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आसान राह की मुश्किल

आसान राह की मुश्किल

जब आसान राह सामने हो तो मंजिल पर पहुँचने की जल्दी तो होती ही है लेकिन मंजिल पर पहुँच कर सफर ख़त्म हो जाने का भरोसा न हो तो उत्साह फिर ठंडा हो जाता है। जब मंजिल मंजिल न हो कर एक पड़ाव बन जाये और उसके आगे की राह कठिन और कठिनतम हो तो सफर की उमंग एक अंजानी आशंका बन जाती है। मन उहापोह में फंस जाता है क्या करे उस पड़ाव तक का आसान सफर तय करे या कोई और कठिन रास्ता ढूंढ कर मंजिल तक पहुंचे ?

गरीब के लिये पड़ाव क्या और मंजिल क्या ? रास्ता आसान क्या और कठिन क्या ? उसे तो जब तक सांस है तब तक चलते जाना है अपनी मजबूरियों के साथ। इसी रास्ते में कहीं आम की छाँव मिल जाये तो सुस्ता लिए और कभी केरी सी कोई ख़ुशी मिल जाये तो उसे चुन ले। रोड़े काँटे पत्थर तो वहाँ भी मिलते हैं तब अफ़सोस भी होता है कि काश आसान राह चुनी होती पर जब सुस्ता कर आगे बढ़ते हैं तो लगता है थोड़ा कठिन सही पर इस रास्ते की कोई मंजिल तो है।

चिंता में डूबा देवला तेज़ी से चला जा रहा था। पूरब में पौ अभी फटने को थी। चिंता के कारण वह रात भर सो नहीं सका और सुबह जल्दी उठ कर चल पड़ा। उजाला होने तक का इंतज़ार नहीं किया। सेमली तो अभी उठी भी नहीं थी। कल रात वह और सेमली देर तक सूखे से फसलों के ख़राब होने और साल भर खाने के लिए अनाज की परेशानी की चर्चा करते रहे। यही क्या कम था कि बरसात समय पर दगा दे गई और वह कर्ज़ा लेकर खाद और कीटनाशक खरीदने से बच गया। अगली फसल की बुआई में ही अभी डेढ़ दो महीने हैं अब साल भर खाएंगे क्या यही चर्चा वे दोनों देर तक करते रहे। अनाज के दाम सातवें आसमान पर हैं। देवला गाँव के सेठ सुजानमल के यहाँ नौकर है उसकी पगार से ऊपरी खर्चे निकल जाते हैं। सेमली जमीन के छोटे से टुकड़े पर मक्का उगा कर साल भर के लिये अनाज का इंतज़ाम कर लेती है। झोपड़ी की छत पर सब्जी की बेलें फैलाकर मुँह का स्वाद बदलने का इंतज़ाम हो जाता है। अभी की बड़ी समस्या तो अनाज की है जिससे पेट भरा जा सके। कल देर रात तक दोनों इसी का समाधान विचारते रहे।

उजाला फ़ैलने लगा था सूरज देवला की पीठ पीछे था। सामने पगडण्डी पर उसकी लंबी काली परछाई थी। वह जितना उसे पार करने की कोशिश करता वह उतने ही आगे बढ़ती जाती बिलकुल उसकी गरीबी और लाचारी की परछाई जैसे। आस पास खेत नज़र आने लगे। बर्बादी का मंजर अब और स्पष्ट होने लगा जिसे देख कर देवला की चिंता और बढ़ गई। कमोबेश सभी की स्थिति एक समान है ऐसे में किसी से मदद मांगे भी तो कैसे ? सुजान सेठ के यहाँ काम करते देवला को दस बारह साल हो गए तब वह बारह तेरह साल का था। उस साल भी गाँव में सूखा पड़ा था घर में खाने के लाले पड़े थे खेत पडत पड़े थे शहर में जाकर भी मजदूरी मिल ही जाएगी इसका भरोसा नहीं था। देवला का पिता भी कभी शहर नहीं गया था उसके लिए तो गाँव के बगल के कस्बे तक जाना ही बड़ी बात थी। बहुत सोच विचार कर उसने कस्बे के सुजान सेठ के यहाँ देवला को नौकर रख दिया।

सुजान सेठ भला आदमी तो क्या था यो कहें कि आसपास के कस्बों के सेठों में उसकी गिनती भले आदमियों में होती थी। वैसे आदिवासी इलाके के दूसरे सेठ साहूकारों वाली सारी खूबियाँ उसमें थी। पाई पाई की कीमत वसूलना उसे आता था। गरीबों को उधार देकर फंसाना और फिर उनकी मांस मज्जा तक चूस लेना।

देवला सुबह पौ फटते ही अपने गाँव से छह कोस दूर सेठ के घर जाने के लिए चल देता वहाँ उसे चाय के साथ दो पाव खाने को मिलते और फिर अनवरत कामों का सिलसिला जो शुरू होता तो कब शाम के छह बज जाते पता ही नहीं चलता। हाँ दोपहर में एक घंटे खाने की छुट्टी मिलती जिसमे वह सुस्ता लेता लेकिन वह भी आये दिन किसी जरूरी काम के चलते या सुबह पहुँचने में हुई दो चार मिनिट की देर के चलते दस पंद्रह मिनिट छोटी हो जाती।पहले जब वह छोटा था तब बर्तन भी साफ़ करता था पर बड़े होकर और उसकी शादी होने के बाद उसे वो काम करते शर्म आने लगी। तब एक दिन डरते डरते उसने बड़ी मालकिन से कहा बड़ी मालकिन यानि सुजान सेठ की माँ। उम्र के अंतिम दौर में वे अब थोड़ी नरम पड़ गई थीं इसलिए देवला की झिझक को समझते हुए उन्होंने एक महरी लगाने पर जोर दिया। उन्होंने ही दलील दी कि अब घर में सदस्य बढ़ गए हैं बहन बेटियाँ आती जाती हैं इसलिए एक से दो हाथ होना जरूरी है। हालांकि इसके बावजूद भी उस बरस देवला की पगार में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। परिवार बढ़ने से बढे काम की दुहाई देवला दे नहीं पाया। दो की जगह चार ड्रम पानी लाने को काम का बढ़ना नहीं माना गया क्योंकि काम तो वही है पानी भरना।

सुजान सेठ तो काम कम करने पर पगार कम करने के पक्ष में थे पर इतनी सख्ती करने पर वह कहीं काम ही ना छोड़ दे इस डर से उन्होंने इस बात पर बहुत जोर नहीं दिया फिर देवला ने उन से कोई कर्जा भी तो नहीं ले रखा था जिसकी धौस से वे उसे रोक पाते।

पिछले कुछ दिनों से वह धान की कुटाई में लगा था। धनपतियों के यहाँ कभी सूखा थोड़ी पड़ता है। सेठ के गोदाम में अनाज भरा ही पड़ा रहता है। दो बोरी धान की कुटाई फटकाई कर भुसी और चावल अलग अलग करना फिर चावल छान कर साबुत और टुकड़ी अलग अलग करना। भूसी में भी चावल की बारीक़ कनि रह जाती है इसलिए उस भुसी को भी समेट कर बोरे में भरना था। चावल तो सेठ का परिवार खायेगा ही और भुसी बेच दी जायेगी ताकि चावल की कुछ कीमत तो वसूल की जा सके। अजीब है ना अपने खेत की फसल अपने परिवार के खाने के लिए और उसकी भी कीमत वसूल करने की चाह। यही तो साहूकारी है। सेठ साहूकार कोई ऐसे ही थोड़ी हो जाता है एक एक पैसे का मोल समझा जाता है जहाँ से हो सके पैसा वसूला जाता है तब तिजोरी भरती है। यही तो बरकत है। देवला ने एक गहरी सांस ली। हम जैसे गरीब गुरबों के पास कहाँ पैसा बचता है जरूरतें ही मुश्किल से पूरी हो पाती हैं।

देवला तब सेठ के यहाँ काम पर लगा ही था तब एक बार शायद पहली बार वह सब्जी तरकारी लेने अकेले बाज़ार गया था। सब्जी का हिसाब लेते सुजान सेठ ने पाया कि पाँच पैसे कम है। उसने सख्ती से पूछा तो देवला घबरा गया। थोड़ी देर याद करने पर उसे ध्यान आया कि चार आने का धनिया मिर्ची ले कर देवला ने उस बूढी अम्मा को बीस पैसे और दस पैसे के सिक्के दिये थे । बुढ़िया के पास पाँच पैसे का सिक्का नहीं था इसलिए वह छोड़ आया था। ये बात सुनकर सुजान सेठ देवला को लेकर खुद बाजार गया और उस बुढ़िया को खूब खरी खोटी सुना कर पाँच पैसे वापस लेकर आया। देवला को भी सख्त ताकीद दी गई कि वह हिसाब किताब का ध्यान रखे।

कल ही सेठ ने उससे कहा था "देवला ये भूसी का कोई खरीददार हो तो देखना। अपने यहाँ ढोर डंगर होते तो और बात थी गाँव में कोई मिल ही जायेगा जो खरीद लेगा। "

हओ सेठ जी उसने सहमति जताई। ना जाने क्या सोच कर उसने पूछ लिया , दाम क्या बताऊँ सेठ जी ?

सुजान सेठ ने एक लम्बी हुंकार भरी और सोच में पड़ गये। शायद हिसाब लगाने लगे कि खुद के खाने के चावल का कितना मोल हुआ होगा और उसका कितना भाग इससे वसूला जा सकता है। देवला धड़कते दिल से जवाब का इंतज़ार करता रहा। शायद कुछ कौंध गया था उसके दिमाग में। शायद कोई आस ही जगी थी लेकिन नाउम्मीद होने के लिए भी दिमागी तौर से तैयार था।

" अस्सी रुपये बोरी के बोल देना बीस बीस किलो तो होगा एक एक बोरी में ' सुजान सेठ ने अपना गणित लगाया।

बीस किलो मतलब चार धडी अस्सी रुपये की तो एक धडी बीस रुपये की देवला सिर खुजाने लगा। पता नहीं क्या हो गया था उसे हमेशा सपाट भाव से काम करते रहने वाला वह , जाने कैसे भाव उसके चेहरे पर उभर आये जिसे चतुर सेठ ने तुरंत भाँप लिया।

"देख कोई जान पहचान का हो तो साठ रुपये बोरी दे देना पर खाली बोरी वापस चाहिए मुझे। पाँच रुपये की पड़े है वा भी।

सिर हिलाकर देवला वहाँ से हट गया। ना जाने क्यों वह इस मोल भाव से खुश था जो भी ले वाजिब दामों में ले।

कल रात सेमली से अनाज की बात करते देवला ने दो बोरी भूसे की बात बता दी। सेमली की आँखें चमक उठीं उसने पास खिसक कर उसके हाथ पर हाथ रखते फुसफुसाते हुए कहा तुम क्यों नहीं माँग लेते वो भुसी। चावल की कनि तो है उसमे थोड़ा आटा मिला कर रोटी बना लेंगे दो महीने का जुगाड़ तो हो ही जायेगा। इतने सालों से काम कर रहे हो सेठ कोई तुमसे पैसे थोड़ी लेगा।

बस इसी बात ने देवला को चिंता में डाल दिया। क्या सच में सेठ उसे भूसी दे देगा।

ऐसा ही कुछ तो उसके दिमाग में भी कौंधा था शायद इसीलिए उसने सेठ से भाव पूछा और उसे सुनकर उसके चेहरे पर कई भाव आये गए। सेमली की बात के प्रति वह कतई आश्वस्त ना था लेकिन वह कुछ नहीं बोला।

देवला की अपने गाँव में थोड़ी सी जमीन थी जिसे उसके पिता की मदद से सेमली देखती थी। उसके दो भाइयों के पास भी जमीन का एक एक टुकड़ा था जिसपर दो फसल लेकर वे गर्मियों में मज़दूरी करने शहर चले जाते थे। देवला बचपन से सेठ के यहाँ था वह यह काम नहीं छोड़ना चाहता था इससे उसके ऊपर के खर्चे निकल जाते थे। यूँ तो वह पढ़ा लिखा ना था लेकिन सेठ को अपने ग्राहकों से मोल भाव करते देख कर वह काफी कुछ समझ गया था। इतना तो समझ ही गया था कि सेठ भोले भाले आदिवासियों से बेईमानी से बहुत पैसे ऐंठता है इसलिए वह हर संभव कोशिश करता कि सेठ से ब्याज पर पैसा ना लेना पड़े।

उस सुदूर आदिवासी अंचल में सुजान सेठ की चार पीढ़ियाँ गुजर गयीं थीं । उसका मुख्य धंधा तो गरीब आदिवासियों को ब्याज पर पैसा देना है उसमे भी मूल पर ब्याज काट कर पैसा देता है। ब्याज दर भी इतनी तगड़ी कि लेने वाला सालों साल सिर्फ ब्याज ही चुकाता रह जाता है मूल चुकाने की स्थिति में तो कभी पहुँच ही नहीं पाता और जमानत पर रखे गहने जेवर बर्तन जमीन सब सेठ की मिलकियत हो जाते हैं।

आज घर से चलते समय उसने कुछ पैसे जेब में रख लिए थे। नई पुरानी बातें उसे याद आती रहीं वह विचार करता रहा सेठ से क्या कहेगा ? भूसी खुद लेने की बात कैसे करेगा ?क्या सेठ मान जायेगा ? सेठ शायद मान भी जाये पर क्या सेठ से ये एहसान लेना ठीक होगा ? क्या वह कभी इस एहसान से उबर पायेगा ? अगर उसे कहीं कोई और अच्छा काम मिला तो क्या सेठ आसानी से छोड़ेगा ? प्रश्न बहुत कठिन थे वैसे तो इस कठिन समय में कोई और काम मिलने की संभावना नहीं के बराबर है पर वह अपने पैरों में ऐसे किसी एहसान की बेड़ी नहीं डालना चाहता था। वह सेठ को बरसों से जानता था उसके स्वभाव को पहचानता था इसलिए इतने सालों से वह बचता आ रहा था।

जेब में पड़े ये थोड़े से पैसे उसने बड़े जतन से बचाये थे। उसका मन था सेमली के लिए एक नया लुगड़ा लेने का। नहीं बापू के लिए टायर की चप्पलें ले लेगा ठण्ड आने वाली है और कई महीने पहले उनकी चप्पल टूट गई थीं या शायद नई गुदड़ी बनवा लेगा। अगर भूसी मोल देकर ली तो लुगड़ा नहीं ले पायेगा बापू को ठण्ड में नंगे पाँव रहना पड़ेगा वो और सेमली ठण्ड में ठिठुरते रहेंगे। लेकिन अगर ऐसे ही ले ली तो। इसके आगे सोच ही नहीं पा रहा था वह। क्या करे बात करे या ना करे ?

बात करके थोड़ी मुश्किल कम हो जाएगी पर आगे की राह कठिन हो जाएगी। बात ना की या मोल दे कर भूसी खरीद ली तो कुछ समय तो मुश्किल से कटेगा लेकिन आगे राह थोड़ी आसान होगी। गाँव की पगडण्डी से आगे वह अब कस्बे की डामर की सड़क पर आ गया था लेकिन विचार अभी भी उबड़ खाबड़ ही थे। वह बड़े असमंजस में था।

आज वह समय से पहले ही पहुँच गया। सेठ चाय पीता बाहर बैठक में ही मिल गया। राम राम करके वह बोला "सेठ वो भूसी की बात की थी ना ?"

" हाँ हाँ कोई है क्या ?" सुबह सुबह फायदे की बात सुनकर सेठ की आँखें चमक गईं।

"हाँ सेठ गाँव में बूढ़े काका काकी हैं कोई संतान नहीं है उनकी। थोड़े दाम कम कर देते तो गरीब मनक की दुआ मिल जाती। "

"दाम और क्या कम करूँ पहले ही कम कर दिया है। "

एक चुप्पी के बाद देवला बोला " देख लेते सेठ जी इतने ही बहुत हैं उनके लिए तो। "

"दस रुपये और कम कर दूँ तेरे लिए और क्या ?"

" पूरे सौ कर दो सेठ जी गरीब लाचार आदमी है दुआ देंगे। "

थोड़ी देर सोच कर सेठ ने कहा "चल ठीक है पर पैसे नकद लूँगा। "

देवला ने तुरंत जेब से पैसे निकाल कर सेठ के हाथ पर रख दिया। सुबह सुबह लक्ष्मी का आगमन देख सेठ बहुत प्रसन्न था। लक्ष्मी को सिर माथे पर लगा कर वह गल्ले में रखने चला गया और सेठानी को आवाज़ लगा कर कहा देवला को चाय दे दे।

शाम को अपने एक साथी के साथ भूसी की दोनों बोरी पीठ पर लाद कर देवला घर ले आया। आसान राह की मुश्किलें पार कर संतुष्ट हो वह कठिन राह पर चलने को तैयार था।

कविता वर्मा

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