ईन्द्रजाल Jayshankar Prasad द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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इन्द्रजाल

गाँव के बाहर, एक छोटे-से बंजर में कंजरों का दल पड़ा था।उस परिवार में टट्टू, भैंसे और कु्रूद्गाों को मिलाकर इक्कीस प्राणी थे।उसका सरदार मैकू, लम्बी-चौड़ी हड्डियोंवाला एक अधेड़ पुरुष था। दया-माया उसके पास फटकने नहीं पाती थी। उसकी घनी दाढ़ी और मूँछों के भीतर प्रसन्नता की हँसी छिपी ही रह जाती। गाँव में भीख माँगने के लिए जब कंजरों की स्त्रियाँ जातीं, तो उनके लिए मैकू की आज्ञा थी कि कुछ न मिलने पर अपने बच्चों को निर्दयता से गृहस्थ के द्वार परजो स्त्री न पटक देगी, उसको भयानक दण्ड मिलेगा।

उस निर्दय झुण्ड में गानेवाली एक लड़की थी और एक बाँसुरी बजानेवाला युवक। ये दोनों भी गा-बजाकर जो पाते, वह मैकू के चरणोंमें लाकर रखत देते। फिर भी गोली और बेला की प्रसन्नता की सीमान थी। उन दोनों का नित्य सम्पर्क ही उनके लिए स्वर्गीय सुख था। इनघुमक्कड़ों के दल में ये दोनों विभिन्न रुचि के प्राणी थे। बेला बेड़िनथी। माँ के मर जाने पर अपने शराबी और अकर्मण्य पिता के साथ वहकंजरों के हाथ लगी। अपनी माता के गाने-बजाने का संस्कार उसकी नस-नस में भरा था। वह बचपन से ही अपनी माता का अनुकरण करती हुई अलापती रहती थी।

उसका वास्तविक पति गोली ही है। बेला में यह उच्छृंखल भावना विकटताण्डव करने लगी। उसके हृदय में वसन्त का विकास था। उमंग मेंमलयानिल की गति थी। कण्ठ में वनस्थली की काकली थी। आँखों मेंकुसुमोत्सव था और प्रत्येक आन्दोलन में परिमल का उद्‌गार था। उसकी मादकता बरसाती नदी की तरह वेगवती थी।

लोगों ने कहा - ‘खोजता क्यों नहीं? कहाँ है तेरी सुन्दरी स्त्री?’

‘तो जाऊँ न सरकार?’

‘हाँ, हाँ, जाता क्यों नहीं?’ ठाकुर ने भी हँसकर कहा।

गोली नयी हवेली की ओर चला। वह निःशंक भीतर चला गया।बेला बैठी हुई तन्मय भाव से बाहर की भीड़ झरोखे से देख रही थी।जब उसने गोली को समीप आते देखा, तो वह काँप उठी। कोई दासीव हाँ न थी। सब खेल देखने में लगी थीं। गोली ने पोटली फेंककर कहा- ‘बेला! जल्द चलो।’

बेला के हृदय में तीव्र अनुभूति जाग उठी थी। एक क्षण में उसदीन भिखारी की तरह, जो एक मुठ्ठी भीख के बदले अपना समस्त संचितआशीर्वाद दे देना चाहता है, वह वरदान देने के लिए प्रस्तुत हो गयी।मन्त्र-मुग्ध की तरह बेला ने उस ओढ़नी का घूँघट बनाया। वह धीरे-धीरे उस भीड़ में आ गयी। तालियाँ पिटीं। हँसी का ठहाका लगा। वही घूँघट, न खुलनेवाला घूँघट सायंकालीन समीर से हिलकर रह जाता था।

ठाकुर साहब हँस रहे थे। गोली दोनों हाथों से सलाम कर रहा था।रात हो चली थी। भीड़ के बीच में गोली बेला को लिए जब

फाटक के बाहर पहुँचा, तब एक लड़के ने आकर कहा - ‘एक्का ठीक है।’

तीनों सीधे उस पर जाकर बैठ गये। एक्का वेग से चल पड़ा। अभी ठाकुर साहब का दरबार जम रहा था और नट के खेलों की प्रशंसा हो रही थी।