक बस छोड़ी दूसरी छोड़ी फिर तीसरी भी छोड़ दी तब जाकर कुछ भीड़ छंटी तो बस पकड़ कर घर पहुंचा। घर पहुंचकर पहला काम यह किया कि नज़रें बचाकर उस किताब को एक पुराने ट्रंक में छिपा दिया।

रोज़ की तरह अगले दिन क्विक बाबू या स्लो पति दफ़तर के लिए लेट हो गया। आज फिर अधीक्षक झंड़ाई करेगा। सोच सोच कर बाबू परेशानी की हालत में दफ़तर पहुंचा। किस्मत अच्छी थी स्टिक अधीक्षक किसी कार्य से सचिवालय गया था। बाबू ने पसीना पोंछा और चाय पीने बैठ गया। गपशप जो शुरु हुई तो दो घण्टे कैसे बीत गए पता ही न चला। इतने में अधीक्षक भी आ धमका। सीट पर बैठते ही अधीक्षक ने घंटी बजाई सेवादार हाजिर हुआ, कुछ सोच कर अधीक्षक बोला ‘कुछ नहीं'। दिन भर में अधीक्षक लगभग तीस बार घंटी बजाता उसमें से पन्द्रह बार यही कहता ‘कुछ नहीं'। बार बार घण्टी पर हाथ रख उसे दबा देना, अधीक्षक कीे आदत थी या अदा, यह सेवादार सालों में भी समझ नहीं पाए। घण्टी पर हाथ न हो तो फोन न करने पर भी फोन पर हाथ रखे रहता। हाथ हटाता ही नहीं। कोई दूसरा फोन नहीं कर पता। अधीक्षक हाथ हटाए तभी दूसरा फोन को हाथ लगा पाए।

अधीक्षक एक सरकारी पत्र टाईप को देता और दिन भर उस एक पत्र को सुधारता रहता। इस चक्कर में वह एक पत्र दसियों बार टाईप होता। फाईनल फिर भी नहीं होता। सनकी है साला.... सब कहते।

अधीक्षक टिप टॉप होकर दफ़तर आता। छुट्‌टी वाले दिन भी अगर वह किसी को बाज़ार में नज़र आता तो टाई सहित। किसी ने भी उसे कैजुअल कपड़ों में नहीं देखा। हमेशाा फॉरमल ड्रेस में रहता था। यह अधीक्षक ही था जो बंद गले की बास्कट के साथ भी टाई लगता था चाहे सर्दी में बास्केट का बटन बंद करना पड़े। वैसे टाई दिखाने के लिए वह बास्केट के गले का बटन बंद नहीं करता था। चूंकि वह दफ़तर में बतौर अधीक्षक ही भर्ती हुआ था, इसलिए गाहे बगाहे कहता ‘मैं तो अफसर ही भर्ती हुआ था, तुम प्रोमोटी लोगों की तरह नहीं। वरीयता सूची के मुताबिक मैं प्रथम क्रम पर हूं। तुम्हें तो सालों लग जाएंगे एड़ियां घिसते घिसते।' उसने अपनी नेम प्लेट में भी लिख रखा था : ‘‘अधीक्षक ग्रेड वन''।

क्विक बाबू अधीक्षक का सताया हुआ प्राणी था। दिन भर कोल्हू के बैल की तरह लगा रहता पर मजाल अधीक्षक दो मीठे बोल बोल दे। उलटा उसे डांटता फटकारता। क्विक बाबू डिपरेस होने लगा था। दिन रात यह सोचता की जीवन तो नरक हो गया है। अधीक्षक अभी जवान है, रिटायर होने को भी लगभग बीस साल हैं। तब तक प्रोमोशन न होगी और रगड़ाई अलग से।

कबीर जयंती की छुट्‌टी थी मगर क्विक बाबू को अधीक्षक ने कार्यालय बुलाया हुआ था। काम तो कुछ खास नहीं था पर क्विक बाबू ड्‌यूटी पर था। आज भी वह स्लो पति से क्विक बाबू बन गया। अधीक्षक चूंकि दफतर के पास ही रहता था, अक्सर छुट्‌टी वाले दिन कार्यालय आता था। साथ में एक सेवादार और बाबू को भी फरमान होता। यह महीने में दो—तीन बार तो होता ही। बाबू बेचारा मन मार कर दफतर आता। बस में दफतर पहुंचने में लगभग एक घण्टा लगता तो बाबू को साढे आठ बजे ही घर से चलना पड़ता।

आज बाबू ने एक काम किया था। वह जन्तर मन्तर वाली किताब साथ लाया था। अधीक्षक अभी पहुंचा नहीं था। बाबू ने पहले तो अखबार फाड़कर किताब को जिल्द लगाई फिर उसे पढ़ने लगा। उसमें कई तरह के मारण, मोहन, उच्चाटन आदि मंत्र, तंत्र तथा यंत्रों का बखान था। बाबू अनायास ही मारण मंत्र के बारे पढ़ने लगा। उतने में अधीक्षक आ धमका। आते ही बाबू को काम समझाया और यह कहकर चलता बना कि शाम पांच बजे काम चैक करने आएगा। बाबू को भीतर ही भीतर बहुत गुस्सा आया। खुद तो चला गया, मुझे फंसा गया, यह काम तो कल भी हो सकता था। मेरी छुट्‌टी बरबाद कर दी। बाबू फटाफट काम निपटाने में लग गया।

काम से फारिग हुआ कि किताब की याद आई। उसमें मारण मंत्र तथा यंत्र के बारे में विस्तृत रूप से दिया गया था। बाबू के मन के शैतानी कीड़े जागने लगे थे। बाबू ने मारण मंत्र अधीक्षक पर आजमाने की ठान ली।

जैसा जैसा किताब में लिखा था बाबू ने ठीक वैसा की मंत्र अधीक्षक पर छोड़ दिया। एक सौ एक बार मन्त्र का उच्चारण भी सही ढंग से कर लिया। और तो और ‘ए—फॉर' शीट पर एक सौ एक बार टाईप भी कर डाला।

देखते देखते दो महीने बीत गए। अधीक्षक तंदरूस्त था। बाबू ने सोचा सौ रुपए का नुकसान हो गया। आख़्िार एक दिन ख़बर आई अधीक्षक बहुत बीमार है। अस्पताल में भर्ती है। क्विक बाबू की उम्मीद जगी। अधीक्षक को देखने बाबू अस्पताल गया। सोचा, देखूं माजरा क्या है। वहां पहुंचकर पता चला कि अधीक्षक को लाईलाज बीमारी हो गई है। अब उसका बचना नामुमकिन है। बाबू ने सोचा उसके हाथ अनमोल खजाना किताब के रूप में मिल गया है। वह मन की मन प्रफुल्लित था। थोड़े ही दिनों में अधीक्षक चल बसा कुछ दिन बाद सभी बाबूओं की प्रोमोशन हुई तो उसकी भी हो गई। बाबू अब खुश था।

कुछ समय चैन से बीता कि एक हिला हुआ अफसर दफतर में नियुक्त हो गया। सब स्टॉफ वालों ने एक मत से उसका नाम ‘हिल्लेया माह्‌्‌णू' रख दिया। हिल्लेया माहणू इसलिए क्योंकि इस नए अफसर के हाथ, कान, गाल यानि जो शरीर का अंग दिखाई देता था वह हिलता रहता था और वह भी जो नहीं दिखता था। उसका सिर भी पैण्डुलम की तरह हिलता रहता। आते ही उसने पूरे दफतर को नचाना शुरु कर दिया। पता नहीं वह तम्बाकू में क्या खाता था कि खाते ही हिल जाता। वह न सुबह के दस बजे देखता, न शाम के पांच, न लंच बे्रक को देखता और न ही कोई छुट्‌टी......हर दस मिनट बाद हथेली में सफेद चूना ले कर देर तक मलता और दाढ़ के नीचे छिपा देता। बस्स, कुछ देर बाद हिलना शुरू कर देता जैसे देवता के भीतर प्रवेश पर देवता के गूर हिलते हैं।

क्विक बाबू तो अब निश्चिंत था। उसने अपनी किताब खोली और छोड़ दिया मंत्र। एक सौ एक बार टाईप करके सफेद कागज़ उसके सिर के ऊपर से भी गिरा दिया। महीना बीता, दो बीते, छः महीने बीते। देखते देखते पूरा एक साल बीत गया, हिल्लेया माह्‌्‌णू हिलता रहा पर कभी गिरा नहीं। शायद इस पर किसी तांत्रिक की कृपा है, बाबू सोचता।

इस दौरान बाबू ने किताब के सभी टोटके आजमा लिए पर हिलते हुए माह्‌्‌णू पर रत्ती भर भी असर न पड़ा। सरसों के दाने पोटली में बान्ध उसके दराज़ में डाले, लाल सिन्दूर की पुड़िया उसके डोर मेट के नीचे रखी।

क्विक बाबू का किताब से मोह भंग हो गया। एक दिन गुस्से में उसने वह किताब जंगल में जा कर आग के हवाले कर दी। जब किताब आधी जल चुकी थी तो बाबू को अन्दर ही अन्दर पछतावा भी हुआ पर मन मसोस कर उसने किताब को जल जाने दिया।

क्विक बाबू को न दिन में चैन मिलता न रात में आराम। इसी दौरान कई लोग रिटायर होकर चले गए। बाबू को अपनेे पुराने लोग जो रिटायर हो गए थे याद आते। समय गुज़रा तो हिल्लेया माहणू भी रिटायर हो गया। अब एक नया साहब आ गया जो लक्कड़ की तरह अकड़ा हुआ रहता। उसकी गर्दन टेढ़ी होते हुए भी पेड़ के मोटे तने की तरह खड़ी रहती।

एक दिन क्विक बाबू ने कार्यालय के नियम आदि पढ़ रहा था तो अचानक उसका माथा ठनका। नियमों की एक पुरानी फायल जिन्न के च़िराग की तरह हाथ लगी। चूंकि यह कार्यालय एक ऑटोनोमस बॉडी था इसलिए इसके नियम सरकार से कुछ भिन्न थे। उसने फायल की धूल झाड़ उसे चिराग़ की तरह फटका तो नियमों में रिटायरमेंट की उम्र साठ वर्ष लिखी निकली मगर पिछले कर्मचारी और अधिकारी तो अट्‌ठावन वर्ष में ही रिटायर कर दिए गए थे। बाबू ने अपने सीनियर से बात की तो सीनियर ने बमुश्किल रिकार्ड रूम से नियमों की मूल प्रति ढूंढ निकाली। उसमें भी रिटायरमेंट की उम्र साठ वर्ष ही थी। फाईल से निकला जिन्न उनके हाथ आ गया। बहुत बडा सकैण्डल हो गया था। अब तो मारे जाएंगे। क्विक बाबू ने सोचा बचाव का कुछ उपाय तो करना ही होगा। उसने सीनियर से पूछ कर सरकार को एक नोट भेजा जिसमें लिखा कि सभी कार्यालयों में रिटायरमेंट की उम्र अट्‌ठावन वर्ष है अतः हमारे कार्यालय की रिटायरमेंट उम्र भी अट्‌ठावन किया जाना प्रस्तावित। अकड़ा हुआ साहब भी मन नही मन खुश हुआ कि दुनियां के पहले मूर्ख हैं जो रिटायरमेंट की उम्र बढाने के बजाए घटाना चाहते हैं। उसने भी फायल सरकार को भेज दी जिसे सरकार ने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। इतने कर्मचारियों का दो साल का वेतन भार बचेगा।

अब बाबू को थोड़ी राहत मिली। क्या पता ‘हिल्लेया माह्‌णू' दोबारा कुर्सी पर आ बैठता।

इतने में तीन रिटायरमेंट और थीं तो नोट के हवाले से उन्हें भी अट्‌ठावन वर्ष में चलता कर दिया गया। समय बीता तो बाबू के सीनियर की रिटायरमेंट आ गई। रिटायरमेंट करीब आने पर अब बचे हुए कर्मचारी घबराने लगे।

सीनियर से दो माह पूर्व एक चौकीदार की रिटायरमेंट थी। सीनियर ने बाबू को बुलाया और कहा कि एक आईडिया है ये जो चौकीदार रिटायर हो रहा है इससे कोर्ट में केस करवा देते हैं कि रिटायरमेंट की उम्र साठ वर्ष है और जो सरकार ने अट्‌्‌ठावन वर्ष सभी नियमों को ताक पर रख कर कर दी है। बड़ी मुश्किल से रिटायर होने वाले चौकीदार के लिए मुफ्‌त में वकील किया गया।

वकील को कविता लिखने का बीमारी थी। उसे कभी कभार कविता पाठ के लिए बुला लिया जाता। जब भी कार्यालय हिन्दी दिवस मनाता, वकील को भी कविता पाठ के लिए आमन्त्रण जाता। पत्रिका में कभी कभार उसकी ज़िरह की तरह लिखी कविता चेप दी जाती। अतः वह कार्यालय के सभी केस लगभग मुफ्त में डील करता था।

एक शुभ दिन रिटायर हुए कर्मचारी द्वारा कार्यालय को कोर्ट से नोटिस भिजवाया गया कि उसे गलत रूप से अट्‌्‌ठावन वर्ष में रिटायर कर दिया गया जबकि असल में रिटायरमेंट की उम्र साठ वर्ष है। क्विक बाबू ने वकील से मिल जवाब तैयार किया गया।

कोर्ट में केस हो गया। दो तीन पेशियों के बाद जज साहब ने कहा कि सरकार ने रिटायमेंट की उम्र सभी नियमों को ताक पर रख कर घटाई गई है और नियमों के सर्वथा विपरीत है। अतः कार्यालय की रिटायरमैंट की उम्र साठ वर्ष रिस्टोर की जाती है।

क्विक बाबू और सीनियर बहुत खुश थे, चलो सांप भी मर गया और लाठी भी न टूटी। बाबू और सीनियर निश्चिंत थे और बतिया रहे थे कि दफतर के काम तो चलते ही रहेंगे। चलो चाय का एक—एक कप हो जाए।

क्विक बाबू अब ‘स्लो बाबू' और ‘क्विक पति' भी बन गया।

बिना अफसर के दफतर नहीं चलता जैसे बिना बैल के गाड़ी। सरकार ने मरणासन्न हुए इस ‘आपदा संस्थान' में सचिवालय के एक अफसर को अतिरिक्त चार्ज दे कर नियुक्त कर दिया। यह अफसर कुछ ज्यादा ही मस्तमौला था। ज्वाइंन करके तुरंत उठ गया और गया तो कई दिन लौटा ही नहीं। कर्मचारी रोज कुर्सी को प्रणाम कर लौट जाते। कभी कभी वह नज़र भी आता तो उसके आने के ख़बर के बजाए फुसफुसाहट होती......वह गया! वह गया!! वह गया!!!

अतिरिक्त यानि ‘फालतू' चार्ज में यह सुविधा रहती है कि इधर का स्टाफ सोचता है, साहब उधर है और उधर का इस भ्रम में रहता है कि साहब इधर हैं। ऐसे में साहब की व्यस्तता ज्यादा ही बढ़ जाती है। ऐसे एडिस्शनल जार्च योग्य अधिकारियों को ही दिया जाता है।

अफसर का नाम था : ‘‘अनघड़िया देव''......एक सुंदर सुघड़ पीतल की चमकदार नेम प्लेट आने से पहले ही दरवाजे के बाहर लटका दी। ऊपर अंग्रेजी में लिखा : ‘ए0 देव' और नीचे हिन्दी में ‘अनघड़िया देव'। अब बड़े साहब का सेवादार कबीर की तरह गुनगुनाने लग गया :

‘‘अनघड़िया देवा : कौन करे तेरी सेवा!''

आपदा प्रबन्धन संस्थान में वैसे भी कोई काम न था। किस आपदा का प्रबन्धन किया जाना है, यह किसी को ज्ञात न था। आपदा तो सरकार पर आई रहती हर तीसरे दिन। कोई न कोई घोटाला उजागर होता और विपक्ष सड़क पर आ जाता। या सरकार के भीतर से ही कोई भीतरघात कर देता। सरकार का सारा समय इसी प्रबन्धन में लग जाता। इस निगोड़े, कर्मजले संस्थान की ओर नज़रेकरम करे! यह तो मेरे मौला के ही आसरे था।

एक दिन साहब का सेवादार भीतर बात कर रहा था। कर्मचारियों ने सोचा, साहब आ गए हैं। स्लो बाबू ने भीतर झांका तो कोई न दिखा मगर सेवादार बतिया रहा था। स्लो बाबू दबे पांव लौट आया कि हो न हो साहब भीतर ही हो। फिर एक एक कर सभी दरवाजे से कान लगाए खड़े हो गए। अंदर खुसर फुसर हो रही थी।

अचानक फटाक्‌ से दरवाज़ा खुला और सेवादार पानी का ख़ाली जग लिए व्यस्त सा बाहर निकला। सभी डर के मारे एकदम पीछे हट गए।

.....तुम लोग दरवाजे के पास क्या सुन रहे थे। तुम्हारी गंदी आदतें नहीं गईं। साहब गुस्सा हो रहे थे.....चलो, हटो....सब अपनी अपन सीट पर जा कर काम करो....निख़ट्‌टू कहीं के।.....सेवादार ने ऐसी डांट लगाई कि सब खिसियाने हो कर बिल्ली की तरह दबे पांव धीरे धीरे खिसक गए। बड़े अफसर के चपरासी का बड़ा रौब होता है।

सेवादार के जाने के बाद सिनीयर ने हिम्मत कर भीतर झांका। भीतर कोई न दिखा तो वह दबे पांव बाहर आ गया। इतने में सेवादार पानी का जग लिए वापिस आ गया।

......कहां हैं बे साहब!...वह फुसफुसाया।

.......अरे साहब तो मिट्‌टी का भी बुरा होता है। साहब नहीं है तो क्या हुआ, साहब की कुर्सी तो है....सेवादार ने डांट लगाई तो सीनियर उल्टे पांव लौट गया और कुर्सी पर बैठ पसीना पोंछने लगा।

सुबह दस बजे से पहले सेवादार साहब की मेज़ गंदे बदबूदार पोचे से पोंछता जिसकी बास बड़ी देर मेज़ के आसपास फैली रहती। फिर लंगड़ाता हुआ पानी का ख़ाली जग ले कर बाथरूम में घुस जाता। साहब के पीने का पानी वह वाश बेसिन के नलके से भरता था।

यह सेवादार सब से सीनियर था। उस की क्या उम्र होगी, कोई नहीं जानता। उसे अकेले में बोलने की आदत हो गई थी। बैठे बैठे, चलते हुए बुदबुदाता रहता।

दिन में जब सीनियर या जूनियर बाबू डरते डरते भीतर जाते तो कुर्सी पर कोई नहीं दिखता। हां, मेज़ पर फायलें कभी बिखरी होतीं तो कभी सलीके से रखी हुई। पूरा सामान रोज़ इधर से उधर होता रहता.....कोई आता तो जरूर है, वे सोचते।

कभी दिन में फोन की घण्टी बजती तो लगता कोई फोन सुन रहा है, कोई बातें कर रहा है।

क्विक से स्लो बाबू बना शख्स पछता रहा था कि उसने वह चिराग़ क्यों नहीं ख़रीद लिया। तन्त्र मन्त्र की किताब जल्दबाजी में जला कर भी एक बड़ी गलती कर दी।

सौरभ

परिचय

सौरभ

जन्म : 12 अप्रैल 1976, शिमला में।

शिक्षा : होटेल मैनेजमेंट में बी0एस0सी0

एक काव्य संकलन ‘‘कभी तो खुलेगा‘‘ प्रकाशित।

कविताएं तथा लघु कथाएं : वागर्थ, साक्षात्कार , मधुमति, अक्षरा, वर्तमान साहित्य , विपाशा , हरिगंधा, देशकाल सम्पदा, गिरिराज , हिमप्रस्थ , दैनिक ट्रिब्यून, दैनिक जागरण, दिव्य हिमाचल आदि में प्रकाशित।

‘‘शब्द मंच‘‘ बिलासपुर से कविताएं पुरस्कृत।

संस्कृति विभाग भारत सरकार के लिए ‘‘लाहौल स्पिति : एक सांस्कृतिक अध्ययन'' पर परियोजना पूरी की गई।

सम्प्रति : हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी में कार्यरत

फोन : 9418040859.