परीक्षा-गुरु - प्रकरण-27 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-27

परीक्षा गुरू

प्रकरण - २७

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लोक चर्चा (अफ़वाह).

लाला श्रीनिवास दास

निन्‍दा, चुगली, झूंठ अरु पर दुखदायक बात ।

जे न कर हिं तिन पर द्रवहिं स र्बे श्‍वर बहुभांत ।।[1]

विष्‍णुपुराणों.

उस तरफ़ लाला ब्रजकिशोर नें प्रात:काल उठ कर नित्‍य नियम से निश्चिन्‍त होते ही मुन्‍शी हीरालाल को बुलानें के लिये आदमी भेजा.

हीरालाल मुन्‍शी चुन्‍नीलाल का भाई है. यह पहले बंदोबस्‍त के महक़मे मैं नौकर था. जब से वह काम पूरा हुआ इस्‍की नौकरी कहीं नहीं लगी थी.

"तुमनें इतनें दिन से आकर सूरत तक नहीं दिखाई. घर बैठे क्‍या किया करते हो ?" हीरालाल के आते ही ब्रजकिशोर कहनें लगे "दफ्तर मैं जाते थे जब तक खैर अवकाश ही न था परन्‍तु अब क्यों नहीं आते ?"

"हुज़ूर ! मैं तो हरवक्त हाजिर हूँ परन्तु बेकाम आनें मैं शर्म आती थी. आज आपनें याद किया तो हाजिर हुआ. फरमाइये क्या हुक्म है ?" हीरालाल नें कहा.

"तुम ख़ाली बैठे हो इस्‍की मुझे बड़ी चिन्‍ता है. तुम्‍हारे बिचार सुधरे हुए हैं इस्‍सै तुमको पुरानें हक़ का कुछ ख़याल हो या न हो (!) परन्‍तु मैं तो नहीं भूल सक्‍ता. तुम्‍हारा भाई जवानी की तरंग में आकर नौकरी छोड़ गया परन्‍तु मैं तो तुम्हैं नहीं छोड़ सक्ता. मेरे यहां इन दिनों एक मुहर्रिर की चाह थी. सब से पहले मुझको तुम्‍‍हारी याद आई. (मुस्‍करा कर) तुम्‍हारे भाई को दस रुपे महीना मिल्‍ता था परन्‍तु तुम उस्सै बड़े हो इसलिये तुम को उस्से दूनी तनख्‍वाह मिलेगी"

"जी हां ! फ़िर आप को चिन्‍ता न होगी तो और किस्‍को होगी ? आपके सिवाय हमारा सहायक कौन है ? चुन्‍नीलाल नें निस्सन्देह मूर्खता की परन्‍तु फ़िर भी तो जो कुछ हुआ आप ही के प्रताप ही से हुआ."

"नहीं मुझको चुन्‍नीलाल की मूर्खता का कुछ बिचार नहीं है मैं तो यही चाहता हूँ कि वह जहां रहै प्रसन्‍न रहै. हां मेरी उपदेश की कोई, कोई बात उस्को बुरी लगती होगी. परन्‍तु मैं क्‍या करूं ? जो अपना होता है उस्‍का दर्द आता ही है."

"इस्मैं क्‍या संदेह है ? जो आपको हमारा दर्द न होता तो आप इस समय मुझको घर सै बुलाकर क्या इतनी कृपा करते ? आपका उपकार मान्‍नें के लिये मुझ को कोई शब्‍द नहीं मिल्‍ते. परन्तु मुझको चुन्‍नीलाल की समझ पर बड़ा अफसोस आता है कि उस्‍नें आप जैसे प्रतिपालक के छोड़ जानें की ढिठाई की. अब वह अपनें किये का फल पावेगा तब उस्की आंखें खुलेंगी."

"मैं उस्‍के किसी-किसी काम को निस्‍सन्‍देह नापसन्‍द करता हूँ परन्‍तु यह सर्बथा नहीं चाहता कि उस्‍को किसी तरह का दु:ख हो."

"यह आपकी दयालुता है परन्‍तु कार्य कारण के सम्‍बन्‍ध को आप कैसे रोक सक्‍ते हैं ? आज लाला मदनमोहन पर तकाज़ा हो गया. जो ये लोग आपका उपदेश मान्‍ते तो ऐसा क्‍यों होता ?"

"हाय ! हाय ! तुम यह क्‍या कहते हो ? मदनमोहन पर तकाज़ा होगया ! तुमनें यह बात किस्‍सै सुनी ? मैं चाहता हूँ कि परमेश्‍वर करे यह बात झूंट निकले" लाला ब्रजकिशोर इतनी बात कह कर दु:ख सागर मैं डूब गये. उन्‍के शरीर मैं बिजली का सा एक झटका लगा, आंसू भर आए, हाथ पांव शिथिल हो गये. मदनमोहन के आचरण से बड़े दु:ख के साथ वह यह परिणाम पहले ही समझ रहे थे इसलिये उन्‍को उस्‍का जितना दु:ख होना चाहिए पहले होचुका था. तथापि उन्‍को ऐसी जल्‍दी इस दुखदाई ख़बर के सुन्‍नें की सर्बथा आशा न थी इस लिये यह ख़बर सुन्‍ते ही उन्‍का जी एक साथ उमड़ आया परन्‍तु वह थेड़ी देर में अपनें चित्त का समाधान करके कहनें लगे :-

"हा ! कल क्‍या था ! आज क्‍या हो गया ! ! ! श्रृंगाररसका सुहावनां समां एका एक करुणा से बदल गया ! बेलजिअम की राजधानी ब्रसेलस पर नैपोलियन नें चढ़ाई की थी उस्‍समय की दुर्दशा इस्‍समय याद आती है, लार्डबायरन लिखता है:-

"निशि मैं बरसेलस गाजि रह्यो ।।

बल, रूप बढ़ाय बिराजि रह्यो

अति रूपवती युवती दरसैं ।।

बलवान सुजान जवान लसैं

सब के मुख दीपनसों दमकैं ।।

सब के हिय आनन्‍द सों धमकैं

बहुभांति बिनोद प्रमोद करैं ।।

मधुर सुर गाय उमंग भरैं

जब रागन की मृदु तान उड़ैं ।।

प्रियप्रीतम नैनन सैन जुडै

चहुँओर सुखी सुख छायरह्यो ।।

जनु ब्‍यहान घंट निनाद भयो

पर मौनगहो ! अबिलोक इतै ।।

यह होत भयानक शब्‍द कितै ?

डरपौ जिन चंचल बायु बहै ।।

अथवा रथ दौरत आवत है

प्रिय ! नाचहु, नाचहु ना ठहरो ।।

अपनें सुख की अवधी न करो

जब जोबन और उमंग मिलैं ।।

सुख लुटन को दुहु दोर चलै

तब नींद कहूँ निशआवत है ? ।।

कुछ औरहु बात सुहावत है ?

पर कान लगा; अब फेर सुनो ।।

वह शब्‍द भयानक है दुगुनो !

घनघोरघटा गरजी अब ही ।।

तिहँ गूंज मनो दुहराय रही

यह तोप दनादन आवत हैं ।।

ढिंग आवत भूमि कँपावत हैं

"सब शस्‍त्रसजो, सबशस्‍त्रसजो" ।।

घबराहट बढ़ो सुख दूर भजो

दुखसों बिलपै कलपैं सबही ।।

तिनकी करूणा नहिं जाय कही

निज कोमलता सुनि लाज गए ।।

सुकपोल ततक्षण पीत भए

दुखपाय कराहि बियोग लहैं ।।

जनु प्राण बियोग शरीर सहैं

किहिं भाति करों अनुमान यहू ।।

प्रिय प्रीतम नैन मिलैं कबहू ?

जब वा सुख चैनहि रात गई ।।

इहिं भांत भयंकर प्रात भई !!!"[2]

हां यह खबर तुमनें किस्सै सुनी ?"

"चुन्‍नीलाल अभी घर भोजन करनें आया था वह, कहता था"

"वह अबतक घर हो तो उसे एक बार मेरे पास भेज देना. हम लोग खुशी प्रसन्‍नता मैं चाहें जितनें लड़ते झगड़ते रहें परन्‍तु दु:ख दर्द सब मैं एक हैं. तुम चुन्‍नीलाल सै कह देना कि मेरे पास आनेंमैं कुछ संकोच न करे मैं उस्‍सै जरा भी अप्रसन्‍न नहीं हूँ"

"राम, राम ! यह हजूर क्‍या फरमाते हैं ? आपकी अप्रसन्नता का बिचार कैसे हो सक्ता है ? आप तो हमारे प्रतिपालक हैं. मैं जाकर अभी चुन्‍नीलाल को भेजता हूँ. वह आकर अपना अपराध क्षमा करायगा और चला गया हो तो शाम को हाजिर होगा" हीरालाल नें उठते उठते कहा.

अच्‍छा ! तुम कितनी देर मैं आओगे ?"

"मैं अभी भोजन करके हाजिर होता हूँ'' यह कह कर हीरालाल रुख़सत हुआ.

लाला ब्रजकिशोर अपनें मन मैं बिचारनें लगे कि "अब चुन्‍नीलाल सै सहज मैं मेल हो जायगा परन्‍तु यह तकाजा कैसे हुआ ? कल हरकिशोर क्रोधमैं भर रहाथा. इस्से शायद उसीनें यह अफ़वाह फैलाई हो. उस्‍नें ऐसा किया तो उस्‍के क्रोधनें बड़ा अनुचित मार्ग लिया और लोगोंनें उस्‍के कहनें मैं आकर बड़ा धोका खाया.

"अफ़वाह वह भयंकर वस्‍तु है जिस्‍से बहुत से निर्दोष दूषित बन जाते हैं. बहुत लोगों के जीमैं रंज पड़ जाते हैं, बहुत लोगों के घर बिगड़ जाते हैं. हिन्‍दुस्‍थानियोंमैं अबतक बिद्याका ब्यसन नहीं है, समय की कदर नहीं है, भले बुरे कामों की पूरी पहचान नहीं है इसी सै यहांके निवासी अपना बहुत समय ओरों के निज की बातों पर हासिया लगानें मैं और इधर उधरकी जटल्‍ल हांकनेंमैं खो देतेहैं जिस्‍से तरह, तरह की अफ़वाएं पैदा होती हैं और भलेमानसोंकी झूंटी निंदा अफ़वाहकी ज़हरी पवन मैं मिल्‍कर उनके सुयश को धुंधला करती है. इन अफवाह फैलानें मालोंमैं कोई, कोई दुर्जन खानें कमानें वाले हैं कोई कोई दुष्‍ट बैर और जलन सै औरों की निंदा करनें वाले हैं और कोई पापी ऐसे भी हैं जो आप किसी तरह की योग्‍यता नहीं रखते इस लिये अपना भरम बढ़ानें को बड़े बड़े योग्‍य मनुष्‍यों की साधारण भूलों पर टीका करकै आप उन्‍के बराबर के बना चाहते हैं अथवा अपना दोष छिपानें के लिये दूसरे के दोष ढूंढ़ते फ़िरते हैं या किसी की निंदित चर्चा सुन्कर आप उस्‍सै जुदे बन्नें के लिये उस्‍की चर्चा फैलानें मैं शामिल होजाते हैं या किसी लाभदायक वस्तु सै केवल अपना लाभ स्थिर रखनें के लिये औरों के आगे उस्‍की निंदा किया करते हैं पर बहुतसै ठिलुए अपना मन बहलानें के लिये औरों की पंचायत ले बैठते हैं. बहुतसै अन्‍समझ भोले भावसै बात का मर्म जानें बिना लोगों की बनावट मैं आकर धोका खाते हैं. जो लोग औरों की निंदा सुन्‍कर कांपते हैं वह आप भी अपनें अजानपनें मैं औरोंकी निंदा करते हैं ! जो लोग निर्दोष मनुष्‍यों की निंदा सुन्‍कर उन्‍पर दया करते हैं वह आप भी थीरे सै, कान मैं झुककर, औरों सै कहनें के वास्‍ते मनै करकर औरोंकी निंदा करते हैं ! जिन लोगोंके मुख सै यह वाक्‍य सुनाई देते हैं कि "बड़े खेद की बात है" "बड़ी बुरी बात है" "बड़ी लज्‍जा की बात है" "यह बात मान्‍नें योग्‍य नहीं" "इस्मैं बहुत संदेह है" "इन्‍बातों सै हाथ उठाओ" वह आप भी औरों की निंदा करते हैं ! वह आप भी अफवाह फैलानें वालोंकी बात पर थोड़ा बहुत विश्वास रखते है ! झूंटी अफ़वासै केवल भोले आदमियों के चित्त पर ही बुरा असर नहीं होता वह सावधान सै सावधान मनुष्‍यों को भी ठगती है. उस्‍का एक, एक शब्‍द भले मानसों की इज्‍जत लूटता है. कल्‍पद्रुम मैं कहा है "होत चुगल संसर्ग ते सज्‍जन मनहुं विकार ।। कमल गंध वाही गलिन धूल उड़ावत ब्‍यार।।"[3] जो लोग असली बात निश्‍चय किये बिना केवल अफ़वाके भरोसे किसी के लिये मत बांध लेते हैं वह उस्‍के हक़ में बड़ी बेइन्‍साफी करते हैं. अफ़वाह के कारण अबतक हमारे देशको बहुत कुछ नुकसान हो चुका है. नादिरशाह सै हारमानकर मुहम्‍मदशाह उसै दिल्‍ली मैं लिवा लाया नगर निवासियोंनें यह झूंटी अफ़वाह उड़ा दी की नादिरशाह मरगया. नादिरशाह नें इस झूंटी अफ़वाह को रोकनें के लिये बहुत उपाय किये परन्‍तु अफ़वाह फैले पीछै कब रुक सक्‍ती थी ! लाचार होकर नादिरशाह नें विजन बोल दिया. दोपहरके भीतर लाख मनुष्‍यों सै अधिक मारे गए ! तथापि हिन्‍दुस्‍थानियों की आंख न खुली."

"हिन्‍दुस्थानियों को आज कल हर बात मैं अंग्रेजों की नक़ल करनें का चस्‍का पड़ ही रहा है तो वह भोजन वस्‍त्रादि निरर्थक बातौं की नक़ल करनें के बदले उन्‍के सच्‍चे सद्गुणों की नकल क्‍यों नहीं करते ? देशोपकार, कारीगरी और व्‍यापारादि मैं उन्‍की सी उन्‍नति क्‍यों नहीं करते ? अपना स्वभाव स्थिर रखनें मैं उन्‍का दृष्‍टांत क्‍यों नहीं लेते ? अंग्रेजों की बात चीत मैं किसी की निजकी बातों का चर्चा करना अत्यन्त दूषित समझा जाता है. किसी की तन्‍ख्‍वाह या किसी की आमदनी, किसी का अधिकार या किसी का रोजगार, किसी की सन्‍तान या किसी के घर का वृत्तान्त पूछनें मैं, पूछा होय तो कहनें मैं, कहा होय तो सुन्‍नें मैं वह लोग आनाकानी करते हैं और किसी समय तो किसी का नाम, पता और उम्र पूछना भी ढिटाई समझा जाता है. अपनें निज के सम्‍बन्धियों की बातों सै भी अज्ञान रहना वह लोग बहुधा पसंद करते हैं. रेल मैं, जहाज मैं खानें पीनें के जलसों मैं, पास बैठनें मैं और बातचीत करनें मैं जान पहचान नहीं समझी जाती. वह लोग किराए के मकान मैं बहुत दिन पास रहनें पर बल्कि दुख दर्द मैं साधारण रीति सै सहायता करनें पर भी दूसरे की निज की बातों सै अजान रहते हैं. जब तक पहचान स्थिर रखनें के लिये दूसरे की तरफ़ सै सवाल न हो, अथवा किसी तीसरे मनुष्‍य नें जान पहचान न कराई हो, नित्‍य की मिला भेटी और साधारण रीति सै बात चीत होनें पर भी जान पहचान नहीं समझी जाती और जान पहचान हुए पीछै भी मित्रता नहीं करते पर मित्रता हुए पीछै भी दूसरे की निजकी बातों सै अजान रहना अधिक पसन्‍द करते हैं. उन्‍के यहां निज की बातों के पूछनें की रीति नहीं है. उन्‍को देश सम्‍बन्‍धी बातैं करनें का इतना अभ्‍यास होता है कि निज के वृत्तान्त पूछनें का अवकाश ही नहीं मिल्‍ता परन्‍तु निजकी बातों सै अजान रहनें के कारण उन्की प्रीति मैं कुछ अन्‍तर नहीं आता. मनुष्‍य का दुराचार साबित होनें पर वह उसै तत्‍काल छोड़ देते हैं परन्‍तु केवल अफ़वाह पर वह कुछ ख्‍याल नहीं करते बल्कि उस्‍का अपराध साबित न हो जबतक वह उसको अपना बचाव करनें के लिये पूरा अवकाश देते हैं और उचित रीति सै उस्‍का पक्ष करते हैं"