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कविता का स्त्रीपक्ष

कविता का स्त्री –पक्ष : मुक्ति का संघर्ष , मुक्ति का आह्लाद

संजीव चन्दन

भारतीय महिलाओं की अभिव्यक्ति का इतिहास हालांकि वेदों की ऋचाओं से शुरू होता हुआ बताया जाता है . स्त्रियों के द्वारा रचित ऋचाएं बड़ी संख्या में नहीं हैं . जो हैं, उनमें अपनी आध्यात्मिक उन्नति की स्तुति कि ऋचाएं हैं या प्रकृति को संबोधित हैं. उनमें स्त्रियों के संघर्ष , खासकर परिवार और समाज में अपने लिए समानता का संघर्ष, अपनी पराधीनता के खिलाफ संघर्ष ,नहीं दिखता है. इसका कारण यह हो सकता है कि जिस समय ये रचनायें रची जा रही थीं , उस समय तक परिवार पर पितृसत्ता की पकड़ उतनी मजबूत नहीं हुई होगी . दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि चूकि ये ऋचाएं स्मृति आधारित हैं, जिन्हें एक लम्बे समय तक स्मृतियों में रहने के बाद संग्रहित किया गया , इसलिए कैननाइजेशन की पितृसत्तात्मक राजनीति के तहत उन्हीं ऋचाओं को शामिल किया गया हो, जिन्हें पितृसत्ता ने पसंद किया हो. इसका एक प्रमाण यह भी है कि उपनीषद काल में मशहूर गार्गी –याज्ञवल्य शास्त्रार्थ की गार्गी की रचनायें /चिंतन उपलब्ध नहीं हैं. ठीक वैसे ही जैसे अपने लिए अनुकूल न पा कर चार्वाक का चिंतन नष्ट कर दिया गया .

ऋग्वेद में स्त्री रचनाकार घोषा की ऋचा है :

युवां ह घोषा पर्यश्विना यतो राज्ञ दुहिता पुच्छे वा नरा

भूतं में अहन भूत्मकतवे श्वायते रथिने शक्तिमर्वते ( १०/ ४०/४ )

(मैं , राजकन्या , सर्वत्र वेद की घोषणा करने वाली , वेद का संदेश सर्वत्र पहुँचाने वाली स्तुति पाठिका हूँ . हे देव, मैं सर्वत्र आपका ही यशोगान करती हूँ , और विद्वानों से आपकी चर्चा करती हूँ . आप सदा मेरे पास रहकर मेरे इन इन्द्रियरूपी अश्वों से युक्त शरीर रूपी –रथ के साथ मेरे रमनरूपी अश्व का दमन करें )

यहाँ ऋचाकार स्त्री अपनी ही यौनिकता के दमन की प्रार्थना कर रही है, उससे मुक्ति का आग्रह कर रही है. यानी आध्यात्मिक उत्थान स्त्री रचनाकार का लक्ष्य है. राजकन्या घोषा के घूमंतू जीवन को स्वीकार कर अध्यात्म चिंतन के मार्ग में परिवार और समाज से कोई संघर्ष की कथा कहीं नहीं है, इनकी पंक्तियों में भी नहीं, जैसी कथा इनकी परवर्ती स्त्री रचनाकार मीरा के यहाँ हैं. कारण कोई भी हो सकता है, परिवार का वैसा ढांचा और उसके भीतर वैसा सत्ता समीकरण का न होना ,जो बाद में थेरियों या मीरा के समय में हो गया.

बौद्ध कालीन थेरियां अपनी रचनाओं में परिवार के भीतर अपने शोषण, और वहां मौजूद सत्ता समीकरण, अपनी पराधीनता से मुक्ति का आह्लाद दर्ज करती हैं. इस समय तक सामंती समाज ने अपनी पूरी व्यूह रचना कर ली थी , परिवार उसका एक उपांग था. सुमंगला थेरी का यह आह्लाद उसकी रचना में केन्द्रीय है : ‘ मुक्त हूँ मैं, मुक्त / धनकुटे से पिंड छूटा / देगची से भी/ मैं कितनी प्रसन्नचित्त हूँ / अपने पति से मुझे घृणा हो गई है/ उसकी छत्र छाया को अब / मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती / इसलिए मैं नष्ट करती हूँ लालच और नफरत को / और मैं वह स्त्री हूँ / जो एक पेड़ तले जा बैठती है / और अपने आपसे कहती है /आह !यह है सुख/ करती है चिंतन मनन सुख पूर्वक

अपनी पूर्वजा थेरियों की भांति मीरा इस सुख की प्राप्ति के लिए परिवार , विवाह संस्था , पति समाज सबको चुनौती देती है, उनसे संघर्ष करती है और घोषित करती है :

‘थैं तो राणा म्हणे इसड़ा लागों ज्या वृक्षन में केर’ और इस तुच्छ नियंत्रण से मुक्ति के बाद मीरा की अभिव्यक्ति आह्लाद और पितृसत्ता को चुनौतियों से लबरेज हो जाती है :

लोकलाज कुल कानी जगत की दइ बहाय जस पानी /अपने घर का परदा कर लो मैं अबला बौरानी.

आज का हिंदी महिला लेखन इन्हीं पूर्वाजाओ के खाद –पानी से सींचित होकर समृद्ध होता गया है. हिंदी की स्त्री कवियों की यह यात्रा आज भी पितृसत्ता से दो-चार हो रही है, बल्कि पितृसत्ता की जटिलताओं को बखूबी देख –समझ रही हैं और ‘मैं नीर भरी दुःख की बदली’ ( महादेवी) से आगे बढ़कर इससे संघर्ष और मुक्ति का काव्य रच रही है; बल्कि थेरियों की भांति मुक्ति के पेड़ तले बैठकर उसका आह्लाद –गीत भी लिख रही है. पांच महिला कथाकारों (अल्पना मिश्र, गीतांजलि श्री ,मनीषा कुलश्रेष्ठ , जयश्री राय ,और अनीता भारती) के कहानी संग्रहों के जरिये स्त्री –लेखन में परिवार , विवाह और स्त्री यौनिकता तथा विकास और राजनीति के सवाल को कैसे और किन लक्ष्यों के साथ संबोधित किया जा रहा है , की पड़ताल ( प्रकाशित हमारा भारत , अंक ४ ) के बाद अगली कड़ी में चार कवयित्रियों के कविता –संग्रह का इन्हीं सवालों के साथ पाठ कर रहा हूँ. विवेच्य कवयित्रियाँ हैं , सविता सिंह , लीना मल्होत्रा राव, अनीता भारती और रजनी अनुरागी और इनके सद्यः प्रकाशित कविता –संग्रह , क्रमशः स्वप्न –समय,मेरी यात्रा का जरूरी सामान ,एक कदम मेरा भी और बिना किसी भूमिका के . इन चार कवयित्रियों की पृष्ठभूमि भी उल्लिखित समकालीन कथाकारों की तरह ही मध्यमवर्गीय है, जिनमें से दो दलित मध्यमवर्ग की पोजीशन से लिख रही हैं. इनके सामने भी वही दुरुह्तर पितृसत्तात्मक जटिल सामजिक संरचना है, जो ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से संपोषित है और इनका रचना संसार भी स्त्रीवादी नारों से मुक्त स्त्रीवादी समझ से लैस भी है. इनमें या अपने समकालीनों में सविता सिंह की कवितायेँ कविता की उचाइयों पर हैं ( ऐसी दावेदारी मेरी नहीं है ,क्योंकि मैं कविता की उत्कृष्टता की समझ से शून्य हूँ, बल्कि सविता सिंह के सन्दर्भ में यह दावेदारी हिंदी साहित्य के उन महान आलोचकों की है, जो आलोचना के सिद्धस्त हस्ताक्षर हैं.)

‘थैं तो राणा म्हणे इसड़ा लागों ज्या वृक्षन में केर’

( विवाह, प्रेम और परिवार के भीतर सत्ता सम्बन्ध से मुक्ति का संघर्ष , मुक्ति का आह्लाद )

विवेच्य चार कवयित्रियाँ मध्यम वर्गीय परिवेश से हैं. मध्यमवर्ग के यथास्थितिवाद से इनकी कवितायेँ टकराती हैं. इन प्रबुद्ध स्त्रियों के समय में एक ओर तो इनके आस –पास का समाज सुविधा भोगी, आधुनिक होने के दावे और बोध से लैस है , दूसरी ओर मध्यकालीन जड़ताओं से ग्रसित. इनके वर्ग की स्त्रियाँ अपनी सर्वहारा सहेलियों की तुलना में ज्यादा अवसर संपन्न हैं, जिनके सामने देश –दुनिया के उन विचारों से जुड़ने की ज्यादा सुविधा, समय और स्पेस है, जो इन्हें पितृसत्तात्मक जकड़न से मुक्त कर सके . यदि परिवार के भीतर सत्ता संबंधों की स्त्रीवादी व्याख्याएं और समानता के लिए स्त्रीवादी संघर्षों की उन्हें जानकारी न भी हो तब भी कानूनों के जरिये इनके लिए हो रहे सुधारों की उन्हें जानकारी है, होनी चाहिए, जिनका टारगेट पारिवारिक दायरे में पितृसत्ता है . इसके बावजूद वे अपने उस अनुकूलन से मुक्त नहीं हो पाई हैं, जो उनके ही खिलाफ हुआ है. असमानता के प्रति उनकी सहमति भी यथावत बनी हैं. जिस दिन मैं यह आलेख लिखने जा रहा हूँ, उस दिन आधुनिक सुविधाओं से संपन्न , छठे वेतन आयोग की सम्पन्नता से भरे प्रोफ़ेसर कॉलोनी में ‘वट सावित्री’ की पूजा से लौटती वे स्त्रियाँ दिख रही हैं, जिनके माथे से नाक तक सिंदूर की लम्बी मोटी रेखा चली आई है. यह कवयित्रियों के वर्ग की ही स्त्रियाँ हैं, जिनके इर्द –गिर्द आधुनिक विचार और चिंतन का परिवेश है. ‘ललिता सहस्रनाम ‘(पुराण ) और ‘सौन्दर्य लहरी’ में सिन्दूर, सुहाग , पति के प्रति पत्नी की निष्ठा आदि के दर्शन से अधिक दूर की यात्रा इन स्त्रियों की नहीं हो पाई है.

स्त्री –कवियों के सामने दोहरी चुनौती है, इस अनुकूलन से अपनी सखियों को मुक्ति का आवाहन की चुनौती और परिवार –प्रेम में असमानता , पुरुष वर्चस्व से संघर्ष, उनसे मुक्ति की चुनौती .वैयक्तिक ही राजनीतिक है ( पर्सनल इज पौलिटिकल , १९६९ ) की लेखिका कैरोल हैनीच लिखती हैं, ‘ लेकिन मुझे लगता है कि ‘अराजनीतिक’ स्त्रियों के आन्दोलन में हिस्सा न लेने की वजहें बहुत सशक्त हैं. और जब तक हम उन पर यह जोर डालते रहेंगे कि आपको हमारी तरह ही सोचना पड़ेगा , तब तक हम असफल रहेंगे .’ रजनी अनुरागी के कविता –संग्रह ‘बिना किसी भूमिका के’ में एक कविता गौरतलब है, स्त्री की मुक्ति , अनुकूलन सहित नियंत्रण और वर्चस्व से पूर्ण मुक्ति का स्वप्न संजोती कविता :

पुरुष ने बनाये बहुत से ताले /औरत के लिए /और चाबियाँ छुपा दी /कितनी ही सदियाँ गुजर गई हैं/औरत को चाबियाँ खोजते/और पुरुष को उस पर हंसते/ मगर औरत भी कम नहीं है/ जिस ताले की मिली नहीं चाबी/वह खुद उसकी चाबी बन गई/ और इस तरह पुरुष के हर ताले को/

औरत खोलती आई है सदियों से/ अपनी ही तरह से/लाजिम है उस दिन का आना/ जब दुनिया के हर ताले की चाबी/औरत के पास होगी/ मगर तब नहीं रहेगी जरूरत/दुनिया में किसी भी ताले की

सविता सिंह की कविताओं में महिला लेखन की स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि मिलती है, जो विवाह/ प्रेम के दायरे में असमानता और पुरुष वर्चस्व को ही सिर्फ लक्षित नहीं करती हैं , स्त्री -मुक्ति के सपने को ' को-ऑप्ट' कर लिए जाने के सत्य की ओर इशारा भी करती हैं, सचेत करती हैं--' अच्छा है मुक्त हो रही हैं मिल सकेंगी स्वच्छंद सम्भोग के लिए अब /एक समय जैसे मुक्त हुआ था श्रम पूंजी के लिए ( मुक्ति के फायदे, ५० प्रतिनिधि कवितायेँ ) तथा 'याद रखना नीता / एक कामयाब आदमी सावधानी से चुनता है अपनी स्त्रियाँ / बड़ी आँखों सुन्दर बाँहों लम्बे बालों सुडौल स्तनों वाली प्रेमिकाएं /चुपचाप घिस जाने वाली सदा घबराई धंसी आँखों वाली मेहनती / कम बोलने वाली पत्नियां (याद रखना नीता, ५० प्रतिनिधि कवितायेँ ) जीवन में पुरुष के आरोपित वर्चस्व से मुक्त स्त्री , अपने अस्तित्व के गौरव बोध के साथ सविता सिंह के यहाँ पुरुष और इश्वर दोनों को ही नकारती है. सविता की स्त्री अपनी पूर्ववर्ती मीरा से इस मायने में भिन्न है कि वह सांसारिक पति को छोड़कर किसी गिरिधर के रास्ते अलौकिक पति को समर्पण नहीं करती है , यानी पितृसत्ता के प्रति अनुकूलन का आध्यात्मिक संसार नहीं रचती है , वह ईश्वर और पुरुष दोनों को ही नकार देती है :

जागी हुई देह और आसमान एक दर्पण / देखता होगा ईश्वर भी स्त्री के हाहाकार को / बदलने के लिए होगा उत्सुक अपनी ही कल्पना को / कि बनाये नहीं उसने वे पुरुष अब तक / ले सकें जो उसे बाहों में ....... चन्द्रमा खिला रहता है आसमान में रात भर / सिमटा एक कोने में सबकुछ देखता सोचता / बदलेगा यह संसार अब स्त्री की कामना से ही /इश्वर की नहीं इसमें अब कोई भूमिका ( सविता सिंह की सद्यः प्रकाशित काव्य –कृति ‘स्वप्न –समय )

लीना मल्होत्रा राव की कविता पुरुष को बहुरुपिया बताती है, जो पति और प्रेमी की भूमिका में अलग –अलग तर्कों से अपने वर्चस्व को ही पुनर्स्थापित कर रहा होता है: जब जब /पति से प्रेमी बनता है पुरुष / पाप पुण्य की परिभाषा बदल जाती है / देह आत्मा / और/ स्त्री/ वेश्या से राधा बन जाती है. ( काव्य संग्रह मेरी यात्रा का जरूरी सामन ) . मल्होत्रा की स्त्री ‘वर्जित फल’ यानी विष फल का स्वाद चख चुकी है : मैं तुम्हारे बच्चों की माँ थी / कुल बढ़ने वाली बेल अर्धांगिनी/ तुम लौट आये भीगे नैनों से हाथ जोड़कर खड़े रहे द्वार/ तुम जानते थे तुम्हारा लौटना मेरे लिए वरदान होगा / और मैं इसी प्रतीक्षा में मिलूंगी/ मेरे और तुम्हारे बीच /फन फैलाये खड़ा था कालिया नाग/ और इस बार/ मैं चख चुकी थी स्वाद उसके विष का ( वहीँ ).

मुक्ति के इस प्रसंग में लीना हालांकि सचेत स्त्रीवादी समझ से लैस भी हैं, वे जानती हैं इस मुक्ति का मंजिल : महत्वकांक्षाओं की चिड़िया /औरत की मुंडेर पर आ बैठी है /दम साध शिकारी ने तान ली है बन्दूक/निशाने पर है चिड़िया /अगर निशाना चूक गया /तो औरत मरेगी ! (वहीँ )

अनीता भारती की कवितायेँ दलित स्त्री के लिए दोहरे –तीहरे स्तर तक पुरुष वर्चस्व से दलित स्त्री का संघर्ष और वर्चस्व से मुक्ति का आह्लाद व्यक्त करती हैं : पिता ! एक गुलाम कौम में / गुलाम कौम की तरह / अनपढ़ अभाव में तमाम तरह की /जिम्मेदारियां ओढ़े / हल्दी नमक के चक्कर में / उलझी हुई बेटियां देख रही हैं सपने / और मांग रही है अपने / अधिकार तुमसे पिता ( एक कदम मेरा भी ) . अनीता भारती की कविताओं की दलित स्त्री हालांकि मुक्ति पथ की पथिक हो भी चली है, यह मुक्ति दलित पितृसत्ता से है, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से है : एक उन्मुक्त नदी / निर्बंध , निडर / बाँध तोड़ बहने को उत्सुक/ कब रोक पायी / उसे बेबस बाड़.

हमारे समय में रच रही ये कवयित्रियाँ सजग स्त्रीवादी राजनीतिक चेतना से संपन्न है, राजनीतिक स्वप्न से पूरित . घर –परिवार और समाज में पुरुष वर्चस्व के मामले में इनका संघर्ष थेरियों , मीरा , महादेवी के समय से अनवरत जारी है , लेकिन वे पीड़ा की विवशता के साथ जीने को तैयार नहीं है, या कोई आध्यात्मिक पितृसत्ता की रचना में अपनी दासता को शिफ्ट कर मुक्ति का मार्ग तलाशने की जरूरत नहीं समझती हैं. उन्होंने इश्वर और पुरुष दोनो के वर्चस्व को नकार दिया है, वे थेरियों की तरह मुक्ति के गीत के रूप में कवितायेँ रच रही हैं. इनके समय में पुरुष वर्चस्व की जटिलता बढ़ी है , जिसके प्रति वे सावधान भी हैं .

वैयक्तिक और राजनीतिक के द्वैध ( बायनरी ) का अस्वीकार

स्त्री कवियों की रचनाएँ वैयक्तिक और राजनीतिक के द्वैध को अस्वीकारती हैं. प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय सविता सिंह की कविताओं के सन्दर्भ में लिखते हैं, ‘ सविता सिंह की कविताओं में गहरा आत्म संघर्ष है और आत्म मंथन भी उनमें स्त्री की स्वायतता का बोध है . उस बोध से ही स्त्री पराधीनता के परंपरा जनित शाप से मुक्त होती हैं . लेकिन सविता सिंह का स्वायतता का बोध व्यक्तिगत को ही राजनीतिक मानने वाली स्त्री दृष्टि का अनुकरण नहीं करता . उनके यहाँ स्त्री की व्यक्तिगत स्वायतता के बोध के साथ सामूहिक चेतना के महत्व की पहचान है .’ मैं पाण्डेय जी की स्थापना में थोडा सा जोड़ते हुए इसे हमारे समय की स्त्री अभिव्यक्ति ( कविता ) के साथ भी घटित होता देखता हूँ. दरअसल जब वैयक्तिक और राजनीतिक के सन्दर्भ से कैरोल हैनीच ने अपना सुप्रसिद्ध लेख ‘पर्सनल इज पौलिटिकल’ ( १९६९ ) लिखा, तो उन्होंने इसके माध्यम से वैयक्तिक और राजनीतिक की बायनरी को भी चुनौती दी थी. कैरोल का लेख जहाँ स्त्रियों की पीड़ा और उसकी पराधीनता के वैसे प्रसंग /सवाल को भी राजनीतिक प्रसंग बताता है, जिसे स्त्रीवादी और मार्क्सवादी आन्दोलन कारियों के एक समूह के द्वारा विवाह, प्रेम या परिवार के निजी दायरे में बताया जा रहा था, और जो वृहद्त्तर राजनीतिक लक्ष्य के साथ खुद ब खुद हल हो जाने वाला था . वहीँ कैरोल यह भी स्पष्ट कर देती हैं कि इस वैयक्तिक को राजनीतिक बनाने / मामने की स्थापना ‘सामूहिक चेतना के खिलाफ कतई नहीं है. बल्कि वे सामूहिक चेतना के निर्माण में इसे सहायक मानती हैं , ‘ ‘ मैं यही कहने की कोशिश कर रही हूँ कि ‘ अराजनीतिक’ ( हालांकि मैं उन्हें राजनीतिक मानती हूँ ) स्त्रियों के अवचेतन में कुछ बाते हैं, जो उतनी ही सच है, जितनी हमें अपनी राजनीतिक समझ लगती है . हमें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि इतनी सारी स्त्रियाँ सक्रिय क्यों नहीं होना चाहतीं .’ ( कैरोल ).

हमारे समय की इन विवेच्य कवयित्रियों की कविताओं में इसी लिए परिवार , विवाह और प्रेम के भीतर सत्ता संबंधों के अतिरिक्त दूसरे सवाल भी केन्द्रीयता के साथ संबोधित हुए हैं. इनके विवेच्य संग्रहों में ही कविताओं के अलग –अलग कथ्य अपनी व्यापकता के साथ उपस्थित हैं . अनीता भारती की कविता ‘ पिता ! हम दलित बेटियां’ वैयक्तिक और राजनीतिक के द्वैध को तोड़ती हुई कविता है, स्त्रीवादी राजनीति की कविता है . वहीँ विशुद्ध राजनीतिक कविता है : भूख प्यास और दु:ख में/सर्दी, गर्मी, बरसात में/जमीन पर, कुर्सी पर/तुमने जी भर ओढ़ा, बिछाया, लपेटा/अम्बेडकरी चादर को/फिर तह कर चादर/रख दी तिलक पर/और तिलक धारियों के साथ सुर मिलाया/हे राम! वाह राम!/तुमने छाती से लगाई तलवार/और तराजू बन गया तुम्हारा ताज/पर जूता !/जूता तो पैरो में ही रहा/समझौते की जमींन पर चलते-चलते/कराह उठा, चरमरा उठा/हो गए है उसकी तली में/अनगिनत छेद/उन छेदों से छाले/पैरो में नहीं/छाती पर जख्म बनाते है/
और लहुलुहान पैर नही/जूतों की जमातें हैं . अनीता भारती का यह संग्रह ऐसी राजनीतिक कविताओं का ही संग्रह है. मैं बच्चा , नन्ही सावित्री , ‘सूडो फेमिस्निस्ट’, ‘अमानवियता के इस दौर’ में आदि कवितायेँ सपष्ट राजनीतिक संदेश की कवितायेँ हैं.

सविता सिंह के संग्रह की कवितायें स्त्री की अभिव्यक्ति की सुकून और राजनीति को अभिव्यक्त करती हुई कवितायेँ हैं. वहीँ दुरुह्तर समय और जटिल स्थितियों से बिंधी अभिव्यक्तियाँ भी है, जो स्त्री अभिव्यक्ति के निजी दायरे का विस्तार भी हैं :कुछ कम उदास करो मुझे मेरे देश /कुछ कम चाहो मुझसे /कितने बदहाल यहाँ के लोग /कितने कम लोगों की ख़ुशी के लिए/ फाकाजदा दिन और वैसी ही रातें /कितने थोड़े भरे पेटों के लिए/ जंगल के जंगल कारतूस और बंदूकों से लैस अब /रात भर जगे रहते हैं पेड़ /कुछ बच नहीं पा रहा/ न मर्द, न औरतें , न बच्चे /न रात , न उसका रहस्य /अन्धकार प्लास्टिक के फूल सा मामूली वस्तु भर/ स्वप्न बुलेट से बिंधी एक आँख /अनिद्रा में तैयार हो रहा एक /नया देश

रजनी अनुरागी अपने आस –पास का बहुत कुछ दर्ज करती हैं, ‘चौराहे पर जिन्दगी’, मेट्रो में भागती जिन्दगी , भूख , मजदूरों की बस्ती आदि अनेक दृश्य –अदृश्य . कामकाजी स्त्रियों , चौखटे से बाहर आई महिलाओं को घूरती आँखों को दर्ज करती एक छोटी सी कविता है : आँखों का व्यभिचार / भाषिक व्यभिचार से भी बड़ा . शब्द जो कहेंगे दस –बीस / आँखें कह देंगी पच्चीस

लीना मल्होत्रा राव का कविता संग्रह , जो कि उनका एकमात्र कविता संग्रह है अभी तक, परिवार / प्रेम / विवाह के भीतर स्त्री –पुरुष संबंधों , उनके राग –विराग को अभिव्यक्त करती कवितायेँ हैं, जहाँ स्त्री की अपनी अस्मिता आकर लेकर खड़ी है. प्रेम करती लीना की स्त्री ‘अनिवार्य उत्सर्ग’ ‘आरोपित त्याग’ से विरोध करती हुई स्त्री है . हालांकि इसी संग्रह में एक प्रतिनिधि राजनीतिक कविता भी है , ‘ चाँद पर निर्वासन’ : रस्सी का एक सिरा ईश्वर के हाथ में है हुसैन

/ और दूसरा धरती पर गिरता है / अभी तक चाँद इश्वर की पहुँच से मुक्त है / और अभी तक धर्मनिरपेक्ष है

क्यों रचती हैं हमारे समय में स्त्रियाँ :

कविता में स्त्री अभिव्यक्ति का मुख्य सरोकार पराधीनता से मुक्ति का संघर्ष है, पराधीनता मुक्त प्रेम और सौहार्द से भरे समय का स्वप्न है. वे अपनी और दूसरों की पराधीनता को एक साथ ख़त्म करने की मुहिम के साथ लिखना शुरू होती हैं. या लिखते हुए जिस स्वप्न को वे जी सकती हैं, उन्हें जीना यथार्थः संभव नहीं दीखता, तो वे लिखती हैं. कवयित्री की घोषणा है : अपनी भाषा में हूँ सुकून से /मुझे खोजने आ सकते हैं प्रेमी ( सविता सिंह ). कविता में स्त्री अभिव्यक्ति के उद्देश्य की निरंतरता इस आलेख में हमने देखा उसी उद्देश्य की निरंतरता की घोषणा सविता सिंह की कविता करती है :मुझसे भी जटिल जिन्दगी जियेंगी मेरी कविताएं/ सोई रहेंगी कोई सौ साल ................/तब भी उन्हें यह संसार अनुपम ही लगेगा अपनी क्रूरता में / तब भी वे ढूधेंगी प्रेम और सहिष्णुता ही इस संसार में .

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