Jinn Subhash Neerav द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पंजाबी कहानी

जिन्न

हरजीत अटवाल

अनुवाद :सुभाष नीरव

“हमारे दामाद—सा कोई दामाद नहीं हो सकता। कइयों से बात की है मैंने। दामाद के घर रहकर लोग नरक भोगते हैं, पर हमारी बात और है जी... हम तो अपने घर की तरह रहते हैं, बेटों से भी बढ़कर है यह दामाद। हमेशा आगे—पीछे रहता है हमारे... उसी की बदौलत हम कुछ ही दिनों में यहाँ सैट हो गए।” गुरुद्वारे में मिले अपने गाँव के एक निवासी को बताता है अमरीक सिंह। उसकी बात सच भी थी। बेटियों की मार्फत यहाँ रहने आये माँ—बापों को बहुत से दुःख झेलने पड़ते हैं। कैनेडा में बेटे—बेटियों द्वारा स्पोंसर किये गए परिवारों में एक परिवार अमरीक सिंह का भी था। बहुत बड़ा परिवार नहीं था। वह स्वयं था, पत्नी गुरमेज कौर थी, एक बेटी शरनजीत और बेटा सुखबीर था। बड़ी बेटी कंवलजीत वासुदेव से ब्याही हुई थी। इसी बेटी—दामाद ने स्पोंसर करके उन्हें अपने पास बुला लिया था। बेटों के पास रहने—बसने आये माँ—बापों में और बेटियों के पास रहने को आये परिवारों में फर्क होता है। जैसे अपने बेटे और बेगाने बेटे में हुआ करता है। दामाद के घर रहने वालों को उसकी मर्जी के अनुसार रहना पड़ता, उसी ऊँची—नीची बात सहनी पड़ती, उसकी ‘हाँ' में ‘हाँ' मिलानी पड़ती। यदि वे अपनी मर्जी चलाते तो बेटी के घर के टूटने का भय बना रहता। कितने ही लोग इस पीड़ा को भोग रहे थे। जब तक खुद अपने पैरों पर न खड़े हो जाते, इसी अनुभव से होकर गुजरना पड़ता उन्हें! अकेला आदमी तो जैसे—तैसे गुजारा कर लेता है, परन्तु पूरे परिवार के साथ किसी के घर में आ बैठना सरल नहीं होता। अपने संग काम करते या इधर—उधर मिलते लोगों की कितनी ही कहानियाँ थीं अमरीक सिंह के पास। उन कहानियों की तुलना वह अपने से करता तो उसे अपने दामाद पर गर्व हो उठता। इधर आकर उसे तो लगा ही नहीं कि वह पराये घर में आया है। हवाई जहाज से उतरकर वह अपने दामाद के घर ऐसे आ गया जैसे कोई अपने ही घर में आता है। आते ही, कुछ ही दिनों में सुखबीर को लकड़ी की एक मिल में काम मिल गया। अमरीक सिंह खुद भी किसी पडद्योसी के संग खेतों में काम पर जाने लग पड़ा। अमरीक सिंह की पत्नी गुरमेज कौर को नज़दीक ही नये खुले भारतीय रेस्टोरेंट में काम मिल गया। शरनजीत भी काम ढूँढ़ रही थी, पर जब गुरमेज कौर काम पर जाने लगी तो षरनजीत ने काम ढूँढ़ने का खयाल छोड़ दिया क्योंकि किसी न किसी को तो घर भी सम्भालना था, पीछे से। फिर, कंवलजीत के दो छोटे बच्चे भी थे। पहले वे बेबी—सिटर के पास रहते थे। अब शरनजीत उनकी देखभाल करने लग पड़ी थी।

“लो जी, जिस दिन मैं ऐरोप्लेन में बैठा, मैं ही जानता हूँ, मेरी क्या हालत थी। कैनेडा का चाव बच्चों को होगा, मुझे तो हार्ट—अटैक होने को था, यही सोचकर कि इतना कर्जा सर पर उठा लिया, इसका क्या होगा? कैसे उतरेगा?... पूरे परिवार की टिकटें और आने की तैयारियाँ, कहीं थोड़ा खर्च हुआ हमारा?... ज़मीन गिरवी रखकर भी पूरा नहीं पड़ा तो रिश्तेदारों से उधार लेना पड़ा। मैं सोचता था भई, कैनेडा में कौन—सा पैसे लगे हैं दरख्तों पर, पर देख लो साब, हमें यहाँ आये अभी टेम ही कितना हुआ है... पाई—पाई लौटा दी। चार पैसे अब अपने पास भी हैं। अब, जब चाहें अपना घर ले लें। सुखबीर तो कई बार उतावला भी हो उठता है, पर वासुदेव कहता है कि शरनजीत की शादी तक हम वहीं उसके पास ही रहें।”

“कोई लड़का देख रखा है क्या?” गाँव वाले साथी ने उत्साह में भरकर पूछा। उसका मन लालच से भर उठता कि शायद, वह अपने किसी रिश्तेदार का ही फायदा कर दे। पर अमरीक सिंह इस पर धैर्यपूर्वक कहता, “यह तो जी, अब दामाद पर ही है, जहाँ चाहे रिश्ता करे।”

जब भी अमरीक सिंह को अवसर मिलता, वह वासुदेव के गुण गाने बैठ जाता। वासुदेव भी ऐसा ही था। हर वक्त ‘डैडी—डैडी' करता रहता। कंवलजीत अपनी माँ को बताती, “मम्मी, ये तो बहुत बुरे स्वभाव वाले आदमी हैं। तुम्हारे बारे में एक बात इन्होंने बहुत साफ कह दी थी कि मैं उन्हें बुला तो लूँगा अपने यहाँ, पर जब तक हमारे यहाँ रहेंगे, किराया लूँगा और साथ ही घर का खर्च भी। पर यह तो डैडी ने पता नहीं क्या जादू किया है, बस डैडी के ही होकर रह गए हैं।”

वासुदेव ने किराया तो क्या लेना था, घर के खर्च में भी हिस्सा न डालने दिया। घर का अधिकतर खर्च उसने स्वयं ही उठा रखा था। अगर अलग रहने या अलग घर लेने की बात चलती तो वह कह उठता, “डैडी, अभी ऐसे ही रहते रहो। अलग रहोगे तो खर्च बढ़ जायेंगे।”

अमरीक सिंह सोचता, वासुदेव ठीक कहता है। इस वक्त तीन तनख्वाहें आ रही हैं। पैसे जुड़ रहे हैं। ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। अगर घर ले भी लिया तो किस्तों के चक्कर में ही पड़े रहेंगे। जब तक निभ रही है, तब तक इकट्‌ठे रहने में कोई हर्ज नहीं।

कुछ समय के लिए वासुदेव ने उन्हें बोझ समझा किनतु फिर वह एकदम बदल गया। उनमें रच—बस गया। सुखबीर के संग खूब हँसी—ठट्‌ठा कर लेता। शरनजीत को छेड़ता और कहता, “हैलो साली जी, आधी घरवाली जी, दहेज में आने वाली जी...।”

शरनजीत के गाल शर्म से लाल हो उठते।

कैनेडा में एक बात जो आम तौर पर प्रचलित थी, वह यह थी कि वहाँ दो तरह के लोग अधिकतर सैटल हो रहे थे। एक रिफ्यूजी बनकर और दूसरे बेटे—बेटियों द्वारा स्पोंसर होकर। जिन्हें बेटी स्पोंसर करती, उन्हें मनचले दहेज में आया हुआ कहा करते।

जैसे चलती बस की भीड़ दो—एक झटके खाकर टिक जाती है, वैसे ही वे सब भी जल्दी ही ज़िन्दगी के पुर्जे की भाँति फिट हो गए। अमरीक सिंह खेतों में काम के लिए तड़के ही निकल जाता और देर से लौटता। ऐसे ही सुखबीर था। सुखबीर तो कभी—कभार ओवर—टाइम भी कर लिया करता। गुरमेज कौर दिन चढ़ने पर काम पर जाती। उसका काम नज़दीक ही था। कंवलजीत का काम नौ से पाँच तक का था। वासुदेव शिफ्ट—वर्क किया करता था। दो हफ्ते दिन और दो हफ्ते रात। दिन वाली शिफ्ट में वह घर के अन्य लोगों के साथ ही घर से निकलता, पर रात वाली शिफ्ट में वह नौ बजे जाता और सुबह सात बजे लौट आता। शरनजीत की जिम्मेदारी बच्चों को सम्भालने और घर का सारा काम करने की थी। दोनों बच्चे जल्दी ही उससे घुलमिल गए थे। वे माँ को तो जैसे भूल ही बैठे थे। शरनजीत सुबह जल्दी उठती, नाश्ता तैयार करती। बारी—बारी से सभी को काम पर भेजती रहती। दिन भर इधर—उधर घर के काम करती रहती। शाम को काम से लौटने वालों के लिए खाना बनाती। सबको बिठाकर खिलाती। सबसे पहले उठी शरनजीत सबसे बाद में सोती। जिन दिनों वासुदेव रात की शिफ्ट पर होता, दिन भर वह घर पर ही रहता। वह बच्चों पर विशेश निगरानी रखती कि कहीं वासुदेव की नींद खराब न हो। शाम को अमरीक सिंह काम से लौटता तो पूछता, “शरनजीत, तूने अपने जीजा को रोटी तो टेम से बना दी थी न?”

गुरमेज कौर का स्वभाव अधिक बोलने का नहीं था। वह चुप ही रहा करती। शरनजीत की ओर गौर से देखती रहती और चिन्ताग्रस्त होकर पति से कहती, “सुनो जी, हमें शरनजीत का विवाह कर देना चाहिए। लड़की को घर से जल्दी विदा करना ही ठीक है।”

“इतनी जल्दी क्या है? थोड़ा सैट हो लें, चार पैसे और जुड़ जायें, फिर इंडिया जाकर धूमधाम से विवाह करेंगे।” अमरीक सिंह पत्नी की बात का जवाब देता।

कुछेक क्षण रुककर वह फिर कहती, “जी, हम अपना घर ले लें। इस तरह रहना ठीक नहीं। अपने घर में होंगे तो अपने बच्चों को थोड़ी आजादी मिलेगी। चलो, थोड़ा कष्ट ही झेल लेंगे।”

“तू तो पागल हो गयी लगती है।” अमरीक सिंह जैसे खीझते हुए कहता, ”ऐसे पैसे आते हुए बुरे लगते हैं?...मैं सोचता हूँ, गुलजारे के साथ वाला खेत ले लें, घर का क्या है, काम तो चल ही रहा है।”

पति की उत्तर सुनकर गुरमेज घबराकर चुप हो जाती। कभी—कभी शरनजीत को अपने पास बैठा लेती। उसके माथे पर हाथ रखकर उसका तापमान परखती। उसकी नब्ज टओलती रहती, “मैं देख रही हूँ कि मेरी लाडो की सेहत तो ठीक है न?... काम भी तो बहुत करना पड़ता है तुझे।”

फिर, उसकी पीठ थपथपाकर कहती, “मुझे पता है, मेरी बेटी सयानी है, दुःखों को सहना जानती है। कोई दुःख होगा भी तो बतायेगी नहीं, हँसकर सह जाएगी।”

शरनजीत माँ की ममता को देख उसके गले लग जाती।

वीक—ऐंड आता तो घर में चहल—पहल हो जाती। कई बार इकट्‌ठा घूमने भी चले जाते। सुखबीर ने अपने कई दोस्त बना लिये थे, वह उनके पास चला जाता। अमरीक सिंह छुट्‌टी वाले दिन गुरुद्वारे ज़रूर जाता। शाम को अमरीक सिंह और वासुदेव आपस में जाम टकराते। नशे में आकर अमरीक सिंह दामाद की तारीफों के पुल बाँधने लग जाता, “बच्चे, तूने मेरी सारी तमन्नाएँ पूरी कर दीं।”

“डैडी, मैं तो आपका बच्चा हूँ, मेरा फर्ज था, मैंने कर दिया।” वासुदेव कहता।

एक शाम वे दोनों इसी तरह बैठकर पी रहे थे। सुखबीर घर पर नहीं था। कंवलजीत बैडरूम में बच्चों को सुला रही थी। शरनजीत रसोई में काम कर रही थी। गुरमेज कौर पास खड़ी होकर छोटी—मोटी मदद कर रही थी। एकाएक लाउंज में वासुदेव किसी बात पर हँसा। ऊँचे स्वर में हँसने की उसकी आदत थी। शरनजीत ने माँ से कहा, “मम्मी देखो, जीजा जी की हँसी, जैसे कोई जिन्न हँस रहा हो, हा—हा—हा...बोल, मेरे आका और क्या सेवा करूँ?”

शरनजीत ने किसी फिल्मी जिन्न की भाँति हँसकर नकल उतारी। माँ उसके मुख पर हाथ रखने के लिए आगे बढ़ते हुए बोली, “ न मेरी बेटी, जिन्न का नाम नहीं लेते। दुबारा ऐसा न कहना।”

शरनजीत एक पल तो माँ का चेहरा देखती रही। फिर, माँ को ज़रूरत से ज्यादा गम्भीर देखकर वह बोली, “मम्मी, जिन्न के नाम से तू तो ऐसे घबरा गयी जैसे तुझे सचमुच ही जिन्न दिखाई दे गया हो।”

गुरमेज कौर कुछ न बोली। वह देख तो बेटी की ओर रही थी, पर असल में थी वह कहीं ओर। बहुत पीछे। शरनजीत ने पुन : पूछा, “तुझे क्या हो गया था ?... कोई बात याद आ गयी ?”

“हाँ, बेटे।” गुरमेज ने गहरा निःश्वास भरकर कहा।

“बताओ फिर, क्या याद आ गया था?” शरनजीत ने जैसे जिद—सी की।

पहले तो गुरमेज कौर टालमटोल करने लगी, पर जब शरनजीत ने पीछा नहीं छोड़ा तो गुरमेज कौर थोड़ा रुककर धीमे स्वर में बताने लगी, “मुझे जिन्न के नाम से डर लगता है, मैंने जिन्न देख रखा है।”

“अच्छा मम्मी! पहले तो तूने कभी नहीं बताया। बता न, कैसा होता है जिन्न?” शरनजीत ने जैसे मचलकर पूछा।

“जिन्न दिखाई नहीं देता, सिर्फ महसूस किया जाता है।” गुरमेज की आवाज़ ठहरी हुई थी।

एक पल रुककर उसने फिर कहा, “पाकिस्तान बनने के समय हमें अपना भरा—पूरा घर छोड़कर इंडिया आना पड़ा, खाली हाथ और कर्जे में डूबे। जिस मकान में हमें शरण मिली, वह था तो खूबसूरत, पर शीघ्र ही मालूम हुआ कि उस घर में कोई गड़बड़ थी। मेरे बापू ने सयाने से पता लगवाया तो मालूम हुआ कि उस घर में जिन्न का वास था। कहते थे, अगर जिन्न को खुश कर लिया जाये तो घर में पौ—बारह हो जायेगी। और अगर जिन्न नाराज हो गया तो घर से बेघर भी हो सकते हैं।”

“फिर मम्मी?” शरनजीत ने पूछा।

“मेरे बापू ने व्यापार शुरू किया। हम देखते ही देखते मालामाल हो गए।”

“पर जिन्न को खुश कैसे किया?” शरनजीत फटी आँखों से मम्मी की ओर देख रही थी।

“जिन्न घर की जवान औरत माँगता था। मुझ पर उसकी छाया रहने लगी।”

“फिर क्या हुआ?” शरनजीत ने इस बार थोड़ा घबराकर पूछा।

“मेरे बापू खुश थे कि खाली हाथ आए थे और अब कहाँ से कहाँ पहुँच गए थे। पर मेरी माँ से मेरी हालत देखी नहीं जाती थी। उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह स्वयं कुछ कर सके। उसने मेरे भाई को आगे किया और बापू का विरोध कर हम शहर में आ बसे... थोड़ा खाकर गुजारा कर लिया।”

जैसी ही गुरमेज ने अपनी बात खत्म की, एकाएक, शरनजीत माँ से लिपट गयी। उसके कन्धे पर सर रखकर बोली, “मम्मी प्लीज, कुछ करो। सुखबीर से कहो, हम यहाँ से चले जायें। मुझसे भी अब यह छाया बर्दाश्त नहीं होती।”

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परिचय

हरजीत अटवाल

वर्तमान पंजाबी कथा साहित्य में एक बेहद जाना—माना नाम। सन्‌ 1977 से यू.के. में। अब तक बारह उपन्यास— ‘वन—वे', ‘रेत', ‘सवारी', ‘साउथाल', ‘बिटिश बॉर्न देसी', ‘अकाल सहाय', ‘गीत', ‘मुंदरी डॉट काम', ‘शाल्मलि', ‘मोर उडारी' तथा ‘आपणा'। इसके अतिरिक्त पाँच कहानी संग्रह, एक कविता संग्रह, एक सफ़रनामा, एक जीवनी तथा एक स्व—कथन की पुस्तक ‘दस दरवाजे़' प्रकाशित। हिन्दी में एक कहानी संग्रह तथा तीन उपन्यास ‘रेत', ‘साउथाल' तथा ‘थेम्स किनारे़' प्रकाशित। ‘दस दरवाज़े' हिंदी में भी प्रकाशित।

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