डाॅ सन्ध्या की लघुकथाये--भाग 5 Sandhya Tiwari द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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डाॅ सन्ध्या की लघुकथाये--भाग 5

डाॅ सन्ध्या की लधुकथाये-- भाग 5

रिसटीकेट

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मैम , मे आई कमिन?

मेरी प्रश्न वाचक निगाहे ऊपर उठ गयीं।

कमिन , कहते ही चार पांच लड़कियां अन्दर आ गईं।

क्या हुआ? मैने पूछा ; वे सब मूर्तिमंत सी चुप साधे खडी थी ।

अरेऽऽ क्या हुआ बोलती क्यों नहीं।

उनमे से एक लडकी हकलाती हुई बोली , वो मैम शाम्भवी है न ,जो नाइन्थ मे पढती है ,अरे ,जिसका एडमीशन अभी हुआ है( इस बार बे समवेत स्वर मे बोली) :हाँ तो (मैने उन्हे घूरा)

वे एकसाथ जल्दी से बोलीं वो मैम उसने कल सिगरेट और शराब पी स्कूल मे।

मै सन्न रह गयी ।मेरी नाक के नीचे इतना बडा काण्ड।

बुलाओ उसे , मैने फरमान जारी किया

लेकिन वो तो आज स्कूल नही आई।

ओह ठीक है तुम सब जाओ।

मै ऊहापोह मे पड़ गई।

निष्कर्षतः रिसटीकेट ही उपाय सूझा।

फेसबुक पर लोड मैसेन्जर की भांति मन टुबुक से सतह पर आ गया

अतीत मे कही दिल्ली काॅलेज जाने वाली मेरी विटिया खडी कह रही थी मां आज मेरी रूममेट फिर पीकर आई और बार बार वाॅश रूम जा रही है

और मै सहमी सी उसे केवल हिदायत देती हूं कि तुम मत पीना।

डाॅ सन्ध्या तिवारी

अन्त्यज

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हां, अन्त्यज ही तो था मैं उसके लिये।उसके मन के आखिरी छोर पर पड़ा एक धब्बा।

कल तक हम साथ खेलते खाते पीते भैंस की सवारी करते, ट्यूव वेल मे नहाते,एक ही गन्ने को बारी बारी चूसते।

न जाने कब मै गरीब और अन्त्यज बन गया और वो अमीर तथा सवर्ण।

हम दोनो एक ही काम करते थे चमडे का । फर्क सिर्फ इतना था कि मै मरी हुई गाय भैंसो की चमडी निकालता और वो लेदर के बैग जूते चप्पल जैकेट आदि एक्सपोर्ट इमपोर्ट करता।

आज वह हमेशा के लिये गांव छोड कर जा रहा है अपना नया कारखाना शहर मे लगाने।

मुझे देखते ही बह आलिगंन मे बांध लेगा, मुझसे मनुहार करेगा कि मै साथ शहर चल कर उसके कारखाने मे काम करूं।

इन्ही विचारो मे फंसा कब मै गांव के छोर से बस स्टैन्ड पहुंच गया पता ही नही चला।

मै लपक कर उसकी ओर बढा उसने दूर से हाथ हिला दिया।

मै अपलक उसे देखता रह गया।उसे सिबाय मेरे अन्त्यज होने के कुछ भी याद नही।

गहरी निराशा मे मेरी भावनाओ का सैलाव आँखो की कोर से छलक ही पड़ा।

डाॅ सन्ध्या तिवारी

किसी भी कीमत पर

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सास कर्कश स्वर में माँ से बोली;" ले जाओ अपनी लाडली। दस साल मे एक चुहिया तक नहीं पैदा की ।रूप क्या चाटूं धर के।" माँ की आँखों से टप-टप दो आंसू गिरे और उन्होने मुड़ कर मेरी ओर देखा, फिर धीरे से बुदबुदायीं," जनम देके करम का साथी कोई नहीं "कहकर तेजी से दरवाजे की चौखट लांघ गईं।

मैं आज अल्ट्रासाउन्ड कराने गई थी मैं

माँ बनने वाली हूँ पूरे बारह साल बाद।

गोद मे सांस लेता मांस का लोथडा था। माँ ने आँखे फाड़कर चिंता के स्वर में कहा, "ये तूने क्या किया इसका क्या करेगी।पूरा मोहल्ला तेरी बेबकूफी पर हँस रहा है जब डाॅक्टर ने तुझे बता दिया था तो एबार्शन क्यों नही कराया।"

मैं बाँझ नहीं हूँ ।"किसी भी कीमत पर" मैं बुदबुदायी।

डाॅ सन्ध्या तिवारी

जहन्नुम

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माँ की कोख मे थी तो बाहर होने वाले शोर शराबे को सुनती तो सहम जाती पता नही ये सब क्यों इतना लड़ते झगड़ते है ।

पाँच साल की थी समझ और नासमझ के बीच का दौर था लड़ाई हो रही है इतना पता था क्यों किसलिये नही पता।

कमरे से तडाक की आवाज आई साथ ही पापा के चीखने की चुपऽऽऽऽ

मम्मी का चेहरा क्रोध और जलालत से लाल

मम्मी बाहर आयी , तो मै सहमी सी मम्मी की बगल से टिक गई।पांच मिनट बाद

मम्मी उठ कर छत की ओर बढ़ी।मै भी उनसे चिपक कर चल रही थी ।

कहाँ जा रही हो मैने रोनी आवाज मे पूछा,

कोई जवाब नही मिला,क्रमशःदूसरी और तीसरी वार भी नही ।हम छत पर पहुंच चुके थे।जबसहमी आवाज मे मैने फिर पूछा तो झल्लाकर बे बोली जहन्नुम मे।

मै थोडी देर उनके डर से चुप रही परन्तु डर का स्थान जिज्ञासा ने ले लिया जहन्नुम कैसा होता है ?मेरे इतना पूछते हीउन्होनेमुझे दो अट्टालिका के बीच के खाली स्थान मे लटका दिया।वहां घुप्प अंधेरा, सीलन, कूडे की बदबू आदि ने भयभीत कर दिया मै थरथर काँपकर रोने लगी और जोर जोर से कहने लगी नहीं मुझेनहींजाना जहन्नुम।

माँ को जाने क्या हुआ वो भी मुझे गले से लगा कर रोते हुये बोलीं ,मै भी तो तेरे नाना नानी से यही कहती हूं मुझे नहीं जाना जहन्नुम।

तब नहीं समझ पाई आज समझ रही हूं।

डाॅ सन्ध्या तिवारी

पागल

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"पुनीत ओ पुन्नी ऽऽऽ अरे पगले तूने मेरी मैक्सी का पोंछा तो नहीं बना डाला।" अलमाली में मैक्सी ढूढ़ते हुये मीता अपने अर्धविक्षिप्त देवर को आवाज दे रही थी,,,,

"भाभी मै पागल नहीं " पुनीत जोर से ताली बजाता कूदता मीता के सामने खड़ा हो के खीसें निपोरने लगा ।

भावी भावी तुम मैके कब जाओगी???

क्यों तुझे बहुत जल्दी है मेरे मायके जाने की।कल ही तो आई हूँ क्या बात है,,, तुम दोनो भाई खूब बढ़िया बढ़िया माल खाते हो मेरे पीछे क्या ? मीता अपनी मैक्सी ढूंढते हुये बोली ।

अले भावी तभी तो वो आयेगी जिछे भइया ने तुम्हाले पीछे तुम्हाली मैक्छी पहनने को दी थी ।वो न भइया संग ऊपल वाले कमले मे बोत देल लूडू खेली ,भइया ने बताया हाँ।उछने मेले गाल भी नोचे।जब मैने पूछा अब कब आओगी तो उछने कहा तुमाली भावी जब मैकै जायेगी ।तब हाँऽऽ ।तुम जाओ न भावी ।

मीता के मैक्सी ढूंढ़ते हाथ जहाँ के तहाँ रुक गये,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

डाॅ संध्या तिवारी

टाॅर्च

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एक घर ऐसा था जिसमें कट्टरता , दिखाबा, लकीर की फकीरी आदि गुण कूट कुट कर भरे थे। दिमाग की रोशनी आँखो की रोशनी से भी कम थी।मेरी जरूरत उस घर में लगभग सब को पड़ती थी सिवाय उस घर की बहू के।

घर वाले जबरदस्ती बहू को उस घर के फ्रेम मे कैद करना चाहते, लेकिन उसकी फोटो उस फ्रेम में समाती ही नहीं थी। सो हमेशा उसकी कांट छांट होती रहती थी।खैर,,,,,,,,,,,

करबा चौथ का दिन बहू को आज्ञा समस्त घर के काम के साथ भारी भरकम लंहगा जेवर और तीन मंजिल पर पूजा का सारा विधि विधान करना ।"अकेली जान इतना काम"।

वह समय भी आया जब चाँद , आँधी और पूजा का समय एक था।मेरी जरूरत हर हाथ को थी ,क्योंकि तिमंजिल पर रौशनी की कोई व्यवस्या नहीं थी ।पूजा के सामान के साथ मैं आगे आगे चल दी।मेरे पीछे गृह स्वामिनी उनकी क्वाँरी तीन बेटियाँ और अंत में एक हाथ से गडुआ,पूजा का थाल और एक हाथ से भारी भरकम लंहगा पकड़े लडखडाती उसकी बहू।

मेरी रौशनी में पूजा तो सम्पन्न हो गई लेकिन चन्द्रमा की आरती कैसे हो ।अंधड दीये को अपने आगे ठहरने दे तब न।

भूख प्यास चरम पर थी।

"मम्मी अब क्या करोगी, थोडी देर रुक जाओ ,आँधी निकल जाये तब कर लेना आरती ।" लडकी ने कहा -

"हाँ ऽऽ ! क्यों नहीं तुम्हारे पेट में तो पडा है, इसलिये।देखो ! आँधी के साथ पानी के भी आसार हैं ।ओर कितनी देर रुके ?

आधा घंटा तो हो गया चाँद निकले।मेरा वी पी बढ रहा है।मुआ आजकल घर-घर लाइट ,इनवर्टर और टार्चें हो गयी है तो कोई लैम्प लालटेन का शीशा रखता ही नही।नहीं तो दिये पे रख कर आरती कर लेती।" "लगभग कुढ़ते हुये गृहस्वामिनी बडबडाईं।"

कुछ देर इधर उधर देखने के बाद उन्होंने आव देखा न ताव लडकी के हाथ से टार्च छीन कर चन्द्रमा की आरती कर दी ,और हंसते हुये बोली ; "अरे चन्द्रमा को रौशनी ही तो दिखानी थी , टार्च की दिखा दी।"

बार बार दिया जलाते बहू के हाथ ठिठक गये वह कभी मुझे देखती कभी सास को।

अब मैं उसे कैसे बताऊँ कि रौशनी देना मेरा काम है जागरूकता देना नहीं।

डाॅ सन्ध्या तिवारी