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पुरस्कार

पुरस्कार

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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पुरस्कार

आर्द्रा नक्षत्र; आकाश के काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देव-दुन्दुभी का गम्भीर घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण-पुरुष झाँकनेलगा था। देखने लगा महाराज की सवारी। शैलमाला के अंचल में समतलउर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी। नगर-तोरण से जयघोष हुआ,भीड़ में गजराज का चामरधारी शुंड उन्नत दिखाई पड़ा। वह हर्ष औरउत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा -प्रभात की हेम-किरणों से अनुरंजित नन्ही-नन्ही बूँदों का एक झोंकास्वर्ण-मल्लिका के समान बरस पड़ा। मंगल सूचना से जनता ने हर्ष-ध्वनिकी।

रथों, हाथियों और अश्वरोहियों की पंक्ति जम गई। दर्शकों कीभीड़ भी कम न थी। गजराज बैठ गया, सीढ़ियों से महाराज उतरे।सौभाग्यवती और कुमारी सुन्दरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभितमंगल-कलश और फूल, कुंकुम तथा खीलों से भरे थाल लिए, मधुर गानरते हुए आगे बढ़े।

महाराज के मुख पर मधुर मुस्कान थी। पुरोहित-वर्ग ने स्वस्त्ययनकिया। स्वर्ण-रंजित हल की मूठ पकड़कर महाराज ने जुते हुए सुन्दर पुष्टबैलों को चलने का संकेत किया। बाजे बजने लगे। किशोरी कुमारियोंने खीलों और फूलों की वर्षा की।

प्रतिहारी ने आकर कहा - जय हो देव! एक स्त्री कुछ प्रार्थनाकरने आई है।

आँख खोलते हुए महाराज ने कहा - स्त्री! प्रार्थना करने आई है?आने दो।

प्रतिहारी के साथ मधूलिका आई। उसने प्रणाम किया। महाराज नेस्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा - तुम्हें कहीं देखा है?तीन बरस हुए देव! मेरी भूमि खेती के लिए ली गई थी।

ओह, तो तुमने इतने दिन कष्ट में बिताए, आज उसका मूल्य मांगनेआई हो, क्यों? अच्छा-अच्छातुम्हें मिलेगा। प्रतिहारी!

नहीं महाराज, मुझे मूल्य नहीं चाहिए।

मूर्ख! फिर क्या चाहिए?

उतनी ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि,वहां मैं अपनी खेती करूँगी। मुझे सहायक मिल गया। वह मनुष्यों सेमेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी बनाना होगा।

महाराज ने कहा - कृषक-बालिके! वह बड़ी ऊबड़-खाबड़ भूमिहै। तिस पर वह दुर्ग के समीप एक सैनिक महत्व रखती है।तो फिर निराश लौट जाऊँ?

सिंहमित्र की कन्या! मैं क्या करूँ, तुम्हारी यह प्रार्थना...देव! जैसी आज्ञा हो!

जाओ, तुम श्रमजीवियों को उसमें लगाओ। मैं अमात्य को आज्ञापत्रदेने का आदेश करता हूँ।

सेनापति ने मधूलिका की ओर देखा। वह खोल दी गई। उसे अपनेपीछे आने का संकेत कर सेनापति राजमन्दिर की ओर बढ़े। प्रतिहारी नेसेनापति को देखते ही महाराज को सावधान किया। वह अपनी सुख-निद्राके लिए प्रस्तुत हो रहे थे; किन्तु सेनापति और साथ में मधूलिका कोदेखते ही चंचल हो उठे। सेनापति ने उन्हें कहा - जय हो देव! इसस्त्री के कारण मुझे इस समय उपस्थित होना पड़ा है।

महाराज ने स्थिर नेत्रों से देखकर कहा - सिंहमित्र की कन्या! फिरयहाँ क्यों? क्या तुम्हारा क्षेत्र नहीं बन रहा है? कोई बाधा? सेनापति!मैंने दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की भूमि इसे दी है। क्या उसी सम्बन्धमें तुम कहना चाहते हो?

देव! किसी गुह्रश्वत शत्रु ने उसी ओर से आज की रात में दुर्ग परअधिकार कर लेने का प्रबन्ध किया है और इसी स्त्री ने मुझे पथ मेंयह सन्देश दिया है।

राजा ने मधूलिका की ओर देखा। वह काँप उठी। घृणा और लज्जासे वह गड़ी जा रही थी। राजा ने पूछा - मधूलिका, यह सत्य है?

हाँ, देव!

राजा ने सेनापति से कहा - सैनिकों को एकत्र करके तुम चलो।मैं अभी आता हूँ। सेनापति के चले जाने पर राजा ने कहा - सिंहमित्रकी कन्या! तुमने एक बार फिर कौशल का उपकार किया। यह सूचनादेकर तुमने पुरस्कार का काम किया है। अच्छा, तुम यहीं ठहरो। पहेलउन आततायियों का प्रबन्ध कर लूँ।

अपने साहसिक अभियान में अरुण बन्दी हुआ और दुर्ग उल्का केआलोक में अतिरंजित हो गया। भीड़ ने जयघोष किया। सबके मन मेंउल्लास था। श्रावस्ती दुर्ग आज दस्यु के हाथ में जाने से बचा। आबाल-वृद्ध-नारी आनन्द से उन्म्रूद्गा हो उठे।

उषा के आलोक में सभा-मण्डप दर्शकों से भर गया। बन्दी अरुणको देखते ही जनता ने रोष से हुँकार करते हुए कहा - ‘वध करो!’

राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी - ‘प्राण-दण्ड!’ मधूलिका बुलाईगई। वह पगली-सी आकर खड़ी हो गई। कौशल-नरेश ने पूछा -मधूलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो, मांग। वह चुप रही।

राजा ने कहा - मेरी निज की जितनी खेती है, मैं सब तुम्हें देताहूँ। मधूलिका ने एक बार बन्दी अरुण की ओर देखा। उसने कहा -मुझे कुछ न चाहिए। अरुण हँस पड़ा। राजा ने कहा - नहीं, मैं तुझेअवश्य दूँगा। माँग ले।

तो मुझे भी प्राणदण्ड मिले। कहती हुई वह बन्दी अरुण के पासजा खड़ी हुई।

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