डाॅ सन्ध्या की लघुकथाये Sandhya Tiwari द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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डाॅ सन्ध्या की लघुकथाये

डाॅ सन्ध्या की लघुकथायें

मांस का फूल

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संध्या समय वह अपनी छत पर बैठ कर बाल काढती। बडा सा सूरज माथे पर सजाती। और पश्चिम का सारा सिन्दूर अपनी मांग में भर लेती। मैं उसे रोज देखती हमारा परिचय तो नही हुआ, हां, हमारी मुस्कानो ने आपस में परिचय जरूर प्राप्त कर लिया था।

सुन्दर तो नहीं कह सकती थी उसको, हां भरे भरे चेहरे पर लोनाई जरूर छिटकी थी।मांसल शरीर लेकिन चेहरे पर फूलों की ताजगी। मैने मन ही मन उसका नाम "मांस का फूल" रख दिया था, और अपने रखे नाम पर खुद ही मुसकुरा भी दी थी।

उसके आदमी को मांस बहुत पसन्द था। फिर चाहे खाना हो, या भोगना ।बह रोज मांस पकाती ओर रोज खुद को सजाती उसके लिये, लेकिन... हबस थी कि......स्वाद बदलना उसकी फितरत थी.....

एक रात पति को बेटी के कमरे की ओर जाता देख ,उसकी मांग का सारे का सारा सिन्दूर उसकी आँखो में उतर आया और फिर उसकी सारी उम्र का सिंदूर उस छुरे पर लगा था जिसे पुलिस ने उसके कमरे से बरामद किया था ।

"हाय !हाय ! कैसी डायन औरत है, अपने पति को खा गयी....देखो तो ,कही और फंसी होगी....बनी कैसी पतिव्रता फिरती थी.... अपनी मांग अपने आप उजाड ली....." जितने लोग उतनी बातें ।

लेकिन उसकी आँखे जब मेरी आँखो से टकराईं तो उन्होने हौले से कहा;" मै पतिव्रता ही हूं, चाहे तो साँझ के सूरज से पूछ लो , चाहे तो पश्चिम की लाली से पूछ लो , लेकिन मां भी हूं, और एक औरत भी।"

उसने पुलिस जीप की ओर जाते जाते अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथ में देते हुये केवल इतना कहा ; "इसका ध्यान रखना।" और पतझड़ के मौसम में भी मांस का फूल मुस्कुरा उठा।

डाॅ सन्ध्या तिवारी

डिठौना

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पालने मे लेटना तो दूर बच्चा किसी की गोद तक मे नही टिक रहा था शाम से जो उसने रोना शुरू किया कि चुपने का नाम ही नही ले रहा।घरेलू घुट्टी से लेकर डाॅक्टर तक की सलाह काम नही आ रही थी।तभी किसी को गांव की डिठौना चाची की याद आ गयी ।

चाची आयीं ।चाची ने सरसों के तेल का दीपक बाला ।हाथ मे छोटा सा चक्कू लिया और बच्चे की नजर उतारते हुये मधुर कंठ से गाने लगीं;

"दीया आकू, दीया माकू ,मेरे लाल को नीके राखू ,आम को खट खट आम तले, नीम को खट खट नीम तले, मेरे लला को खट खट मेरे घरै।

बबा की डीठ, दादी की डीठ, ताऊ ताई की डीठ, चाचा चाची डीठ ,सबकी डीठि भसम हुई जाय।तीन देव रच्छा करै ।भुइयां देवी, चौराहे बाली देवी ,तैसीस कोटि देई देउता रच्छा करें।" उन्होने दीये की लौ से फूल तोड के नजर का टीका लगाया ।

बच्चा चुप होकर मीठी नींद सो गया ।

डिठौना चाची उसे सोता देख वातसल्य और तृप्ति के भाव से भरी हुई बोली" देखा बहु कित्ती जोर की नजर लगी थी, लल्ला को।"

चाय का गिलास उनकी और बढाते हुये बहु बोली ; "हां चाची थी तो ।"

अच्छा चाची एक बात बताओ ; "तुम्हारा नाम डिठौना किसने रक्खा?"

"न बिटिया मेरा नाम डिठौना नहीं, कठीं था। मै बचपन से गाती अच्छा थी इसीलिये तो दादी ने जे मन्तुर सिखाया था । " चाची मुस्कुराते हुये बोलीं

डिठौना तो मै सास के लिये थी, क्योकि जिन्दगी भर उनके बांझ बेटे की नजर उतारते उतारते खुद "बांझ के लाल का डिठौना" बन कर रह गयी।

अनकही बात चाची चाय के साथ कडवी कुनैन सी गटक गयीं।

डाॅ सन्ध्या तिवारी

तोरई बनाम काजू

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पत्नी पंखुडी के इन्तजार में उनीदा सा हो चला सुयश मन ही मन अपने लम्बे चौडे परिवार के बारे में सोच बीच बीच में खिन्न हो रहा था।

"आ गयी तुम बडी देर लगा दी ।"

"जी वो सबको दूध देना था बर्तन समेटने थे सुबह के लिये राजमा,,,,,,"

"अच्छा अब आओ भी पहले काम में देर लगाओ फिर गिनाने मे ,,,,,,," कहते कहते सुयश ने पंखुडी को बिस्तर में खींच लिया।

हाथ गर्दन से नीचे ढलका ही था ,कि पंखुडी की कराह निकल गयी ।

"क्या बात है? " आज बडे,,,,,,,,,,,,,,,,,

सुयश शरारत से हंस पडा।लेकिन पंखुडी उसकी हंसी में साथ न दे सकी।

हाथ फिर हरकत में आया ।पंखुडी फिर कराही।

"क्या हुआ ? कुछ परेशानी है क्या ?"

पंखुडी ने अपने होठ कसकर भींच लिये।

"बताओ न ।"सुयश ने कहा

"कुछ नही।" पंखुडी जैसे दर्द को खुद में समेट लेना चाह रही थी।

"है तो कुछ बात ?"कहने के साथ ही सुयश ने कमरे में लाइट जला दी ।

"ये क्या ? "वक्ष के बीच झुलसने का निशान देख सुयश का पूरा शरीर जैसे प्रश्न वाचक बन गया।"क्या हुआ? यहां कैसे जलीं?"

"क् क् कुछ नही "हकला गयी पंखुडी

"कुछ कैसे नही कुछ तो बात है?मुझे नही बताओगी क्या? "

"जी जी वो आपको तो पता है, मुझे तोरई की गरम सब्जी खाना कितना पसन्द है। दोबारा सब्जी गरम करने पर लिसलिसी हो जाती है , तो मै खुद को रोक न सकी।और पाॅलिथिन में करके,,,,,,,,,,,,,,,,,,, " कहते कहते पंखुडी की आंखे नीचे झुक गयी ।

"हूंऽऽ ।चलो कोई बात नहीं बरनाल लगा लो ।मै तुम्हे कल काजू ला दूंगा ।वह खाना ।कहां तोरई वोरई के चक्कर में हो।" सुयश पूर्ववत् पंखुडी को अपने प्रेम में भिगो रहा था और पंखुडी तकिये को।

डाॅ संध्या तिवारी

मोह

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"तुम पे भइया भाभी की मार डांट मुझसे सहन नहीं होती । मेरी भी कोई नौकरी नही जो तुम्हे शहर ले चलूं। हां शहर में एक वृद्धाश्रम है । वहां तुम्हारा बढिया इंतजाम हो जायेगा। तुमे बहां कोई परेशानी नहीं होगी।"

छोटे बेटे ने धीमे स्वर में मां के कान में कहा-

बान की टूटी झूलती खटिया में झूलती खाल वाली वृद्धा की कोटरो में धसीं निस्तेज आंखे पच्चीस वाट के बल्ब की तरह टिमटिमा उठीं निस्तेज काया में हरकत हुयी और वह कुछ चहकते स्वर में फुसफुसाईं -

" हुआं का का है लला"

(बहां क्या क्या है बेटा )

"सब कुछ है अम्मा, मुफ्त खाना-पीना दवाई-दारु ,रहना-सहना, कपडा-लत्ता सब।तुम बस चलो।"

"जेउ सब चलंग्गे।"

( ये सब भी चलेंगे )

"ना अम्मा केबल तुम । "

" तोउ नाय जांगे।अपनौ मारिअय डारै तहूं लास छांइअय मा डरिहै। परायेन को का।"

(तो नही जायेंगे।अपना खून अगर मार भी डाले तो लाश को छाया में ही डालेगा ।पराये तो पराये ही हैं। )

डाॅ सन्ध्या तिवारी

जय हो भारत

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कढिले ,कल्लन, कल्लू ,रमुआ लखपत सभी अबरी की झंडिया बनाने बनाने मे जुटे है ।कोई लेई लगाता, कोई सुतली सुलझाता ।पूरे गांव में परधानी के चुनाव का जोर था।गजोधर बाबू पैसा पानी सा बहा रहे हैं।गजोधर बाबू उर्फ दद्दा पिछली बार भी परधानी में खडे थे, लेकिन बडे कम अन्तर से अपने प्रतिद्वन्दी से हार गये थे ।गजोधर बाबू के दादे परदादे जमींदार थे।इसलिये उनमें जमींदारी की हनक पैदाइशी थी ।गांव बालों के लिये शराब, कबाब ,पान, पुडिया सबकाझ इन्तजाम था।इस बार वह किसी भी कीमत पर चुनाव हारना नहीं चाहते थे। सो सबके लिये कुछ न कुछ था उनके यहां।

आज चुनाव प्रचार का अन्तिम दिन था सभी प्रत्याशी आज अपना "दि बेस्ट " देने के लिये कटिबद्ध थे।गजोधर दद्दा ने गांव सजवा दिया ।खाने पीने का इन्जाम भी करवा दिया। और कैसे आश्वस्त हुआ जाये कि उनके वोट न कटें ।बैठे-बैठे उनकी आंखो में चमक आ गयी ।उन्होने खूंटे से बंधी गाय खोली और चल दिये दल बल के साथ। गाय आगे आगे गजोधर दद्दा पीछे पीछे ।गांव की जिस बखरी में जाते उसी के बडे बूढों के पांव चट्ट से छूते और दांत निपोरते हुये कहते; "चच्चा वोट हमही को दीजौ। तुमै गऊ माता की किसम ।पकरौ गऊ माता की पूंछ ।खाउ किसम कि जा घर को वोट कहूं और नाय जायेगो।"

गांव के चचा ताऊ राम बाण से बच के कहां जाते।

परधान गजोधर दद्दा की जय।

डाॅ सन्ध्या तिवारी

न जाने कितनी मेरीकाॅम

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"क्या कीजियेगा मेरा इन्टरब्यू लेकर ?" पतंग पर लेई लगाते हुये रेहाना ने आंखे पतंग पर जमाये हुये अखबार के पत्रकार से पूछा

"जी मैने सुना है आप बाॅक्सिंग की नेशनल चैंपियन रह चुकीं हैं।" पत्रकार ने जबाब दिया

"जी ,वह दिन हवा हुये जब पसीना गुलाब था ...." कहकर रेहाना पतंगे करीने से लगाने लगी।

"रेहाना जी कुछ तो बताइये " पत्रकार के स्वर में अनुरोध था।

एक लम्बी सांस खींचती हुई रेहाना बोली; "जब मै हाई स्कूल में थी, तब मुझे मेरे कोच से मेरीकाॅम का चित्र बाॅक्सिंग ग्लब्स और दो सौ रुपये इनाम में मिले ।घर में किसी को मेरा बाॅक्सिग करना मंजूर नही था। मै घर पर पिटती ,और रिंग में प्रतिद्वन्दियों को पीटती ।घर पर अम्मी और बाहर मेरे कोच मेरी मदद करते रहे ।धीरे धीरे मै नेशनल स्तर पर पहुंच गयी, फिर शुरू हुआ असली खेल ।खेल का राजनीतिकरण हो गया।मुझे मिलने बाली सहायता भाई भतीजा वाद की भेंट चढ़ गयी।मेरी गरीबी और अब्बू की गैर रज़ामन्दी मेरे पाँव की बेडी बन गयी ।और अब मैं पेट भरने के लिये पतंगें बनाती हूं। ,एक पतंग पर चालीस पैसे मिल जाते हैं।

कहते कहते रेहाना के आंसू फूट पडे, लेकिन उसने उन्हे झट से पोंछ लिया।कही आंसू टपक कर पतंग न खराब कर दें, और चालीस पैसे मारे जायें।

डाॅ सन्ध्या तिवारी