अवांछित बेटियाँ Jaynandan द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

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अवांछित बेटियाँ

(नाटक)

अवांछित बेटियां

जयनंदन

(शाखा अपने बेडरूम में। उसके आसपास कई गुड़िया रखी हुईं। वह उनसे आत्मालाप कर रही है।)

शाखा : रोते नहीं बेटे....रोते नहीं....तूं कितनी अच्छी है....चल तुझे मैं दूध पिला देती हूं। बिन्नी.....मिन्नी। किन्नी, तूं क्यों मुंह फुलाकर बैठी है.....टॉफी चाहिए न तुम्हें.....बुरी आदत है.....दांत सड़ जायेंगे तुम्हारे.....चलो मैं बिस्किट देती हूं.....सबसे अच्छी बेटी है किन्नी बेटी....एकदम खामोश, शान्त, न किसी से लड़ती है, न झगड़ती है....किन्नी, चलो तुझे बाहर घुमा लाऊं....।

(दरवाजे पर दस्तक या कॉलबेल। शाखा जल्दी-जल्दी गुड़ियों को समेटकर कप बोर्ड में डाल देती है। दरवाजे पर जाती है, उसका पति अंबर आता है।)

अंबर: डॉक्टर के यहां से आ रहा हूं।

शाखा: क्या कहा उसने?

अंबर: भ्रूण फिर मादा है।

शाखा: लेकिन इस बार मैं गर्भपात नहीं कराऊंगी। अंबर, प्लीज इस बार मुझे अपनी बच्ची को जनने दो।

अंबर: सब कुछ जान-समझकर फिर तुम ऐसा कह रही हो! शाखा, क्या मैं शौक से करवा देता हूं तुम्हारा गर्भपात? क्या समझती हो मुझे तकलीफ नहीं होती है तुम्हें ऐसी मुसीबतों में डालकर?

शाखा: तुम मर्द हो अंबर....लेकिन मैं मां हूं। जो तुम्हारे लिए महज एक भ्रूण है, वह मेरी जान और जिगर में पला मेरे जिस्म का एक हिस्सा है। गर्भपात के बाद मेरे अंग-अंग में जैसे एक भूचाल समा जाता है।

अंबर: शाखा, सहमत हूं तुमसे....लेकिन तुम अपनी आंखों से देख चुकी हो कि छोटी बहन परिधि की शादी ने मुझे कितनी जिल्लत दी और मुझे किस तरह दिवालिया बना दिया। आज भी उसकी ससुराल के कुत्ते मेरे जिस्म नोंच रहे हैं, जैसे मैं उसका जन्मजात कर्जदार हूं। शाखा, प्लीज मुझे समझने की कोशिश करो....अब और मुझमें साहस नहीं है कि बेटी ब्याहने के नाम पर कोई दोबारा मेरी खाल उतार ले। मामूली सी नौकरी है, जिसके जरिये अपने लिए भी चंद हसरतें और चंद सपने पूरे करने हैं....अन्यथा यह जिंदगी दहेज जमा करने में ही स्वाहा हो जायेगी।

शाखा: मैं तुम्हारी पीड़ा से अलग नहीं हूं अंबर। माना कि दहेज के दानवी चेहरों ने हजारों-लाखों घर उजाड़े हैं और बेशुमार जिंदगियां तबाह की हैं....लड़कियां फिर भी जन्म लेती रही हैं और दुनिया को रुक नहीं जाना है तो जन्म लेती ही रहेंगी। तुम्हारी तो एक ही बहन थी, मेरे पिता ने तो चार-चार बेटियों को ब्याहा है। उनके एक जमाई तुम भी हो, तुमने तो कभी उनसे कुछ भी लेने की रुचि नहीं दिखायी। तो लोग तुम्हारी तरह भी हैं दुनिया में।

अंबर: शाखा, तुमने ऐसा ही कुछ अपनी पहली प्रेग्नेंसी के समय कहा था और मैंने मान लिया था। तुम्हारे पहले इशू को बिना किसी बाधा के मैंने संपन्न होने दिया। मुन्नी आज आठ साल की हो गयी है। मेरे मन में उसके लिए आज तक जरा-सा भी भेदभाव नहीं आया। लेकिन तुम यह अच्छी तरह जानती हो कि दूसरी बेटी का दहेज हम कतई अफोर्ड नहीं कर सकते।

शाखा: इतना संकीर्ण मत बनो अंबर। क्या लड़कियों का जन्म सिर्फ विवाह के लिए ही होता है....विवाह के बिना क्या उसका कोई वजूद हो ही नहीं सकता?

अंबर: एक बेटी घर के लिए कितनी अहम्‌ होती है, यह मुझसे ज्यादा कोई नहीं जान सकता है, शाखा। जब मेरी मां चल बसी थी तो बहुत छोटी होकर भी परिधि ने ही पूरे परिवार को संभाला था। मैं उससे कई साल बड़ा था, लेकिन घर को संवारने-संभालने और रसोई सीधी करने के मामले में मैं किसी काम का नहीं था। मगर मेरी औकात ऐसी....मैं नालायक ऐसा कि अपनी उस प्यारी बहन को एक अच्छा-सा दूल्हा भी न दिला सका। उसकी हालत देखता हूं तो घर में दूसरी बेटी की उपस्थिति की कल्पनामात्र से हृदय थर्रा जाता है। इसके बावजूद तुम्हारे कहने से एक बेटी का दायित्व मैंने स्वीकार कर लिया है।

शाखा: मेरे कहने से तुम एक बार मेरी और सुन लो अंबर.....प्लीज।

अंबर: शाखा, अब तुम मेरे प्यार और धैर्य का इम्तहान मत लो....चलो, डॉक्टर प्रतीक्षा कर रहा है। (उसका हाथ पकड़कर चलाने की कोशिश करना।)

शाखा: (चेहरे पर एक दहशत उतर आना) नहीं अंबर, नहीं.....।

अंबर: जिद मत करो.....चलो मेरे साथ। (खींचने लग जाना।)

नेपथ्य से आवाज - इसी तरह पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा गर्भपात कराना पड़ा शाखा को। एक बार फिर सिद्ध हुआ कि औरत न तो अपनी मर्जी से मां बन सकती है, न मां बनने से इंकार कर सकती है। पति से प्यार के नाम पर कितना कुछ बर्दाश्त करना होता है उसे। विनष्ट मादा भ्रूण की स्मृति के रूप में एक और गुड़िया का इजाफा हो गया शाखा के कपबोर्ड में।

(शाखा एक नयी गुड़िया की कलाई पर चुन्नी लिख रही है। कपबोर्ड से तीन अन्य गुड़ियों को निकालती है।)

शाखा: लो, आज एक और बहन तुम्हारी पंक्ति में शामिल हो गयी। मेरी अजन्मी बच्चियों! मुझे माफ कर देना। तुम सबके लिए अपनी कोख को मुर्दा-घर में बदल डालने के जुर्म में पति और समाज के साथ मैं भी साझीदार हूं। मेरी तो इच्छा थी कि तुम सबकी ही नहीं तुम्हारे जैसी अनेक बेटियों की मां बनकर मैं फूलों से लदा एक विशाल छतनार पेड़ बन जाऊं। पति नामधारी पुरुष के बिना गर्भ धारण करना और फिर भरण-पोषण करना संभव होता तो मैं अपनी दसों इन्द्रियों की कसम खाकर कहती हूं मेरी अभागी पुत्रियों, कि मैं अभी से सिर्फ और सिर्फ लड़कियों को जन्म देती, जिनकी संख्या कम से कम दो दर्जन होती....बल्कि इससे भी ज्यादा कर पाती तो मुझे और सुख मिलता।

नेपथ्य से आवाज- हे ईश्वर! तूंने किस खड़िये से लिखी है औरत की तकदीर! एक देवकी थी जिसके जन्मे बच्चे को उसका भाई कंस नष्ट कर देता था। एक यह है कि इसके अजन्मे बच्चे को इसका पति नष्ट करवा देता है। कंस को अपनी मृत्यु का भय था और इसके पति को धन और प्रतिष्ठा की हानि का भय है। देवकी को बचाने के लिए कई शक्तियां मददगार थीं, मगर यह खुद अपने आपको भी बचाने की कोशिश नहीं कर पाती। कंस क्रूर और बर्बर था जबकि उसका पति उदार और भावुक है, अतः इसका धर्मसंकट तो देवकी से भी बड़ा है।

(शाखा गुड़ियों को सीने से चिपकाकर विह्‌वल होती जाती है।)

नेपथ्य से आवाज - बार बार के गर्भपात से शाखा मानो टूटने और दरकने लगी थी। अंबर इसे लक्ष्य कर रहा था। इस बार दोनों ने तय किया कि अब यह अमानवीय सिलसिला बंद कर देना चाहिए। अपनी आखिरी कोशिश लेकर वे डॉक्टर के पास चले गये।

(पति-पत्नी डॉक्टर के पास।)

अंबर: डॉक्टर, अंतिम बार मैं आपको कष्ट देने आया हूं। इस बार अगर नर भ्रूण न रहा तो धुलाई करके बंध्याकरण ऑपरेशन कर दीजिए।

डॉक्टर: (अंबर और शाखा को देर तक पढ़ते हुए) इस बार तुम्हें निराश होना पड़ेगा भाई। मैंने यह काम पूरी तरह बंद कर दिया है। दुनिया को असंतुलित करने का अपराध अब और मुझसे नहीं होगा।

अंबर: डॉक्टर, आप जानते हैं कि किसी भी शर्त पर मुझे यह काम करना है। यहां नहीं तो कहीं और जाना होगा, कहीं और भटकना होगा तथा मुझे ज्यादा पैसे खर्च करने होंगे....ज्यादा परेशान होना पड़ेगा। ऐसा अन्याय आप हम पर क्यों करेंगे?

डॉक्टर: मतलब समाज और कानून तुम्हारे लिए कोई मायने नहीं रखते?

अंबर: बहुत मायने रखते हैं, मैं पहले भी कह चुका हूं कि यह समाज और कानून आखिर क्यों यह व्यवस्था नहीं करता कि लड़कियों के प्रति भेदभाव न हो और उनकी शादी में फकीर और दिवालिया होने की नौबत न आये। अगर ऐसा हो जाये तो मेरा दावा है कि लड़कियों के जन्म को सर्वत्र प्राथमिकता मिलने लगेगी। चूंकि यह सभी जानते हैं कि बेटियों से न सिर्फ दुनिया आगे चलती है बल्कि खूबसूरत भी बनती है। मां-बाप को सहारा और सम्मान देने के मामले में भी लड़कियों का बर्ताव असंदिग्ध रूप से विश्वसनीय होता है।

डॉक्टर: अंबर, तुम माननेवालों में से नहीं हो। अपनी बहन की शादी में जो दंश तुमने झेले हैं उसे भूल नहीं पा रहे। मुझे याद है, तुम्हारी बहन परिधि ने भी तुम्हारी पैरवी करते हुए मुझसे कहा था कि वह अपने घर में नरक भोग रही है और उसका जीवन मानो व्यर्थ होकर रह गया है।

अंबर: उसने आपको यह भी कहा था डॉक्टर कि बेटी वही पैदा करे जिसके घर में लाखों-करोड़ों जमा हो। उसने आपसे विनती की थी कि मेरे बाद एक और लड़की मुन्नी इस घर में आ चुकी है.....अब दूसरी भी अगर आ गयी तो भैया खुद को बेचकर भी कोई उपाय नहीं कर पायेंगे।

शाखा: मेरी ननद ने ठीक कहा था डॉक्टर! चार साल तक पागलों की तरह भटकने के बाद आखिरकार स्थितियों से समझौता करके ही उसका विवाह हो सका। न लड़का संतोषजनक.न घर सुखमय। आज भी उसकी फरमाइशें आती हैं और हमें परिधि की सेहत का खयाल करके उन्हें पूरा करना होता है।

डॉक्टर: शाखा, मैं मानता हूं कि परिधि के साथ अच्छा नहीं हुआ। लेकिन कोई भी तर्क भ्रूण परीक्षण को जस्टिफाई नहीं कर सकता। यह एक क्रूर अपराध है। मैं जानता हूं कि तुम मन मारकर अपने पति का समर्थन कर रही हो....चलो आओ अंदर....जब आखिरी बार मानकर कह रहे हो तो देख ही लेते हैं कि तुम्हारा भाग्य इस बार क्या करवट ले रहा है।

(डॉक्टर शाखा का परीक्षण करता है।)

डॉक्टर: चमत्कार हो गया.....इस बार भ्रूण मादा नहीं नर है। मुबारक हो....अब तुम बेटे का बाप बन जाओगे।

अंबर: आप मजाक तो नहीं कर रहे?

डॉक्टर: जाओ घर, और खुशियां मनाओ।

नेपथ्य से आवाज - डॉक्टर ने कह दिया खुशियां मनाने के लिए तो खुशियां मनायी जाने लगीं। एक चिरप्रतीक्षित मेहमान के आगमन की खास तैयारियां होने लगीं।

शाखा: (गुड़ियों से संवाद करती हुई। पास ही में उसकी बेटी मुन्नी भी है) देखो, मेरी अभागी संतानों। अब तुम्हारी कतार में कोई इजाफा नहीं होगा। तुम्हारे अब भाई आनेवाला है। तुम सबको वह खूब प्यार करेगा। मुन्नी अपने भाई को गोद में खेलायेगी, पप्पी लेगी....है न मुन्नी।

नेपथ्य से आवाज - प्रतीक्षा की घड़ी खत्म हुई। डॉक्टर का कहा सच नहीं हुआ। शायद उसने जान-बूझकर सच कहा ही नहीं था। जन्म लेनेवाला शिशु फिर हर बार की तरह बालक नहीं बालिका थी। अंबर हैरान-परेशान। दूधमुंही को अपनी गोद में लेकर डॉक्टर के पास चला गया। शाखा हैरत से देखती रह गयी।

(अंबर डॉक्टर के पास)

अंबर: डॉक्टर, तुमने झूठ बताकर मेरी आधी-अधूरी खुशियों पर कहर बरपा दिया है। गर्भ में जिसे तुमने लड़का बताया था, वह लड़की थी। इसके पैदा होने के जिम्मेदार तुम हो, इसलिए इसे मैं तुम्हारे पास छोड़ने आया हूं। अगर तुमने इसे लेने से इंकार कर दिया तो मेरे पास इसे सिवा मृत्यु देने के और कोई उपाय नहीं रह जायेगा। चूंकि मेरी ओर से तो इसे मृत्यु ही मिलनी थी, वह अगर तीन महीने की भ्रूण-अवस्था में नहीं मिली तो अब मिल जायेगी....और इसकी जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ तुम पर होगी।

(डॉक्टर हतप्रभ रह जाता है। उसके भीतर से आवाज आती है)

डॉक्टर: (मनोगत) अपने सगे नवजात शिशु के प्रति एक पिता क्या इतना असहिष्णु और निर्मम हो सकता है? पितृत्व की गोद अगर कांटेदार हो गयी तो क्या मातृत्व के स्तन का दूध भी सूख गया? शाखा ने जुल्म ढाने के लिए इस दूधमुंही को इसके हवाले कैसे कर दिया? क्या व्यवस्था वाकई इतनी सड़-गल गयी है कि मातृत्व और पितृत्व जैसे बड़े मूल्य भी बेमानी हो गये हैं? एक बच्चा जो दुनिया में आता है - पूरी तरह पराश्रित-पराधीन होता है। उसे आप फेंक दें, काट दें, गाड़ दे, इसका उसे कोई बोध नहीं होता। लेकिन यह एक नैतिकता है, मनुष्य में ही नहीं जानवरों तक में कि वे अपने नवजात बच्चे के लिए अधिकतम उदार, शुभेच्छू, रखवाले और पालनहार होते हैं। आज एक बाप ही अपने बच्चे को मारने पर आमादा है, महज इसलिए कि शिशु बालक नहीं, बालिका है। तो क्या मान लिया जाये कि वाकई यह दुनिया इतनी खराब और बुरी हो गयी?

डॉक्टर: (अंबर से मुखातिब होकर) माना कि मुझसे गलती हो गयी, हालांकि हुई नहीं, गलती तो मैं पहले करता रहा था, इस बार तो मैंने पिछली गलतियों को सुधारने की कोशिश की है। खैर मैंने चाहे जो भी किया, मगर तुम जो अब करने जा रहे हो, वह इंसानियत के नाम पर एक भयानक धब्बा होगा।

अंबर: बकवास मत करो डॉक्टर, मैं तुमसे कोई पाठ पढ़ने नहीं आया हूं। मेरे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसका फैसला मुझे खुद करना है। तुम्हारे पास कई बार मैंने अपना दुखड़ा रोया, फिर भी तुमने ऐतबार नहीं किया। तुम अगर समझते हो कि मैं बहुत हिंस्र और बर्बर हूं तो ऐसा ही सही.....अब यह बताओ कि इस बच्ची को यहां छोड़ दूं या ले जाकर कहीं दफ्न कर दूं?

डॉक्टर: अंबर, जरा इस बित्ते भर के मांस के मासूम लोथड़े पर नजर डालो....जरा इससे आंखें मिलाओ.....देखो तो कैसे चमक रही हैं इसकी दो मासूम और पवित्र आंखें। इसमें तुम्हारा ही खून प्रवाहित है। क्या तुम्हें कुछ भी लगाव महसूस नहीं हो रहा इससे?

अंबर: मुझे बहलाने की कोशिश मत करो डॉक्टर, मैं अपने इरादे में दृढ़ हूं।

डॉक्टर: ठीक है, तुम्हें बेटी नहीं चाहिए न तो इस नन्हीं सी जान को मेरे पास छोड़ दो। लेकिन मेरी एक शर्त है....तुम्हारे घर में जो आठ वर्ष की हो चली पहली बेटी है, उसे भी मेरे सुपुर्द करना होगा। आखिर उसे भी रखने का तुम्हें क्या हक है? और फिर उससे भी मुक्त होकर क्यों नहीं तुम जरा ज्यादा ठाट से बसर करो।

अंबर: (चेहरा फक्क। कोई जवाब नहीं।)

डॉक्टर: सोच में क्यों पड़ गये? तुम्हें तो दोहरी खुशी होनी चाहिए। तुम एक से पिंड छुड़ाना चाहते थे, मैं दोनों से छुड़वा दे रहा हूं।

अंबर: ठीक है, मैं तैयार हूं। तुम्हें अगर मसीहा बनने का ज्यादा ही शौक हो गया है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। हालांकि तुम्हारी इस शर्त के पीछे का मकसद मैं समझ गया हूं। तुमने मेरी यह नस ठीक पकड़ी है कि मुन्नी को हमने आठ साल तक पाला है और उससे हठात मोह झटक देना हमारे लिए आसान नहीं है। लेकिन इस अवांछित नन्हीं से मुक्त होने के लिए मुझे तुम्हारी यह शर्त मंजूर है। (नन्हीं को छोड़कर वह तमतमाया हुआ निकल जाता है।)

(अंबर घर में शाखा के पास पहुंचता है। शाखा अपनी ताजी प्रसव पीड़ा और नन्हीं के वियोग में पस्तहाल पड़ी है।)

अंबर: शाखा, इस तरह निढाल हो जाने से काम नहीं चलेगा। संभालो अपने को। हमें इस

परिस्थिति से उबरने के लिए अभी और भी कई इम्तहान से गुजरने होंगे।

(शाखा अपने कातर नयनों से उसका मुंह देखकर और भी उदास हो जाती है।)

अंबर: डॉक्टर ने हमारे सामने एक चुनौती रख दी है। कहता है कि अगर हमें नन्हीं नहीं चाहिए तो मुन्नी को भी रखने का हमें हक नहीं है। नन्हीं को वह तभी स्वीकार करेगा जब हम उसे मुन्नी को भी दे दें।

शाखा: तो?

अंबर: (कुछ बोल नहीं पाता।)

शाखा: (और भी तेज आवाज में) तो ?

अंबर: (अंबर की आवाज जैसे गले में ही फंस गयी हो)

शाखा: बोलते क्यों नहीं, तुम्हारा मतलब क्या है?

अंबर: तुम ठीक समझ रही हो, मुन्नी को भी हमें उसे सौंपना होगा।

शाखा: यह करने के पहले, तुम इसी वक्त मेरा गला घोंट दो। मैं नहीं जी सकती इस तरह। मुन्नी कोई घर का फालतू सामान नहीं है कि उसे मैं फेंकने के लिए तुम्हें सुपुर्द कर दूं। मैं मां हूं उसकी। आठ साल तक मैंने इसे अपने घनिष्ठ लाड़-प्यार में कलेजे के टुकड़े की तरह पाला है। कोख में पले भ्रूणों को मारते रहे तो किश्तों में जैसे मैं भी मरती रही। अब मेरी बची-खुची जीवन-रेखा को मिटा देना चाहते हो? इस सदमे से उपजे हुए नर्क भोगने का मुझमें और ताकत नहीं है। घोंट दो गला मेरा।

अंबर: शाखा, समझने की कोशिश करो, मैं भी उसका पिता हूं कोई दुश्मन नहीं। अगर उसे डॉक्टर को सौंपकर मैं तुम पर जुल्म कर रहा हूं, तो समझो यह जुल्म मैं अपने आप पर भी कर रहा हूं।

शाखा: मुझे कुछ नहीं सुनना, मैं मुन्नी को नहीं ले जाने दूंगी। अगर तुम ऐसा करोगे तो इस घर में कुछ भी नहीं बचेगा....कोई नहीं बचेगा।

अंबर: अगर हम ऐसा नहीं करेंगे, तब भी कहां बचेंगे। परिधि की शादी के समय से हम मर ही तो रहे हैं। दो बेटी अपनी भी हो गयी तो जीने का कुछ भी अर्थ कहां रह जायेगा। लाओ, दो मुन्नी को।

(मुन्नी उससे चिपकी हुई है। वह उसे पहले पुचकार कर अपने साथ करना चाहता है। फिर उसे जबर्दस्ती खींचकर अलग कर देता है और अपने साथ लेकर चला जाता है। शाखा फूट-फूटकर रो पड़ती है।)

नेपथ्य से आवाज - क्या एक औरत की इतनी ही औकात है कि जब चाहा उसकी कोख उजाड़ दी, जब चाहा उसकी गोद छीन ली? गाय-बकरियों से भी गयी-गुजरी हालत!

(शाखा ने एक बड़ी गुड़िया बना ली है। उस पर कलम से 'मुन्नी' लिखती है। सामने चार और गुड़िया बिन्नी, मिन्नी, किन्नी और चुन्नी रखी है। शाखा विक्षिप्त सी उनसे प्रलाप करने लगती है।)

शाखा: अब बेटियां यहां जीवितावस्था में नहीं बल्कि मूर्तिवत गुड़ियों के रूप में ही रहेंगी। बेटियां बहुत बुरी होती हैं...बहुत खराब होती हैं....वे बोझ होती हैं। मैं भी तो एक औरत हूं, मैं भी जीवित क्यों रहूं, मैं भी गुड़िया बन जाती हूं। हः हः हः मैं भी गुड़िया बन जाती हूं। (विक्षिप्त हंसी हंसते हुए वह एक बड़ी गुड़िया निकालती है और उस पर अपना नाम लिख देती है।)

(अंबर खिड़की से उसके क्रिया-कलाप को देख रहा है और शाखा का मतलब समझकर विचलित हो उठता है। वह तेजी से कमरे में घुसता है और शाखा को सीने से लगा लेता है।)

अंबर: मैं नहीं जानता था शाखा, कि तुमने पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे भ्रूणों को अपनी स्मृतियों में ही नहीं अपने जीवन में भी गुड़िया बनाकर जीवित रखा है। समझ सकता हूं कि फिर घर के वजूद का हिस्सा बन गयी मुन्नी का वियोग तुम कैसे सह सकोगी। बेचारी मुन्नी भी तो हमारे बिना कितना तड़प रही होगी, नन्हीं भी अपने हिस्से की ममता पाने के लिए बिलख रही होगी। चलो, हम ले आते हैं दोनों को। हम इनके साथ जितना भी स्वर्ग जी सकते हैं, जियेंगे और इसके एवज में आगे नर्क भोगना होगा तो भोग लेंगे।

(शाखा हैरत से उसका मुंह देखती रह जाती है। वह उसे जोर से सीने से भींच लेता है।) -000-

एस एफ-3/116, बाराद्वारी सुपरवाइजर फ्लैट्‌स, साकची, जमशेदपुर-831001. मो.नं. 09431328758.