कहानी
औरांग उटांग
धीरेन्द्र अस्थाना
यह तो वह समय था न, जब आप दौड़ना छोड़ चुके होते हैं। तो फिर? मैं सोच रहा हूं और दौड़ रहा हूं, एक द्वार से दूसरे द्वार तक। लेकिन आश्चर्य कि हर द्वार जैसे मेरे ही लिए बंद। हर दुःस्वप्न जैसे मेरे ही लिए छोड़ दिया गया। घृणा और दुश्मनी का एक—एक कतरा जैसे मेरे ही विरुद्ध तना हुआ। किनाराकशी की हर मुद्रा जैसे मेरे ही खाते में।
यह तो घटना—विहीन, उत्सुकता से खाली और उबा देनेवाली शांत—सी जीवन—स्थितियों वाला समय था न। तो फिर?
तो फिर? एक चीखता हुआ सा आश्चर्य मेरी चेतना पर ‘धप्प‘ से आ गिरा है।
समने चांदनी चौक को जाती लंबी संड़क है—एकदम ठसाठस। दौड़ती हुई, सिर ही सिर, मैं लाल किले के सामने वाले कई बस स्टॉप में से एक पर बैठ गया हूं। यूं ही, समझ नहीं पा रहा हूं कि कहां जाऊं? सब जगह तो जा आया हूं।
बगल में देर से एक अधेड़ आदमी बैठा आती हुई बसों के नंबर पढ़ रहा था। सोचा मेरी मदद कोई नहीं कर रहा है तो क्या? मैं तो किसी की मदद के लिए आगे बढूं।
‘कहां जायेंगे भाई साहब?‘ मेरे स्वर में अतिशय नम्रता है। सहानुभूति की आर्द्रता में रची—बसी।
‘कौन मैं?‘ बगलवाला अधेड़ चौंक—सा पड़ा। ‘क्यों? कहीं नहीं जाना है।‘
कहीं नहीं जाना है? मुझे धक्का—सा लगा। यह भी उन्हीं में से है। याद आया। लाल किले में गाइड का काम करनेवाला मेरा एक बचपन का दोस्त (बचपन में यह कहां पता था कि इसकी नियति गाइड बन जाना होगी) एक बार मुझसे इसी स्टॉप पर टकरा गया था—एकाएक।
‘तुम? आप? नमस्ते जी! पहचाना? मैं? देहरादून।‘ उसने एक—दूसरे से असंबद्ध इतने शब्द एक साथ बोले। और वह भी इतनी मुद्राओं में कि जब मैंने उसे पहचाना तो वह लगभग रो—सा पड़ा।
यह मेरे बचपन का दोस्त था, जिसके साथ मैंने बहुत—से दुख देखे थे। फिर बीच में पंद्रह साल का अंतराल था जिन्होंने उसे याचक और मुझे दाता के दायरे में खड़ा कर दिया था।
‘मैं पांच साल से यहीं हूं साहब जी!‘
‘पांच साल से?‘ मैं बुदबुदाया था फिर नकली क्रोध में भरकर बोला था, ‘यह साहब जी—साहब जी क्या लगा रखी है प्रेम!‘ प्रेम कहते हुए मैं बेहद आत्मीय हो गया था। सच बात तसो यह है कि मुझे काफी देर बाद उसका नाम याद आया था।
‘आप यहां कैसे?‘ वह बोला था। ‘कोई बस लेनी है?‘
‘बस?‘ मुझे दुख हुआ था, कुछ—कुछ क्षोभ भी। दुख इसलिए कि वक्त प्रेम को बस से आगे सोचने की कल्पना भी नहीं दे सका और क्षोभ इसलिए कि इसने मेरे संदर्भ में भी बस की कल्पना की।
‘नहीं, बस नहीं।‘ मैं खिसियाकर बोला। मानो मेरे आभिजात्य पर चोट लगी हो। ‘मैं इतनी भीड़—भरी बसों में नहीं चल पाता।‘ मैंने सफाई—सी दी। ‘मैं ऑटो के इंतजार में हूं। तुम यहां कैसे?‘
मैं लाल किले में चपरासी हूं। प्रेम के चहेरे पर कोई पछतावा नहीं था। बल्कि एक तरह का वैसा सुख था जैसा आत्मनिर्भर आदमी के मन में होता है। वह आगे बोला, ‘मैं अधिकारियों की आंख बचाकर कभी—कभी किसी मोटी पार्टी का गाइड भी बन जाता हूं।‘
‘अच्छा—अच्छा।‘ मैंने लापरवाही से कहा, ‘तो यहां खड़े क्या कर रहे थे?‘
‘यह मेरा शौक है।‘ प्रेम ने रहस्योद्घाटन—सा किया। ‘मैं वक्त निकालकर अक्सर यहां आ जाता हूं और बस स्टॉप पर बैठे या खड़े लोगों के चेहरे पढ़ा करता हूं।‘
‘अच्छा?‘ मैं अचरज से भर उठा था।
‘ये बस स्टॉप न होते तो बहुत—से लोग मारे जाते।‘ प्रेम ने दूसरा रहस्योद्घाटन किया था।
‘वह क्यों?‘ मेरा अचरज उत्सुकता में ढल रहा था।
‘क्यों क्या? वक्त काटने की इससे अच्छी जगह क्या हो सकती है भला! इन स्टॉपों पर बीसियों लोग ऐसे बैठे रहते हैं जिन्हें कहीं नहीं जाना होता। वे यहां सुबह आ जाते हैं और रात तक बैठे रहते हैं।‘
‘क्या?‘ मैं लगभग चीख ही तो पड़ा था।
‘यह तो कुछ भी नहीं है।‘ प्रेम मेरी अज्ञानता पर रस लेने लगा था। ‘यहां बैठे—बैठे कई धंंधे भी होते रहते हैं।‘
धंधों की फेहरिस्त में जाने का समय नहीं था तब। मैंने अपने दफ्तर और घर का पता उसे दिया था और कभी आने का निमंत्रण देकर वहां से चला आया था।
और अब बगल में बैठे अधेड़ ने जब चौंककर बताया था कि उसे कहीं नहीं जाना है, तो मुझे प्रेम से अपनी वह अचानक हुई मुलाकात याद हो आयी है।
तो मैं क्यों हूं यहां? मैंने सोचा। मुझे कहां जाना है? क्या मैं भी वक्त काट रहा हूं? मैं और वक्त काट रहा हूं? हे भगवान, जिस शख्स के पास एक क्षण की फुर्सत नहीं होती थी वह यहां, लाल किले के स्टॉप पर खड़ा वक्त काट रहा है? औरांग उटांग क्या इसी को कहते हैं?
सहसा मेरी आत्मा के निस्तब्ध अंधेरे में पसरा शोकाकुल मौन चीख ही तो पड़ा — वध करो! वध करो! वध करो उन सबका, जो शामिल हैं तुम्हारी हत्या के जश्न मेंं।
मैं मारा जा चुका हूं क्या? मैंने सोचा और डर गया। तभी बगल वाले अधेड़ ने गहरी सहानुभूति में भरकर पूछा, ‘तुम्हें भी कहीं नहीं जाना है न?‘
‘मैं घर जाऊंगा।‘ मैंने कुछ इस तरह जवाब दिया मानो मुझसे प्रश्न पूछता वह अजनबी मेरा न्यायाधीश हो।
‘घर जाओगे?‘ मेरा वह न्यायाधीश जैसे आहत हो गया। ‘भाग्यशाली हो।‘ उसने बुदबुदाकर कहा, ‘तो फिर निकल लो। अंधेरा होने को है।‘
मैंने पाया, अंधेरा आसमान से गिरने को ही था और हवा ने ठंडी खुनक के साथ धीरे—धीरे बहना शुरू कर दिया था।
मैंने हवा से पूछा, औरांग उटांग माने क्या? हवा ने सुना। ठिठकी। मुस्करायी और किनारा कर गयी।
किनारा तो ऐसे—ऐसे लोगों ने कर लिया था कि कलेजा मुंह को आ लगा था। मुहावरे अपनी उपस्थिति किस तरह प्रकट करते हैं, यह इन्हीं दिनों जाना था मैंने। पैंतीस की उम्र में जब कनपटियों पर के बाल कहीं—कहीं से सफेद पड़ने लगे हैं। और आंखों के नीचे स्याह धब्बे उतरने को ही हैं।
पैंतीस की उम्र। ईश्वर, मृत्यु और अध्यात्म के सवालों पर लौटने फिसलने का मन करता है न पैंतीस की उम्र में?
तो फिर? किसी बद्दुआ की तरह यह बेराजगारी कैसे सामने आ गयी पैंतीस की उम्र में?
एक भीड़—भरी बस में धंस गया हूं और सरकता हुआ एक कोने में जा लगा हूं — शर्म की तरह छिपता हुआ। ऑटो वाले दिन सीने में जख्म—से रिसने लगे हैं।
यह तो बहुत निरापद और श्लथ समय था न! यह तो वह समय था जब पब्लिक स्कूल में पढ़ते हुए बच्चे स्कूल की तरफ से कभी आगरा, कभी बंबई और कभी गोवा के टूर पर जाते रहते हैं और आप माथे पर बिना कोई शिकन लाये दो सौ, तीन सौ या पांच सौ रुपये चुपचाप उन्हें थमाते रहते हैं — कुछ—कुछ इस अहसास के साथ मानो अपने खुद के वंचित और बुरे बचपन की स्मृति से बदला चुका रहे हों।
उफ! किसी ने पांव कुचल दिया है।
यह तो वह समय था न जब आप बिना सोचे थ्री व्हीलर पर सवार हो जाते हैं, जब पैसे से ज्यादा कीमती वक्त हो जाता है।
‘वक्त बहुत बड़ी चीज है गुरु।‘ बस के किसी यात्री ने अपने साथी से कहा है, ‘वक्त से पहले और भाग्य से ज्यादा कुछ नहीं मिलता।‘
मेरे माथे पर शिकन पड़ गयी है। सुबह घर से निकलते समय पत्नी ने कहा था, ‘तुम पर शनि की साढ़े साती है। इसका निदान ढूंढ़ो।‘
औरांग उटांग माने क्या? मैं सोच रहा हूं। यही न! हो जाना बेरोजगार पैंतीस की उम्र में?
पैंतीस की उम्र और सहसा जाती रही नौकरी का कोई अंतर्संबंध नहीं समझ पा रहा हूं मैं। यह तो बहुत लापरवाह और कुछ—कुछ दंभी समय था न! ऐसे समय में नौकरी का चले जाना ही क्या औरांग उटांग है?
घर के सामने खड़ा हूं मैं और बेल बजाने से डर रहा हूं। पत्नी का पहला सवाल होगा, नौकरी मिली? कैसा मजाक है? जो शख्स नौकरी दिया और दिलाया करता था, वह नौकरी ढूंढ़ रहा है! एक नास्तिक के घर में भाग्य ने डेरा डाला है।
बेल बजा दी है और इस तरह खड़ा हो गया हूं जैसे किसी भिखारी की याचना।
पत्नी को हर समय गुस्सा आता रहता है। एक दिन मारे गुस्से के रो ही पड़ी। कातर आवाज में बोली, ‘क्या ऐसा भी हो सकता है कि अब तुम्हें नौकरी मिले ही न?‘
सवाल पर जोर से हंस पड़ने का मन हुआ। इतना लंबा अुनभव अध्ययन, शोहरत और इज्जत, इस सबके बावजूद नौकरी नहीं मिलेगी? लेकिन रात होते—होते मैं डर गया।
मेरी आत्मा के जंगल में एक ही सवाल सिर पटकता रहा—कहीं ऐसा तो नहीं कि सचमुच अब नौकरी मिले ही न?
और यह जो अनुभव, ज्ञान, शोहरत, इज्जत है—नौकरी की राह में कहीं यही चार बाधाएं तो नहीं खड़ी हैं?
आशंका पर हंस पड़ने का मन हुआ, पर आश्चर्य कि दोनों आंखें रो रही थीं।
पैंतीस रुपये महीने से शुरू होकर साढ़े तीन हजार रुपये तक पहुंचा था मैं और फिर सड़क पर आ गया था—जाहिर है कि एक बार फिर से शुरू होने का समय खोकर।
‘यह तो गनीमत हुई कि छोटे ही सही, पर दो कमरों के अपने मकान में तो हैं।‘ एक दिन पत्नी ने ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहा था, ‘वरना तो...‘
‘वरना तो‘ के बाद वह चुप हो गयी थी और मैंने मजे—ले—लेकर सोचा था, वरना तो औरांग उटांग हो जाता।
इस समय वह एकदम चित पड़ी है—छत पर आंखें गड़ाये। शायद उस समय को कोस रही होगी जब उसने अपना भाग्य मेरे जैसे हतभाग्य के साथ बांधा। सहसा वह पलटी और दार्शनिक अंदाज में बोली, ‘सब लोग कायदे से नौकरी कर रहे हैं, एक तुम्हारी ही नौकरी क्यों चली गयी?‘
मैं ‘तड़‘ से पड़े इस तमाचे पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करता, उससे पहले ही मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला —‘औरांग उटांग।‘
‘छिः‘ उसने करवट बदल ली और आंखें बंद कर लीं।
मैं पढ़ रहा हूं। सच यह है कि पढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूं। छोटा बेटा आ गया है। बोला, ‘पापा, जब आपको नौकरी मिल जायेगी तो मेरे लिए स्पाइडर मैन के स्टिकर ला दोगे?‘
बेटे के सवाल से दिमाग कई जगह से तड़का है शायद। तभी न कंपकंपी—सी छूट गयी। जेब से दो रुपये निकालकर उसे दिये और आहिस्ता से बोला, ‘अपने पापा का इस तरह अपमान नहीं करते बेटा। जाओ और स्टिकर ले आओ।‘
अब तो पढ़ने में एकदम मन नहीं लग रहा है। उठूं और चलूं। लेकिन कहां? लाल किले के स्टॉप पर? नहीं, लाल किले के भीतर। प्रेम के पास। बता रहा था कि उसे आठ सौ पचास वेतन मिलता है। प्रेम भी तो पैंतीस का ही है। उसका—मेरा जन्मदिन, पंद्रह दिन आगे—पीछे ही तो पड़ता था। उसी से पूछता हूं कि बिना अपने मकान के, आठ सौ पचास में कैसे चलता है जीवन, पैंतीस की उम्र में!
रचनाकाल : संभवत : 1989
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