वह आखिरी चुंबन Sanjeev Chandan द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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वह आखिरी चुंबन

वह आखिरी चुबंन

संजीव चन्दन

इसे मौत कह कर उनके मरने की इस अदा का अपमान नहीं किया जा सकता। वे प्रस्थान कर गई एक दूसरी भूमिका की ओर.... महाप्रयाण.......! समय इतना लोकतान्त्रिक जरूर हो गया है कि शंकराचार्यों और अपने कर्मकांडों के मकडजाल में फंसे कुछ पुरोहितनुमा जीवों और उनके प्रति आस्थावान आस्तिकों, ढोंगियों को छोड़कर एक स्त्री की मौत को महाप्रयाण कहने पर कोई आपत्ति करने नहीं आएगा। वैसे भी महाप्रयाण है यह, पुरुष- आरक्षित मोक्ष नहीं। क्या कोई अपनी मौत को भी इतना उत्सवपूर्ण बना सकता है ! यह तो एक दूसरी यात्रा की शुरुआत के पूर्व का ही उत्सव हो सकता था!! वे महाप्रयाण कर गई.............

आजीवन यात्री ही तो रहीं वे, एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक, कहीं एक-दो पल की झपकी ली तो कहीं सालो साल स्थिर रहीं, लेकिन अगले पड़ाव पर पहुँच कर पीछे छूट गए का अफ़सोस नहीं करती, हाँ पीछे छूट गए एक-एक लम्हे की कसीदाकारी उनकी स्मृतियों पर अंकित हैं- यादों के बेल-बूटे!! रात इस डाइनिंग टेबल पर अपना आखिरी तशरीफ रखने के पहले एक- एक लम्हे में दर्ज होने की अपनी ख्वाहिश पूरी करती रहीं वे। सुबह तडके से ही रसोई में देखकर मैंने आश्चर्य से उन्हें देखा, यह उनका काम नहीं था, मैं जब से उनके पास आई थी, यह काम प्रायः मालदह से साथ आई ‘दुलारी’ के जिम्मे था या कुछ अंतराल पर मेरे , जब दुलारी की तबियत ठीक नहीं होती या फिर जब मैं खुद ही अपना मनपसंद बनाना चाहती।

‘तुम फटाफट तैयार हो लो, आज तफरी करते हैं, लोधी गार्डन में धूप सेकेंगे और वहीं लंच करेंगे,’ उन्होंने मेरे आश्चर्य को भांपते हुए मुझसे कहा।

हम दिन भर घूमते रहे, लोधी गार्डन में लंच, खान मार्केट में खरीददारी के नाम पर एक- दो किताबें और कुछ अन्तः वस्त्र. मंडी हाउस में कॉफी और रोहिताश्व के साथ नाटक, जिसने हमें अपने ऑफिस के बाद हमें ज्वाइन कर लिया था।

“तुम दोनों घर चलो मैं एक-दो गप्पे मार कर आती हूँ, प्रेस क्लब भी जाउंगी, गला सुख रहा है,’ श्री राम सेंटर में ‘आषाढ़ का एक दिन‘ देखने के बाद उन्होंने कहा। पता नहीं वे क्या चाह रही थी, हमें एकांत देना या फिर स्वयं के लिए एकांत। रोहित ने ऑटो रुकवाया

तो उसे उन्होंने अपने लिए रोकते हुए अपनी गाड़ी की चाभी हमें दे दी, ‘तुम दोनों इससे जाओ,’ उनके आदेशात्मक स्वर से हम संचालित हो गए।

उनके देर रात लौटने की आवाज तो हमने सुनी जरूर लेकिन अपने बेडरूम में अपने पहले अभिसार के आगोश से हममें से कोई नहीं उठा और शायद वे वहीं डाइनिंग पर बैठी-बैठी एक अंतहीन यात्रा पर निकल पड़ीं, उन्होंने कुछ खाया नहीं था, खाना वैसे ही पडा था. हाँ, व्हिस्की की बोतल, ग्लास, प्लेट में कुछ काजू जरूर थे वहाँ। हम यदि अपने प्रेम में खलल डाल कर उनकी खटपट की आवाज से बाहर आये होते तो शायद हम उनके महाप्रयाण के साक्षी होते। हमें यहाँ न होने का अफ़सोस तो जरुर है लेकिन वैसा दुःख नहीं जो ‘मोहनदास’ को अपने पिता की मृत्यु के समय अपनी पत्नी के पास होने का था। यह हमारी पहली मिलन थी और वे स्वयं भी हमारे इस अभिसार मे बाधा से दुखी होतीं, उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती या फिर वे महाप्रयाण को प्रस्थित नहीं होतीं, ऐसा मुझे ही नहीं आपको भी लगेगा, जब आप ‘हमारी दीदी’ की कहानी जानेंगे। फिलहाल मुझे रोना आ रहा है और मुझे ‘निगमबोध घाट’ भी जाना है, लोगों को सूचित करना है, लौट कर दीदी और अपनी कहानी आपको बताउंगी।

70 की हो रही अपनी दीदी को दुल्हन की तरह सजाया था मैंने। उन्हें नहलाते वक्त उनके रोमकूपों से निकलने वाली उर्जा से मैं संचारित होती रही। उनके स्तन.... मुझे रोना आ रहा था....काश मैं फिर से बच्ची हो जाती... उनसे लिपट पाती... उनसे उनके अमृत सोख पाती... किसी देव मूर्ति की तरह मैंने नहलाया उन्हें। दीदी कहीं भी निकलने से पहले अपने स्तनों पर कप्स डालकर उसे आकर्षक बनातीं , 70 साल की अपनी दीदी की इस रुमानियत को, खुद से उनके मुहब्बत को, मैंने आज भी यथावत रखा, अंतिम यात्रा की उनकी तैयारी ठीक वैसी ही की मैंने जैसा वे स्वयं करती। वे अपनी बहन, बेटी, दोस्त के इस सौंदर्यबोध पर जरूर प्रसन्न हुई होंगी अन्यथा जब तक वे मेरे साथ रहीं सौंदर्य के प्रति मेरी बेरुखी पर मुझे कोसती ही रही थीं। पर आज क्या मैंने उनसे सीखकर वह सब किया या स्त्रियों के भीतर सौंदर्य कोई जन्मजात प्रवृति होती है, जो मेरे भीतर मैंने दबा रखा था!

‘निगमबोध घाट’ पर मैं ज्यादा देर रुकी नहीं, रुक भी नहीं सकती थी। मैं दीदी को जलते देख नहीं सकती थी। मुखाग्नि मुझे ही देनी थी इसलिए मैं घाट तक गई भी अन्यथा मैंने घर से ही उन्हें अलविदा कहा होता। उनका बेटा स्टेट्स में अपनी कारोबारी व्यस्तता

के बीच आने में असमर्थता जाहिर कर गया,‘ मैं बहुत दुखी हूँ, तुम नहीं समझ सकती कि मैं मम्मी को कितना मिस करूँगा, आय विल ट्राय टू रीच सून। परन्तु आप सारे रिचुअल्स में कोई कमी नहीं आने देना। आय विल डिपोजिट द अमाउंट।’ वह हर महीने उनके लिए एक निश्चित राशि भेजा करता था।

दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः..........!!!

मेरे दादा जी अक्सर कहा करते थे, ‘त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम दैवो न जानति कुतो मनुष्यः।’ दीदी में मेरी रूचि उनके विरोधियों के द्वारा उनके लिए अक्सर दुहराए जाने वाले जुमले के कारण ही बनी थी, जो उनके बारे में बातें करते हुए ‘त्रिया चरित्रं’ पर खत्म होती। उनके कई प्रेम संबंधों की चर्चा तो मैं अपने घर पर अपने दादा जी के मित्र 'पाठक दादा' से सुन रखी थी। दीदी की आशिकी के एक पात्र वे स्वयं भी थे। दीदी के दिल में उन्होंने एक नहीं पांच जोड़ बांसुरी तब बजाई थी जब दीदी श्रमिक आन्दोलनों की प्रखर नेता हुई करती थीं और वे उनके राज्य में एक बड़े श्रम अधिकारी। जब गीतकार दादा ने 'स्त्रियों की यौनिकता और परम्परा' पर मेरे शोध के विषय में सुना तो उन्होंने दीदी के जीवन को एक केस स्टडी के रूप में पढ़ने के लिए प्रेरित किया और मैं उनकी सिफारिश पर ही अपने छात्रावास से दीदी के यहाँ जाने लगी, कई -कई दिन तक उनके साथ रहने भी लगी। दादी की उम्र की मेरी दीदी सिर्फ दीदी हो सकती थीं या फिर छोटी बहन। सही मायनों में उनकी रुचियों और मेरी रूचि के हिसाब से वे मेरी छोटी बहन जैसी ही थीं।

इससे पहले कि मैं दीदी की कहानी आपको सुनाऊं यह स्पष्ट कर दूं कि आपका कोई भी प्रयास उनकी पहचान करने का व्यर्थ जायेगा, आप उन्हें कहीं भी न तलाशें, कर्पूरी ठाकुर के मंत्रीमंडल, बिहार विधानसभा, लोकसभा, श्रमिक आन्दोलनों में, कहीं भी नहीं, जहाँ-जहाँ आपको उनके जीवन की कथा मेरी कहानी में मिलेगी, वहाँ वे नहीं मिलेंगी ।

आपकी उत्सुकता को थोडा शांत करने के लिए मैं अपना पता बता दूं, जहाँ से मैं आपको कहानी कह रही हूँ, जहाँ अभी- अभी दीदी को महाप्रयाण के लिए विदा कर लौटी हूँ और जहां से अगले चार दिनों में मैं अपने छात्रावास लौट जाउंगी। मैं अभी रायसीना हिल्स और अरावली हिल्स के बीच कहीं किसी घर में हूँ, वहीँ उसी डाइनिंग टेबल पर सर रख कर बैठी हूँ, जहाँ दीदी ने पिछली रात बिताई थी, रोहित हमारे लिए चाय बना रहा है, चाय के बाद वह अपने ऑफिस चला जायेगा, उसने आधे दिन की ही छुट्टी ले रखी थी।

हाँ, एक बात और मेरे छात्रावास का पता आप जान कर भी क्या करेंगे, जब भी मिलना हो तो आ जाइये , गंगा ढाबे पर मैं इत्मीनान से मिल जाउंगी।

मैं देख रहा हूँ कि आप मन ही मन मुस्कुरा रहे होंगे कि ‘बच्चू अब बचेगी कहाँ ‘गंगा ढाबे पर मिलती हो तो रहती होगी वहीँ, कहीं गंगा, गोदावरी, ताप्ती या बहुत से बहुत साबरमती छात्रावास में, कथावाचक का ठौर ठिकाना मिल गया तो कथा की पात्र को भी तलाश लेंगे।' मैं आपको अभी ही सचेत कर दूं कि मेरी कहानी को ठोस यथार्थ की कसौटी पर कसकर आपको कुछ भी हासिल नहीं होगा, आप क्या लैला का पता लगा पाए हैं, मजनू का ठौर जाना है क्या आपने, न सीरी के घर का पता होगा आपको न फरहाद का ठिकाना ! लेकिन उनकी कहानी, कहानी तो इतिहास की इबारत सी मजबूत हमारी और आपकी पीढ़ियों से चली आ रही हकीकत है। ऐसी ही हकीकत है दीदी की कहानी, मेरे वजूद में दर्ज कहानी.....

हाँ, इतना यथार्थ इस कथा में जरूर है जितना मेरे गंगा ढाबा पर होने, गंगा, गोदावरी, ताप्ती या साबरमती छात्रावास में कहीं रहने, रायसीना हिल्स और अरावली हिल्स के बीच कहीं किसी घर से मेरे कहानी कहने से या फिर दीदी के कर्पूरी ठाकुर के मंत्रीमंडल, बिहार विधानसभा, लोकसभा, श्रमिक आन्दोलन आदि किसी राजनीतिक- आराजनीतिक गतिविधि में शामिल होने से यथार्थ बनता है, या फिर......जितना यथार्थ लड़कियों के लिए समानता -स्वतंत्रता के साथ रहने और जीने के सबसे मुफीद सहशिक्षा केंद्र माने जाने वाले जे.एन.यू के पेरियार, कावेरी, झेलम, ब्रह्मपुत्र या ऐसे ही किसी छात्रावास में सहपाठी लड़की की ब्लू फिल्म बनने-बनाने की घटना है .....उतना यथार्थ जितना जे.एन यू के खंड- खंड, शिला- शिला में, चेतन-अचेतन में रचे -बसे ‘विद्रोही’ के द्वारा आसमान में धान के रोपे गए पौधे।

खूबसूरत यथार्थ, ‘मीन सी आँखों वाली’, गिलहरी की सी कोमलता वाली नन्ही लड़की का यथार्थ, जिसे उसके पिता ने पुकारा ‘मीनाक्षी और माँ ने दुलार से जिसे ‘रूही’ बुलाया। उसी लड़की से, यानी दीदी से, यानी 70 साल की मेरी कथानायिका से, मेरे सवाल भी उतने ही बड़े यथार्थ के हिस्से हैं : ‘ दीदी आप इतनी कहानियों, इतनी फंतासियों, इतने गप्पों, इतने ठहाकों, इतनी फुसफुसाहटो में कैसे दर्ज होती चली गईं!’

शीताक्षी-उन्हें मिनाक्षी से अलग करने वाला संबोधन! उनके व्यक्तित्व के अनूठेपन को गढ़ने के लिए मूर्तिकार का पहला छेनी -स्पर्श!! उनके सपनो को अर्थ देने वाली पहली तरंगें!!! पहली बार अपने क्षेत्र और परिवेश से पहली ग्रेजुएट होती मीनाक्षी के कानों में आज भी उस वाक्य की गूंज अजीब सी फुसफुसाहट के साथ स्पर्श करती है, “तुम्हारी आँखों में बड़ी शीतलता है, तुम्हारा नाम इनकी बाह्य मीन-सुंदरता की जगह इनकी आतंरिक शीतलता को अभियक्त करना चाहिए था --मीनाक्षी से ज्यादा सटीक है शीताक्षी-क्वार की पूर्णिमा सी ठंढक वाली इन आँखों के लिए।’

मीनक्षी- यानी शीताक्षी पहली बार आईने में अपनी आँखों में डूबती चली गई, पहली बार लड़की होने का अहसास पोर-पोर में थिरकने लगा।

‘हाँ, इसके पहले तक तो मेरे पिता ने, माँ ने, भाइयों ने कभी यह अहसास होने ही नहीं दिया कि मैं लड़की होने या अपने महीने के खास दिनों के कारण लडको से अलहदा हूँ, या उनसे कमतर हूँ - उन दिनों लड़की को कालेज तक भेजना कोई अचानक से लिया गया निर्णय नहीं हो सकता था। मैं सुन्दर थी यह मुझे पता था, परन्तु उस संबोधन के पहले किसी ने मेरी सुंदरता को मेरे सामने आईने में उतार देने का काम नहीं किया था और मैं तब तक सौभाग्यशाली भी थी कि किसी ने, मेरे आस-पास से या मेरे घर के भीतर, कभी भी लड़की होने का बलात अहसास भी नहीं कराया था।’

‘वह था कौन दीदी?'

‘मेरे बड़े भाई का दोस्त! उस दिन के बाद मैं मीनाक्षी रह नहीं गई थी, मैं शीताक्षी हो गई थी. वह बहुत अच्छा वक्ता था- मेरे भाई के साथ उसकी बातें,जो अक्सर राजनीतिक होतीं, मैं मंत्रमुग्ध सी सुनती थी, उनके बीच घंटो बैठती-- नेहरु की आलोचना करती हुई , समाजवाद के सपने देखते हुई , वर्ग संघर्ष में यकीन करती हुई और सर्वहारा की सत्ता की यूटोपिया रचती मैं भी उनके साथ मजदूरों के संघर्ष में शामिल होने लगी।’

‘यह तो विचित्र प्रतिक्रिया थी, आपको तो उस संबोधन के बाद सपनो के जिन रंगीन तरंगों में संचरित होना था उससे अलग आप यथार्थ के संघर्ष की और उन्मुख थी ...’

‘हाँ। ऐसा था और ऐसा नहीं भी। मेरी आँखों की क्वार पूर्णिमा में शीतलता पाने वाला मेरा नायक दो समानांतर भूमिकाओं में था, मुझे एक नई राह पर खींच रहा था और मेरे सपनो में, मेरे क्वारे अहसास पर दस्तक भी दे रहा था। फिर एक दिन, जब घर में, कमरे में, मैं और वह अकेले ही थे, वह भाई की प्रतीक्षा कर रहे थे और घर के लोग बाहर, मैंने कमरे की बत्ती बुझाई और उनके पांवों के पास बैठ कर मैंने उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर कहना शुरू किया कि.... मैं पूरी रौशनी में, आँखों में आँखे डाल कर जो बात नहीं कह सकती, वह इस नीम अँधेरे में कहना चाहती हूँ कि मैं आपसे ......कि तभी मेरे हाथ को झटका लगा और कमरे में बत्ती जल गई!’

‘क्या भाई आ गए थे?’

‘नहीं, उनके भीतर का भाई प्रबल हो गया था. और उन्होंने मेरे गालों को अपनी दोनों हथेलियों में समेटकर मेरी आँखों में आँखे डालकर कहा कि वे मेरे भाई के दोस्त हैं, कि मुझे ऐसे ख्याल भी अपने मन में नहीं लाने चाहिए, कि आँखों में क्वार की पूर्णिमा से उनका मतलब वह सब नहीं था, जो मैं समझ बैठी, कि स्त्री दृपुरुष के आदिम रिश्तों को समाज ने जिन रिश्तों के भीतर सुरक्षित किया है उसे बनाये रखना हमारा कर्तव्य है और न जाने क्या, क्या.... हाँ यह भी कि वे नैतिक समाजवाद चाहते हैं, वैसा समाज नहीं, जहाँ स्त्री और पुरुष दो देह मात्र हों......’

इसके बाद दीदी ने बताया कि उन्हें उस वक्त ‘एक भयभीत, भीरु जिम्मेवारी से भागने वाला पुरुष सामने दिखा. लेकिन कामना, जिसका सोता तब फूटा था, उसे बहने से कौन रोकने वाला था!’

राजनीतिक गतिविधियों में उन दिनों शामिल महिलाएं शहर के खास लोगों में शामिल होतीं, गोष्ठियों में, बहसों में, आन्दोलनों में, महिला चेहरे कम ही थे, कुल तीन, जिनमें एक दीदी स्वयं थीं। मजदूरों के आन्दोलनों में शामिल मजदूर महिलाएं भी कुछ खास संख्या में नहीं होती। दीदी सबसे अलग थीं -सबसे अलहदा। कामनाओं के सोते ने उन्हें गढना शुरू किया था। अपनी पढ़ाई की व्यस्तता, बहसों ,गोष्ठियों में भागीदारी, घर में गाँधीवादी पिता, मार्क्सवादी भाई के दोस्तों का ख्याल, इन सबके बीच अपने लिए समय निकालती थीं वे। मुख्यमंत्री की ट्रेड युनिअन के नेताओं के साथ बैठक में भाग लेने का अवसर उन्हें महिला प्रतिनिधि के तौर पर मिला। मुख्यमंत्री ने नेताओं से कहा, ‘वहाँ संसद में

तारकेश्वरी जी बैठती हैं तो संसद का सौंदर्य बढ़ जाता है वैसे सौंदर्य से हमारा विधान भवन ही क्यों महरूम हो, आप कहें तो इन्हें (दीदी को) विधान परिषद में बुला लिया जाए,’ कहकर मुख्यमंत्री ने ठहाका लगया और उपस्थित नेताओं के ठहाके कोरस बन कर मुख्यमंत्री कक्ष में गूंज गए ।

दीदी घटनाओं का कोलाज बनाती चली गई थीं, उन्हें जब कोई संवेदित करता तो घटनाओं के कोलाज सामने होते। 26 मई 1964 को हुई थी मुलाकात मुख्यमंत्री से, जिसके बाद प्रतिनिधि मंडल को नेतृत्व दे रहे कॉमरेड के साथ दीदी रिक्शे पर निकली, वे मुलाकात की सफलता से उत्साहित थे, रिक्शे वाले को गाँधी मैदान चलने को कहा। रास्ते में उन्होंने पूछा,‘ तारकेश्वरी जी को देखा है कभी तुमने, सही फरमा रहे थे जनाब मुख्यमंत्री, नेहरु जैसे सौंदर्य और बुद्धिमता के पुजारी भी कायल हैं उनके.. दीदी तारकेश्वरी सिन्हा के शायराना फलसफे में जोशीले भाषणों के विषय में तब तक सुन चुकी थी और नेहरु के सौंदर्य प्रेम, मुग़ल गार्डन में लेडी माउंट बेटन के साथ उनकी मुलाकातें मिथकीय गल्पों के साथ प्रेमी युगलों में रोमांच पैदा करती रही थीं।‘ तुम हमारे बीच वामपंथी तारकेश्वरी सिन्हा हो,’ कामरेड ने दीदी की आँखों में अर्थपूर्ण दृष्टि डाली। वैसी किसी भी दृष्टि या कम्प्लीमेंट के प्रति अबतक (भाई की घटना के बाद से) वे सावधान रहने लगी थीं, लेकिन कामरेड की लरजती आवाज के साथ उनकी दृष्टि से ‘शीताक्षी’ ने उनके भीतर फिर करवट ली। गांधी मैदान में बातें करते हुए, अशोक राजपथ पर विचरते हुए वे नेहरु के बाद कौन, सी.पी.आई-सी.पी.आई (एम) के विवादों और नई वामपंथी पार्टी के जन्म, दांगे-नम्बूदरीपाद के विचारभेद, रुसी और चीनी मार्क्सवाद सहित कई पहलुओं पर बातें करते रहे, इन राजनीतिक वियाबानों से गुजरते हुए वे राजकपूर-नरगिस के अफसानों के तार भी छेड़ रहे थे। बातें तैर रही थीं, राजनीति ,फिल्म, प्रेम, समाज, उसकी बंदिशें, और कालिदास। हाँ कामरेड इन दिनों कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम को खत्म कर कुमारसंभवम पढ़ रहे थे। कामरेड के विचार ‘भाई के दोस्त’ से अलग थे, वे स्त्री-पुरुष के आदिम रिश्तों के हिमायती थे, सामजिक सम्बन्ध उन्हें कृत्रिम संजाल नजर आते थे।

बातों का छोर पटना सिटी के उनके किराये के मकान में खत्म हुआ। दीदी जब उस मकान से बाहर निकलीं तो उनके साथ मीनाक्षी साथ निकली, उससे शीताक्षी भी घुलीमिली थी, मीनाक्षी और शीताक्षी के अंतरद्वंद्व आपस में गुथंगुथ थे। कामरेड उन्हें

छोड़ने उनके घर तक गए, रिक्शे पर दोनों साथ रहे लेकिन इस बार कोई कोई भी प्रसंग छेड़ नहीं रहा था।

दीदी अपने कमरे के आईने के सामने काफी देर तक खड़ी रहीं, एक नए अहसास से सराबोर, ‘स्त्री-पुरुष के आदिम आपसी गंध' से मदहोश ! माँ एक बार कमरे में आकर लौट गईं, उन्होंने अपनी रूही को नींद से जगाना नहीं चाहा रूही नींद में थी, रूही रो रही थी, रूही के आसुओं के तासीर निश्चित नहीं थे, दुःख, अनजाना भय या सुख के आंसू।

‘नेहरु नहीं रहे’, दोपहर तक आल इंडिया रेडियो ने खबर दी, जिस पर शाम को घर के लॉन में गमगीन चर्चा में शामिल हुए गांधीवादी पिता, मार्क्सवादी भाई, कमरेड और दीदी। नेहरु के प्रशंसक और विरोधियों, सबके लिए यह आघात था और एक सवाल भी, ’हू आफ्टर नेहरु ?’ दूसरे दिन पार्टी दफ्तर में शोक सभा हुई और दीदी लौटते वक्त अपने घर आने के पहले कामरेड के मकान पर रुकी, दीदी का यह पड़ाव 10 जनवरी 1966 तक बना रहा। लाल बहादुर शास्त्री की असामयिक निधन के 6 घंटे पहले तक।

धोखा !साजिश !! विश्वासघात !!! पूरे देश की फिजां में यही माहौल था, लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में मृत्यु को साजिश मान रहे थे लोग -वे लोग भी, जो एक दिन पहले तक ताशकंद समझौते के कारण शास्त्री जी के खिलाफ थे। 11 जनवरी की सुबह दीदी के अपने लोक में भी विश्वासघात और धोखा का घना कोहरा छाया था, जो राष्ट्रीय फिजां में व्याप्त विश्वासघात, धोखे और साजिश के माहौल से लिपट रहा था। दीदी अपनी बेचौनी की हालत या विचारों के द्वंद्व की स्थिति में पास के गंगा-घाट पर घंटों बैठी रहतीं। उस दिन भी वे निकलीं तो पिता समझ गए थे कि शायद उदासी की स्थिति में वे गंगा की ओर जा रही हैं। वे मना करना चाह रहे थे, उस दिन भी ठंढक में कोई कमी नहीं थी, कोहरा यद्यपि पिछले दिनों की तुलना में कम था। भाई ने सदा की भांति ISE ‘बुर्जुआ व्यवहार’ की संज्ञा दी।

हालाँकि दीदी अभी भी शास्त्री जी की मृत्यु पर कोई राय नहीं बनाना चाह रही थीं, चाह भी नहीं सकती थीं। क्योंकि उनका समय तो कल ताशकंद की त्रासदी के छः घंटे पहले तक ही फ्रीज हो गया था, जब कामरेड ने उन्हें स्पष्ट मना कर दिया था।

‘यह नहीं हो सकता’

‘क्यों नहीं, क्या हमारे बीच प्रेम नहीं है ?’

‘हमारे बीच प्रेम कोई शर्त नहीं थी, हम विशुद्ध देह थे।

‘मैं मानती हूं कि हमोर बीच सब कुछ देह से शुरू हुआ था, पूरे होश-हवाश में, वैचारिक तौर पर ‘देह’ की सत्ता को निर्विवाद और आवश्यक मानते हुए, लेकिन एक औरत के लिए देह से शुरू होकर देह तक टिके रहना संभव नहीं होता, मैं आपके साथ ‘घर’ और ‘संसार दोनों के ख्वाब बुनने लगी थी।’

‘वह ख्वाब एक तरफा था, जिसे बुनने के लिए तुम स्वतंत्र थी, परंतु मेरे ‘घर’ में कोई और भी है।’ कामरेड की आवाज सख्त थी.

'कोई और मतलब...!’

‘मेरी पत्नी’

‘क्या वह पहले नहीं थी, तब जब आपके ‘घर’ और ‘संसार’ में मैं-ही मैं थी। आप एक साथ दो लोगों से धोखा कर रहे थे.......'

‘मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता हूं, तब भी नहीं चाहता था। मेरी शदी लगभग बाल विवाह थी- दो बच्चे भी हैं। हां, तुम मुझ पर धोखे का आरोप भी तय नहीं कर सकती हो. हमारे तुम्हारे बीच पहली बार ही जो कुछ हुआ वह जरूरत हम दोनों की जरूरत जैसा था, अप्रत्याशित तो कतई नहीं। हम दोनों ही विधान भवन से ‘सिटी’ मेरे घर पर अनायास ही नहीं चले आए थे।’ कामरेड तर्क कर रहे थे।

'तो क्या वह सब पूर्व नियोजित था ?.... दीदी लगभग चीखने को आयी।

‘मैं कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकता उस दिन के बारे में, नियोजित था भी और नहीं भी । लेकिन अब, अब परिवार मेरी जिम्मेवारी है।’

गंगा का दूसरा छोर घने कोहरे में छिपा था। कोहरे में कुछ ढूंढ़ती दीदी की आंखें उसी छोर पर लगी थीं या वे सूने में एकटक देखती कुछ सोच रही थीं...... 'नियोजन!' किसका व्यवहार नियोजित था। क्या वे कुछ सोच कर विधान भवन से टांगें पर बैठी थी पहले दिन!!! खूब याद करने के बाद भी वे तय नहीं कर पा रही थीं कि वे कामरेड के साथ मुख्यमंत्री के कक्ष से निकलकर क्यों चल पड़ी एक साथ। क्या मुख्यमंत्री की प्रशंसा से वे भाव विभोर थीं- आपा खो बैठी थीं। क्या उनका और कॉमरेड का घर पटना सिटी में था इसलिए वे एकसाथ निकलीं? क्या कॉमरेड के व्यक्तित्व ने और उनकी वक्तृता ने उन्हें सम्मोहित कर रखा था? क्या शीताक्षी के भावोद्रेक थे वे कदम? क्या ठेठ दैहिक जरूरत

की दिशा में प्रेरित थे उनके पांव? क्या नियोजित था- समय, भाव और नैरंतर्य में उपस्थित परिस्थितियों का उद्दीपन या उनसे उम्र अनुभव और वैचारिकी में परिपक्व कॉमरेड का आलंबन......!!

गंगा का पानी स्वच्छ था, शांत भी। ठंड के कारण एक दो श्रद्धालु ही स्नान कर रहे थे, दीदी के घाट से कई किलोमीटर दूर ‘स्टीमरों’ में भी कोई हलचल नहीं था। गंगा शांत बह रही थी, दीदी की आंखें भी अंतःसलीला थीं -शांत बहाव।

‘कैसा नियोजन ! स्त्रियां कब कर पायीं हैं, अपनी जिन्दगी का निर्णय या निर्धारण?! सब कुछ परिवार तय करता है या पुरूष ‘घर’ संसार हर जगह:

15 अगस्त 1947 को नन्हीं मीनाक्षी के हाथों में तिरंगा थमा कर उसकी मां कहां कैद हो गयी थी, कहां सीमित हो गयी थी। गांधी जी के द्वारा आह्वान पर घर से बाहर कदम रखने वाली मां- स्त्रियां की कुशल संगठनकर्ता, अपने प्रिय आभूषणों को दान में दे देने वाली ‘भामाशाह ’, और पिता के लिए 15 अगस्त 1947 के अलग-अलग मायने में- मां उस दिन के बाद से घर में ऐसे सीमित हो गयीं, जैसे पहले कभी निकली ही नहीं थी, नहीं देखा था उन्होंने असहयोग आंदोलन, नहीं भाग लिया था नमक आंदोलन में या फिर 1942 में जेल भी नहीं गयीं थीं; पिता सक्रिय राजनीति में बने रहे।

‘क्या होता है पूर्व नियोजन स्त्रियों की जिन्दगी में! कामरेड की चुप्पी, घर-परिवार के बारे में सायास निर्मित रहस्य यदि पूर्व नियोजित नहीं था तो क्या मेरा समर्पण या ‘हम दोनों के सुख’ पूर्व नियोजित थे।’

घंटे भर गंगा की तरंगों में डूब-उतरकर दीदी घर के लिए लौट पडीं। मां की यादों के रास्ते तारीखों-तवारीख में उतरी दीदी को लगा कि 10 जनवरी 1966 इतिहास के एक युग के अंत की तारीख है- नेहरू युग का अंत, लाल गुलाबों का वास्तविक प्रस्थान। नेहरू नहीं रहे, लाल बहादुर शास्त्री का असमायिक निधन हो गया, लेडी माउंट बेटन बहुत पहले ही इंगलैंड लौट चुकी थीं। कांग्रेस ने इंदिरा गांधी को गद्दी सौंप दी। कांग्रेसी नेताओं की एक ताकतवार जमात इसे ‘गूंगी गुडिया’ की ताजपोशी मानता था। जिन दिनों इंदिरा गांधी ‘गूंगी गुडिया’ से ‘दुर्गा का अवतार’ बनती गयीं, उन्हीं दिनों दीदी पटना से दिल्ली

विश्वविद्यालय की अन्तेवासी हो गईं ;वहां रहकर छात्र और ट्रेड युनियन की में सक्रिय रहने के पार्टी के निर्देश के साथ ।

उन्हीं दिनों दीदी की शादी कर दी गयी- पति भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी थे। पति के आग्रह पर वे रूस भी रह आयीं- दीदी के सपनों का साम्यवादी देश, जहां बेटे के जन्म के बाद वापस लौट आयीं फिर से पटना, वे पति के पश्चिमी देशों की पोस्टिंग में साथ नहीं जा सकीं, वे विदेश सेवा के अधिकारी के रसाई और शयनकक्ष तक सीमित नहीं रह सकती थीं। जिस दिन, पाकिस्तान से अलग बंगला देश की घोषणा हुई, उस दिन वे पटना सिटी के अपने मकान के लॉन में अपने बेटे की ऊंगली थामे घूम रहीं थीं और उनकी निगाहें सड़क पर टिकी थीं- जहां इंदिरा गांधी के शौर्य और विजय के उल्लास से पूरा वातावरण सराबोर था।

पति की चिट्ठियां धीरे-धीरे आनी कम हो गयीं, अब आने वाली हर चिट्ठी में बेटे की पढ़ाई और उसके भविष्य की योजनाएं साथ आतीं- दीदी तय थी कि उनका बेटा उनके पास अमानत है, जिसे पहले तो बोर्डिंग स्कूल जाना है, और फिर पिता के पास विदेश।

वे अब पार्टी की गतिविधियों में ज्यादा शरीक होने लगीं। उनका सबसे प्रिय मोर्चा था कोयला खदानों के मजदूरों का मोर्चा। सीधे-सादे आदिवासियों की संपत्ति पर कब्जा था शेष बिहार के दबंगों का, जिनकी शासन और सत्ता में पहुंच थी। दीदी इस मोर्चे पर सक्रिय हुईं। ‘सरकारें और उसके कारींदे- ठेकेदार, पुलिस और कारखानेदार, बंदूक की ही भाषा समझते हैं। पूरे ग्रीन बेल्ट की नींद, भूख पर कब्जा करने और उनकी सुकून पसंद जिंदगी पर तथाकथित सभ्यता का मुलम्मा डालने को उतारू सरकारों को उसके आदिवासियों की करूण आंखें और मूक वेदना समझ में नहीं आती। दीदी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के द्वारा ‘नक्सलवाद’ को देश का सबसे बड़ा शत्रु घोषित करने पर उबल पड़ती थी।

कोयला खदानों के मजदूरों के साथ काम करते हुए ही मुलाकात हुई उनकी मेरे दादा जी की मित्र से वे धनबाद में श्रम अधिकारी थे, आकर्षक व्यक्तित्व के धनी ! उनकी धाक अधिकारियों के बीच कम साहित्यिक मंचों पर ज्यादा थी। मधुर कंठ और सुर साधनाके साथ वे अपने गीतों की ‘माधुरी’ से महफिल लूट ले जाते थे। मंचों पर उन दिनों

गीत, अगीत, नवगीत, कविता-अकविता, छंद-मुक्तछंद की धूम थी। सरोकारी मुलाकातों और मंचों, महफ़िलों बीच दीदी की नयी दोस्ती पनपी-पास्क दादा के साथ:

‘एक सुंदर स्त्री, उससे भी अधिक आकर्षक स्त्री यदि आपके सामने की कुर्सी पर बैठकर अपने तेज और अकाट्य तर्कों से आपको कायल कर रही हो तो कौन मूर्ख हथियार डाल देना पसंद नहीं करेगा।’ वे अपने स्टाइल में बेवाक थे या फ्लर्ट रहे थे।

‘तो मैं मान कर चलूं कि आप हमारी तरफ से सरकार के सामने हमारा प्रतिनिधित्व करेंगे।’ दीदी लक्ष्य से भटकना नहीं चाह रही थीं।

‘अपनी बंकिम भृकुटियों से कोई तार-तार कर रहा हो और अपने शब्दों से निरूत्तर तो कानूनी हरफों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है संवेदना। कानूनी हरफो को कई शुष्क हृदयों ने लिपिबद्ध किया है लेकिन पर- दुःख- कातर स्त्री की उपस्थिति मात्र से उन हरफों की शुष्कता गायब हो सकती थी’, वे प्रशंसा कर रहे थे, डोरे डाल रहे थे या फिर अपनी सहजता में थे.....

दीदी ने बताया कि उनकी यह दोस्ती सबसे अधिक चली। वे घर में ‘रूक्मणि’ कॉलेज की दिनों में विरही बनीं ‘राधा’ और कोयला मजदूरों के बीच सक्रिय ‘द्रौपदी’ के साथ एक साथ सहज हो सकते थे और वे तीनों भी उनके साथ सहज हो सकती थीं।

दीदी उनसे सबकुछ शेयर करतीं, व्यक्तिगत- राजनीतिक सबकुछ. उनकी सलाह मानतीं, उन्हें सलाह देतीं। 1947 में पार्टी से विलगाव, जयप्रकाश जी के आंदोलनों से रिश्ता और सक्रिय भूमिका, 1975 में इंदिरा गांधी के द्वारा इमरजेंसी लागू होने पर पार्टी की खुली आलोचना और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी इस्तीफा आदि दीदी के सारे निर्णयों में दादा जी के मित्र की सलाह और बहस की भूमिका रही थी। उनके साथ प्लूटोनिक सुख पाती थी दीदी; इसीलिए वे अपने को रूक्मिणी, राधा और द्रौपदी की त्रयी में द्रौपदी जैसा अनुभव करती थी।उस दिन कोयला मजदूरों के मामलों को लेकर जब वे सूबे की बड़ी नेता से मिली, तो उसके द्वारा बलात् संबंध बनाने की घटना से आहत वे सीधे उनके कंधों पर गिरकर फूट-फूट कर रोयीं:

‘क्या औरत देह मात्र होती है, मात्र मांस का लोथड़ा, उसने मुझे मात्र देह में तब्दील कर दिया था’ -वे काफी देर तक रोती रहीं।

जी हल्का हुआ तो उन्होंने सुबकते हुए कहा, ‘मैं अपने भीतर ताकत भी महसूस कर रही हूं। इसी देह के आगे सूबे का सबसे बड़ा नेता नंग-धडंग लेटा था। सेक्स की भूख मिटने

के बाद उसके चेहरे पर बच्चों सा संतोष था- मैं भीतर से जल तो रही थी, लेकिन उस क्षण को मेरे भीतर उत्साह दौड़ गया था।’

मैं आपकी उत्सुकता शांत करने वाली नहीं हूं कि यह नेता था कौन : मुख्यमंत्री-राज्यपाल खानन मंत्री या फिर इन सब मंत्रियों को बनाने-बिगाड़ने वाला शक्तिशाली ‘किंग मेकर’ .हां उस ‘बलात संबंध’ के बाद दीदी की फाइल रूकी नहीं, इतनी सूचना मैं दे सकती हूं।

दीदी और गीतकार दादा का प्रेम ‘प्लूटोनिक’ मात्र नहीं था; दो शरीरों ने इस प्रेम को और अधिक गहन बनाया था । पहली बार दोनों करीब आए थे उनके ऑफिस के कमरे में। ऑफिस स्टॉफस की गैर मौजूदगी में.

खूब तेज बारिश, हवा, घिर आयी रात तथा पाठक जी के प्रति दीदी के मन के आकर्षण ने उद्दीपन का काम किया था- प्रयत्न या प्रयोजन कहीं नहीं था। वासना रहित आलिंगन...!!

उन दोनों ने अंतिम बार जब एक दूसरे को समर्पित किया, उसके बाद ‘प्लूटोनिक प्रेम (!) ही बचा - शरीर-संबंध जाता रहा। इसके पहले वासना रहित प्रेम के बाद हर शरीर संबंध में वासना की अधिकता बढ़ती गयी, शारीरिक प्रेम गहराता रहा; तब तक , जब यह सब अंतिम बार हुआ। उन्होंने उस दिन दीदी को आलिंगन में लिए उनके कानों में फुसफुसाहट डाली, रूक्मिणी से तुम बेहतर हो, राधा तुम से बेहतर.........'

दीदी ने उसके बाद उन्हें आश्चर्य से देखा। ऑफिस की तेज बारिश को याद किया, हवा के तेज झोकों को याद किया और प्रत्युत्तर में कहा ‘इतिश्री’। इसके बाद दोनों कभी आलिंगनबद्ध नहीं हुए। गीतकार दादा ने भी ‘इतिश्री’ की गरिमा बनाए रखी।

‘बोधि वृक्ष पर टंगा टुवार्डस इक्वलिटी रिपोर्ट’

‘मथुरा कहां होगी’

‘कौन मथुरा, मथुरा आगरा के पास है।

‘मैं मथुरा की बात कर रहा हूं, जिसके रेप के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद पूरे देश में स्त्रीवादी आंदोलनों की दस्तक पड़ी थी।’

‘तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो’ आज मेरी दीदी नहीं रही, मैं उन्हें मिस कर रही हूं।

‘इसलिए कि मैं वहीं से आ रहा हूं, जहां मथुरा अपने ऊपर राक्षसी बलात्कार के पहले, बाद में और उसे केन्द्रित स्त्रीवादी आंदोलनों के दौरान तथा उसके बाद तक पत्थर तोड़ती रही है- मथुरा यानी आदिवासी लड़की’ .उसकी पीड़ाओं की नींव पर ही बने ‘कस्टोडियल रेप कानून और शिफ्ट हुआ आनेस ऑफ प्रूफ’.

' तो तुम महाराष्ट्र से आ रहे हो’?'

‘हां, उसके शहर चंद्रपुर से कोई सौ-एक सौ बीस किलोमीटर दूर आयोजित स्त्रीवादी जमघट से आ रहा हूं- देश भर से जमा सैकड़ों स्त्रीवादी अकादमिशियन, कार्यकर्ताओं, विद्यार्थियों का जमावडा था वहां।’

‘मथुरा भी आयी थी क्या वहां।’

‘उसकी सुध लेने वाला कौन है? वहां तो टी.ए., डी.ए. की मारामारी थी। स्त्रियों को गाली देने वाले, लेखिकाओं को ‘छिनाल’ संबोधित करने वाले एक पुलिस अधिकारी से संबंध बनाने का आलम यह था कि उसे स्त्री-पुरुष समानता के प्रतीक के तौर पर एक ‘पीपल-वृक्ष’ यानी 'बोधि वृक्ष' समर्पित किया गया।’

‘क्या कह रहे हो तुम, क्या किसी ने विरोध नहीं किया।’

‘कौन करता विरोध, वह पुलिस अधिकारी सिर्फ पुलिस अधिकारी नहीं रहा वहां शिक्षा के नाम पर एक बड़े कोष को कस्टोडियन है, उसकी कलम से ही वहां उपस्थित ‘स्त्रीवादियों को टी.ए.डी.ए मिलना था और भविष्य में अन्य उपकार सुनिश्चित थे .।’

‘बोधि वृक्ष तो दलित अस्मिता का प्रतीक है।’

‘हां, इसीलिए कुछ दलित स्त्रीवादियों, ने दलित महिला संगठन के कुछ कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया तो वहां बैठी संभ्रांत भृकुटियाँ तन गयीं, नारा लगाती कार्यकर्ताओं की जमात को विलेन मानती आंखों उन्हें दुत्कार रही थीं, पुलिस ने उन्हें निकाल-बाहर किया।’

‘फिर स्त्रीवादी सम्मेलनों का आडंबर क्यों?’

‘वहां स्त्रीवादी आंदोलनों, अकादमिक गतिविधियों के संभ्रांत प्रतिनिधियों का पुलिस-अधिकारी के साथ कोरस सुनकर आया हूं। मथुरा की कौन याद करे। यह तो टी.ए. डी.ए की कस्टडी में कई-कई मथुराओं को पुनर्जीवित करने की घटना थी।’

मेरा मन पहले से ही उदास था। मैं अपना मन बदलने के लिए ही गंगा ढाबा आ गयी थी, रोहिताश्व को भी यहीं बुला लिया था, गरम बहसों का केंद्र गंगा ढाबा. निरंजन ने ढाबे पर ही ज्वाइन कर किया था मुझे .

‘तुम स्त्रीवादी आंदोलनों और विचारों पर पूर्वग्रही वातावरण निर्मित कर रहे हो न।

‘तो क्या करूं ! स्त्रियों को, विदूषी स्त्रियों को, सरेआम गाली देने वाले मर्दवादी अहंकार को तुष्ट करती स्त्रीवादियों को देखने की त्रासदी के बाद मैं क्या कर सकता हूं, यह पूर्वग्रह नहीं, तटस्थ आक्रोश है।’

‘तुम्हारा आक्रोश स्त्रियों की टी.ए.डीए पर क्यों है? इसलिए की अब वे पुरुषों की बराबरी पर अकादमिक गतिविधियों में शामिल हैं।’

‘जी नहीं, पुरुषों के साथ निर्लज्ज बराबरी पर मेरा आक्रोश है, स्त्रीवादी आंदोलन पितृसत्ता के संस्कारों के खिलाफ था, उसके अनुरूप हो जाने के लिए नहीं था।’

मैंने बातचीत को वहीं खत्म कर वापस लौटना उचित समझा। आपको भी लग रहा होगा कि कहानी के बीच यह अवांतर प्रसंग क्यों? लेकिन मैं ढाबे पर चली आयी, तो उसकी प्रकृति के अनुरूप कुछ बातें आपको शेयर करनी जरूरी समझा मैंने। वैसे ऑटो से रोहिताश्व के साथ दीदी के घर की ओर लौटते हुए मैं पूरी कहानी बता ही दूंगी आपको। हम घंटो चुप्प, हाथों में हाथ लेकर एक दूसरे को देखते हुए समय में डूबे रह सकते हैं। इस बीच रोहित को धोखा देकर मैं अपनी दीदी की कहानी पर लौट आती हूं:

हां तो पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देकर दीदी जयप्रकाश जी के नेतृत्व में आंदोलनों में और अधिक सक्रिय हो गयी। 1975 में भारत के महिला प्रधानमंत्री ने इमरजेंसी थोपी, संयुक्त राष्ट्र संघ ने उस वर्ष को ‘महिला वर्ष’ के रूप में घोषित किया, 8 मार्च को ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ बनाने की औपचारिक नींव पड़ी और 'टुवार्डस इक्वलिटी रिपोर्ट' के साथ भारतीय महिला आंदोलन ने अपना चार्टर पेश किया।

दीदी छात्र-आंदोलन के दौरान नया जोश, नयी ताजगी से रू-ब-रू हो रही थीं। राजनीतिक लक्ष्य के साथ सामाजिक परिवर्तनों की भी हलचल थी। ‘स्त्री-पुरुष संबंधों, अंतरजातीय, अंतर धार्मिक रिश्तों के नए-नए प्रयोग प्रोत्साहित हो रहे थे। दीदी को संबंधों केइन प्रयोगों को देखकर सुकून महसूस होता- उनके बाद की पीढ़ी भी सक्रिय हो चुकी थी।

समय के उसी टुकड़े पर एक जोड़ी नयी आंखों में दीदी को अपने लिए सरहाना के भाव दिखे। वे आंखें उनकी आंखों में उतरने के लिए आतुर थीं। तेज-तर्रार कार्यकर्ता था वह, प्रखर वक्ता। दीदी के बाद की पीढी का नवयुवक। जे.पी. पर चली लाठियों के बीच-बचाव में कुछ नाम सुर्खियों में आ गए कुछ गुमनाम रहे- वह भी उन गुमनाम नामों में से था। इमरजेंसी के बाद ‘मीसा' के तहत दीदी जिस जेल में रखी गयी थीं उसी के पुरुष कार्ड में उसे भी रखा गया था। इमरजेंसी के बाद केंद्र और राज्य, दोनों जगह की सरकारें

बदल गयी थीं। दीदी भी चुनकर बिहार विधानसभा पहुंची। बिहार विधानसभा की ‘तार केश्वरी सिन्हा।’ लेकिन नेहरू के साथ ही राजनीति का नेहरू युग समाप्त हो चुका था, नेहरू मॉडल का सौंदर्य बोध भी।

उन्हीं दिनों मुख्यमंत्री पर किसी महिला नेता ने बलात्कार के आरोप लगाए । दीदी ने भी अपने प्रति कई-कई निगाहों में आक्रामकता देखी थी। कई अप्रिय घटनाओं और संवादों से रू-ब-रू हुई थीं। युवा नेता से उनकी दोस्ती किस्से और अफवाहों की शक्ल में सत्ता की गलियों में घूमती। नेताओं के फिकरे हवा में तैरतें, 'जो बात जबान हड्डियों में है, उससे कम इन शुद्ध घी वाली बूढ़ी हड्डियों में नहीं है।' दीदी इन सारे संवादों का प्रत्युतर शालीन मुस्कान से देती। और जरूरत पड़ी तो कठोर दर्प से भी। एक मंत्री की लम्पटता की खबर आलाकमान तक पहुंची- मामला दबा दिया गया। उन दिनों किसी भी अप्रिय घटना के बाद संदेह की पहली सूई ‘स्त्री’ पर ही जाती थी और यदि स्त्री सार्वजनिक जीवन में हो, सुंदर हो, रिश्तों के प्रति सहज हो, कई-कई अफवाहों, किस्सों की नायिका हो तब तो लंपट पुरुषों को क्लीन चिट मिलना ही था, उसे प्रलोभन के बाद सामान्य उच्छ्रिन्ख्लता के खाते में डाल दिया जाना आम बात थी। उन दिनों दीदी को लगने लगा था कि क्यों नहीं विदेशों में बसे पति से तलाक लेकर ‘युवा मित्र से संबंधों को रिश्ते में बदल दिया जाए! लेकिन ऐसे विचार कुछ पल ही टिकते, किसी नई सीमा में बंधने की उनकी इच्छा नहीं थी- फिर बेटे का ख्याल भी उन्हें ऐसा करने से रोकता।

नयी सरकार भी जाती रही, पुरानी नए अवतार में बहाल हुई- गरीबी हटाओ के बीस सूत्री कार्यक्रम के साथ। दीदी दुबारा चुनी हुई विधायक के तौर पर किसी राजनीतिक मसले पर मुलाकात के लिए रायसीना हिल्स पर कहीं किसी अतिथि कक्ष में तशरीफ ले गयीं।

अतिथि कक्ष से उन्हें निजी कक्ष में चले आने का आमंत्रण मिला। उन्होंने अपने को खुशकिस्मत माना कि कई मुलाकातियों के बीच न मिलकर ‘विशिष्ट’ ने उन्हें ‘अतिविशिष्ट’ का दर्जा दिया। निजी कक्ष की कुर्सी पर बैठे बुजुर्ग ने उनका स्वागत किया। सुबह का समय और काफी...

पल भर के लिए वह बुजुर्ग या उनकी छाया हिली। पलभर में ही निजी कक्ष का दरवाजा बंद हो गया। सब कुछ पल भर में घटा, दीदी कुर्सी से पलंग पर, बुजुर्ग की हॉफती-कॉपती छाया बगल में बुदबुदा रहा था, ‘क्या यह सब पहले से तय नहीं था?’ ‘तुम्हें बताया नहीं गया था?’ 'मैने सुन रखा था कि तुम उन्मुक्त ख्यालों की आजाद स्त्री हो।'

दीदी उस कॉपती बुदबुदाती छाया को वहीं छोड़कर बाहर आयीं- उन पलों को वे भुला देना चाहती थीं, सर्वोच्च के सम्माने में, अपने से भी छिपा लेना चाहती थीं।

‘बिहार निवास’ जैसे किसी निवास में युवा नेता उनका इंतजार कर रहा था। उन पलों को गहरे रहस्य लोक में डालकर दीदी सहज थीं। दोनों घूमने निकले। घंटो घूमते रहे-शॉपिंग करते रहे। लाल किला में लॉन पर बैठे-बैठे दीदी अचानक से सुबुकने लगीं। उसे कारण समझने में नहीं आया, शायद बेटे की याद, शायद पति की कोई तीखी बात शायद ..... उसके उनके चेहरे को हथलियों में भर लिया। दीदी उसके कंधे पर सिर रखकर फूट-फूट कर रोने लगी। जी हल्का हुआ, लाख पूछने पर भी रहस्य लोक का दरवाजा नहीं खुला।

दीदी एक नए निश्चय पर पहुंच रहीं थीं, राजनीति से अलविदा करने के निश्चय पर कि एक और घटना घटी, वहीं उसी निवास में निजी क्षणों में। दीदी ने नए साथी, युवा मित्र को भी राजनीति के साथ ही छोड़ने का निश्चय लिया। घटना के केंद्र में एक वाक्य था, फुसफुसाहट में निकला वाक्य, जो दीदी के कानों, मन और पूरी चेतना पर गूंज गया। वह ‘चरम क्षणों’ के दौरान फुसफुसाया था.... ‘तुम्हारे स्तन थोड़े और बड़े होने चाहिए थे’ ..........कई वर्ष लगा दिए थे उसने उन्हें ऐसा कहने में। दीदी के कानों में वाक्य गूंजा, उनकी आंखें उसके चेहरे पर जम गयीं- दीदी के विचारों में कौंध गई ‘देह’। ‘स्त्री देह’।

तब से दीदी ने अपना निजी संसार बना लिया और पीछे छूट गयीं अफवाहें...उनके साथ जुड़ी कहानियां..... सभाओं- गोष्ठियों- पार्टियों और ‘रस रंजन’ कार्यक्रमों में बुनी जाने वाली फंतासियां। वे अपनी शर्तों और विचारों के साथ समय के कई-कई टुकड़ों में उपस्थित रहने लगीं। 31 अक्टूबर 1984 के कुछ दिनों पहले से ही सक्रिय राजनीति छोड़ चुकी दीदी दिल्ली के इसी मकान में शिफ्ट हो गयी थीं, जहां डायनिंग टेबल पर उन्होंने अंतिम सांसें ली- महा प्रस्थान को प्रस्थित हुईं। दिल्ली के इसी घर में रहते हुए पेड़ के गिरने के बाद कांपती धरती उन्होंने देखी :

हत्याएं, खून, पड़ोसियों में खौफ, अविश्वास यह सब क्रिया की प्रतिक्रिया वाले खौफ, अविश्वास कत्लेआम से लगभग दो दशक पूर्व की तस्वीर है।

तब से दिल्ली और दिल्ली के बाहर राजनीतिक-अराजनीतिक आंदोलनों ने, साहित्यिक-सांस्कृतिक-गोष्ठियों-आयोजनों ने उनकी सक्रिय उपस्थिति देखी और असहमतियों के बाद उनका वहाँ से रूखसकत होना महसूस किया है। दीदी के नए ‘निजी संसार’ में सौंदर्यबोध, सुरूचिता और विचारों के प्रति साफगोई थी। स्त्री होने का बोध कराती अनेक घटनाओं-दुर्घटनाओं को झेल चुकी दीदी तब भी पुरुषों के बीच ज्यादा सहज और उनकी अच्छी दोस्त थीं। स्त्री-आंदोलनों में पुरुषों की आक्रामकता, यौन-कुंठाओं पर तीखे प्रहार की भूमिकाओं में , पुरुष साथियों के साथ वैचारिक बहसों में और निजी संबंधों में भी वे एक समान सहज थीं।

उन दिनों जब, स्त्री आंदोलनों में शिथिलता आने लगी थी, अकादमिक संभ्रांतता हावी होने लगी थी, दीदी स्त्री आंदोलनकारियों के जाति और वर्ग दंभ देखकर आश्चर्यचकित थीं, भयभीत थीं। दलित स्त्रियों के सवाल पर आंदोलनकारियों के बीच असहजता उत्पन्न होती, आपसी फुसफुसाहटें तेज हो जातीं, जो गांवों की ड्योढ़ियों में बैठी ‘संभ्रांत स्त्रियों’ से कतई भिन्न नहीं होती।

आज मथुरा को खोजता महाराष्ट्र से वापस लौटे निरंजन ने जिन स्त्रीवादी समूहों को बोधि-वृक्ष के प्रतीक को एक ऐसे हाथ में सौंपते देखा था, जो सवर्ण मर्दवादी गर्व से चूर स्त्रियों को गाली दे रहा था, उन स्त्रीवादी समूहों की शिनाख्त दीदी ने तब कर ली थी। अपने महाप्रस्थान के पूर्व के कुछ वर्षों में उन्होंने एकांत स्वप्न संसार बना दिया था। उनके स्वप्न का प्रति संसार उनके अनुभवों, उनकी यात्राओं, उनकी सक्रियता से बना प्रति संसार था। वहीं से प्रेरित होकर वे आजीवन सक्रिय थीं, बिना थके, बिना रूके...

उनके स्वप्न संसार में अपनी कामनाओं, अपनी इच्छाओं को जीती सुंदर स्त्री का साम्राज्य था, जिसका पुरुष सहचर उसकी दैहिक उपस्थिति के प्रति अभिभूत और मानसिक लोक का हमसफर था। वे मुझे रोहित के प्रति प्रेरित करतीं :

‘रोहित तुमसे प्रेम करता है। तुम्हारे मानसिक, बौद्धिक अस्तित्व से प्रेम करता है, वरना तुम जैसी सौंदर्यबोध रहित स्त्री की ओर कोई क्यों देखें?’

मैं उनके इस कटु चुहलबजी या सत्य पर कोई प्रत्युत्तर नहीं देती।

‘तुम दोनों ने अब तक नहीं जाना है कि अभिसार क्या होता है। मैं तुम्हारी जगह होती तो रोहित के प्रति सर्वस्व समर्पित होती- ‘सर्वस्व समर्पण ही तो अभिसार है- वरना दैहिक खेल, या देह-विनिमय..'

‘पता नहीं तुम नई लड़कियों को क्या चाहिए! मैं आज भी अपने भाई के दोस्त, कॉमरेड ,पति, पाठक जी, और ‘युवा-साथी’- सबमें से थोड़ा-थोड़ हासिल कर अपने जीवन को एक पूर्ण पुरुष साथी के साथ समर्पित पाती हूं, तभी मुझे अपने ऊपर किसी बलात्कार, अफवाह या फिकरों का कोई अफसोस नहीं, बदले का भाव नहीं है।’

तो कल रोहित के साथ मुझे अपने घर भेजने के पहले जब वे मेरे साथ मंडी हाउस में काफी पी रही थीं, तभी हमारी टेबल के सामने बैठा एक युवक उन्हें लगातार देख रहा था, 30-35 साल का फोटोग्राफर- मानो उनकी आंखों में उतरकर उनकी फोटोग्राफी करना चाह रहा था। हमने जब दूसरे कम कॉफी का ऑर्डर दिया तो वह हमारी टेबल पर ‘एक रूप’ और कहता हुआ आ धमका।

‘मुझे माफ करेंगी मैं काफी देर से एक बात कहना चाह रहा था आपको।’

दीदी ने मुसकुराकर उसका स्वागत किया।

‘आप बहुत खूबसूरत है।’ क्या मैं आपकी तस्वीर ले सकता हूं।

दीदी फिर मुसकुराई.....

‘आपकी आंखें लाजबाव है... वहां अपूर्व शीतलता है......सही, मैंने वहां पूरी तरह झांककर देखा।’

दीदी उसकी आंखों में उतर गईं, मैं अपने आपको उनके बीच से अनुपस्थित पा रही थी।

‘क्या मैं आपकी बंद आंखों को चूम सकता हूं।’

यह तो धृष्टता की हद थी।

दीदी मुसकुरायी, उनकी आंखों में चमक और आत्मविश्वास तैर रहा था, तो क्या तुम तस्वीरें भी लोगे और मेरी आंखों की शीतलता भी सोखना चाहोगे।’

युवा फोटोग्राफर के चेहरे पर एक लालिमा दौड़ी, दीदी के चेहरे पर लज्जामिश्रित तृप्ति......

और उस रात को महाप्रस्थान के पूर्व उस युवा फोटोग्राफर के साथ मंडी हाउस में काफी देर तक घूमती रहीं वे, इंडिया गेट पर काफी देर बैठी रहीं, गप्पे करती रहीं, प्रेस क्लब जाने का ख्याल ही नहीं आया उन्हें.

और हां, वहां अपने घर पर आने के लिए ऑटो लेने के पूर्व उन्होंने अपनी आंखें बंद की थी, जिस पर फोटोग्राफर का मीठा चुम्बन लेकर वे ,यानी मीनाक्षी, यानी शीताक्षी, ऑटो पर बैठी, फिर डायनिंग टेबल पर और फिर...........।

सम्प्रति

'लोक साहित्य में स्त्री यौनिकता' पर शोधरत

सम्पादक

स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच

कथादेश, साक्षात्कार , समवेद, पाखी सहित कई पत्रिकायों, पत्रों में कहानियां, आलोचनात्मक निबंध और समसामयिक टिप्पणियाँ प्रकाशित ......

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