Mary farnandies kya tum tak meri aawaz pahunchti h dhirendraasthana द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Mary farnandies kya tum tak meri aawaz pahunchti h

कहानी

मेरी फर्नांडिस क्या तुम तक मेरी आवाज पहुंचती है ?

धीरेन्द्र अस्थाना

बोरीवली... कांदिवली...मालाड...गोरेगांव... मेरी फर्नांडिस।

मेरी फर्नांडिस? हड़बड़ा कर मेरी आंख खुल गई। गाड़ी जोगेश्वरी पर रुकी थी। गोरेगांव से अगला स्टेशन जोगेश्वरी ही होता है और गाड़ी जोगेश्वरी पर ही रुकी भी थी।

तो फिर? गोरेगांव के बाद मेरी उनींदी स्मृति में जोगेश्वरी के बजाय मेरी फर्नांडिस क्यों उतर आई? गाड़ी फिर चल पड़ी थी... मैं सिर झटक कर फिर नींद में था। स्मृति मेरी नींद में नींद के बाहर खड़ी होकर सक्रिय थी।

मेरी फर्नांडिस? मैं भी छलांग लगाकर अपनी नींद से बाहर आ गया। गाड़ी खार पर रुकी थी। कहां है मेरी फर्नांडिस? मैं खिड़की के बाहर देख रहा था, जहां लोगों का हुजूम मानव श्रृखंला की मुद्रा में थिर था। थिर लेकिन व्यग्र। क्या इनकी व्यग्रता में भी कोई मेरी फर्नांडिस टहल रही होगी? गाड़ी आगे बढ़ रही थी। मैं फिर नींद में सरक लिया था।

खट खट खटाक। खट, खट खटाक। बगल से विरार फास्ट गुजर गई। मेरी आंख खुली। गाड़ी बांद्रा से आगे जा रही थी।

कौन—सा स्टेशन आने वाला है? किसी ने मेरी कोहनी थपथपा कर पूछा।

मेरी फर्नांडिस। मेरे होठ बुदबुदाए। गाड़ी माहिम पर खड़ी थी और स्टेशन पर ऐसी कोई लड़की मौजूद नहीं थी जो मेरी फर्नांडिस से रत्ती भर भी मेल खाती हो।

तुम से कौन मेल खा सकता है मेरी फर्नांडिस? तुम तो...तुम तो...

मेरी पलकें मुंदने लगी थीं।

वह पालघर की शाम थी। मेरे स्वस्थ—प्रसन्न जीवन में दुर्भाग्य की तरह उतरी हुई शाम। लेकिन उस शाम, जब वह घट रही थी, चारों तरफ सुख ही सुख पसरा हुआ था। हल्की—हल्की ठंड के साथ सड़कों पर उतरता सांवला सा कस्बाई अंधेरा मुझे भा रहा था। वहां मेरे अपने महानगर का सघन और शाश्वत शोर नहीं था। कोई किसी के कंधे नहीं छील रहा था। किसी को कहीं जाने की जल्दी नहीं थी। कितने दिन, नहीं कितने बरस बाद मैं सुकून में था। मैं सड़क पर खड़ा, सड़क किनारे मछली बेचती कोली बाइयों को देख रहा था और उनके कार्य व्यापार पर मुग्ध था कि तभी किसी सनकी जिद की तरह इस इच्छा ने सिर उठाया कि आज रात तो यहीं ठहरना है। रुकने का पैसा दफ्तर दे ही देगा। दफ्तर वालों को क्या मालूम कि मेरा काम आज शाम ही निपट गया है। उसे कल तक आराम से खींचा जा सकता है। और बस, मैं पालघर की शांत सड़कों का आवारा बन गया।

‘ऐई, लफड़ा नईं करने का। दूंगा एक लाफा तो सारी आवारगी उतर जाएगी।‘ डिब्बे में शोर मच गया। दो लोग लड़ पड़े थे। दुख, गर्मी, पराजय, मेहनत और थकान के बीच खड़े इस शहर के लोगों को गुस्सा जल्दी—जल्दी आता है। लेकिन उतनी ही जल्दी वह उतर भी जाता है। किसी के पास शाश्वत संघर्ष के लिए फालतू वक्त नहीं है।

लेकिन उस गहराती हुई पालघर की शाम में मेरे पास ढेर सारा फालतू वक्त था जिसमें से काफी सारा मैंने खर्च कर दिया था। और फिर मैं गहरी थकान से भर उठा। आंखों के सामने, उस कस्बे के लिहाज से, एक बेहतरीन बिल्डिंग थी, जिसके अहाते में फव्वारों वाला बगीचा था। दरवाजे पर दरबान तैनात था। वह वहां का मशहूर होटल ‘सिमसिम‘ था।

बाम्बे सेंट्रल उतरने का है। कोई जोर से चीखा और मेरी पलकें खुल गईं। काफी बड़ी भीड़ उतर रही थी। गाड़ी के चलते ही मैं फिर स्मृति लोक में था।

ग्रांट रोड...चर्नी रोड... मरीन लाइंस...मेरी फर्नांडिस! उठो। चर्चगेट आ गया। किसी ने मुझे जगा दिया। मैं उठा। अंगड़ाई ली और गाड़ी से उतर गया। अब मुझे टैक्सी लेकर नरीमन पाइंट जाना था।

तुमने तो मेरे जीवन में उस रात एक मौलिक अचरज और अविश्वसनीय सुख की तरह प्रवेश लिया था मेरी फर्नांडिस। तो फिर तुम मेरे जीवन का सबसे विराट दुख कैसे बन गईं?

टैक्सी सिडन्हम कॉलेज के सामने से गुजर रही थी। सड़क पर, कारों के बोनट पर सिडन्हम की सुंदरियां वक्ष और जांघें उघाड़े बेशर्मों की तरह उपस्थित थीं। शहर के बिंदास जीवन और फिल्मों की उदार नग्नता ने उन्हें बदतमीज तरीके से लापरवाह और बोल्ड बना दिया था। लड़कियों वाली यह गली शहर के स्त्री सौंदर्य का कामांध आईना थी। इस गली में किसी समय गले में ईसामसीह का लॉकेट लटकाए मेरी फर्नांडिस भी बसा करती थी। आह! दर्द मेरी रगों में तेजाब की तरह उतर रहा था। सिर्फ छह घंटे, हां सिर्फ छह घंटे तुम्हारे साथ बिताने के बाद जितनी बार मैं तुम्हारा नाम ले चुका हूं मेरी फर्नांडिस, उतनी बार तो तुम्हारी मां ने तुम्हें नौ महीने अपनी कोख और सोलह बरस अपने घर—आंगन में पालने के बावजूद नहीं लिया होगा।

टैक्सी रुक गई। मैं बाहर निकला। सामने विशाल समुद्र था, शहर का गौरव और सुख। ओबेराय होटल था, एक्सप्रेस टॉवर्स था, एयर इंडिया की बिल्डिंग थी।

ऐ चौबीस और अट्‌ठाइस मालों वाले विशाल भवनों, तुम गवाह रहना कि अभी चंद रोज पहले सफल और सुखी जीवन बिताने वाले एक निरपराध शख्स का संसार अकारण ही नष्ट हो गया है। मुझे मालूम है मेरी फर्नांडिस, तुम मुझसे पहले इस संसार से विदा लोगी लेकिन यह याद रखना कि अंत समय में भी प्रभु यीशू तुम पर अपनी करुणा की वर्षा नहीं करेंगे।

दस मिनट तक लिफ्ट नहीं आई तो मैं सीढ़ियां चढ़ने लगा। दूसरे माले तक पहुंचते—पहुंचते सांस उखड़ गई। कुछ समय, शायद दो साल या तीन साल या चार साल बाद मैं इन सीढ़ियों पर नहीं चढ़ा करूंगा।

अपने केबिन में घुसकर मैंने अपनी कुर्सी, अपनी मेज और अपने फोन को एक गुमशुदा हसरत की तरह स्पर्श किया। सब कुछ वैसा ही था—कल की तरह, परसों की तरह, पिछले हफ्ते की तरह—और उससे भी पहले वाले उस हफ्ते की तरह जिसकी एक शाम मैं पालघर के ‘सिमसिम‘ में ‘कैरेवान‘ बार की एक मेज पर था, दो पैग पी लेने के बाद उल्लसित उत्तेजना में।

तभी फोन की घंटी बजी। उस तरफ कोई महिला स्वर था। मेरी फर्नांडिस! मेरी चेतना में कोई दीप जला और बुझ गया। मुझे नहीं बात करनी किसी भी औरत से—मैंने कहा और फोन काट दिया। बदन में कंपकंपी सी होने लगी थी। मेज पर रखा पानी का गिलास उठाकर मैंने थोड़ा—सा पानी पिया और कुर्सी पर बैठ कर तौलिए से चेहरा साफ करने लगा।

घंटी फिर बजी। मैंने फोन उठाया।

‘फोन मत काटना। मैं स्मिता हूं।‘ उधर से आवाज आई।

‘हां, बोलो।‘ मैंने कहा। वह मेरी छोटी साली थी।

‘दीदी बता रही थी कि जब से आप पालघर से लौटे हैं, बेहद गुमसुम रहने लगे हैं। क्या हुआ?‘ स्मिता की आवाज भी वैसी ही थी, उतनी ही खनक भरी जितनी पहले हुआ करती थी—मेरी फर्नांडिस से पहले वाले दिनों में।

‘कुछ नहीं!‘ मैंने कहा, ‘सिर्फ थकान है और थोड़ा—सा दफ्तर का टेंशन। दो—चार रोज में ठीक हो जाएगा।‘

‘दो—चार रोज मेंं?‘

‘हां दो—चार रोज में, सच्ची। कविता से बात हो तो उसे बोल देना कि चिंता न करे।‘ मैंने कहा और फोन रख दिया। कविता मेरी पत्नी थी और पहले मैं स्मिता से लंबी—लंबी बातें किया करता था।

दो—चार रोज में? मैंने दोहराया और सिहर गया। इस बार इंटरकॉम की घंटी बजी। डिप्टी जीएम थे।

‘कुछ दिनों से तुम्हारे काम में सुस्ती आ गई है?‘ वह पूछ रहे थे। डांटकर नहीं, प्यार से, ‘कितनी सारी जरूरी फाइलें तुम्हारे पास अटकी हुई हैं।‘

‘सॉरी सर।‘ मैंने अदब से कहा, ‘तबीयत थोड़ी ढीली रही इस बीच। शायद मौसम की वजह से।‘

‘मौसम? मौसम को क्या हुआ? वह तो बहुत शानदार है।‘ उन्होंने याद दिलाया कि मैं जून—जुलाई में नहीं दिसंबर के शहर में हूंं।

‘जी।‘ मैंने कहा, ‘तीन दिन में सारी फाइलें निपटाता हूं।‘

‘कोई समस्या हो तो बोलो।‘ उनके भीतर का बड़ा भाई जाग गया था।

‘नहीं सर। थैंक्यू। थैंक्यू वेरी मच।‘

‘ओके। गो अहेड।‘ उन्होंने फोन रख दिया।

गो अहेड! मैंने दोहराया, लेकिन कहां? मैंने सोचा और सारी संभावनाओं पर राख झरने लगी। सदी के सबसे दारुण दुख से मेरी आत्मा गले मिल रही थी।

‘कैरेवान‘ में इक्का—दुक्का लोग ही थे। इस छोटे कस्बे में इतनी मंहगी विलासिता कौन भोग सकता होगा। मुझे अच्छा लग रहा था। रिमझिम करते नीले अंधेरे के बीच तीसरे पैग का सुरूर शांत उत्तेजना में जीवंत अंगड़ाइयां ले रहा था। मेरे सामने मेरा अकेलापन बैठा था। पैग खत्म करके सड़कों पर भटकने का निर्णय मैं ले चुका था कि तभी मेरे दाएं कान की तरफ संगीत सा बजा—‘मैं आपके साथ बैठूं?‘ धीमे—धीमे थरथराते अपने चेहरे को मैंने दाईं ओर घुमाया और विस्मित रह गया। सामने खड़ी देह से जो आलोक झर रहा था उसका सामना कर मेरा शहर शर्मसार हो सकता था। मेरी एल्कोहलिक उत्तेजना कौतुक में ढल रही थी।

दोनों हाथ मेज पर टिका कर वह थोड़ा झुकी। उसके गले में लटका ईसामसीह का लॉकेट बाहर की तरफ झूल आया। वह मैक्सी के स्टाइल वाली कोई भव्य पोशाक पहने हुए थी।

‘मेरा नाम मेरी है, मेरी फर्नांडिस।‘ वह बुदबुदाई, ‘मैं आपके साथ बैठूं?‘

मैं उस समय चकित हो कर उसके दूधिया उजास को तक रहा था। उसने फिर अपना नाम बताया और बैठने के लिए पूछा। मैं झेंप गया और जल्दी से बोला, ‘हां, हां, बैठिए न।‘

‘वन मिनट।‘ वह मुस्कराई और घूम गई। ऊंची एड़ी की सेंडिल पहने वह खट—खट करती काउंटर की तरफ जा रही थी।

हे भगवान! मेरी आंखों में कितने सारे अनार एक साथ फूटने लगे थे। उसके कटावदार नितंबों को छूने के लिए छोटे शहरों में दंगा हो सकता था। और उस पर उसकी चोटी। अपने अब तक के कुल जीवन में मैंने इतनी लंबी और ऐश्वर्यशाली चोटी कहीं नहीं देखी थी। वह घुटनों के जोड़ से भी नीचे चली गई थी। थोड़ी और बड़ी होती तो एड़ियां ही छू लेती।

जब तक वह काउंटर पर कुछ बतिया कर लौटी, मैं मारा जा चुका था।

‘यह असली है?‘ मैं अभी तक हतप्रभ था, ‘इसे छू कर देखूं?‘

प्रति उत्तर में वह मुस्कराई और उसने चोटी को मेज पर बिछा दिया फिर हाथ में गिलास उठाकर बोली—‘चियर्स। तुम्हारी लंबी, सुखी जिंदगी के नाम।‘

‘चियर्स।‘ मैं स्वप्न में चल रहा था। उसी दशा में बुदबुदाया —‘तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य के नाम।‘ और अपने बाएं हाथ से उसकी चोटी को सहलाने लगा।

उसका दूसरा और मेरा चौथा समाप्त होने तक उसके यहां होने का रहस्य मैं जान चुका था। कभी वह भी सिडन्हम में पढ़ती थी। वही आम कहानी, जो ऐसे जीवन के इर्द—गिर्द अनिवार्यतः रहती है। अभी सिर्फ सत्रह की है और एक बरस पहले ही यहां आई है। मां बंबई में है। छह दिन यहां रह कर सातवें दिन मां के पास जाती है। बंबई में यह काम करने का नैतिक साहस नहीं हुआ। उसकी एक दोस्त, जो अपना महंगा जेब खर्च अर्जित करने कभी—कभी यहां आती थी, ने उसे ‘सिमसिम‘ का द्वार दिखाया।

मैं उसे लेकर करुणा मिश्रित प्रेम से भर उठा था।

‘क्या तुम्हें पाया जा सकता है?‘ मैंने सीधे उसे अपनी इच्छा से अवगत करा दिया। नहीं जानता कि ऐसा किस सम्मोहन के तहत हुआ। जबकि इन मामलों में मैं खासा संकोची सद्‌गृहस्थ रहा हूं। लेकिन कुछ था उसके व्यक्तित्व में कि मैं फिसल ही तो पड़ा।

‘रात भर के बारह सौ रुपये काउंटर पर जमा करा दीजिए।‘ वह अपने लॉकेट से खेलने लगी।

मैंने तत्काल बारह सौ रुपये उसे थमा दिए। वह उठकर काउंटर पर चली गई। मैं उसकी प्रतीक्षा में कांपने लगा। कैसा होगा इसका बदन? एक उत्तेजित चाकू मेरी नसों को चीर रहा था।

वह आई और मेरा हाथ थाम कर फर्स्ट फ्लोर वाले मेरे कमरे की तरफ बढ़ने लगी।

‘मे आई कम इन?‘ केबिन का दरवाजा खोल कर एक लड़की झांक रही थी।

‘तुम मेरी फर्नांडिस तो नहीं हो न?‘ बेसाख्ता मेेरे मुंह से निकला।

‘नहीं।‘ वह खुशी—खुशी भीतर आ गई, ‘क्या आपने मुझे पहले कहीं देखा है या कि मेरी शक्ल मेरी फर्नांडिस से मिलती है?‘ वह घनिष्ठता बढ़ाने की कोशिश में थी। मैं समझ गया यह किसी अच्छी कंपनी की पीआरओ है। पुरुष हो या स्त्री—पीआरओ को मीठा, नरम और स्नेहिल जीवन जीने की ही पगार मिलती है।

किसी नये प्रोडक्ट के रिलीज फंक्शन की कॉकटेल पार्टी का निमंत्रण देकर और आने का पक्का वायदा लेकर वह विदा हुई।

कमरे के नीम अंधेरे में मेरी फर्नांडिस की गर्म सांसें मेरे चेहरे पर बिखर रही थीं। उसने अपनी चोटी खोल दी थी। बीसवीं शताब्दी के तमाम बचे हुए साल उसके मादक बालों पर फिसल रहे थे।

मैं मेरी फर्नांडिस के कपड़े उतार रहा था।

शेव बनाते—बनाते मैंने सामने रखे शीशे में देखा, बाथरूम से नहा कर निकला मेरा बेटा मेरे तौलिए से अपना बदन पोंछ रहा था।

अरे? झन्न से मेरे भीतर कुछ टूट गया। मैं लपक कर उठा और बेटे के गाल पर चांटा जड़ दिया।

‘क्या हुआ?‘ चांटे की आवाज सुन कविता किचन से दौड़ी—दौड़ी आई।

‘यह मेरा तौलिया इस्तेमाल कर रहा है।‘ मैं अपने क्रोध के चरम पर खड़ा कांप रहा था।

‘अरे तो इसमें चांटा मारने की क्या बात है?‘ कविता तुनक गई, ‘कुछ दिनों से तुम एबनार्मल बिहेव कर रहे हो।‘ वह बिगड़ी फिर रुआंसी होकर बोली, ‘तुमने हम लोगों को प्यार करना भी छोड़ दिया है।‘

‘नहीं कविता।‘ मेरी दृढ़ता खंड—खंड हो बिखरने लगी लेकिन मैंने खुद को संभाल लिया। ‘यह मेरा प्यार है।‘ मैं बुदबुदाया और फिर शेव बनाने लगा।

सामने रखे शीशे में मेरी फर्नांडिस उभर रही थी। निर्वस्त्र। मैं पागलों की तरह उसे चूम रहा था—हर जगह। वह मेरे कपड़े खोल रही थी। अपने दोनों वक्षों के बीच उसने मेरा सिर रख लिया था और मेरी गर्दन सहलाने लगी थी। फिर दोनों हाथों से उसने मेरा चेहरा उठाया और अपने उत्तप्त होठ मेरे होठों पर रख दिए।

सुख मेरे भीतर बूंद—बूंद उतर रहा था।

किचन में कविता ने कोई बर्तन गिराया। वह अपने बीहड़ दुख के दुर्दांत अकेलेपन में खड़ी बौरा रही थी।

मैं अपना तौलिया लेकर बाथरूम में चला गया। कपड़े उतार कर मैंने शॉवर चला दिया। और कितने दिन? मैंने सोचा। इस शॉवर में नहाने का सुख कब तक बचा रहने वाला है मेरे पास?

मैं नहा कर निकला तो मेरी फर्नांडिस पलंग पर उलटी लेटी हुई थी। मैंने उसके बदन पर हाथ फिराया और उसकी गर्दन चूमते हुए बोला, ‘बहुत गहरा सुख दिया है तुमने मेरी फर्नांडिस, मैं इस रात और तुम्हें याद रखूंगा।‘

‘सुख?‘ मेरी फर्नांडिस पलट गई।

‘अरे?‘ मैं चौंक गया। यह कैसा हो गया है मेरी फर्नांडिस का चेहरा?

‘सुख?‘ मेरी फर्नांडिस का चेहरा अबूझ कठोरता में तना था, ‘सुख तुम्हारे जीवन से विदा ले चुका है मूर्ख आदमी।‘

‘मेरी?‘ मैंने तड़प कर कहा।

‘यस।‘ मेरी खड़ी होकर कपड़े पहनने लगी। फिर मेरी तरफ चेहरा घुमाकर बोली, ‘याद तो तुम्हें रखना ही होगा।‘ मैंने देखा उसकी आंखों में प्रतिशोध के चाकू चमक रहे थे। एक कुटिल लेकिन लापरवाह हंसी हंसते हुए वह बोली, ‘कपड़े पहनो और घर जाओ। मैंने तुम्हें डस लिया है।‘ उसका स्वर हिंसक था।

‘मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं मेरी। साफ—साफ बताओ। देखो, मैंने तुमको प्यार किया है।‘ मेरा स्वर याचना की तरफ फिसल रहा था।

‘तुम मेरे बीसवें शिकार हो।‘ मेरी गुर्राई। अब वह अपना ईसामसीह वाला लॉकेट पहन रही थी।

‘मतलब?‘ मैंने मेरी का हाथ पकड़ लिया।

‘मैंने तुम्हें एड्‌स दे दिया है।‘ उसका स्वर पत्थर था।

‘क्या?‘ मैं चकरा कर पलंग पर गिरा, ‘तुमको एड्‌स है?‘

‘हां।‘

‘लेकिन क्यों? तुमने ऐसा क्यों किया? मुझे बताया क्यों नहीं? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?‘ मैं रोने—रोने को था, बदन के सब रोंगटे खड़े हो गए थे।

‘मैंने किसका क्या बिगाड़ा था?‘ मेरी आक्रामक थी, ‘जिस अरब शेख ने मुझे यह तोहफा दिया, मैंने उसका क्या बिगाड़ा था? एक सुखी जीवन के वास्ते मैं कुछ समय के लिए इस दुनिया में आई थी। मुझे क्या मिला?‘ मेरी पर जैसे दौरा पड़ गया था, ‘जितना भी समय मेरे भाग्य में है उसे मैं तुम पुरुषों का भाग्य नष्ट करने में लगा दूंगी। सुना तुमने। तुम नष्ट हो चुके हो।‘ मेरी खट—खट करती कमरे से बाहर चली गई। दरवाजा धड़ाम से बंद किया उसने।

मेरे सामने, मेरे मुंह पर, मानो मेरे जीवन का दरवाजा बंद हो गया था।

‘ओह मेरी...यह क्या किया तुमने?‘ मैं चेहरा ढांप कर सिसकने लगा था।

पानी चला गया था। मैंने देखा, मैं बाथरूम में खड़ा रो रहा था। मेरी फर्नांडिस के जिस्म का कोई हिस्सा मेरे शरीर में घुल चुका था जो मुझे घुन की तरह लगातार कुतर रहा था।

बाहर कविता बाथरूम का दरवाजा खटखटा रही थी। मैं बाहर आया तो उसने अजीब अविश्वास से मेरी तरफ देखा फिर बोली, ‘क्या हो गया है तुम्हें, बताते क्यों नहीं?‘

‘कुछ भी तो नहीं हुआ है।‘ मैंने मुस्कराने की कोशिश की और कपड़े पहनने लगा।

अचानक, अपनी यातना के दारुण अंधकार में मैं बहुत—बहुत अकेला छूट गया था। मेरा डर रोज बड़ा हो रहा था। मेरी फर्नांडिस, क्या तुमको मेरी आवाज सुनाई देती है? अगर हां तो सुनो, तुम खुश हो न, दूसरे को टूटते—हारते हुए देख कर संतोष होता है न, एक क्रूर संतोष। पर, कितना कमीना है यह संतोष। मेरी फर्नांडिस, तुम सुन रही हो न? अपने दुखों का हिस्सेदार किसे बना सकता हूं मैं? कितना बेचारा और निरीह बना दिया है तुमने मुझे।

मेरी आंखें खुली हुई थीं और छत से टकराव की स्थिति में थीं।

सहसा कविता पलटी और मेरे ऊपर आ गई।

‘अरे?‘ मैं झपाटे से उठकर बैठ गया, ‘क्या करने पर तुली हो तुम?‘

‘तुम...तुमको मालूम है...‘ कविता दुख में थी, ‘औरत होने के बावजूद आज मैं पहल कर रही हूं... हमने दो महीने से प्यार नहीं किया है?‘

दो महीने? आतंक मेरे दिल को दबोच रहा था। दो महीने? कितने महीने और? मेरा सर्वांग ऐंठ रहा था। ‘ऐ कविता‘, कोई मेरे भीतर उद्धत हुआ, ‘ऐ कविता, क्या मैं तुम्हें बता दूं कि मैं मारा जा चुका हूं...‘ मेरे माथे पर पसीना था, सीने में थरथराहट।

‘तुम पागल हो गई हो।‘ मैंने अस्फुट स्वर में कहा। शब्द किसी संकट में घिरे कांप रहे थे।

‘क्या तुम्हारे जीवन में कोई और आ गया है?‘ कविता बिफर चुकी थी।

‘कोई और? मेरी फर्नांडिस?‘ मेरा दिल डूबने लगा। लेकिन मैंने ताकत बटोरी और कविता को अपने से सटा लिया। सहसा, उत्तेजना के उस भीषण चरण में मेरी आंखों के भीतर मेरा सुखी संसार भयावह रूप से हिचकोले लेने लगा।

‘नहीं, यह हत्या है।‘ कोई मेरे भीतर गुर्राया।

‘सुख तुम्हारे जीवन से विदा ले चुका है मूर्ख आदमी।‘ मेरी फर्नांडिस मुस्करा रही थी। मैंने कविता को अपनी गिरफ्त से मुक्त कर दिया और बिस्तर छोड़ दिया।

दिसंबर की ठंड में अपनी जलती आंखों से मुझे बुद्‌दुआ देती हुई कविता अपने कपड़े सहेज रही थी। पता नहीं, मैं उसके जीवन में बुझ रहा था या वह मेरे जीवन में जल रही थी। जो भी था, मेरी फर्नांडिस के प्रतिशोध तले तड़—तड़ तड़क रहा था।

असमाप्त यातना के उस दुर्निवार क्षण में कोई याचक मेरे भीतर गिड़गिड़ाना चाह रहा था—ऐ कविता, मेरे कठिन दिनों कीं धैर्यवान दोस्त, तुम्हारी हत्या नहीं हो पाएगी मुझसे। देखो, मुझे समझने की कोशिश करो। तुम नहीं जानतीं कि तुमसे कितना प्यार करता हूं मैं। मेरे प्यार की कसम, मुझसे दूर रहो। मेरे साये से भी बचना है अब तुम्हें। मैं इस सकल संसार के लिए अस्पृश्य हो चुका हूं अब।‘ लेकिन कुछ नहीं कह सका मैं। रात भर कविता और मेरे बीच एक अर्थपूर्ण जीवन निरर्थक गलता रहा।

अजीबोगरीब सवालों, शंकाओं और पछतावों के साथ मैं निरंतर मुठभेड़ में फंस गया था और वह भी एकदम तन्हा। रिश्तों और मित्रताओं की एक अच्छी—खासी संख्या के बावजूद मैं अपने शोक में अकेला था। यहां तक कि अपनी सर्वाधिक अंतरंग ऊष्मा कविता को भी यह नहीं बता पा रहा था कि मेरा आखेट किया जा चुका है। लेकिन इसका अंत कहां है? अपने रहस्य को गोपनीय बनाए रखने की सामर्थ्य लगातार छीज रही थी। ग्लानि और पश्चाताप की सबसे ऊंची अटारी पर अटक गया था मैं और मुझसे बाहर संपूर्ण जीवन वैसा ही गतिशील और स्वाभाविक था जैसा कि उसे होना चाहिए था—लालसा से छलछलाता और रक्त—सा गरम।

रक्त! मेरी सोच को झटका लगा। अपने रक्त की जांच भी तो करवा सकता हूं मैं। मैंने तुरंत फोन उठाया और अपने एक डॉक्टर दोस्त का नंबर डायल करने लगा। लेकिन उधर से हैलो आने पर रिसीवर मेरे हाथ से छूट गया। दस तरह के सवाल करेगा डॉक्टर। तुम्हें क्यों जांच करवानी है? किसी गलत जगह तो नहीं चले गए थे? तुम तो ऐसे नहीं थे? और जांच का नतीजा सकारात्मक निकल आया तब? दफ्तर, समाज, संबंधों की रागात्मक और अनिवार्य दुनिया से मक्खी की तरह छिटक कर फेंक दिया जाएगा मुझे। सबसे पहले तो वह डॉक्टर दोस्त ही अस्पताल भिजवा देगा। फिर दफ्तर नौकरी से निकालेगा। और कविता? क्या मालूम वह भी अपने बच्चे के भविष्य का वास्ता देकर मुझसे अलग हो जाए। और दोस्त...मैंने देखा मैं सड़कों पर बदहवास भागा जा रहा हूं। एक भीड़ अपने उग्र कोलाहल के साथ मेरे पीछे है। जिस भी दरवाजे के सामने जाकर खड़ा होता हूं वह तड़ाक से बंद हो जाता है। भीड़ का विचार है कि एक अंधेरा बंद कमरा मेरे लिए ज्यादा उपयुक्त है, जिसमें तिलतिल कर गलना है मुझे।

दोनों हथेलियां पसीने से तर थीं मेरी। इन दिनों कुछ ज्यादा ही पसीना आने लगा है। कभी—कभी अचानक उठने पर चक्कर भी आता है। अक्सर भूख का भी अपहरण होने लगा है। जीभ पर एक मैटेलिक किस्म का स्वाद स्थायी जगह बना चुका है। पता नहीं मैं अपने वहम का आखेट हो रहा हूं या मेरी फर्नांडिस का वरदान फल—फूल रहा है।

और अपनी कातरता के उस एकांतिक समय में मुझे फिर मेरी फर्नांडिस की याद आई। तुम कहां हो मेरी फर्नांडिस। और कैसी हो? तुम भी तो गल रही होगी न? मेरे बाद और कितने सुखी जनों को सर्वनाश की आग में धकेल चुकी हो?

क्या मेरी फर्नांडिस को गिफ्तार नहीं कराया जा सकता? मेरे मन में एक जनहित का विचार उठा और लड़खड़ा कर गिर पड़ा। इस संबंध में अगर अपने एक पत्रकार दोस्त से बात करूं तो वह सबसे पहला सवाल यही करेगा कि तुम्हें कैसे मालूम कि सौंदर्य की वह देवी प्रेम के एकांत क्षणों में मृत्यु का अभिशाप बांटती है? फिर वह खबर छाप देगा और फिर अपने जीवन में बचा ही क्या रह जाएगा सिवा एक ऐसे अंधेरे बंद कमरे के, जिसमें प्रवेश लेने से जीवन देने वाले डॉक्टरों की भी रूह कांपती हो...

सबसे अच्छा यही है मित्र। कोई मेरे भीतर चुपके से फुसफुसाया कि तुम चुपके से निकल लो। आज नहीं तो दो—चार साल बाद तुम्हें वैसे भी इस मायावी संसार से अनिवार्य विदा लेनी ही है। लेकिन वह विदाई कितनी शर्मनाक और यंत्रणाभरी होगी। अभी, बिना किसी को कुछ भी बताए, बिना आहट के निकल चलोगे तो कम से कम कविता का आगामी जीवन तो निष्कंटक और शंका रहित बना रहेगा। बात उजागर हो गई तो शंका के कठघरे में कविता को भी ताउम्र खड़े रहना पड़ेगा।

तो? मेरे भीतर निर्णय—अनिर्णय का संग्राम जारी था। सामने की दीवार पर लगे एयर इंडिया के कैलेंडर में कोई विमान परिचारिका नमस्कार की मुद्रा में जड़ थी। मेज पर रखी फाइलें मेरी प्रतीक्षा में थीं।

सहसा, पता नहीं मुझे क्या हुआ कि मैं बाघ की—सी तेजी से उठा और फाइलें उठाकर विमान परिचारिका की आकृति पर पटकने लगा।

आखिर थक कर मैं पुनः अपनी कुर्सी पर गिर पड़ा और हांफने लगा। मेरी आंख से आंसू टपक रहे थे और मैं बुदबुदा रहा था—मैं थक गया हूं मेरी फर्नांडिस। अपने आप से लड़ते—लड़ते मैं बहुत—बहुत थक गया हूं। तुम सुन रही हो न मेरी फर्नांडिस! क्या तुम तक मेरी आवाज पहुंचती है?

(रचनाकाल : जनवरी 1996)