होली मंगलमय हो Jaynandan द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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होली मंगलमय हो



होली मंगलमय हो

अवस्थी


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होली मंगलमय हो

मादकता जब कण—कण में समाने लगे, ऊँच—नीच, छोटे—बड़े के सारे भेद मिटाकर सबको एक धरातल पर ला पटके, फिर सबके सिर पर सवार हो जाए, तो उसी को होली कहते हैं। और वह होली की एक ऐसी ही पूर्वसंध्या थी। मन कुलबुलाने लगा तो मैं निकल गया यार—दोस्तों की तरफ। पर ज्यादातर किसी न किसी नशे में मस्त थे। एक दोस्त ने मेरा मुँह सूँघा फिर बड़ी मायूसी से बोला — तुम्हारा तो जीवन ही व्यर्थ है!

मैंने आश्चर्य से पूछा — पर क्यों?

वह बोला — ष्जिसने जिंदगी में कोई नशा न किया, वह आदमी नहीं, मुर्दा है, और जिसने कभी शराब न पी, वह तो आदमी ही नहीं!

मैं बिना किसी हुज्जत के तपाक से उसकी बातों से सहमत हो गया क्यों कि एक तो संसद होली की थी, दूसरे वह प्रचंड बहुमत में था क्यों कि बिना नशा—पानी का तो कोई दिखता ही न था।

अंधेरा होने लगा तो मैं घर को लौट पड़ा। रास्ते में उस संसद के तमाम सदस्य दिखे। कोई झूम रहा था, कोई लड़खड़ा रहा था, कोई हँस रहा था तो कोई रो रहा था। कहीं—कहीं तो वे सदस्य सड़कों पर वीर और रौद्र रस का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन करने पर आमादा थे। वीभत्स होती अश्लीलता को वे मजाक का दर्जा दे रहे थे और लज्जा को आँखों से निकालकर मुट्ठी में मसल रहे थे।

लगभग अंधेरा हो चुका था। एक जगह मेन रोड से पतली—सी गली मुड़ती थी। मैंने चलते—चलते देखा, वहीं एक रिक्शा खड़ा था जिस पर बैठा एक आदमी नशे में धुत था जो रिक्शे वाले से झक लड़ा रहा था। मैंने सोचा, आखिर माजरा क्या है, तो नजदीक के एक पेड़ की आड़ लेकर उसकी बातें सुनने लगा।

नशे में झूमता वह आदमी अपनी मुट्ठी में कुछ लिए रिक्शे वाले को देने पर आमादा था। रिक्शा वाला लेने से डर रहा था। नशेड़ी बोला —रुपए तो तुझे लेने ही पड़ेंगे, साले! नहीं लेगा तो पटक—पटककर तेरी सारी हड्डियाँ तोड़ ड़ालूँगा!

उसकी बात सुनकर मुझे हँसी आ गई कि वह सींकिया पहलवान उस हट्टे—कट्टे रिक्शे वाले की हड्डियाँ तोड़ने को कहता है।

रिक्शे वाले ने उसे सहारा देकर किसी तरह रिक्शे से नीचे उतारा, उसके बढ़े हाथों से कुछ लेकर अपनी जेब में डाला, फिर चोर निगाहों से इधर—उधर ताकता हुआ पैडिल पर पाँव रखकर तेजी से भागने लगा।

पर मैं तो उसी की ताक में था। जैसे ही वह मेरे सामने से गुजरा, उछलकर मैं उसके रिक्शे पर जा बैठा और कड़ककर बोला — श्रिक्शा रोको!

उसने रिक्शा रोक दिया था। सहमा—सा बोला — बात क्या है?

रुपए निकालो! मैंने कड़ककर कहा तो वह बोला — कैसे रुपए?

मैंने उसका कालर पकड़ा और उसे धमकाते हुए कहा — वही रुपए, जो तुमने उसे शराबी से ऐंठे हैं। वह मेरा भाई है। निकालते हो कि उतारूँ !

मेरा वाक्य पूरा भी न हो पाया कि उसने जेब में हाथ डालकर मुट्ठी भर रुपए निकालकर मेरे हवाले कर दिए।

मैंने विजयी मुद्रा में गरजते हुए कहा — श्आज तो छोड़े देता हूँ, आइंदा से कभी ऐसा करते देखा, तो...

वह जा चुका था।

मैं भागा—भागा उसी गली के मुहाने तक आया, गली में निगाह दौड़ाई तो देखा, वह शराबी अभी दस कदम भी आगे न बढ़ पाया था। वह झूमता हुआ कभी गली के एक किनारे आ जाता तो कभी पेंडुलम जैसा लड़खड़ाता दूसरे किनारे पर पहुँच जाता। लगा, अब गिरा, तब गिरा। पर अभी तक वह गिरा न था। उसकी रकम मेरे पास थी, इसलिए उसका मकान देखना मेरे लिए बहुत जरूरी हो गया था। अब वक्त की कोई परवाह न थी और मैं उसके पीछे लग गया था। अचानक वह लड़खड़ाकर गिर गया।

मैंने सोचा, अभी उठ जाएगा, पर कुछ देर तक जब कोई हरकत न हुई तो मैं उसके नजदीक जा पहुँचा और बोला — श्उठो भाई, यहाँ क्यों पड़े हो?

उसने लड़खड़ाती आवाज में कहा — कौन है बे?

मैंने कहा — तुम पहचाने नहीं! तुम्हारा दोस्त हूँ!

तो एक पाउच ले आओ, तुम्हें दारू पिलाऊँगा। इतना कहते—कहते वह उठने को हुआ, पर उठते—उठते फिर गिर गया।

मैंने उसे गिरते देखा तो सहारा देकर किसी तरह खड़ा किया और टिकाते हुए आगे बढ़ने लगा। मैंने पूछा — श्तुम्हारा मकान कहाँ है?

वह बोला — मकान?

मैंने कहा — तुम्हारा मकान!

तो उसने कहा — मेरा कोई मकान नहीं, मैं तुम्हारे घर चलूँगा।

मैंने कहा — पहले अपने घर चलो।

वह जाने क्या बड़बड़ाया! तब तक उधर से एक लड़का गुजरा। बोला — वाह, शर्मा जी! खूब लगी है।

मैंने उसे रोका और पूछा — बेटा, ये रहते कहाँ है?

वह आठ—दस मकान के बाद के एक पीले दरवाजे की ओर इशारा करके चला गया।

मैं किसी तरह उन शर्मा जी को उस दरवाजे तक ले आया और आगे बढ़कर कुंडी खटका दी।

दरवाजे के पीछे से जनानी आवाज आई — आप कौन है?

मैंने कहा — शर्मा जी होश में नहीं हैं, आप दरवाजा खोलिए।

इतने में ही धड़ाम से दरवाजा खुला और वह महिला बाहर आ गई। इसी बीच शर्मा जी गली के किनारे नाली पर जा लुढ़के थे। वह लंबे कदमों से शर्मा जी तक जा पहुँचीं। झुंझलाती हुई बोलीं — इतना मना किया था, बच्चे की कसम तक दिला दी थी, फिर भी पी आए! भाई साहब, जरा सहारा देकर इन्हें कमरे तक पहुँचा दीजिए।

मैं उन्हें कमरे में ले आया। एक तख्त पड़ा था, उसी पर लिटा दिया।

मिसेज शर्मा दुख में डूबती हुई बोलीं — भाई साहब, ये आज सुबह दस बजे के निकले हैं। पूरी लिस्ट थी। होली का सारा सामान था। मैं पूरे दिन इनकी राह तकती रही। कल तनख्वाह मिली थी, पूरी की पूरी साथ लेते गए थे। मैंने अलमारी देखी, तो वह खाली थी। अब आए भी तो खाली हाथ!श्

इतना कहते—कहते उन्होंने शर्मा जी की सारी जेबें टटोल डालीं। न रुपए थे, न लिस्ट! वह फूट—फूटकर रोने लगीं।

दो बच्चे थे, सात—आठ वर्ष के — एक लड़का और उससे तनिक छोटी लड़की। वे दोनों भी माँ से लिपटकर रोने लगे। मैंने उनका विलाप सुना तो लगा, होली मोहर्रम में बदल गई हैं। मैं ठगा—सा सारा तमाशा देखता रह गया।

मिसेज शर्मा बोलीं — भाई साहब, आप खड़े क्यों हैं, बैठिए न! ये कहाँ मिले आपको?

मैंने कहा — गली के नुक्कड़ पर! लड़खड़ाते आ रहे थे कि गिर गए। मैं देखा तो सोचा, घर तक छोड़ दूँ।

वह भर्राए गले से बोलीं — ये गिरे तो इन्हें चोट तो नहीं आई थी?

उनके इस सवाल का भला मैं क्या जवाब दे पाता! फिर भी उनकी मनोदशा भाँपते हुए मैंने इतना ही कहा — चोट तो नहीं आई थी, मैंने सँभाल लिया था।

उनकी आँखों से टप—टप आँसू गिरने लगे। पल्लू से आँखें पोंछती हुई बोलीं — आपने मुझ पर और इन बच्चों पर बड़ा अहसान किया भाई साहब, वरना ये बहकते हुए जाने किधर चले गए होते और मैं बच्चों के लिए इनकी तलाश में गली—गली सारी रात भटकती फिरती! पहले भी ये मुझे कई बार ऐसे ही तड़पाते रहे हैं। आप तो इनके दोस्त होंगे, पर आपने तो बिल्कुल नहीं पी!

मैंने कहा — मैं शराब नहीं पीता! वैसे मेरी इनकी कोई पहचान भी नहीं।

वह बोलीं — आप कितने भाग्यशाली हैं — और आपकी पत्नी और बच्चे तो आपसे भी ज्यादा, जो आप शराब नहीं पीते!

इसी बीच बच्चे अपनी माँ से चिपककर मचलने लगे — मम्मी मेरी, पिचकारी, रंग, मेरे कपड़े! कल होली है। दूकाने बंद रहेंगी। कल हम लोग क्या खेलेंगे, क्या पहनेंगे?

माँ उनकी अनसुनी कर रही थी पर बच्चे बढ़ते जा रहे थे। जब वे ज्यादा पीछे पड़ गए तो वह उन्हें समझाती हुई बोलीं — सब आ जाएगा, अपने पापा को जगने दो। ये भी तो हो सकता है कि सारा सामान खरीदकर कहीं रख आए हों। फिर मैं कहीं मर गई हूँ! क्यों रोते हो? इतना कहते—कहते उन्होंने अपना मुँह आँचल से ढक लिया और फफक पड़ीं।

उन माँ—बेटों को रोता देख, जाने क्यों रोना मुझे भी आ गया था। पहले मन में आया कि रिक्शे वाले से छीने रुपए उन्हें वापस करके सारी राम—कहानी उन्हें बता दूँ, फिर अपना रास्ता पकडूँ पर दूसरे मन ने कहा, आज का नशा कल उतर जाएगा। रुपए दे भी दोगे, पर होली तो कल ही है। शर्मा जी मानने वाले नहीं। शराब से दोस्ती और रूपयों से दुश्मनी अदा करके ही मानेंगे और झेलेंगे ये मासूम बच्चे और उनकी वफादार पत्नी!

मैं कुछ सोच में पड़ गया, फिर बोला — भाभी जी, मैं आपकी इतनी मदद कर सकता हूँ कि जो बहुत जरूरी सामान हो, मुझे बता दें। मैं ला दूँगा। रुपए आप बाद में देती रहना।

वे बोलीं — तनख्वाह से महीना पार हो पाना मुश्किल होता है फिर इनका पीना—पिलाना अलग से। तो आप ही बताओ, रुपए मैं ले भी लूँ, पर वापस कहाँ से करूँगी? मेरी किस्मत ही फूटी है तो आप मेरा क्या—क्या जोड़ दोगे? रात बढ़ रही है। मेरे लिए नाहक न परेशान होओ! आप जाओ, भाई साहब!

मेरा पासा उल्टा पड़ गया था। पर उसे सीधा कर दिया बच्चों ने। लड़की बोल पड़ी — श्मम्मी, मेरी फ्राक और चप्पल!

तब तक लड़के ने उसकी बात काटते हुए कहा — मेरा नया सूट, पिचकारी, एक डिब्बा रंग, लाल और हरा और हाँ, गुब्बारे का एक पैकेट! गुब्बारे में रंग भरकर सबको मारूँगा तो बड़ा मजा आएगा, मम्मी!

पर मां ने उन्हें बुरी तरह डपट दिया था और दोनों खामोश हो गए थे।

उसी खामोशी का फायदा उठाकर मैं वहाँ से धीरे से खिसक गया।

पैर बढ़े जा रहे थे। अब अपने घर जाने की कोई जल्दी न थी। जल्दी थी तो यही कि कितनी जल्दी बच्चों का सामान खरीदूँ और लेकर पास जा पहुँचूँ। बच्चों के आँसुओं ने मन की ममता को भिगो डाला था। वह भीगती हुई बोली थी — यदि संसार में सबसे ज्यादा हँसाने वाले बच्चे हैं, तो सबसे ज्यादा रुलाने वाले भी वही अबोध हैं जो न हड्डी देखते हैं न मांस, घुसते हुए सीधे दिल तक उतर आते हैं। अच्छे—भले बाप के दो फूल जैसे कोमल बच्चे, शराब ने जिन्हें बेसहारा बनाकर कुम्हला दिया था।

दिमाग के साथ—साथ पैर भी भागे जा रहे थे और भागते—भागते जाने कब बाजार आ पहुँचे थे। मैंने वे रुपए निकाले, गिना तो सौ—सौ के बाइस नोट थे साथ में कागज के एक टुकड़े की शक्ल में वह लिस्ट भी थी जिसे देखा तो उस पर शर्मा जी की बदनसीब पत्नी का मायूस चेहरा चमक गया था।

मेरी खुशी का ठिकाना न था। रुपए भी थे और लिस्ट भी, जैसे प्यासे को लोटा भी मिल गया हो और डोर भी। फिर तो कुआँ सामने था। मैंने एक—एक करके पूरी लिस्ट का सामान खरीद डाला, और रिक्शे पर लादे चल पड़ा शर्मा जी के घर की ओर।

एक—एक सामान का अपना मूल्य रहा था और दिमाग उसे जोड़ने में लगा था। कुल योग आकर बारह सौ पर ठहर गया। मैंने रुपए गिने, एक हजार अब भी बचे थे। मन रिक्शे के आगे—आगे भाग रहा था। बच्चे अपनी मनचाही मुराद पाकर फूले न समाएँगे और उनकी खुशी व सारा सामान देखकर माँ निहाल हो जाएगी। मिसेज शर्मा सामान लेने में कहीं संकोच न करने लगें। कहीं उन्होंने यह सामान लेने से इंकार कर दिया तब...! तब क्या, साफ—साफ बता दूँगा कि यह सब कुछ आप ही के पति के रुपए का है। मगर जब यही करना था तो अभी तक अंधेरे में क्यों रखा? सच्चाई शक में भी बदल सकती है।

तब तक वह गली आ चुकी थी। मैंने रिक्शे वाले से मुड़ने को कहा।

कुछ ही देर में शर्मा जी का दरवाजा सामने था। मैंने कुंडी खटका दी तो मिसेज शर्मा निकलकर बाहर आ गई। मुझे अजीब भाव से देखा और देखती ही रह गई।

मैंने कहा — ष्मैं यह सामान ले आया हूँ, आप रख लो।ष्

वह कुछ सहमी—सी लगीं। बड़ी मुश्किल से बोल पाई — ष्पर मैंने तो आपको मना किया था। मैं वैसे ही परेशान हूँ, आप मुझे नाहक तंग क्यों कर रहे हैं?ष्

अचानक मुझे कोई जवाब न सूझा। बस इतना ही कह पाया — ष्मैंने सोचा, होली है और आप परेशान हो। बच्चे भी दुखी हैं। यह जानकर मैं यह सामान ले आया हूँ।ष्

वह खीझ पड़ीं — ष्मैं होली मनाऊँ न मनाऊँ, आपसे क्या मतलब! आप मेरे होते कौन हो! शर्मा जी वैसे भी शक्की स्वभाव के हैं। बेसिर—पैर का शक करते—करते नशेड़ी तक बन गए। मैं सामान ले लूँगी तो आग में घी पड़ जाएगा। होली की आग हमारा घर जला डालेगी। आप ही बताओ, उन्हें सफाई देने के लिए मेरे पास क्या है! आपने उन्हें घर तक पहुँचाया, इसके लिए मैं आपकी अहसानमंद हूँ, पर आपके हाथ जोड़ती हूँ कि सामान लेकर आप चले जाओ, फिर कभी लौटकर न आना।

उनकी बात भी सही थी। जान न पहचान, दुआ न सलाम — फिर सहायता या सहानुभूति का कारण क्या! या तो इन्होंने मुझे कोई ठग समझा होगा या आवारा या चरित्रहीन! बड़ा धर्मसंकट है! गिरते चित्र ने समाज की चूलें हिला दी हैं। चरित्र का बोझ अब उसके सम्हाले नहीं सम्हलता। परहित सरिस धरम नहिं मोरे त़ुलसीदास होते और आज का वक्त देखते, तो ऐसा कभी न लिखते। बुराई तो सामान्य है, पर भलाई करने में कष्ट है, त्याग है और सामाजिक लांछन भी।

बात कुछ भी न थी, पर बढ़ती—बढ़ती मेरे स्वाभिमान पर भी पड़ गई थीं। अपमान जब अकारण हो तो सहा नहीं जाता। उद्विग्न मन क्षुब्ध हो उठा और मैं निर्भीकता से बोल पड़ा —

ष्भाभी जी, बस करो! मैंने न कोई भूल की है न अपराध! बच्चों की व्यथा मुझसे देखी नहीं गई। दिल है तो दर्द होगा ही। सामान तो मैं ले ही आया हूँ, आप रखौ या फेंक दो। कर सकना तो धीरे—धीरे रुपए वापस कर देना, वरना मुझे संतोष है, मान लूँगा कि मैंने रुपए कमाए ही न थे।

मेरी बात सुनकर वह सिसकने लगीं। उनका रोना मेरे प्रति उनकी सहानुभूति थी या क्रोध, कह नहीं सकता, पर उसकी आड़ में मैंने सारा सामान लाकर उनके कमरे में जरूर रख दिया था।

मैं उठकर जाने लगा तो उन्होंने मुझे रोक दिया। बोली — ष्घर में कुछ था ही नहीं, और कुछ न बना सकी तो चाय ही सही, बनाती हूँ, पीकर जाना, भाईसाहब!ष्

मैं बैठ गया था। मैं चाय पीने लगा तो वह बोलीं — ष्आप बुरा न मानना, जमाना बड़ा खराब है। हो सकता है, आपके मन में कोई पाप न हो, पर देखने—सुनने में यह सब महापाप जैसा लगता है। कोई अजनबी किसी गैर के लिए!ष्

वह अपना वाक्य भी पूरा न कर पाई थीं कि तख्त पर लेटे शर्मा जी ने करवट ली, आँखें खोलकर मुझे देखा और बड़बड़ाए — ष्अच्छा! तो तुम अभी तक यहीं हो! मेरी बीवी को पटाने में लगे हो! निकल जाओ मेरे घर से!

मुझे लगा, जैसे वह गरम चाय मेरे मुँह में न जाकर खौलती हुई कानों में जा घुसी हो। जब तक मैं कुछ कहता तब तक भाभी बोल पड़ीं — ष्भाईसाहब, देखा आपने! पर इनकी बातों का बुरा न मानना। ये अभी नशे में हैं। आदमी देखे न देखे पर भगवान तो सब देखते ही हैं।ष्

उनकी बात से मेरे कान की जलन कुछ ठंडी पड़ गई थी। तो मैं बोल पड़ा — ष्भाभी, एक हजार ये भी रखो! कर्ज़ तो कर्ज़ है, कुल हिसाब बाइस सौ का है।

मेरी इस बात पर जब तक वह कुछ बोल पातीं कि मैं पलटकर वापस लौट पड़ा था।

दिमाग गुब्बारे—सा हल्का होकर उड़ने लगा था और कदम लड़खड़ा रहे थे तो लगा, शायद मैं भी नशे में हूँ। एक ऐसा नशा जो कभी ईसामसीह के सिर जा बैठा था। गौतम बुद्ध भी उसकी चपेट में आकर राजपाट और घर—परिवार तक छोड़ बैठे थे। उसी की मादकता में गांधी जी बैरिस्टरी छोड़—छाड़कर मरते दम तक घूमते रहे थे। वह कोई मामूली नशा नहीं, वह तो सारे नशों का राजा लगता है जो एक बार चढ़ जाने के बाद फिर कभी उतरने का नाम ही नहीं लेता। कहीं उसी का नाम हमदर्दी तो नहीं।

जाने भी दो। जैसे होली के तमाम रंग, वैसे ही इस समाज के भी हजारों रंग! पर खूबी यह कि वह दिखाई उसी रंग का पड़ता है जैसा खुद की पुतलियों का रंग हो। समाज खुद को पढ़ता ही नहीं, उसकी व्याख्या भी कर लेता है — पर एक नहीं, अनगिनत ढंग से। तभी तो सबकी मंजिलें एक पर रास्ते अलग—अलग! शरीर एक, आत्मा एक, पर बाहर से जो एक है, अंदर से अनेक हैं।

न कुछ खोया था, न पाया था फिर भी लगता था जैसे सारा संसार मिल गया हो। दो मासूम बच्चे और एक बेबस स्त्री — तीनों की खुशियों ने मिलकर मुझे किसी दूसरे लोक में पहुँचा दिया था जिसमें झूमता हुआ मैं जाने कब अपने घर के दरवाजे पर आ पहुँचा। सफर और रास्ते, दोनों याददाश्त के बाहर थे तो लगा, मैं नशे में हूँ।

जिंदगी भी एक चलती गाड़ी है जो ताउम्र चला करती है। उसके रास्ते में पड़ने वाली कोई भी वारदात, चाहे वह संयोग हो या वियोग, घटना हो या दुर्घटना — सब पीछे छूटता जाता है और जीवन आगे बढता जाता है। अगर घटना ज्यादा दमदार हुई तो कुछ दूर तक जिंदगी का पीछा करती है पर अंत में थककर चूर हो जाती है और हारकर ठहर जाती है। जीवन जीत जाता है और वक्त के पहियों में नाचता बड़ी दूर निकल जाता है।

एक—एक कर महीने बीतने लगे। हर महीने के पहले हफ्ते की कोई शाम मुझे शर्मा जी के घर तक खींच लाती थी और बदले में दे जाती थी कुछ सौ रुपए, एक कप चाय और भाभी जी की मुलाकात। मगर उनसे रुपए लेते मन तड़प जाता और आत्मा टीस उठती। जी में आता, रुपए फेंककर उनसे साफ—साफ कह दूँ कि आप मेरी कर्जदार नहीं। जिसे आप कर्ज समझती हैं, वे आप ही के रूपयें हैं पर जाने क्यों, मैं विवश—सा रुपए ले लेता। मन कहता, पति—पत्नी दोनों कर्ज के प्रति कितने संवेदनशील हैं। शराब लाख बुरी हो पर किसी को बदनीयत नहीं बनाती। बदनीयती का इल्जाम किसी और के सिर है, चाहे वे कुसंस्कार हों या कुसंगति। तो जब तक ये रुपए इकठ्‌ठे होते रहें, उतना ही अच्छा। जहाँ आगे चलकर उनके काम आएँगे, वहीं मन से या बेमन से, देनदारी के दबाव में शर्मा जी का शराब से नाता टूटता जाएगा।

एक बार जनवरी में मैंने उनसे कहा था — भाभी जी, इस बार रुपए रखो। ठंड बहुत है। परिवार के लिए गरम कपड़े ले लेना।

उन्होंने कहा था — ष्मेरी ताकत को कमजोर न करो, भाईसाहब! आठ—दस महीनों से अभावों से लड़ते—लड़ते अब मैं काफी मजबूत हो चुकी हूँ। भगवान ने चाहा तो इस होली के आते—आते पूरा कर्ज चुका दूँगी।

मुझे मन ही मन रोना आ गया था, पर मैं चुप रह गया था।

मगर उनकी बात बिल्कुल सही निकली। अगले दो ही महीनों बाद बाइस सौ रुपयों की वह फर्जी उधारी अपनी आखिरी किश्त भी पा चुकी थी जबकि होली आने में अभी एक हफ्ता बाकी था।

धीरे—धीरे करके जब साल कटने को था तो उस हफ्ते की क्या बिसात थी? वह बेचारा पराभूत होता हुआ आज होली की उस शाम की शक्ल में तब्दील हो गया, जिसका मुझे पूरे साल से इंतजार था।

सुबह के रंग का सुरूर और टूटते बदन की थकावट, दोनों मिलकर एक नशा—सा पैदा कर रहे थे। उसी में झूमता हुआ मैं शर्मा जी के घर तक जा पहुँचा। शर्मा जी ने मुझे देखा, तो दौड़कर गले लग गए और कुछ देर तक बेसुध लिपटे रह गए। शायद हम दोनों की दोस्ती अपनी पहली वर्षगाँठ मनाने में मशगूल हो गई थी। मस्ती के उसी आलम में दोनों बच्चे भी आकर मुझसे लिपट गए तो मुझे लगा, औपचारिकता को तोड़ता—लाँघता कोई मिलन जब आकर सीने से लग जाए तो लिपटता हुआ खुशियों में डूब जाए तो उसी को होली कहते हैं।

मैं उसी मस्ती में खोया था कि भाभी आ पहुँचीं और शरारती लहजे में बोलीं — भाईसाहब, लगता है, आपने इस होली में कहीं दोस्तों में पड़कर पी ली है। आप ही देखो न, आपकी आँखें चढ़ी हैं!

मैंने मुस्कुराते हुए कहा — मैं अपनी आँखें खुद कैसे देखूँ भाभी, पर लगता है, मैंने दोस्ती ही पी ली है। उसका भी एक नशा है जिसका सुरूर तो देखो। यह नशा किसी नशे से निजात का है और यह सुरूर उस पर शानदार जीत का है जिसे मेरे दोस्त ने हासिल करके दिखा दिया है। देखो भाभी, आज होली है। फिर भी शर्मा जी ने पी नहीं। यह कोई मामूली जीत है क्या!

भाभी बोलीं — ष्सब आपकी बदौलत है, भाईसाहब! न आप पिछली होली में बाइस सौ का कर्ज़ चढ़ाते, न ये उसे उतारने के दबाव में पीना छोड़ते। दरअसल, बात यह है कि जो कुछ किसी तरह बचता था वह आपकी उधारी में खप जाता था। फिर ये पीते कहाँ से!ष्

यह सुनकर शर्मा जी कुछ झेंप—से गए। तो मैंने उन्हें छेड़ा — याद है शर्मा जी, पिछली होली में आपने कहा था — मेरी बीवी को पटाने में लगे हो! निकल जाओ मेरे घर से!

उन्होंने नहले पर दहला डाल दिया — मुझे क्या पता था कि आप बीबी से ज्यादा मियाँ को पटाने में माहिर हो।

तो मैंने कहा — मजाक छोड़ो, शर्मा जी! आज मैं वाकई में भाभी को पटाने आया हूँ। जरा कुछ देर के लिए आप कमरे से बाहर तो निकल जाओ!

वह मुस्कराते हुए बाहर निकल गए थे।

भाभी भौचक्की थीं। मैंने उनसे कहा — आँखें बंद करके हथेली फैला दो, भाभी!

उन्होंने वैसा ही किया तो मैंने जेब से बाइस सौ रुपए निकालकर उनकी हथेली पर रख दिए। उन्होंने जिज्ञासा में आँखें खोल दीं और रुपए देखते ही बुरी तरह चौंक गईं।

बोलीं—ये क्या! ये रुपए कैसे?

मैंने कहा — ये आप ही के हैं!

वह उलझ गई — मेरे कैसे? मैंने आपको कब दिए रुपए? आप क्यों मुझे बेवकूफ बनाते हो, भाईसाहब! रुपए वापस ले लो। उतना ही अहसान क्या कम था, जो आपने कभी मुझ पर और मेरे बच्चों पर किया था!

जब उन्होंने मेरी एक न मानी तो मजबूर होकर मैंने पिछली होली में रिक्शे वाले से लेकर बाद तक का सारा वृत्तांत उन्हें सुना डाला। उन्होंने मेरी बातें सुनीं तो हक्की—बक्की रह गईं। मुँह खुला का खुला रह गया, कंठ से एक शब्द तक न निकल सका, पर अचानक उनकी आँखें बहने लगीं और बहती ही गईं।

उन्हें इस तरह रोते देखकर मैं विचलित हो उठा और जब तक कुछ बोलता तब तक वही बोल पड़ीं — भाईसाहब, जरा इन आँसुओं को देखो! ये भी कैसे अजीब हैं! दुख में तो निकलते ही हैं, सुख में भी बरसने लगते हैं! कितना फर्क है पिछली होली और आज की होली के आँसुओं में!

कुछ देर तक आत्मविभोर—सी वह बैठी रह गई तो मैंने कहा — अब मुझे जाने दो, भाभी!

मैं उठ खड़ा हुआ तो वह भी उठ गई और मेरे अत्यंत निकट आकर बोलीं — इतनी खुशी के मौके पर आप ऐसे कैसे चले जाओगे! अब बारी मेरी है। मैं कहती हूँ, आप आँखें बंद करके अपना मुँह खोल दो!

मैंने किसी आज्ञाकारी सेवक की भाँति वैसा ही किया तो उन्होंने एक—एक करके चार गुझिया मेरे मुँह के हवाले कर दीं। मुझे लगा, मैं अचानक बच्चा बन गया हूँ और कोई माँ मुझे खेल—खेल में खिलाए जा रही है।

आँखें खोल दीं। बोला — बस करो, भाभी, कुछ शर्मा जी के लिए भी बचाकर रखो! बेचारे बाहर खड़े—खड़े जाने क्या सोच रहे होंगे!

वह बोली — ष्भाईसाहब, वे दिन तो कब के लद चुके जब शर्मा जी मुझ पर अकारण शक किया करते थे। जब से आपसे संपर्क हुआ, मैं तो नहीं बदली, पर ये बिल्कुल बदल गए हैं। न शक न शराब!

उनकी बातों से मेरा मन प्रफुल्लित हो उठा। तृप्त आत्मा लिए जब मैं चलने लगा तो मुझे रोककर बोलीं — ष्एक बात पूछूँ भाईसाहब! आपको मेरी कसम, सच—सच बताना कि कहीं रिक्शे वाले की रुपयों वाली कहानी मनगढंत तो नहीं है? मेरी मदद के बहाने आपने यह सब गढ़ डाला हो। मुझे तो अब भी यही लगता है कि मैं आपकी कर्जदार थी और जो कुछ मैं आपको साल भर तक अदा करती रही, वह मेरा कर्ज था!

तो मैंने दृढ़ता से प्रतिवाद किया — ष्नहीं, भाभी, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। अब आपको मदद की जरूरत भी कहाँ रही, जब आप दोनों ने मिलकर इतने सारे रुपए बचा लिए। वह तो मेरा कर्ज था जो मैं हर महीने आकर अपने सिर चढ़ा लेता था। आज मैं वही कर्ज तो उतारने आया हूँ। यकीन करो, भाभी, ये आपके दिए हुए वही रुपए हैं। अच्छा, तो अब चलता हूँ। आप सबको होली और नया संवत दोनों मंगलमय हों।

पीछे से भाभी जी की आवाज गूँजती हुई मेरे कानों में तैर गई — जैसी मुझे मंगलमय हुई वैसी आपको भी हो, और मैं तो कहती हूँ, वैसी ही सबको हो, भाईसाहब!