परीक्षा गुरू
प्रकरण - २०
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कृतज्ञता.
लाला श्रीनिवास दास
तृणहु उतारे जनगनत कोटि मुहर उपकार
प्राण दियेहू दुष्टजन करत बै र व्यवहार।।[19]
भोजप्रबंधसार.
लाला ब्रजकिशोर मदनमोहन के पास सै उठकर घर को जानें लगे उस्समय उन्का मन मदनमोहन की दशा देखकर दु:ख सै बिबस हुआ जाता था. वह बारम्बार सोचते थे कि मदनमोहन नें केवल अपना ही नुक्सान नहीं किया अपनें बाल बच्चों का हक़ भी डबो दिया. मदनमोहन नें केवल अपनी पूंजी ही नहीं खोई अपनें ऊपर क़र्ज भी कर लिया.
भला ! लाला मदनमोहनको क़र्ज करनें की क्या ज़रूरत थी ? जो यह पहलै ही सै प्रबंध करनें की रीति जान्कर तत्काल अपनें आमद खर्च का बंदोबस्त कर लेते तो इन्को क्या, इन्के बेटे पोतों को भी तंगी उठानें की कुछ ज़रूरत न थी. मैं आप तकलीफ़ सै रहनें को, निर्लज्जता सै रहनें को, बदइन्तज़ामी सै रहनें को, अथवा किसी हक़दार के हक़ मैं कमी करनें को पसंद नहीं करता, परन्तु इन्को तो इन्बातों के लिये उद्योग करनें की भी कुछ ज़रूरत न थी. यह तो अपनी आमदनी का बंदोबस्त करके असल पूंजी के हाथ लगाए बिना अमीरी ठाठ सै उमरभर चैन कर सक्ते थे. बिदुरजी नें कहा है "फल अपक्क जो बृक्ष ते तोर लेत नर कोय।। फल को रस पावै नहीं नास बीजको होय।। नासबीज को होय यहै निज चित्त विचारै।। पके, पके फललेई समय परिपाक निहारै।।पके, पके फललेई स्वाद रस लहै बुद्धिबल।। फलते पावै बीज, बीजते होइ बहुरिफल।।"[20] यह उपदेश सब नीतिका सार है परन्तु जहां मालिक को अनुभव न हो, निकटवर्ती स्वार्थपर हों वहां यह बात कैसे हो सक्ती है ? "जैसे माली बाग को राखत हितचित चाहि।। तैसै जो कोला करत कहा दरद है ताहि ?"
लाला मदनमोहन अबतक क़र्जदारी की दुर्दशा का बृतान्त नहीं जान्ते.
जिस्समय क़र्जदार वादे पर रुपया नहीं दे सक्ता उसी समय सै लेनदार को अपनें कर्ज के अनुसार क़र्जदार की जायदाद और स्वतन्त्रता पर अधिकार हो जाता है. वह क़र्जदार को कठोर से कठोर वाक्य "बेईमान" कह सक्ता है, रस्ता चलते मैं उस्का हाथ पकड़ सक्ता है. यह कैसी लज्जा की बात है कि एक मनुष्य को देखते ही डर के मारे छाती धड़कनें लगे और शर्म के मारे आंखें नीची हो जायें, सब लोग लाला मदनमोहन की तरह फ़िजूल खर्ची और झूंठी ठसक दिखानें मैं बरबाद नहीं होते सौ मैं दो, एक समझवार भी किसीका काम बिगड़ जानें सै, या किसी की जामनी कर देनें सै या किसी और उचित कारण सै इस आफ़त मैं फंस जाते हैं परन्तु बहुधा लोग अमीरों की सी ठसक दिखानेंमैं और अपनें बूते सै बढ़कर चलनें मैं क़र्जदार होते हैं.
क़र्जदारी मैं सबसै बड़ा दोष यह है कि जो मनुष्य, धर्मात्मा होता है वह भी क़र्जमैं फंसकर लाचारी सै अधर्म की राह चलनें लगता है. जब सै कर्ज़ लेनें की इच्छा होती है तब ही सै कर्ज़ लेनेंवाले को ललचानें, ओर अपनी साहूकारी दिखानें के लिये तरह, तरह की बनावट की जाती हैं. एकबार कर्ज़ लिये पीछै कर्ज़ लेनें का चस्का पड़ जाता है और समय पर कर्ज़ नहीं चुका सक्ता तब लेनदार को धीर्य देनें और उस्की दृष्टि मैं साहूकार दीखनें के लिये ज्यादा: ज्यादा: कर्ज़ मैं जकड़ता जाता है और लेनदार का कड़ा तकाज़ा हुआ तो उस्का कर्ज चुकानें के लिये अधर्म करनें की रुचि हो जाती है. कर्ज़दार झूठ बोलनें सै नहीं डरता और झूठ बोले पीछै उस्की साख नहीं रहती. वह अपनें बाल बच्चों के हक़ मैं दुश्मन सै अधिक बुराई करता है. मित्रों को तरह, तरह की जोखों मैं फंसाता है अपनी घड़ी भर की मौज के लिये आप जन्मभर के बंधन मैं पड़ता है और अपनी अनुचित इच्छा को सजीवन करनें के लिये आप मर मिटता है.
बहुत सै अबिचारी लोग कर्ज़ चुकानें की अपेक्षा उदारता को अधिक समझते हैं. इस्का कारण यह है कि उदारता सै यश मिल्ता है, लोग जगह, जगह उदार मनुष्य की बड़ाई करते फ़िरते हैं परन्तु कर्ज़ चुकाना केवल इन्साफ़ है इसलिये उस्की तारीफ़ कोई नहीं करता. इन्साफ़ को लोग साधारण नेंकी समझते हैं, इस कारण उस्की निस्बत उदारता की ज्याद: कदर करते हैं जो बहुधा स्वभाव की तेजी और अभिमान सै प्रगट होती है परन्तु बुद्धिमानी सै कुछ सम्बन्ध नहीं रखती. किसी उदार मनुष्य सै उस्का नौकर जाकर कहैकि फलाना लेनदार अपनें रुपेका तकाजा करनें आया है और आप के फलानें गरीब मित्र अपनें निर्बाह के लिये आप की सहायता चाहते हैं तो वह उदार मनुष्य तत्काल कह देगा कि लेनदार को टाल दो और उस गरीब को रुपे देदो क्योंकि लेनदार का क्या ? वह तो अपनें लेनें लेता इस्के देनें सै वाह वाह होगी.
परन्तु इन्साफ़ का अर्थ लोग अच्छी तरह नहीं समझते क्योंकि जिस्के लिये जो करना चाहिए वह करना इन्साफ़ है इसलिये इन्साफ़ मैं सब नेंकियें आगईं. इन्साफ़ का काम वह है जिस्मैं ईश्वर की तरफ़ का कर्तव्य, संसार की तरफ़ का कर्तव्य, और अपनी आत्मा की तरफ़ का कर्तव्य अच्छी तरह सम्पन्न होता हो. इन्साफ़ सब नेंकियों की जड़ है और सब नेंकियां उस्की शाखा-प्रशाखा हैं इन्साफ़ की सहायता बिना कोई बात मध्यम भाव सै न होगी तो सरलता अविवेक, बहादुरी, दुराग्रह, परोपकार, अन्समझी और उदारता फिजूलखर्ची हो जायँगी.
कोई स्वार्थ रहित काम इन्साफ़ के साथ न किया जाय तो उस्की सूरत ही बदल जाती है और उसका परिणाम बहुधा भयंकर होता है. सिवाय की रकम मैं सै अच्छे कामों मैं लगाए पीछै कुछ रुपया बचै और वो निर्दोष दिल्लगी की बातों मैं खर्च किया जाय तो उस्को कोई अनुचित नहीं बता सक्ता परन्तु कर्तव्य कामों को अटका कर दिल्लगी की बातों मैं रुपया या समय खर्च करना अभी अच्छा नहीं हो सक्ता. अपनें बूते मूजब उचित रीति सै औरों की सहायता करनी मनुष्य का फर्ज है परन्तु इस्का यह अर्थ नहीं है कि अपनें मन की अनुचित इच्छाओं को पूरा करनें का उपाय करै अथवा ऐसी उदारता पर कमर बांधे कि आगै को अपना कर्तव्य सम्पादन करनें के लिये और किसी अच्छे काम मैं खर्च करनें के लिये अपनें पास फूटी कौड़ी न बचे बल्कि सिवाय मैं कर्ज़ होजाय.
अफसोस ! लाला मदनमोहन की इस्समय ऐसी ही दशा हो रही है. इन्पर चारों तरफ़ सै आफत के बादल उमड़े चले आते हैं परन्तु इन्हैं कुछ खबर नहीं है
विदुर जी नें सच कहा है :-
"बुद्धिभ्रंशते लहत बिनासहि।।ताहि अनीति नीतिसी भासहि।।" [21]
इस तरह सै अनेक प्रकार के सोच बिचार में डूबे हुए लाला ब्रजकिशोर अपनें मकान पर पहुंचे परन्तु उन्के चित्त को किसी बात सै जरा भी धैर्य न हुआ.
लाला ब्रजकिशोर कठिन सै कठिन समय मैं अपनें मन को स्थिर रख सक्ते थे परन्तु इस्समय उन्का चित्त ठिकानें न था. उन्नें यह काम अच्छा किया कि बुरा किया ? इस बात का निश्चय वह आप नही कर सक्ते थे. वह कहते थे कि इस दशा मैं मदनमोहन का काम बहुत दिन नहीं चलेगा और उस्समय ये सब रुपे के मित्र मदनमोहन को छोड़कर अपनें, अपनें रस्ते लेगेंगे परन्तु मैं क्या करूँ ? मुझको कोई रास्ता नहीं दिखाई देता और इस्समय मुझ सै मदनमोहन की कुछ सहायता न हो सकी तो मैंनें संसार मैं जन्म लेकर क्या किया ?
फ्रांस के चौथे हेन्री नें डी ला ट्रेमाइल को देशनिकाला दिया था और काउन्ट डी आविग्नी उस्सै मेल रखता था. इस्पर एक दिन चौथे हेन्री नें डी आविग्नी सै कहा कि "तुम अबतक डी ला ट्रेमाइल की मित्रता कैसे नहीं छोड़ते ?" डी आविग्नी नें जवाब दिया कि मैं ऐसी हालत मैं उस्की मित्रता नहीं छोड़ सक्ता क्योंकि मेरी मित्रता के उपयोग करनें का काम तो उस्को अभी पड़ा है."
पृथ्वीराज महोबेकी लड़ाई मैं बहुत घायल होकर मुर्दों के शामिल पड़े थे और संजमराय भी उन्के बराबर उसी दशा मैं पड़ा था. उस्समय एक गिद्ध आके पृथ्वीराज की आंख निकालनें लगा. पृथ्वीराज को उस्के रोकनें की सामर्थ्य न थी इसपर संजमराय पृथ्वीराजको बचानें के लिये अपनें शरीर का माँस काट, काट कर गिद्धके आगे फैकनें लगा जिस्सै पृथ्वीराजकी आंखैं बच गईं और थोड़ी देर मैं चन्द वगैर आ पहुंचें.
हेन्री रिचमन्ड, पीटरके भय सै ब्रीटनी छोड़ कर फ्रान्सको भागनें लगा उस्समय उस्के सेवक सीमारनें उस्के वस्त्र पहन कर उस्की जोखों अपनें सिर ली और उस्को साफ निकाल दिया.
क्या इस्सतरहसै मैं मदनमोहन की कुछ सहायता इस्समय नहीं कर सक्ता ! यदि हम इस काम मैं मेरी जान भी जाती रहै तो कुछ चिन्ता नहीं. जब मैं उन्को अनसमझ जान कर उन्के कहनें सै उन्हैं छोड़ आया तो मैंनें कौन्सी बुद्धिमानी की ? पर मैं रह कर क्या करता ? हां मैं हां मिला कर रहना रोगी को कुपथ्य देनें सै कम न था और ऐसे अवसर पर उन्का नुक्सान देख कर चुप हो रहना भी स्वार्थपरता सै क्या कम था ? मेरा बिचार सदेव सै यह रहता है कि काम रहता तो विधि पूर्वक करना. न होसके तो चुप हो रहना, बेगार तक को बेगार न समझना परन्तु वहां तो मेरे वाजबी कहनें सै उल्टा असर होता था और दिनपर दिन जिद बढ़ती जाती थी. मैंनें बहुत धैर्य सै उन्को राह पर लानें के उपाय किये पर उन्नें किसी हालत मैं अपनी हद्द सै आगै बढ़ना मंजूर न किया.
असल तो ये है कि अब मदनमोहन बच्चे नहीं रहे. उन्की उम्रपक गई. किसी का दबाब उन्पर नहीं रहा, लोगोंनें हां मैं हां मिला कर उन्की भूलों को और दृढ़ कर दिया. रुपे के कारण उन्को अपनी भूलों का फल मिला और संसारके दु:ख सुखका अनुभव न होनें पाया बस रंग पक्का हो गया. बिदुरजी कहते हैं कि "सन्त असन्त तपस्वी चोर। पापी सुकृति ह्रदय कठोर।। तैसो होय बसे जिहि संग। जैसो होत बसन मिल रंग।।" [22]
यदि सावधान हों तो अंगद हनुमान की तरह उन्की आज्ञा पालन करनें मैं सब कर्तव्य संपादन हो जाते हैं परन्तु जहां ऐसा होता वहीं बड़ी कठिनाई पड़ती है. सकड़ी गली मैं हाथी नहीं चल्ता तब महावत कूढ़ बाजता है. वृन्द कहता है कि "ताकों त्यों समझाइये जो समझे जिहिं बानि।। बैन कहत मग अन्धकों अरु बहरेको पानि।।" जिस तरह सुग्रीव भोग विलास मैं फंस गया तब रघुनाथ जी केवल उस्को धमकी देकर राह पर ले आए थे इस तरह लाला मदनमोहन के लिये क्या कोई उपाय नहीं होसक्ता ? हे जगदीश ! इस कठिन काम मैं तू मेरी सहायता कर.
लाला ब्रजकिशोर इन्बातों के बिचार मैं ऐसे डूबे हुए थे कि उन्को अपना देहानुसन्धान न था. एक बार वह सहसा कलम उठा कर कुछ लिखनें लगे और किसी जगह को पूरा महसूल देकर एक जरूरी तार तत्काल भेज दिया. परन्तु फ़िर उन्हीं बातों के सोच बिचार मैं मग्न होगए. इस्समय उन्के मुखसै अनायास कोई, कोई शब्द बेजोड़ निकल जाते थे जिन्का अर्थ कुछ समझ मैं नहीं आता था. एक बार उन्नें कहा "तुलसीदासजी सच कहते हैं " षटरस बहु प्रकार ब्यंजन कोउ दिन अरु रैन बखानें।। बिन बोले सन्तोष जनित सुख खाय सोई पै जानें।।" थोड़ी देर पीछै कहा "मुझको इस्समय इस बचन पर बरताव रखना पड़ेगा (वृन्द) झूंटहु ऐसो बोलिये सांच बराबर होय।। जो अंगुरी सों भीत पर चन्द्र दिखावे कोए।।" परन्तु पानी जैसा दूध सै मिल जाता है तेल सै नहीं मिल्ता. विक्रमोर्बशी नाटक मैं उर्वशी के मुख सै सच्ची प्रीति के कारण पुरुषोत्तम की जगह पुरूरवा का नाम निकल गया था इसी तरह मेरे मुख सै कुछका कुछ निकल गया तो क्या होगा ? थोड़ी देर पीछै कहा "लोक निन्दा सै डरना तो वृथा है जब वह लोग जगत जननी जनक नन्दिनी की झूंटी निन्दा किये बिना नहीं रहे ! श्रीकृष्णचन्द्र को जाति वालों के अपवाद का उपाय नारदजी सै पूछना पड़ा ! तो हम जैसे तुच्छ मनुष्यों की क्या गिन्ती है ? सादीनें लिखा है "एक विद्वान सै पूछा गया था कि कोई मनुष्य ऐसा होगा जो किसी रूपवान सुन्दरी के साथ एकांत मैं बैठा हो दरवाजा बन्द हो, पहरे वाला सोता हो मन ललचा रहा हो काम प्रबल हो++ और वह अपनें शम दम के बल सै निर्दोष बच सकै ?" उसनें कहा कि "हां वह रूपवान सुन्दरी सै बच सक्ता है परन्तु निन्दकों की निन्दा सै नहीं बच सक्ता" फ़िर लोक निन्दा के भय सै अपना कर्तव्य न करना बड़ी भूल है धर्म्म औरों के लिये नहीं अपनें लिये और अपनें लिये भी फल की इच्छा सै नहीं, अपना कर्तव्य पूरा करनें के लिये करना चाहिये परन्तु धर्म्म अधर्म होजाय, नेंकी करते बुराई पल्ले पड़े, औरों को निकालती बार आप गोता खानें लगें तो कैसा हो ? रूपेका लालच बड़ा प्रबल है और निर्धनोंको तो उन्के काम निकालनें की चाबी होनें के कारण बहुत ही ललचाता है" थोड़ी देर पीछै कहा "हलधरदास नें कहा है "बिन काले मुख नहिं पलाश को अरुणाई है।। बिन बूड़े न समुद्र काहु मुक्ता पाई है।।" इसी तरह गोल्ड स्मिथ कहता है कि "साहस किये बिना अलभ्य वस्तु हाथ नहीं लग सक्ती" इसलिये ऐसे साहसी कामों मैं अपनी नीयत अच्छी रखनी चाहिये यदि अपनी नीयत अच्छी होगी तो ईश्वर अवश्य सहायता करैगा और डूब भी जायंगे तो अपनी स्वरूप हानि न होगी."