परीक्षा-गुरु - प्रकरण-15 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-15

परीक्षा गुरू

प्रकरण-१५.

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प्रिय अथवा पिय् ?

लाला श्रीनिवास दास

दमयन्ति बिलपतहुती बनमैं अहि भ य पाइ

अहिबध बधिक अधिक भयो ताहूते दुखदाइ

नलोपाख्‍याने.

"ज्‍योतिष की बिध पूरी नहीं मिल्‍ती इसलिये उस्‍पर बिश्‍वास नहीं होता परन्तु प्रश्‍न का बुरा उत्‍तर आवे तो प्रथम हीसै चित्त ऐसा व्‍याकुल हो जाता है कि उस काम के अचानक होंनें पर भी वैसा नहीं होता, और चित्त का असर ऐसा प्रबल होता है कि जिस वस्‍तु की संसार मैं सृष्टि ही न हो वह भी वहम समाजानें सै तत्‍काल दिखाई देनें लगती है. जिस्‍पर जोतिषी ग्रहों को उलट पुलट नहीं कर सक्ते, अच्‍छे बुरे फल को बदल नहीं सक्ते, फ़िर प्रश्‍न करनें सै लाभ क्‍या ? कोई ऐसी बात करनी चाहिये जिस्‍सै कुछ लाभ हो" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा.

"आप हुक्‍म दें तो मैं कुछ अर्ज करूं ?" बिहारी बाबू बहुत दिन सै अवसर देख रहे थे वह धीरे सै पूछनें लगे.

"अच्‍छा कहो" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें मदनमोहन के कहनें सै पहले ही कह दिया.

"भोजला पहाड़ी पर एक बड़े धनवान जागीरदार रहते हैं. उन्‍को ताश खेलनें का बड़ा व्‍यसन है. वह सदा बाजी बद कर खेल्‍ते हैं और मुझको इस खेल के पत्ते ऐसी राह सै लगानें आते हैं कि जब खेलैं तब अपनी ही जीत हो. मैंनें उन्‍को कितनी ही बार हरादिया इसलिये अब वह मुझको नहीं पतियाते परन्तु आप चाहैं तो मैं वह खेल आपको सिखा दूं फ़िर आप उन्‍सै निधड़क खेलैं. आप हार जायंगे तो वह रकम मैं दूंगा और जीतें तो उस्‍मैं सै मुझको आधी ही दें" बिहारी बाबू नें जुए का नाम छिपा कर मदनमोहन को आसामी बनानें के वास्ते कहा.

"जीतेंगे तो चौथाई देंगे, परन्तु हारनें केलिये रक़म पहले जमा करा दो" मुन्शी चुन्‍नीलाल मदनमोहन की तरफ़ सै मामला करनें लगें.

"हारनें के लिये पहले पांच सौ की थैली अपनें पास रख लीजिये परन्तु जीत मैं, आधा हिस्‍सा लूंगा" बिहारी बाबू हुज्‍जत करनें लगे.

"नहीं, जो चुन्‍नीलाल नें कह दिया वह हो चुका, उस्‍सै अधिक हम कुछ न देंगे" लाला मदनमोहन नें कहा.

और बड़ी मुश्किल सै बिहारी बाबू उस्‍पर कुछ, कुछ राजी हुए परन्तु सौभाग्‍य बस उस्‍समय बाबू बैजनाथ आ गए इस्सै सब काम जहां का तहां अटक गया.

"बिहारी बाबू सै किस बात का मामला हो रहा है ?" बाबू बैजनाथ नें पहुँचते ही पूछा.

"कुछ नहीं, यह तो ताश के खेल का जिक्र था" मुन्शी चुन्‍नीलाल नें साधारण रीति सै कहा.

बिहारी बाबू कहते हैं कि "मैं पत्ते लगानें सिखा दूं जिस्‍तरह पत्ते लगाकर आप एक धनवान जागीरदार सै ताश खेलैं, और बाजी बद लें. जो हारेंगे तो सब नुक्‍सान मैं दूंगा. और जीतेंगे तो उस्‍मैं सै चौथाई ही मैं लूंगा" लाला मदनमोहन नें भोले भाव सै सच्‍चा वृत्तान्त कह दिया.

"यह तो खुला जुआ है और बिहारी बाबू आपको चाट लगानें के लिये प्रथम यह सब्‍ज बाग दिखाते हैं" बाबू बैजनाथ कहनें लगे "जिस तरह सै पहलै एक मेवनें, आपको गड़ी दौलत का तांबेपत्र दिखाया था, और वह सब दौलत गुप चुप आपके यहां ला डालनें की हामी भरता था परन्तु आपसै खोदनें के बहानें सौ, पचास रुपे मार लेगया तब सै लौट कर सूरत तक न दिखाई ! आपको याद होगा कि आपके पास एक बदमाश स्‍याम का शाहजादा बनकर आया था, और उस्‍नें कहा था कि "मैं हिन्दुस्थान की सैर करनें आया हूँ मेरे जहाज़ नें कलकत्ते मैं लंगर कर रक्‍खा है मुझ को यहां खर्च की ज़रूरत है आप अपनें आढ़तिये का नाम मुझे बता दें मैं अपनें नोकरों को लिखकर उस्‍के पास रुपे जमा कर दूंगा जब उस्‍की इत्तला आप के पास आजाय तब आप रुपे मुझे देदें" निदान आप के आढ़तिये के नाम सै तार आप के पास आगया और आपनें रुपे उस्‍को दे दिये, परन्तु वह तार उन्हीं के किसी साथी नें आपके आढ़तिए के नाम सै आपको दे दिया था इसलिये यह भेद खुला उस्‍समय शाहज़ादे का पता न लगा ! एक बार एक मामला करानेंवाला एक मामला आपके पास लाया था जब उस्‍नें कहा था कि "सरकार मैं रसद के लिये लकड़ियों की खरीद है और तहसील मैं ढाई मन का भाव है. मैं सरकारी हुक्‍म आप को दिखा दूंगा आप चार मन के भाव मैं मेरी मारफ़त एक जंगलवाले की लकड़ी लेनी कर लें" यह कहक़र उस्‍नें तहसील सै निर्खनामे की दस्‍तख़ती नक़ल लाकर आपको दिखा दी पर उस भाव मैं सरकार की कुछ खरीददारी न थी ! इन्के सिवाय जिस्‍तरह बहुत से रसायनी तरह, तरह का धोखा देकर सीधे आदमियों को ठगते फ़िरते हैं इसी तरह यह भी जुआरी बनानें की एक चाल है, जिस काम मैं बे लागत और बे महनत बहुतसा फ़ायदा दिख़ाई दे उस्मैं बहुधा कुछ न कुछ धोकेबाज़ी होती है. ऐसे मामलेवाले ऊपर सै सब्‍जबाग दिखाकर भीतर कुछ न कुछ चोरी ज़रूर रखते हैं"

"बाबू साहब ! मैंनें जिस तरह राह सै ताश खेलनें के वास्ते कहा था वह हरगिज जुए मैं नहीं गिनी जा सकती परन्तु आप उस्‍को जुआ ही ठैराते हैं तो कहिये जुए मैं क्‍या दोष है ?" बिहारी बाबू मामला बिगड़ता देखकर बोले "दिवाली के दिनों मैं सब संसार जुआ खेल्‍ता है और असल मैं जुआ ए‍क तरह का व्यापार है जो नुकसान के डर सै जुआ बर्जित हो तो और सब तरहके व्यापार भी बर्जित होनें चाहियें. और व्‍यापार मैं घाटा देनें के समय मनुष्‍य की नीयत ठिकानें नहीं रहती परन्तु जुए के लेन देन बाबत अदालत की डिक्री का डर नहीं है तोभी जुआरी अपना सब माल अस्‍बाब बेचकर लेनदारों की कौड़ी, कौड़ी चुका देता है. उस्‍के पास रुपया हो तो वह उस्‍के लुटानें मैं हाथ नहीं रोकता और अपनें काम मैं ऐसा निमग्‍न हो जाता है कि उसै खानें पीनें तक की याद नहीं रहती, उस्‍के पास फूटी कौड़ी न रहै तोभी वह भूखों नहीं मरता फडपर जातें ही जीते जुआरी दो, चार गंडे देकर काम अच्‍छी तरह चला देते हैं."

"राम ! राम ! दिवाली पर क्‍या ? समझवार तो स्‍वप्‍न मैं भी जुए के पास नहीं जाते जुए सै व्यापार का क्‍या सम्बन्ध ? उस्‍की कुछ सूरत मिल्‍ती है तो बदनी सै मिल्‍ती है पर उस्‍को जुए से अलग कौन समझता है ? उस्‍को प्रतिष्ठित साहूकार कब करते हैं ? सरकार मैं उस्‍की सुनाई कहां होती है ? निरी बातों का जमा खर्च व्‍यापार मैं सर्वथा नहीं गिना जाता. व्‍यापार के तत्‍व ही जुदे हैं. भविष्‍यत काल की अवस्‍था पर दृष्टि पहुँचाना, परता लगाना, माल का खरीदना, बेचना या दिसावरको बीजक भेजकर माल मंगाना और माल भेजकर बदला भुगताना, व्‍यापार है परन्तु जुए में यह बातें कहां ? जुआ तो सब अधर्मों की जड़ है. मनु और बिदुरजी एक स्‍वर सै कहते हैं "सुनो पुरातन बात, जुआ कलह को मूल है ।। हाँसीहूँ मैं तात, तासों नहीं खेलैं चतुर।। [36]" बाबू बैजनाथ नें कहा.

"आप वृथा तेज होते हैं. मैं खुद जुए का तरफ़दार नहीं हूँ परन्तु विवाद के समय अच्‍छी, अच्‍छी युक्तियों सै अपना पक्ष प्रबल करना चाहिये. क्रोध करके गाली देनें सै जय नहीं होती. आप की दृष्टि मैं मैं झूंठा हूँ परन्तु मेरी सदुक्तियों को आप झूंठा नहीं ठैरा सक्ते. मुझ पर किस तरह का दोषारोपण किया जाय तो उस्‍को युक्ति पूर्वक साबित करना चाहिये और और बातों मैं मेरी भूल निकालनें सै क्‍या वह दोष साबित हो जायगा ?"

"जुए का नुक्सान साबित करनें के लिये विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ेगा. देखो नल और युधिष्ठिरादि की बरबादी इस्का प्रत्‍यक्ष प्रमाण है" बाबू बैजनाथ बोले.

"मैं आप सै कुछ अर्ज नहीं कर सक्‍ता परन्तु-"

"बस जी ! रहनें दो बाबू साहब कुछ तुम सै बहस करनें के लिये इस्‍समय यहां नहीं आए" यह कहक़र लाला मदनमोहन बाबू बैजनाथ को अलग लेगए और हरकिशोर की तकरार का सब वृतान्त थोड़े मैं उन्हैं सुना दिया.

"मैं पहले हरकिशोर को अच्‍छा आदमी समझता था. परन्तु कुछ दिन सै उस्‍की चाल बिल्‍कुल बिगड़ गई. उस्‍को आप की प्रतिष्‍ठा का बिल्‍कुल बिचार नहीं रहा और आज तो उस्‍नें ऐसी ढिठाई की कि उस्‍को अवश्‍य दंड होना चाहिये था सो अच्‍छा हुआ कि वह अपनें आप यहां सै चला गया, उस्के चले जानें सै उस्के सब हक़ जाते रहे. अब कुछ दिन धक्के खानें सै उस्‍की अकल अपनें आप ठिकानें आ जायगी"

"और उसनें नालिश कर दी तो ?" लाला मदनमोहन घबराकर बोले.

"क्‍या होगा ? उस्‍के पास सबूत क्‍या है ? उस्‍का गबाह कौन है ? वह नालिश करैगा तो हम क़ानूनी पाइन्‍ट सै उस्‍को पलट देंगे परन्तु हम जान्‍ते हैं कि यहांतक नोबत न पहुँचेगी अच्‍छा ! उस्‍के पास आप की कोई सनद है ?"

"कोई नहीं"

"तो फ़िर आप क्‍यों डरते हैं ? वह आप का क्‍या कर सक्ता है ?"

"सच है उस्‍को रुपे की गर्ज होगी तो वह नाक रगड़ता आप चला जायगा हम उस्‍के नीचे नहीं दबे वही कुछ हमारे नीचे दब रहा है"

"आप इस विषय मैं बिल्‍कुल निश्चिन्‍त रहैं"

"मुझको थोड़ासा खटका लाला ब्रजकिशोर की तरफ़ का है यह हरबात मैं मेरा गला घोटते हैं और मुझको तोतेकी तरह पिंजरे मैं बंद रक्खा चाहते हैं"

"वकीलों की चाल ऐसीही होती हैं. वह प्रथम धरती आकाशके कुल्‍लाबे मिलाकर अपनी योग्‍यता जताते हैं फ़िर दूसरे को तरह, तरह का डर दिखाकर अपना आधीन बनाते हैं और अन्त मैं आप उस्के घरबार के मालक बन बैठते हैं परन्तु चाहे जैसा फ़ायदा हो मैंतो ऐसी परतन्‍त्रता सै रहनें को अच्‍छा नहीं समझता"

"मेरा भी यही बिचार है मैं जोंजों दबता हूँ वह ज्‍याद: दबाते जाते हैं इसलिये अब मैं नहीं दबा चाहता"

"आपको दबनें की क्‍या ज़रूरत है ? जबतक आप इनको मुंहतोड़ जवाब न देंगे यह सीधे न होंगे, लाला ब्रजकिशोर आपके घर के टुकड़े खाखा कर बड़े हुए थे वह दिन भूल गए !"

लाला मदनमोहन नें बाबू बैजनाथ की नेकसलाहों का बहुत उपकार माना और वह लाला मदनमोहन सै रुख़सत होकर अपनें घर गए.