सिलवट
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पहले ही दिन उसे देखकर जाने क्यूं लगा कि उसके व्यक्तित्व में सिलवटें ही सिलवटें है । खैर ... कोई बात नही।
मुझे अपनी बच्ची पढ़वानी थी और उसे पढानी।
लेकिन रोज आते जाते उससे मेरी कब घनिष्ठता हो गयी पता ही नही चला।
एक दिन वह यूं ही मुझसे पूंछ बैठी; " आपका कोई ऐसा सपना जो आप शिद्दत से देखती हो और पूरा न हुआ हो ?"
ख्यालो में खोते हुये मैने कहा; " हां , मैं ए. पी. जे .अब्दुल कलाम को मन ही मन बहुत चाहती हूं और ...,
और क्या भाभी बताइये न , उसने मुझे इन्सिस्ट किया " मैने शर्मा कर कहा, काश मै उनकी शरीकेहयात होती...."
मुझे थोडी देर घूरने के बाद वह गुमसुम सी हो गयी।
मेरा राज जानने के बाद मैने उसका मन टटोला ।
"तुम भी बताओ न अपना सपना, जो खुली आंखो से देखती हो ,लेकिन पा न सकी हो ", कहकर मैं मुस्कुराई
"मेरा सपना तो मेरी एक सहेली है जिसके संग मै अपनी उम्र गुजारना चाहती हूं ।मै उसके साथ तीन साल से मिलती जुलती हूं। उसके घर में और मेरे घर में सबको पता है , लेकिन उसके लिये भी रिश्ते देखे जा रहे है और मेरे लिये भी।
मै उसकी बेबाकी पर उसे आंखे फाडे देख रही थी , लेकिन बह निर्द्वंद बैठी थी।
मै कुछ तैश खाये धीमे स्वर में बोली ; " शर्म नही आती तुम्हे ," उसने आंखो मे जमाने भर की हिकारत भर कर कहा ; " क्यो ,क्या आपको आपके सपने पर शर्म आती है ? मुझे क्यो आयेगी ? राॅबिन चौरसिया का नाम सुना है ,जो बम्बई के कमाठीपुरा में यौनकर्मियों के बच्चे पढाती है उन्हे दस शीर्ष ग्लोवलशिक्षकों के लिये चुना गया , वह हममे से एक है। और उन जैसी न जाने कितनी।"आप और आपका समाज " छिपाकर कितनी ही कुत्सित भावनाये पाल ले , लेकिन बता दिया तो समाज से बहिष्कृत। "
उस समय न जाने क्यों लगा वह समाज की एक बडी सिलवट है जो कि फटकाने से भी नही निकलती ।
बल्कि वह तो मुझ जैसी तमाम सिलवटो को निकाल कर अपनी जिन्दगी की तह अपने हिसाब से बना रही है।
डाॅ सन्ध्या तिवारी
हूटर
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मुझे फैक्ट्री के सारे मुलाजिम हमेशा ही फैक्ट्री में बजने बाले हूटर के गुलाम सरीखे दिखते थे ।हालांकि ये सब नियम से नहाते-धोते ,खाते-पीते थे , लेकिन इनके जीवन में स्फूर्ति न थी ।
एक यन्त्रवत जीवन यापन था।एक अनकही यन्त्रणा थी।
सबेरे पांच बजे के हूटर पर मन हो या न हो बिस्तर छोड देना। सात बजे के हूटर पर टिफिन का झोला साइकिल में लगाये , साढे सात के हूटर पर फैक्ट्री गेट के अन्दर आई कर्ड पंच करने से लेकर , इस कैद खाने से छूटने की शाम सात बजे तक के हूटर की थका देने बाली अविराम प्रतीक्षा , फैक्ट्री में काम करने बाले हर कर्मचारी के हिस्से की दिनचर्या थी।
नापसंदगी ही कभी-कभी जीवन का अभिन्न अंग बन जाती है ।
शादी के बाद मेरा जीवन भी हूटराधीन था।
"हूटर के दास पति की दासी अर्थात दासनुदासी।"
एक दिन हूटर की आबाज पर वह उठा , उस दिन उसका चेहरा जल्दी में नहीं लग रहा था , हां कुछ-कुछ चोर निगाहों से मुझे जरूर देख रहा था।
मैने टिफिन दिया ।उसने टिफिन लेते हुये अपनी अंगुली मुझसे न छू जाये इसका भरसक प्रयत्न किया।
मैने नोटिस किया , लेकिन किसी अशुभ विचार से कहीं "पल्ला न छू जाये इस डर से पल्ला झाड लिया।"
वह किसी स्वामिनी का हाथ पकड़े इस हूटर की परिधि से कहीं बाहर चला गया था ।
और मैं , दासानुदासी हूटर की गुलामी करती , आज भी सुबह के पांच बजे के हूटर पर बिस्तर छोडकर शाम के सात बजे के हूटर पर दरबाजे की कुन्डी खोल हर आहट पर ऐसे कान लगाये रहती हूं जैसे पूरे शरीर में कान ही कान उग आये हो।
लेकिन सुनाई पडती है तो ,केवल सात, सवा सात, साढे सात के हूटर की आवाज। जो रोज मुझे हूट करती है , और मैं इसका कुछ नहीं कर पाती ।
डाॅ सन्ध्या तिवारीसपनों का दरवाजा
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हादसा कई साल पहले हुआ था। उसे और उसके जैसों को घाटी से बहुत पहले खदेड़ दिया गया था।
कहा गया ; " हमारे साथ मिल जाओ, मर जाओ ,या भाग जाओ।"
वे खुले दरो दीवार छोड कर भाग खडे हुये थे। इस आसरे में कि फिर कभी लौटेंगे।
लेकिन फोटो जर्नलिस्ट प्रतीक जानता था , कि यह सपनो का फोटो है जो कभी नहीं मिलेगा ।
सरकार ,बुद्धिजीवी , निरपेक्षवादी सभी उदासीन थे।
लेकिन प्रतीक इस उजाड की तस्वीरें अपने अखबार मे छापना चाह रहा था , वह ध्वस्त मंदिर ,तबाह घर ,डरी हुयी बहु बेटियां , घर छोड भागते पंडित , जो कि उसके चारो तरफ बिखरे पडे थे । जिन्हे आतंकियो ने रौंद डाला था ।जिसकी एक भी तस्वीर बह ठीक से नहीं खीच पाया था ।जब तक कैमरा फोकस करता लोगो की भगदड में दृश्य अदृश्य हो जाता था।
एक फोटो आखिर उसने ले ही ली थी। वह एक सनकी पंडित की थी ,जो कह रहा था यदि हमे हमारा घर नहीं मिला तो मैं झेलम में जल समाधि ले लूंगा ,और इसके बाद वह गले में एक बडा सा पत्थर बांध नाव में रहने लगा। एक दिन नीद के झोंके में वह बाकई झेलम में गिर गया ।पत्थर के कारण झील की तलहटी में बैठने लगा, उसने झट से पत्थर खोल कर फेंक दिया ।और तैर कर ऊपर आ गया ,फिर उसके गले का बडा सा पत्थर छोटा होते होते तावीज़ बन गया ।आज भी वह नाव में रहता है और तावीज़ छू छू कर अपनी कसम दोहराता है ।
फोटो जर्नलिस्ट प्रतीक आज भी कभी कभी अपने अखबार में उस कसमिया तावीज़ का फोटो छापता है तो कभी अपनो की बाट जोहते उन दरवाजों का।
डाॅ सन्ध्या तिवारी
मैं तो नाचूंगी गूलर तले
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शाम का धुंधलका छा रहा था, मैने थक कर आराम कुर्सी की पीठ पर अपनी पीठ टिका दी और खुद को ढीला छोड कर आँखे बन्द कर ली। मस्जिद से या किसी मुस्लिम भाई के घर के लाऊडस्पीकर से आती स्वर लहरी
" मै तो नाचूंगी गूलर तले, नाचूंगी गूलर तले ।" में खो सा गया।
अचानक लगा पूरा घर चूहों से भर गया है ।चूहे ही चूहे ।मुझे नफरत है चूहो से , लेकिन वे तो हर हाल मे जिन्दा रह सकते है।उन्हे कोई नहीं मार सकता।
उनका सरवाइविंग स्किल इतना बढा हुआ है , कि वे बूचडखाने से फेंके हुये छीछडों और गुजर बसर के लिये बंगले कोटियों से लेकर कबाड के डेर पर भी पनप जाते है। उनकी विशाल बढती आबादी के आगे कानून पुलिस सब लाचार है ।अब तो कोई जगह ही नही बची जहां से उन्हे खदेडा जा सके । लोग खुद ही घर छोड कर सुरक्षित ठिकानो पर जा रहे हैं।
और पीछे छूटे सभी घर - मकानों बंगलो के आगे मुर्गे भैसे बकरे और प्रतिबन्धित पशु के उधडे मांस को चूहे शौक से कुतर रहे हैं ।
अरे !सुनो ,आज फिर बबाल हो गया, न्यूज पेपर ,टी वी सब जगह एक ही मुद्दा छाया हुआ है , असहिष्णुता-असहिष्णुता। कभी शाहरुख खान कभी आमिर खान कभी कमल हासन ।
पत्नी मुझसे पूछ रही थी , और मै देख रहा था सारे असहिष्णु सुरक्षित स्थान की तलाश में गूलर तले इकठ्ठे हो रहे है।
पत्नी की बातो का असर था या सपना कुछ ठीक से जान नहीं पाया।
डाॅ सन्ध्या तिवारी
बिना सिर बाली लड़की
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मकर संक्रान्ति से लेकर अगले मकर संक्रान्ति तक उस बिना सिर बाली लडकी ने एक पुन्नि का संकलप उठाया।अपने गंदे-संदे , मैल भरे ,बढे नाखून बाले पति के पैर का अंगूठा धोकर पीने का।
हांड कंपाती सर्दी में सुबह की पेशाब रोकने की नाकाम कोशिश में जब लोग पेशाब जाकर जल्दी से ठिठुर कर रजाई में घुसते तब वह नैतिकता और पुन्नि की लू में तप कर तारों की छांव में ठंडे पानी से नहाकर पति के उस अंगूठे का चरणामृत लेती , जो रात को रति क्रीडा में और दिन में कोंचने के काम आता।
सदियों से अपने से बेखबर , अनगढ पत्थर , किसी ने पूजना चाहा , पूज लिया। किसी ने हरना चाहा, हर लिया । किसी ने बेचना चाहा, बेच दिया।किसी ने पुण्य कहकर , किसी ने पाप कह कर जो चाहा करबा लिया।जो भी उसका "मेकर" होना चाहे, हो सकता है।
"मल्टी परपज़" जिस्म जो हर हाल में खुश।
मैने उसे अपने पुन्नि रूपी उद्यापन के निमित्त एक पुरानी साहित्यक पत्रिका के पन्नो में जब नमक, मिर्च, घी, खटाई आदि बांधते देखा, तो एक चित्र जो कि "महादेवी वर्मा जी" का था, दिखा कर पूछ बैठी , "यह कौन है, जानती हो ? कि खाली नमक मिर्च रख कर पुण्य कमा रही हो ? "
उसने मुझे उकतायी आंखो से देखा और अपने काम में पूर्ववत लग गयी ।
.............. और मुझे लगा, तकलीफ सिर्फ उन लडकियों को होती है, जिनके सिर उग आते हैं।
डाॅ सन्ध्या तिवारी
चिमटी
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आत्मा पर बडा बोझ था , जो रातों में सपना बन कर डराता था और दिन में सोच ।
अब क्या करूं , मैं तो था ही कायर, लेकिन वह तो समझदार थी, उसे अपनी जान देने की क्या जरूरत थी।वह मरकर मुक्त हो सकी भला क्या? और मै जीकर भी मुक्त हो पाया भला क्या उसकी यादों से। क्या करूं? कहां जाऊं ?कैसे इस अपराध बोध से मुक्ति होगी ?
इन्ही बातो की सोच में डूबता उतराता विपुल बान की खरखटी खटिया पर बैठा कभी एक छेद मे हाथ डालता कभी अदबाइन के सहारे सहारे अंगुलियां किसी और छेद में जा ठहरती ।जैसे सोच के कई खाने बने हो और उनमें से किस खाने में ग्लानि की भरपाई का मल्हम मिलेगा अंगुलिया टोहकर ढूंढ़ना चाह रही हों। "आऊच... " कह कर उसने हाथ खींच लिया बान की फांस अंगुली के मांस में धंस चुकी थी ।वह नाखूनो की चिमटी बना कर फांस निकालने का भरसक प्रयत्न कर रहा था लेकिन फांस थी कि अन्दर ही अन्दर टूटती जा रही थी ।फांस मांस मे धंस चुकी थी बहुत दर्द और चीसन बढ गयी थी। अब तो इसके लिये बाजार से चिमटी ही लानी पडेगी तब कही जाकर...
कहकर विपुल तर्पण के लिये जल , काले तिल , जौ , फूल की थाली , कुश की पैंती और सफेद फूल अंजुली में भर कर बैठा।
" आप पिछले कई सालो से किसका तर्पण कर रहे है भगवान की कृपा से मां बाऊ जी सभी कुशल मंगल से है, तो...?"
पत्नी जिज्ञासा और प्रश्न चिन्ह की प्रतिमूर्ति सी बनी खडी थी।
विपुल अपनी फांस लगी अंगुली की चीसन दबाते हुये बोला ; " तर्पण कहां है यह , यह तो मन की फांस की चिमटी है , और अंजुली भरे पानी में दो आंसु टपक गये।
डाॅ सन्ध्या तिवारी
भँवर
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वह दिहाडी मजदूर था।और दिहाडी मजदूर का कोई नाम नही होता। जहां दिन भर काम किया शाम को पैसे लिये और घर गया। लेकिन जब से बह आरा मशीन पर काम करने लगा तब से उसकी रजिस्टर में हाजिरी भी लगती और एक दिन की छुट्टी भी मिलती। हां यह बात अलग है कि छुट्टी बाले दिन भी उसे मालिक की मर्जी से काम करना पडता था। लेकिन हाजिरी रजिस्टर मे उसका नाम नही होता था।उस दिन भी उसकी छुट्टी थी, लेकिन वह सागौन की चिराई कर रहा था ।पुरानी सागौन में चिराई के दौरान कभी नदी सरीखे उमडते वेग का डिजाइन कभी भंवर की आकृति लेता चित्र ।प्रकृति भी अपनी दास्तान किसके सीने मे लिख देती है पता ही नही चलता ।ऐसे ही किसी भंवर में उसका मन फंसा, कि उसका दाहिना हाथ जमीन पर ।चारों ओर अफरा तफरी मच गई।अब बेचारा हरिया क्या करेगा दाहिना हाथ ही नही रहा।मजदूर कयास लगाने लगे, सेठ भरपूर मुआवजा देगा। आखिर काम पर यह हादसा हुआ।
"यह क्या सेठ जी, केवल हजार रूपये ।" हरिया की पत्नी मुनिया ने मुआबजे की चिरौरी की।
"मुआबजा कैसा मुआवजा?? हरिया तो छुट्टी पर था। कानूनन वह आज काम पर आया ही नही चाहे तो रजिस्टर देख लो।और ये हजार रुपये तो बक्शीश के है।"
मुनिया को लगा जैसे सागौन के उस भंवर में फंस कर हरिया ने हाथ ही नही खोया समूचा अस्तित्व ही खो दिया है।
ऐसी इबारत तो केबल इन्सान ही लिख सकता है।
डाॅ सन्ध्या तिवारी
दुकान
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सडक के दांयी ओर पूजा जनरल स्टोर थाऔर बांयी ओरगुप्ता प्रोवीजन स्टोर था।दोनो दुकाने आमने सामने थी।
पूजा जनरल स्टोर गोरी चिट्टी नखरीली अदाओं से लबरेज लगभग बीस पच्चीस बर्ष की पूजा खुद सम्भालती थी।
बांये अंग से बेकार पक्षाघात से पीडित गुप्ता जी अपनी दस बर्षीय बेटी तनु के साथ गुप्ता प्रोविजन स्टोर सम्भालते थे।
जहाँ गुप्ता जी की दुकान में इक्का दुक्का ग्राहक आते बहीं पूजा को ग्रहको के चलते सांस लेने की फुर्सत नही मिलती।
तनु ने इस बात को लेकर कितनी ही बार अपने पापा से शिकायत की लेकिन गुप्ता जी वही घिसा-पिटा जबाव देते ; " जितना किस्मत में होगा उतना ही तो मिलेगा।"
तनु इस जबाव को कभी आत्मसात् नहीं कर पाती ।
धीरे धीरे वह सामने वाली पूजा की नकल करने लगी ।
वह उसी के समान दुकान सजाती । सुबह शाम पूजा करती । ग्राहकों से भी बड़ी तमीज़ से बात करती।
लेकिन ग्राहक फिर भी नहीं आता ।
परेशान तनु ने ठान लिया कि आज वह पूजा से दुकान अच्छी चलने का राज जान कर ही रहेगी ।
जेठ दोपहर ग्राहको की आवक कुछ कम थी ।
अच्छा मौका जान तनु पूजा के पास पहुँची और बोली ; " दीदी एक बात बताओ तुम्हारी दुकान की तरह हमारी दुकान क्यों नही चलती ?"
पूजा ने तनु को ऊपर से नीचे तक भेदक दृष्टि से देखा , परखा, फिर एक आँख दबा कर हँस पडी और बोली ; "बस चार पाँच साल रुक जा तेरी दुकान भी चलेगी।"
डाॅ संध्या तिवारी
राजा नंगा है
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छःह साल की राजो मुझे घूंघट काढे परांठे बेलते हुये देख रही थी ।मां तुम घूंघट क्यों काढ़ती हो ?? उसने पूछा ; "अरे, बाबा बैठे है " मैने ढलक गये घूंघट को नीचे खींचते हुये जबाब दिया । "लेकिन बाबा से तुम मुंह क्यों छुपाती हो ??बाबा तो किसी से मुंह नही छुपाते , वह तो खाली नेकर (निक्कर)पहन कर पूरे घर में घूमते हैं??"
अवाक् मै कुछ बोल नही पायी, बस स्कूल के उन दिनो की एक कहानी याद आ गयी जो कि एक मास्टर साहब ने सुनाई थी ; "एक राजा था ,उसने एक पारदर्शी पोशाक बनवायी और उसे पहन प्रजा के बीच गया और सबसे पूछा कि पोशाक कैसी है? सबने उसकी बहुत तारीफ की। केवल एक बच्चा हाथ में एक तख्ती उठाये खडा था जिस पर लिखा था "राजा नंगा है ।"
कहानी खतम।
लेकिन, मै हमेशा सोचती ,कि उस बच्चे का हश्र क्या हुआ होगा।
आज एक ऐसी ही तख्ती राजो ने भी हाथो में उठा ली थी ।
चटाक् की आवाज के साथ ससुर का रोबीला स्वर गूंजा "तमीज सिखाओ इसे।"
और उस कहानी का अंत आज समझ आया ।
राजा ने उस बच्चे का हाथ तख्ती सहित काट दिया होगा।
डाॅ सन्ध्या तिवारी