कहानी
चीख
धीरेन्द्र अस्थाना
ठोस अंधेरे में भय की तरह चमकता हुआ क्षण था वह जब मुझे बताया गया कि कुन्नी घर से चला गया है।
चला गया है? कहां चला गया है? चला कैसे गया? भला कुन्नी घर से कैसे जा सकता है? सवाल थे कि चारों तरफ से मुझे घेर रहे थे और मैं उनसे बचने की राह ढूंढता हुआ कभी पत्नी का चेहरा देखने लगता था, कभी मां का, कभी अपने बेटे का और कभी दीपक का, जो अभी तक काम से वापस नहीं लौटा था।
मैं अक्सर दफ्तर से रात नौ—दस तक लौटता था। ग्यारह साढ़े ग्यारह तक खाना खाता था और बारह बजते—बजते सो जाता था। सुबह छह बजे उठना चाहिए था, पर आठ बजे उठता था। फिर हड़बड़—हड़बड करता हुआ तैयार होता था और सुबह नौ—पांच की उस बस के पायदान पर जाकर लटक जाता था जो सीधे दफ्तर के सामने उतारती थी। ऐसे में वक्त ही कहां होता था कि मैं मां से कोई बात कर पाता या कुन्नी की जानकारियां रखता, सिर्फ एक इतवार था जिसमें मैं मां से मुलाकात की औपचारिकता निभाता था। लेकिन आज मैं धर लिया गया था और वह भी एक ऐसी सूचना के साथ जिसने जिस्म को सन्नाटे के हवाले कर दिया था।
‘कब गया?‘ मैंने आहिस्ता से पूछा।
‘दोपहर से ही नहीं है।‘ मां की आवाज इस तरह खाली थी मानो उस आवाज के भीतर कुन्नी ही बैठा रहता था।
कुन्नी मुझसे तुरंत बाद वाला भाई था। करीब तीस साल का। उसके बाद था दीपक। पच्चीस साल का। वह किसी प्रेस में फोटो कंपोजिटर था। मां, दीपक और कुन्नी मकान के एक हिस्से में रहते थे और मैं, पत्नी तथा बेटा दूसरे हिस्से में। साथ—साथ लेकिन अलग—अलग रहने की यह व्यवस्था हर वह चालाक शख्स अपनाता है, जो फालतू किस्म के घरेलू झंझटों में नहीं फंसना चाहता और बीवी के साथ—साथ मां को भी कुछ—कुछ स्वतंत्र और खुश देखना चाहता है।
पिता पांच साल पहले अपने दफ्तर में ओवर टाइम करते—करते मेज पर दोहरे हुए थे और उसके कुछ ही देर बाद हमें पता चला था कि अब वह सिर्फ चित्रों और स्मृतियों में ही सुरक्षित रह सकेंगे।
‘अम्मां!‘ कुन्नी ने अपनी भारी, डरावनी लेकिन कमजोर आवाज में पूछा था, ‘अम्मां! डैडी मर गये?‘
‘हटो यहां से।‘ मां चीखी थी, ‘मनहूस कहीं का। इससे तो अच्छा था कि तू मर जाता।‘
‘मैं क्यों मर जाता?‘ कुन्नी ने अपनी उसी आवाज में प्रतिवाद किया था और ‘अजी हां, मैं क्यों मर जाता‘ का जाप करते हुए बरामदे में टहलने लगा था, जहां पिता का शव रखा था, अंतिम यात्रा या अंतिम दर्शन के लिए।
घर के बाहर, गली में अंधेरा आ पहुंचा था और आसमान छूने लगा था। घर के भीतर बिजली जल गयी थी प्रतिवाद की तरह और मैं अभी तक मां, पत्नी तथा बेटे के बीच घिरा था——जल्दी घर आ जाने के अपने थोड़ी देर पहले लिये गये निर्णय को बद्दुआ देता हुआ।
‘उसे मेरी बद्दुआ लग गयी।‘ मां ने पता नहीं किसे सुनाया। मां की आत्मा पर इस समय एक बौराया हुआ अंधेरा उतर आया था। शायद वह अपनी चिंतित आंखों और व्यथित झुर्रियों, जो संभवतः आज ही पड़ी थीं, के साथ गहरे दुख में थी। मैंने पत्नी को देखा, शिकायत की तरह।
‘मैं तो पूरी कॉलोनी का चप्पा—चप्पा छान आयी। कहीं नहीं मिला।‘ पत्नी ने अपनी तत्परता की सूचना तुरंत दे दी। ‘अब तो पुलिस में रिपोर्ट लिखानी चाहिए।‘
पुलिस? मेरा चेहरा एक अनाम आतंक की स्मृति में थिर हो उठा। पुलिस, अदालत और अस्पताल मुझे उन अभिशप्त प्रेतात्माओं की याद दिलाते थे जो एक बार चिपट जायें तो आदमी जीवन से बाहर चला जाता है। जैसे कुन्नी चला गया था। पहले दुनिया से बाहर और अब घर की सुरक्षा से भी बाहर——भूख, ठंड, गाली, पत्थर और घृणा की बावड़ी में——गोल—गोल घूमता, लहूलुहान चेहरा पोंछता, दुख और यातना और अचरज के बीच पछाड़ खाता हुआ।
जैसे एक चीख उठी हो और छत के अंधेरे में जा गुमसुम—सी लटक गयी हो। मैं पसीने—पसीने था।
जब कोई नहीं होता तब पता चलता है कि उसका होना कितना अर्थपूर्ण था। जब तक पिता थे, बस थे, जब नहीं रहे तब अहसास हुआ कि उनके न होने ने कितने—कितने दुखों और स्मृतियों को उपस्थित कर दिया है। जब कुन्नी था, बस था। अब नहीं है तो घर के जर्रे—जर्रे और यादों के चप्पे—चप्पे पर मौजूद है।
वह तेइस फरवरी की शाम और रात का संधिस्थल था, जब मुझे सूचना दी गयी थी कि कुन्नी घर छोड़कर चला गया। आज मार्च की पंद्रह तारीख बीत रही है। इक्कीसवां दिन है कुन्नी को गये। इक्कीस दिन, घर के बाहर?
क्या—क्या तो नहीं हुआ इन इक्कीस दिनों में ? पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हो ही गयी थी। अखबार में गुमशुदगी का विज्ञापन छप चुका था। दूरदर्शन पर उसका चेहरा दिखाया जा चुका था। दीपक और उसके दोस्त विभिन्न इलाकों में घूम—टहल आये थे। कई देवी—देवताओं के मंदिरों में मनौतियां मानी जा चुकी थीं, ज्योतिषियों की सलाह ली जा चुकी थी। अब सिर्फ इतना होता था कि पत्नी हर सुबह अखबार में अज्ञात शवों की शिनाख्त करते हुए मां से विभिन्न सवाल करती थी। पर मां थी कि उम्मीद की एक छोटी—सी डाल से चिपक गयी थी। मां को एकदम नहीं लगता था कि कुन्नी ठंड, भूख या ट्रक से भी मारा जा सकता है।
‘मुझे नहीं लगता कि दो समर्थ भाइयों का असमर्थ और दिमाग से कमजोर भाई यूं मरेगा, लावारिस। मुझे एकदम नहीं लगता।‘ मां उम्मीद की डाल से चिपके—चिपके अपनी आस्था का एक टुकड़ा फेंकती और मुझे लगता कि मां का यह यकीन ही मुझे एक ऐसे अपराध की ठंडी, सख्त और पथरीली कारा के पीछे धकेलता है, जो अपराध मैंने किया ही नहीं है। कुन्नी की शक्ल को याद करते—करते मैं खुद बेचेहरा हुआ जा रहा था जैसे बेचारगी और कातरता के भंवर में डूबता—उतराता।
‘पता चल जाता कि वह मर गया है, तो उसका संस्कार तो कर देते...‘ कभी—कभी मां ऐसा भी कहती, ‘मर जाता तो मुक्ति तो मिलती। दो—चार दिन रोते और क्या? आखिर तेरे पिता भी तो मरे थे न! मरते तो सब हैं, पर यह क्या बात हुई कि गायब हो गये। यह तो उम्र—भर की यातना हुई न? अगर जीवित है तो पता नहीं कैसा होगा?‘ मां बड़बड़ाती रहती और पत्नी और अधिक तत्परता के साथ अखबार के पन्नों में मृत कुन्नी की खबर खोजने लगती।
‘मर ही गया होगा, बेचारा!‘ एक दिन पत्नी ने अफसोस के साथ कहा था, ‘जैसा भी था, पर मेरा तो बहुत काम करता था, पानी भरना, गेहूं पिसाना... कितनी दिक्कत हो गयी है उसके न रहने से।‘
दिक्कत? मुझे लगा, दिक्कत नहीं, पूरे घर में जैसे मुर्दनी छा गयी है।
‘भाई साहब! एक बीड़ी दे दो।‘ रोज सुबह दफ्तर जाते समय अपनी भारी, डरावनी लेकिन कमजोर आवाज में अपनी एकमात्र फरमाइश लेकर वह मेरे सामने आ जाता था। कितना खाली—खाली लगता है अब?
अब छत पर उसके लगातार घूमते कदमों की भारी आवाज नहीं सुनायी देती, मकान के अपने हिस्से में दीपक अब रात को चुप लेटा रहता है। पहले कुन्नी को जोर—जोर से डांटने और हर डांट पर कुन्नी के चीखने की आवाज आती थी, ‘जान से मार दूंगा साले। मैं तुझसे बड़ा हूं। अपने से बड़ों से इस तरह बात करते हैं।‘ कुन्नी के इस वाक्य पर दीपक और मां जोर से हंस पड़ते थे। फिर मां लाड़—भरे स्वर में कहती थी, ‘कुन्नी से ठीक से बात किया करो दीपक। भाई, कुछ भी हो, वह तुम्हारा बड़ा भाई है। पागल होने से पहले तुझे गोद में लेकर घूमता रहता था वह।‘
फिर मकान के दूसरे हिस्से में यादों की रंग—बिरंगी पोटली खुल जाती और उसके कुछ टुकड़े तब तक कानों में आते रहते, जब तक मैं सो नहीं जाता।
अब मकान का दूसरा हिस्सा हर समय सन्नाटे में डूबा रहता है। मां के साथ—साथ दीपक की आवाज को भी लकवा मार गया हो जैसे।
जब कुन्नी पागल हुआ, तब हम लोग कहां थे भला? मैं याद करने की कोशिश करता हूं। जब वह पागल हुआ तो कितने साल का था? शायद दस साल का। फिर फेल होकर लौटा था। पिता ने कमर की बेल्ट खींची और धुन दिया। पूरी देह पर नीले निशान कांपते और टीसते रहे थे कई दिन।
‘जब मैं पढ़ने बैठता हूं मुझे तुम्हारी चीख सुनाई पड़ती है।‘ वह मां से अक्सर कहा करता था।
मां की चीख उन दिनों रात का नियमित दर्द था। मां को पीटने का कोई—न—कोई कारण पिता ढूंढ़ ही लेते थे हर रात। मैं और दीपक मां के इस आर्तनाद के अभ्यस्त हो गये थे, लेकिन कुन्नी कभी—कभी सब्र के सारे बांध तोड़ता हुआ पिता से जा टकराता था—नौ या दस साल की उस नन्ही—सी उम्र में, वयस्क प्रतिहिंसा के साथ, ऐसी स्थिति में पिता उसे भी धुनते थे।
घटनाएं जब घट रही होती हैं तब उतनी रहस्यमय नहीं लगतीं जितनी घट जाने के बाद स्मृतियों में। आज याद करता हूं तो यह सोच सिहर उठता हूं कि पिता ने कुन्नी को ठीक कराने के कितने पागल और कठिन प्रयास किये! कुन्नी था कि उसकी आत्मा में मां की चीख ठहर गयी थी और पिता थे कि उसे एक बार ठीक कराके उसकी आत्मा में ठिठक गयी मां की चीख को मुक्त कराना चाहते थे और अपने इस अपराध के लिए उससे माफी मांगना चाहते थे। यह क्रमशः उग्र होता अपराध—बोध ही रहा होगा कि वह अपने दफ्तर की टेबल पर अचानक चल बसे। शायद कुन्नी की आत्मा में अटकी मां की चीख उनकी सहनशक्ति पर भारी पड़ गयी होगी।
‘कौन उसे खिलाता होगा?‘ कुन्नी को गये चौबीसवां रोज गुजर रहा था जब मां ने मौका देखकर मुझसे पूछ लिया।
‘मां!‘ मैं सन्न रह गया, ‘क्या तुम्हें अभी भी लगता है कि वह जीवित है?‘
‘मर जाता तो मुझे पता नहीं चल जाता! मां हूं मैं उस कमजोर दिमाग की। मुझे लेकर ही तो पागल हुआ था न वो!‘ मां ने कुन्नी की चेतना से चिपकी चीख को ऐसी तड़प से याद किया कि मैं बर्फ हो गया।
पच्चीसवें रोज यानी 19 मार्च को कुन्नी लौट आया। रात के नौ बजे थे, खट—खट हुई तो दरवाजा खोलने मैं ही चला गया। कुन्नी था।
‘भाई साहब! एक बीड़ी दे दो।‘ मुझे देखते ही उसने अपनी भारी, डरावनी, लेकिन कमजोर आवाज में अपनी इकलौती फर्माइश सामने रख दी।
‘कहां चला गया था तू?‘ आश्चर्य मेरी आंखों में घुसा चला जा रहा था। यह कुन्नी ही था, ठीक वैसा ही। वह जीवित था और उसे कुछ नहीं हुआ था।
‘मैं? कहीं नहीं।‘ कुन्नी अपनी उंगलियां मरोड़ने लगा था।
‘तुझे पता है, तू पच्चीस दिन बाद आया है?‘ मैंने उसे कुरेदने की कोशिश की।
‘मैं? नहीं तो। भाई साहब! मुझे एक बीड़ी दे दो।‘ उसने फिर अपनी फर्माइश रखी।
उससे कुछ भी पूछना व्यर्थ था। मैंने उसे उम्मीद की छोटी—सी डाल से चिपटी मां के हवाले कर दिया।
बाद में एक रोज मां को ही उसने बताया कि उसे एक दिन मां की चीख सुनायी दी और वह तुरंत घर लौट आया।
पूरे पच्चीस दिन एक विचित्र आदमी ने भूख, ठंड, प्यास, नींद, शौच, बीड़ी, क्रूरता और घृणा का सामना कैसे किया——यह आज भी पूरे घर के लिए एक रहस्य है।
बाद में कई दिनों तक हम इस बात की अटकलें लगाते रहे कि वह सोता कहां होगा? खाता क्या होगा? निपटने कहां जाता होगा? उसे तो दिन में कम—से—कम तीस—चालीस बार पानी पीने की आदत है और पानी पीते ही पेशाब जाने की सनक। उसके जिस्म पर किसी किस्म की खरोंच भी नहीं थी। सिर्फ दाढ़ी बढ़ गयी थी और कमीज—पायजामा मैला हो गया था।
घर फिर पहले की तरह कुन्नी की उपस्थिति से व्यस्त और त्रस्त हो गया, लेकिन शुरू—शुरू में उसके पच्चीस दिन, जो मेरे लिए रहस्य—भरे थे, बाद में मेरे भीतर दुख की तरह भर गये।
मुझे अपने जीवन का यह सबसे बड़ा दुख लग चुका था कि मैं इस कठिन और क्रूर दुनिया में पच्चीस तो क्या पांच दिन भी बाहर नहीं रह सकता था। यों, इस तरह निहत्था।
आप रह सकते हैं?
क्या मेरी तरह आपको भी चीखें सुनायी नहीं देतीं?
रचनाकाल : संभवतः 1987
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