परीक्षा-गुरु - प्रकरण-17 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-17

परीक्षा गुरू

प्रकरण-१७

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स्‍वतन्‍त्रता और स्‍वेच्‍छाचार.

लाला श्रीनिवास दास

जो कं हु सब प्राणीन सों होय सरलता भाव .

सब तीरथ अभिषेक ते ताको अधिक प्रभाव + [38]

बिदुरप्रजागरे.

लाला मदनमोहन कुतब जानें की तैयारी कर रहे थे इतनें मैं लाला ब्रजकिशोर भी आ पहुँचे.

"आपनें लाला हरकिशोर का कुछ हाल सुना ?" ब्रजकिशोर के आते ही मदनमोहन नें पूछा.

"नहीं ! मैं तो कचहरी सै सीधा चला आया हूँ"

"फ़िर आप नित्‍य तो घर होकर आते थे आज सीधे कैसे चले आए ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें संदेह प्रगट करके कहा.

"इस्‍मैं कुछ दोष हुआ ? मुझको कचहरी मैं देर होगई थी इस्‍वास्‍तै सीधा चला आया तुम अपना मतलब कहो"

"मतलब तो आपका और मेरा लाला साहब खुद समझते होंगे परन्तु मुझको यह बात कुछ नई, नईसी मालूम होती है" मास्‍टर शिंभूदयाल नें संदेह बढ़ानें के वास्‍तै कहा.

"सीधी बात को बे मतलब पहेली बनाना क्‍या ज़रूर है ? जो कुछ कहना हो साफ़ कहो."

"अच्‍छा ! सुनिये" लाला मदनमोहन कहनै लगे "लाला हरकिशोर के स्‍वभाव को तो आप जान्‍तेही हैं आपके और उन्के बीच बचपन सै झगड़ा चला आता है-"

"वह झगड़ा भी आपही की बदौलत है परन्‍तु खैर ! इस्‍समय आप उस्‍का कुछ बिचार न करें अपना बृतान्त सुनाएँ और औरों के काम मैं अपनी निजकी बातोंका सम्‍बन्‍ध मिलाना बड़ी अनुचित बात है ?" लाला ब्रजकिशोर नें कहा.

"अच्‍छा ! आप हमारा बृतान्‍त सुनिये" लाला मदनमोहन कहनें लगे. "कई दिन सै लाला हरकिशोर रूठे रूठेसे रहते थे. कल बेसबब हरगोविंद सै लड़ पड़े. उस्‍की जिदपर आप पांच, पांच रुपये घाटेसै टोपियें देनें लगे. शामको बाग मैं गए तो लाला हरदयाल साहब सै वृथा झगड़ पड़े, आज यहां आए तो मुझको और चुन्‍नीलाल को सैकड़ों कहनी न कहनी सुनागए !"

"बेसबब तो कोई बात नहीं होती आप इस्‍का अस्‍ली सबब बताइये ? और लाला हरकिशोर पांच, पांच रुपेके घाटेपर प्रसन्‍नता सै आपको टोपियां देते थे तो आपनें उन्‍मैं सै दस पांच क्‍यों नहीं लेलीं ? इन्‍मैं आप सै आप हरकिशोर पर बीस-पच्‍चीस रुपे का जुर्माना हो जाता" लाला ब्रजकिशोर नें मुस्करा कर कहा.

"तो क्‍या मैं हरकिशोर की जिदपर उस्‍की टोपियें लेलेता और दसबीस रुपेके वास्‍तै हरगोविंद को नीचा देखनें देता ? मैं हरगोविंद की भूल अपनें ऊपर लेनेंको तैयार हूँ परन्‍तु अपनें आश्रितुओं की ऐसी बेइज्‍जती नहीं किया चाहता" लाला मदनमोहन नें जोर देकर कहा.

"यह आपका झूंठा पक्षपात है" लाला ब्रजकिशोर स्‍वतन्त्रता सै कहनें लगे "पापी आप पाप करनें सै ही नहीं होता. पापियों की सहायता करनें वाले, पापियों को उत्तेजन देनेंवाले, बहुत प्रकार के पापी होते हैं; कोई अपनें स्‍वार्थ सै, कोई अपराधी की मित्रता सै, कोई औरोंकी शत्रुता सै, कोई अपराधी के संबंधियों की दया सै, कोई अपनें निजके सम्बन्ध सै, कोई खुशामद सै महान् अपराधियों का पक्ष करनेंवाले बन जाते हैं, परन्तु वह सब पापी समझे जाते हैं और वह प्रगट मैं चाहे जैसा धर्मात्‍मा, दयालु, कोमल चित्त हों, भीतर सै वह भी बहुधा वैसे ही पापी और कुटिल होते हैं"

"तो क्‍या आपकी राय मैं किसी की सहायता नहीं करनी चाहिये ?" लाला मदनमोहन नें तेज होकर पूछा.

"नहीं, बुरे कामोंके लिये बुरे आदमियों की सहायता क़भी नहीं करनी चाहिये" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे. "रशिया का शहन्शाह पीटर एक बार भरजवानी मैं ज्‍वर सै मरनें लायक हो गया था. उस्‍समय उस्‍के वजीर नें पूछा कि "नो अपराधियों को अभी लूट, मार के कारण कठोरदंड दिया गया है क्‍या वह भी ईश्‍वर प्रार्थना के लिये छोड़ दिये जायँ ?" पीटर नें निर्बल आवाज सै कहा "क्‍या तुम यह समझते हो कि इन अभागों को क्षमा करनें और इन्साफ़ की राह मैं कांटे बोनें सै मैं कोई अच्‍छा काम करूंगा ? और जो अभागे माया जाल मैं फंसकर उस सर्व शक्तिमान ईश्‍वर कोही भूल गए हैं मेरे फ़ायदे के लिये ईश्‍वर उन्‍की प्रार्थना अंगीकार करैगा ? नहीं हरगिज नहीं; जो कोई काम मुझ सै ईश्‍वर की प्रसन्‍नता लायक बन पड़े तो वह यही इन्साफ़ का शुभ काम है"

"मैं तो आप के कहनें सै इन्साफ़ के लिये परमार्थ करना क़भी नहीं छोड़ सक्‍ता" लाला मदनमोहन तमक कर कहनें लगे.

"जो जिस्के लिये करना चाहिये सो करना इन्साफ़ मैं आ गया परन्तु स्‍वार्थ का काम परमार्थ कैसे हो सक्‍ता है ? एक के लाभ के लिये दूसरों की अनुचित हानि परमार्थ मैं कैसे समझी जा सक्ती है ? किसी तरह के स्‍वार्थ बिना केवल अपनें ऊपर परिश्रम उठाकर, आप दु:ख सहक़र, अपना मन मारकर औरों को सुखी करना सच्‍चा धर्म समझा जाता है जैसे यूनान मैं कोडर्स नामी बादशाह राज करता था उस्‍समय यूनानियों पर हेरेकडिली लोगों नें चढ़ाई की. उस्‍समय के लोग ऐसे अवसर पर मंदिर मैं जाकर हार जीत का प्रश्‍न किया करते थे. इसी तरह कोडर्सनें प्रश्‍न किया तब उसै यह उत्‍तर मिला कि "तू शत्रु के हाथ सै मारा जायेगा तो तेरा राज स्‍वदेशियोंके हाथ बना रहेगा और तू जीता रहैगा तो शत्रु प्रबल होता जायगा" कोडर्स देशोपकार के लिये प्रसन्‍नता सै अपनें प्राण देनेंको तैयार था परन्तु कोडर्स के शत्रु को भी यह बात मालूम हो गई इसलिये उसनें अपनी सेनामैं हुक्‍म दे दिया कि कोडर्स को कोई न मारे. तथापि कोडर्स नें य‍ह बात लोग दिखाईके लिये नहीं की थी इससै वह साधारण सिपाही का भेष बनाकर लड़ाई में लड़ मरा परन्‍तु अपनें देशियों की स्‍वतन्‍त्रता शत्रु के हाथ न जानें दी."

"जब आप स्‍वतन्‍त्रता को ऐसा अच्‍छा पदार्थ समझते हैं तो आप लाला साहब को इच्‍छानुसार काम करनें सै रोककर क्‍यों पिंजरेका पंछी बनाया चाहते हैं ?" मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा.

"यह स्‍वतन्‍त्रता नहीं स्‍वेच्‍छाचार है; और इन्‍कों एक समझनें सै लोग बारम्‍बार धोखा खाते हैं" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे 'ईश्‍वर नें मनुष्‍यों को स्‍वतन्त्र बनाया है पर स्‍वेच्‍छाचारी नहीं बनाया क्‍योंकि उस्‍को प्रकृति के नियमों मैं अदलबदल करनें की कुछ शक्ति नहीं दी गई वह किसी पदार्थ की स्‍वाभाविक शक्ति मैं तिलभर घटा बढ़ी नहीं करसक्‍ता जिन पदार्थो मैं अलग, अलग रहनें अथवा रसायनिक संयोग होनें सै जो, जो शक्ति उत्‍पन्‍न होनें का नियम ईश्‍वर नें बना दिया है बुद्धि द्वारा उन पदार्थों की शक्ति पहचानकर केवल उन्‍सै लाभ लेनें के लिये मनुष्‍य को स्‍वतन्‍त्रता मिली है इसलिये जो काम ईश्‍वर के नियमानुसार स्‍वाधीन भाव सै किया जाय वह स्वतन्त्रता मैं समझा जाता है और जो काम उस्के नियमों के विपरीत स्वाधीन भाव सै किया जाय वह स्वेच्छाचार और उस्‍का स्‍पष्ट दृष्‍टांत यह है कि शतरंज के खेल मैं दोनों खिलाडि़यों को अपनी मर्जी मूजब चाल चलनें की स्‍वतन्‍त्रता दी गई है परन्तु वह लोग घोड़े को हाथी की चाल या हाथी को घोड़े की चाल नहीं चल सक्‍ते और जौ वे इस्‍तरह चलैं तो उन्‍का चलना शतरंज के खेल सै अलग होकर स्‍वेच्‍छाचार समझा जायगा यह स्‍वेच्‍छाचार अत्यन्त दूषित है और इस्‍का परिणाम महा भयंकर होता है इसलिये वर्तमान समय के अनुसार सब के फ़ायदे की बातों पर सत् शास्‍त्र और शिष्‍टाचार की एकता सै बरताव करना सच्‍ची स्‍वतन्‍त्रता है और बड़े लोगों नें स्‍वतन्‍त्रताकी


[1] पेराग्राफ के प्रारम्भमैं हर जगह नएसिरसै जरासी लकीर छोड़कर लिखा जाता है और वह पूरा होता है वहां बाकी लकीर खाली छोड़दी जातीहै. जैसे यह पैराग्राफ "अलबता" से प्रारम्भ होकर "होतेहैं'. पर समाप्ति हुआ है.

[2] आज्ञा भङ्गकरान राजा न क्षमेत सुतानपि । विशेष: कौन राज्ञय राज्ञ श्चित्नगतस्य च ।।

[3] The quality of mercy is not strained.

It droppeth. as the gentle rain from heaven

Upon the place beneath, it is twice. Blessed

It blesseth him that gives, and him that takes.

'Tis mightiest. it becomes

The throned monarch better than his crown

William Shakespeare

[4] दरवेशजईफ़े हालरा दरखुशकी तङ्गेसाल मपुर्सके चुनी इल्ला बशर्त आंकि मरहमे बरेंशनिही

[5] आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्य विद्याविहीन मकुलीन मसङ्गतं वा

प्रायेण भूमिपतय:प्रमदा लता श्च, या: पार्श्व तो वसति तं परिवेष्टयन्ति ।।

[6] दूरा दुछ्रितपाणिं रार्द्रनयन: प्रात्सारिताङ्घसिनो

गाढ़लिङ्गनतत्पर: प्रिवक्ककथाद्रत्रेषु दत्तादर: ।।

अन्तर्भूतविषी वहिर्मघुमयश्चातीव मायापटु ।

कोनामायमपूर्वनाटकविधिर्य: शिक्षितोदुर्जन: ।। १ ।।

[7] नजातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति ।। हविषा कृष्णवर्त्मैव भूय एवावभिर्द्धते ।।

[8] भोगस्य भाजनं राजा मन्त्री कार्य्यस्य भाजनम् ।। राजकार्य्यपरिध्वंसी मन्त्री दोषेण लिप्यते ।।

[9] तवां शनाख्त बयकरोज दर शमायल मरद । किता कुजाश रसीदस्त पायगाह उलूम । वले ज बातिनश एमन मवाशो गर्रा मशो । के खुब्स नफ़्स नगदर्द बसालहा मालूम ।

[10] सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।।

प्रियं च नानृतं ब्रूया देशधर्मस्सनातन: ।।

[11] धर्म्मार्थाकुच्येते श्रेय: कामर्थों धर्म एव च ।।

अर्थ एवेह वा श्रेय स्विवर्ग इति तू स्थिति: ।।

[12] कच्चिदर्थेन वा धर्म धर्मेणार्थे मथा पिवा ।।

उभी वा प्रीतिसारेण न कामेन प्रबाधसे ।।

[13] योधर्म मर्थ कामं च यथा कालं निषेवते ।।

धर्मार्थ काम संयोगं सोमुत्नेहच विन्‍दति ।।

[14] विबुद्धश्चिन्तयेद्धर्मं मर्थं चास्या विरोधीनम् ।।

अपीडया तयो: काम मुभयोरपि चिन्तयेत् ।।

[15] कातर्यं केवलानीति: शौर्यंश्वापदचेष्टितम् ।।

[16] हीनान्यनुपकर्तृणि प्रवृद्धानि विकुर्वते ।।

तेन मध्यमशक्तिनी मित्राणि स्थापितान्यत:

[17] अतिदानाद् वलिर्बद्धो नष्टो मानात् सुयोधन ।।

विनष्टो रावणो लौल्या अतिसर्वत्र वजयेत्

[18] कुलू वश्रबू न ला तुस्त्रिफू

[19] न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाण मिति मे मति: ।।

अन्तेष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते ।।

[20] तत्वज्ञ: सर्वभूतानां योगज्ञ: सर्वकर्मणाम् ।।

उपायज्ञो मनुष्याणां नर: पंडित उच्यते ।।

[21] न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नाति विश्वसेत् ।।

विश्वासाद् भयमुत्पन्न सूलान्यपी निकृन्तति ।।

[22] देशभाषा मैं बाफ और बिजली की शक्ति के वृत्तान्त न प्रकाशित होनें का यह फल है कि अब तक सर्व -साधारण रेल और तार का भेद कुछ नहीं जान्ते.

[23] गैस से भरा हुआ उड़नें का गुबारा

[24] परोपि हितवान् बन्धुर्बन्धु रप्यहित: पर: ।

अहितो देहजो व्याधि हिमारण्यमोषधम् ।।

[25] न धर्म्मशास्त्रं पठतीति कारणं न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मन: ।

स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः ।।

[26] अनुबंध छ संप्रेक्ष्य विपाकं चैंवकर्म्मणाम् ।।

उत्थान मात्मन श्चैव धीर: कुर्वीत वा नवा ।।

[27] आयस्ते विपुल: कच्चित्कच्चिदल्पतरो व्यय: ।।

अपात्नेपुनते कच्चित्कोषो गच्छतिराघव ।।

[28] चूं इकरारे दोस्ती कर दी तबक्के खिदमत मदार ।

[29] आत्मैव ह्यात्मन: साक्षी गति रात्मा तथात्मन:

भाव संस्था: स्वमात्मानं नृणां साक्षिण मुत्तमम् ।।

[30] यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग्गुपते च सर्वदा ।

सनै सर्व मवाप्नोति वेदान्तोपगतम्फलम् ।।

[31] अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।।

तत: सपत्नाम् जयतिस मुलस्तूविनस्यति ।।

वर्द्धत्य धर्मेण नरस्ततोभद्राणि पश्यति ।।

तत: मपत्नान् जयति समूलस्तू विनश्यति ।।

[32] मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित्पश् यतीतिन: ।।

तांस्तु देवा: पप्रश्यन्ति स्वस्यै वान्तर पूरुष: ।।

[33] तस्मात् पापं न कुर्वीत पुरुष: शसितव्रत ।।

पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमार्ण पुन: पुन: ।।

वेदात्यागश्चयज्ञाथ नियमाश्च तपांसिच ।।

नविप्रभावदुष्टस्य सिद्धि गच्छन्ति कर्हिचित् ।।

[34] अकस्मा देव कुप्यंति प्रसीदंत्यंनिमित्तज्ञ: ।।

शीलमेतदसाधूनामभ्रं पारिप्लवं यथा ।।

[35] ऐश्वर्यें वासुविरतीर्णे व्यसनें वापि दारुणे ।।

रज्जेव पुरुषो बद्ध: क्वतांतेनोपनीयते ।।

[36] द्यूतमेत्तपुराकल्पे दृश्टं बैरकरम् महत ।।

तस्मात् द्यूतन्नसेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान ।।

[37] अकार्य कारणा द्वौतः कार्याणांच विवर्जनात् ।।

अकाले मंत्र भेदाच्च येनमाद्येन्नतत्पिबेत् ।।

[38] सर्वतीर्थेषु वा स्नानं सर्व भूतेषू चार्जवम् ।।

उभे त्वेते सने स्याता मार्जवं वा विशिष्यते ।।

यह हद बांध दी है. मनुमहाराज कहते हैं "बिना सताए काहु के धीरे धर्म्‍म बटोर।। जों मृत्तिका दीमक हरत क्रम क्रमसों चहुं ओर।।" [1]

महाभारत कर्णपर्व मैं युधिष्ठर और अर्जुन का बिगाड़ हुआ उस्‍समय श्रीकृष्‍णनें अर्जुन सै कहा कि "धर्म ज्ञान अनुमानते अतिशय कठिन लखाय ।। एक धर्म्म है बेद यह भाषत जनसमुदाय ।।[2]१ कोमैं कछु संशय नहीं पर लख धर्म्म अपार ।। स्‍पष्‍टकरन हित कहुँ, कहूँ पंडित करत बिचार ।। [3] २

जहां न पीडि़त होय कोउ सोसुधर्म्‍म निरधार ।। हिंसक हिंसा हरनहित भयो सुधर्म्‍म प्रचार ।। [4]३ प्राणिनकों धारण करे ताते कहियत धर्म्म ।। जासो जन रक्षित रहैं सो निश्‍चय शुभकर्म ।।[5]४ जे जन परसंतोष हित करैं पाप शुभजान ।। तिनसो कबहुं न बोलिये श्रुति विरुद्ध पहिचान ।। [6]५" इसलिये दूसरेकी प्रसन्‍नता के हेतु अधर्म्‍म करनें का किसी को अधिकार नहीं है इसी तरह अपनें या औरों के लाभ के लिये दूसरे के वाजबी हकों मैं अन्‍तर डालनें का भी किसी को अधिकार नहीं है जिस्‍समय महाराज रामचन्‍द्रजी नें निर्दोष जनकनंदनी का परित्‍याग किया जानकीजी को कुछ थोड़ा दु:ख था ? परन्तु वह गर्भनाश के भय सै अपना शरीर न छोड़ सकीं. हां जिस्‍तरह उन्‍नें अकारण अत्यन्त दु:ख पानें पर भी क़भी रघुनाथजी के दोष नहीं विचारे थे, इस तरह सब प्राणियों को अपनें विषय मैं अपराधी के अपराध क्षमा करनें का पूरा अधिकार है और इस तरह अपनें निज के अपराधों का क्षमा करना मनुष्‍यमात्र के लिये अच्‍छे सै अच्‍छा गुण समझा जाता है परन्‍तु औरों को किसी तरह की अनुचित हानि हो वहां यह रीति काम मैं नहीं लाई जा सक्‍ती"

"मैं तो यह समझता हूँ कि मुझसै एक मनुष्‍य का भी कुछ उपकार हो सके तो मेरा जन्‍म सफल है" लाला मदनमोहन नें कहा.

"जिस्‍मैं नामवरी आदि स्‍वार्थका कुछ अंश हो वह परोपकार नहीं और परोपकार करनें मैं भी किसी खास मनुष्‍य का पक्ष किया जाय तो बहुधा उस्‍के पक्षपात सै औरों की हानि होनें का डर रहता है इसलिये अशक्‍त अपाहजों का पालन पोषण करना, इन्साफ़ का साथ देना और हर तरह का स्‍वार्थ छोड़कर सर्व साधारण के हित मैं तत्‍पर रहना मेरे जान सच्‍चा परोपकार है" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया.