कहानियां जो कभी खत्म नहीं होतीं
संजीव चन्दन
{ कहानी सत्य घटनाओं पर आधारित है, फिर भी किसी जीवित या मृत व्यक्ति से इस कहानी की समानता एक संयोग भर हो सकती है}
‘वह अभी तक नहीं लौटी है, पिछले चार दिनों से आने का सन्देश भिजवा रही है. सच कहूँ तो मुझे उसे अकेले कहीं भी जाने देने की इच्छा नहीं होती है, दो सालों से साथ रहते हुए भी हम हर दिन उत्सव और हर रात अभिसार की रात की तरह मनाते रहे हैं, वियोग न मैं बर्दाश्त कर पाता हूँ न वह, लेकिन इस बार चार दिनों से वह मेरे बिना गढचिरौली के जंगलों में रह रही है. अब मेघ के संदेश भी मुझे काटने दौड़ते हैं, अगली बार से उसे अकेले जाने नहीं दूँगा . एक महीना हो गया, पहले राजस्थान और अब गढ़चिरौली!,’ तोता चिंता मग्न था .
‘ मैं इस बार जाने ही नहीं देता लेकिन क्या करूं, क्या और क्यों सूझा इन पक्षियों को कि डॉ. आम्बेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस के ५५वे वर्ष में उन्होंने एक बड़ा चिंतन शिविर आयोजित किया था, मुझे ढेड सारे काम सौपे थे. लोग उसे भी कहाँ छोड़ने वाले थे, लेकिन वह अड़ी रही कि उसे एक प्रोजेक्ट करना है, बहुत दिनों से टाल रही थी वह, और इस तरह पहली बार हम दोनों अलग हुए.’
‘वह कहानियां ढूढने के अभियान पर निकली है, एक ऐसे समय में जब आख्यानों के अंत की घोषणा की जा रही है, आख्यानों की तलाश क्या संभव है ! वह कहती है आख्यानों का माई फुट ! मैं आख्यान नहीं कहानियाँ ढूँढने जा रही हूँ, जिन्दा कहानियां. इसके पहले भी हम दोनों एक किसान विधवा के घर पहुंचे थे, दलित किसान विधवा. उन दिनों इस इलाके में बहुत से किसान आत्महत्या कर रहे थे, उन्हें मुआवजा की घोषणा हुई थी, लेकिन मरने वालों में अधिकांश के पास कोई खेती होती नहीं थी, या तो वे खेत मजदूर होते थे या किराए पर खेतिहर, मरने का कारण भी खेती ही होती, उससे जुड़े कर्ज होते थे, लेकिन सरकार उनकी आत्महत्या को ‘मुआवजे की कोटि में डालती ही नहीं थी- बेचारे मरते थे जीवन के बोझ से घबडाकर, महाजनों के खौफ से भयभीत होकर और अपने पीछे परिवार को कुछ मुआवजा की राशि दिलवाने की ख्वाहिश लेकर. मरने पर भी इन लघु मानवों की इच्छाएं पूरी नहीं होती थीं, आत्माएं भटकती रहती थीं. उसे लगा कि इन लघु मानवों की जिंदगी में दर्ज होती हैं जिन्दा कहानियां, इसलिए मुझे लेकर गई थी वह उस विधवा के घर, यवतमाल. आधी रात को पहुंचे थे हम उसके घर, उसके पति को गुजरे कुछ समय हो चुका था, उसके घर मन सन्नाटा, दुःख और अँधेरा पसरा था, उसके नौ बच्चों में से कई उसके साथ सोए थे. वह जाग रही थी, आँखों में नींद नहीं थी, बाद में हम जान पाए उसकी उड़ी नींद का रहस्य –जब दूसरे दिन लोगों की भीड़ उसके घर पर उमड़ी , देश का अघोषित युवराज उसके दरवाजे पर आया था. वह संभवतः अपनी झोपड़ी में राजकुमार की सुरक्षा के स्वागत की चिंता में सो नहीं पा रही थी. ’ उसने मुझसे तत्काल वह जगह छोड़ने का आग्रह किया. बाद में उसने बताया कि अब यह कहानी कहानी नहीं रही –महाख्यान हो चुकी है, इसमें राजकुमार की इंट्री हो चुकी है .’
‘ उसकी बात सच निकली, राजकुमार ने उसकी चर्चा संसद में कर दी और वह पोस्टर वूमन बन गई , उसकी कहानी महाख्यान में तब्दील हो गई , कलावती –द पोस्टर वूमन ,का महाख्यान !.’
जिस वक्त विचारों के साथ चिंतामग्न तोता दीक्षाभूमि के बोधिवृक्ष पर बैठा अपनी प्रिया, मैना, को याद कर रहा था उस वक्त मैना चंद्रपुर देसईगंज थाने के उसी छपरी के झरोखे पर बैठी थी, जहां तब की चौदह वर्ष की मथुरा पीड़ा, वेदना और अपमान से तिल –तिल घुटती पडी रही थी. मैना की आँखों में आंसू थे, यह जानकर कि मथुरा अब नहीं रही थी. मैना की आँखों के आंसू दीक्षाभूमि के बोधिवृक्ष के तोते की आँखों में भी छलके, यह वही बोधिवृक्ष है, जिसे भंदंत आनन्द कौसल्यायन ने आज से ५० वर्ष पूर्व बोधगया के मूल बोधिवृक्ष की एक शाखा के तौर पर लगाया था.
मैना की आँखों के आगे चौदह वर्ष की एक बेवश आदिवासी लड़की, की तस्वीर कौंधी. तब मैना पैदा भी नहीं हुई थी, १९७२ में जब यह घटना घटी थी, मैना की नानी भी तब बहुत छोटी होगी. चौदह साल की मथुरा, खैरलांजी से १८ साल की प्रियंका, राजस्थान की लोक-गायिका भंवरी देवी, न जाने कौन –कौन सी तस्वीरें मैना की आँखों के सामने थी, सारे चेहरों से एक वृत्त बनता था, आदिवासी लड़की मथुरा, दलित लड़की प्रियंका, घुमंतू जाति , नट, की लड़की भवँरी, सारे मासूम चेहरों के वृत्त में चंद्रपुर की सड़कों पर पत्थर तोडती मथुरा की तस्वीर, १४-१५ साल की लड़की की आँखों की चमक मैना को कौंध गई.
कहानी जो अनकही रही, वह मैना के आगे रील की तरह थी........
...... बचपन तो कब का चला गया था उसका, अपने भाई गामा के साथ जब वह पहली बार काम करने निकली थी, जब मजदूरों के ठेकेदार ने, जो गाँव का दबंग कुनबी था, ने अकेले में उसका फायदा उठाना चाहा था, उसके भी पहले १२ साल की मथुरा को गांव के बुड्ढे दुकानदार के अश्लील इशारों ने उसे समझा दिया था कि वह लड़की है, वह गांव की उन लड़कियों में से नहीं है, जो स्कूल जाती हैं, वह सबके लिए सुलभ समझी जाने वाली लड़की है, आदिवासी मजदूर लड़की . माँ, तो कबकी गुजर गई थी, उस उम्र में जब वह अपनी बेटी को यह नहीं बता सकी थी कि कौन सी निगाहें क्या कहती हैं, लेकिन लड़की की छठी इन्द्रिय ने उसे उन निगाहों की पहचान दे दी थी, उन्हीं निगाहों ने उसे स्पष्ट कर दिया था कि १२ साल की उम्र में ही वह बच्ची नहीं रह गई थी!
.........गन्दी निगाहों, अश्लील इशारों, छेडछाड करती भीड़ में एक चेहरा जरूर था, जिसकी आँखों में मथुरा के लिए प्यार और सम्मान दिखा. वे आँखे थीं उससे उम्र में थोडा बड़ा अशोक की, अशोक, यानी उसके पडोसी नुन्सी के घर आने वाला लड़का, नुन्सी उसकी मौसी थी. अशोक न जाने कब मथुरा के सपनों का राजकुमार में तब्दील हो गया, इस धीमी आहट ने किशोर होती मथुरा के भीतर अनजाने अहसास से भर दिया- पानी देती मथुरा के ग्लास की जगह यदि अशोक उसकी उंगलियां छू लेता तो उसके पोर –पोर से वह अहसास उसके किशोर ह्रदय पर दस्तक देते. !!
और एक दिन दोनों ने देसाई गंज से दूर ताडोबा के जंगल जाने का निश्चय किया, ताडोबा का अभ्यारण्य. कितना मीठा अहसास था वह, मथुरा, जिसे चाहने लगी थी, जो मथुरा को चाहने लगा था, पहली बार अकेले, घर से दूर, ताडोबा के अभ्यारण्य में विचर रहे थे, यहाँ कोई डर नहीं था, कोई निगाह नहीं, यहाँ शेर थे, बाघ थे, लेकिन उनकी निगाहों में भेडीया नहीं था. मथुरा जितना चाहे अशोक को छू सकती थी, अशोक जितना चाहे मथुरा को दुलार सकता था, अपने अंको में ले सकता था, अशोक की बाहों में कैद मथुरा की आँखों की चमक, उस वृत्त से मैना को क्या मथुरा की आँखों की वही चमक दिखी थी!
..........भाई, गामा - प्यार तो करता ही था वह अपनी बहन को, माँ और पिता की मृत्यु के बाद मथुरा उसकी जिम्मेवारी भी थी .इन दिनों वह अपनी बहन के व्यवहार में परिवर्तन महसूस कर रहा था, मथुरा में अलग से आत्मविश्वास देख रहा था वह. इस आत्मविश्वास का रहस्य उससे छिपा नहीं रहा, मथुरा की जिंदगी में अशोक के प्रवेश से वह डर गया-उसकी बहन उससे छिनने वाली थी, अपनी बहन, जो उसे दिलोजान से चाहती थी, की जिंदगी में वह किसी का प्रवेश बर्दाश्त नहीं कर सकता था. प्यार और इर्ष्या का वह भाव प्रवल हो इसके पहले, गामा के भीतर का भाई, माता-पिता के न रहने पर घर के मुखिया का भाव ,जागा. उसे लगा कि अशोक बिना उसकी इजाजत के उसकी बहन की जिंदगी में आकर, उसके परिवार की इज्जत पर डाका डाल रहा है.
‘इज्जत’ का यह रोग गांव के सवर्णों और कुनवियों के घर से चलकर आदिवासी घरों में भी आ धमाका था. हालांकि तब डॉ. धर्मवीर आई.ए.एस नहीं हुए थे, लेखक नहीं हुए थे, दलित- आदिवासी महिलाओं को ‘ जारज कर्म’ के लिए चेता भी नहीं रहे थे, तभी गामा के भीतर का धर्मवीर उसके भीतर से जागा, जो द्विजों, मराठों, कुंनवियों के घरों के रास्ते से आया था. उसने मथुरा को धमकाया, परिवार की इज्जत का वास्ता दिया, लेकिन मथुरा कहाँ मानने वाली थी, ‘इश्क वो आतीश है ग़ालिब, जो लगाये न लगे, बुझाये न बुझे’.
उस दिन जब शाम घिर आने तक मथुरा नहीं लौटी, तब गामा चिंतित हुआ, और देर होने पर क्रोधित होने लगा. उसने देसाई गंज थाने में नुन्सी, उसके पति और अशोक के खिलाफ मथुरा के अपहरण का केस दर्ज कराया...............
कहानी का रील तेजी से घूम रहा है, मैना के आगे सारे दृश्य तेजी से आने लगे:
.......थाने में नुन्सी, उसका पति लक्ष्मण , अशोक और मथुरा लाइ गई है.!
........हेड कांस्टेबल तुकाराम, गनपत की ललचाई आँखे...... मथुरा अपने –आप में सिकुडती जा रही है. गनपत ने गामा को दौडाया, ‘ जा बहन की उम्र के कागजात ले आ, फिर बताता हूँ कि क्या होता है नाबालिग लड़की के अपहरण के बाद , सालों की गांड में डंडा डालता हूँ. मथुरा और नुन्सी- दोनों ने अपने कान बंद कर लिए हैं.......
........गामा दौड़ा, कांस्टेबलों ने नुन्सी, लक्ष्मण और अशोक के बयांन दर्ज करने शुरू किये. ‘ काय गुरु, दोघान्नी मिडून खूप आनंद लुटला ( क्या गुरु दोनों ने मिलकर खूब मजे लिए ),’ मक्कार गनपत संबोधित अशोक और लक्ष्मण को कर रहा है और लार मथुरा पर टपका रहा है........ मथुरा की आँखों में शर्म, मथुरा की आँखों में आक्रोश .....!!!
......नुन्सी, लक्ष्मण और अशोक बाहर खड़े हैं, मथुरा की आँखों में भय तैर रहा है, मक्कार गनपत उसे ‘चेक करने के लिए शौचालय ले जा रहा है, मथुरा जाना नहीं चाहती.
.......गनपत का झन्नाटेदार तमाचा, मथुरा की आँखों में भयभीत हिरणी तड़प रही है, गनपत शर्म कर, मथुरा ने आँखे बंद कर ली है, ‘ हे राम !’ मथुरा द्रौपदी नहीं है, राजरानी नहीं है, कोई राम नहीं, कोई कृष्ण नहीं, गनपत यानी दुह्शासन, गनपत यानी धृतराष्ट्र, गनपत यानी कृष्ण..... शर्म कर गनपत उसके गुप्तांगों में टोर्च से क्या मिलेगा, तुझे दुशासन......!!!
मैना भयभीत है, इसी छपरी के नीचे मथुरा लाइ गई है, गनपत... हैवान !मथुरा तड़प रही है, पीड़ा और अपमान से जल रही है..... तुकाराम, तू भी, कृष्ण तू भी.....” हे जी कृष्ण राखो शरण अब तो जीवन हारे.’
बाहर नुन्सी, लक्ष्मण और अशोक को कुछ भी पता नहीं कि मथुरा, १४ साल की किशोरी , मथुरा १४ साल की अवयस्क, कैसे तड़प रही है अंदर. वे मान कर चल रहे हैं कि साहब लोग पूछ-ताछ कर रहे हैं. मथुरा जवाब दे रही है-- मथुरा तो मर रही है, तुकाराम हांफ रहा है, थूक रहा है, ‘ साली खेली खाई हुई है- मथुरा के कान बहरे हो रहे हैं....
मैना अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती.... फुर्र ........ लेकिन जायेगी कहाँ, चंद्रपुर के न्याय मंदिर की मुंडेर.
न्याय मंदिर यानी धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, भीष्म, कृष्ण का साम्राज्य, न्याय मंदिर की दीवारों पर कालिख सी पुती है, उसपर लिखा है कि मथुरा झूठी है, ‘मथुरा खेली खाई हुई है.’ मथुरा एक बार नहीं मरती, बार बार मरती है, चंद्रपुर के न्याय मंदिर से लेकर नागपुर के न्यायालय और दिल्ली के सर्वोच्च न्यायालय की कंगूरों पर मथुरा बार-बार लटकाई जाती है.
इसके बाद, इसके बाद मथुरा की कहानी में महाख्यान के हिस्से हैं, मथुरा के अकेलेपन पर रचा गया माहाख्यान. मैना को तोते की याद आ रही है, अब उसे लौटना चाहिए. पिछले कई दिनों से मथुरा की जिंदगी के तार जोड़ती मैना थक चुकी थी!
मैना –तोता संवाद
‘ तुम्हें पता भी है कि मैं कितना घबडा गया था, नहीं रह सकता तुम्हारे बिना इतने लंबे समय तक.’ तोता ने मैना से शिकायत की.
मैना उदास थी.
‘ क्या हुआ ,कहाँ है मथुरा! मुझे भी बताओ न, उदास क्यों हो,’ तोता मनुहार पर आ गया.
‘ मथुरा संघर्ष करती रही, लड़ती रही, लेकिन न्याय मदिरों ने उसके स्वाभिमान को बार –बार कुचला, न्यायालयों के आदेश पढोगे तो किसी कोक शास्त्र से कम नहीं हैं वे. पता है न्यायालयों की निर्लज्जता के बाद मथुरा का क्या हुआ ,’ मैना ने तोते से पूछा.
‘मथुरा एक प्रतीक बन गई, मुंबई और दिल्ली की महिला अधिवक्ताओं ने मथुरा की लड़ाई को हम सारी औरतों की लड़ाई बना दी . देश भर में धरना प्रदर्शन हुआ. मथुरा की फ़ाइल दुबारा खुली. देश भर से महिलाओं का दवाब खड़ा हुआ, मथुरा ने देश की महिलाओं को अपनी कुर्बानी देकर सौगात दिया- ‘ हिरासत में बलात्कार संगीन अपराध बना दिया गया और बलात्कारी के ऊपर जिम्मेवारी दी गई कि वह सिद्ध करे की उसने बलात्कार नहीं किया. अब किसी दूसरी महिला के ऊपर कोकशास्त्र लिखने के अवसरों में कमी आएगी, न्याय मंदिरों में बैठे धृतराष्ट्रों के लिए.’ मैना अभी भी अतीत में आवाजाही कर रही थी.
‘ लेकिन मथुरा का क्या हुआ,’ तोता जानने के लिए अधीर था.
‘मथुरा माहाख्यान के घटित होने के बीच अपनी कहानी जी रही थी, महिला आंदोलन की महिलाएं अनेक संस्थाओं पर काबिज होती गईं, पुरुषवादी तिकडमों में शामिल होती गईं, उन्होंने सीख लिया कि कैसे फंड जुटाना है, कि कैसे टी. ए.-डी.ए. जुटाना है, इधर मथुरा फिर से मजदूरी पर लौट आई. आज चंद्रपुर और गढचिरौली में उसके बारे में बताने वाला कोई जिन्दा आदमी नहीं है, मैने उसके बारे में देसाइगंज थाने की ईटों से जाना, देसाइगंज से गढचिरौली और चंद्रपुर जाती सड़कों पर ढूँढा, जहां वह पत्थर तोडती थी. भाई तो पहले से ही विरोधी था, अब वह सार्वजनिक ‘अपवित्र बहन’ से कैसे रिश्ता रखता!’
‘ थाने वाली घटना के बाद मथुरा जब अपने दुस्वप्नों से बाहर आकर काम पर लौटी, तब हर आने-जाने वालों की निगाहें उसे तार-तार कर देतीं. उसकी जाति की महिलाओं को तहसील के दबंग लोग पहले से ही अपनी काम-पिपाशा के लिए सुलभ मानते थे, अब मथुरा पर उनकी निगाहें भेड़ियों सी खूंख्वार होतीं थी. उन दिनों अशोक, नुन्सी का साथ उसे मिला ,’
‘ इसी बीच विस्फोट हुआ, महिला आंदोलन का विस्फोट, जब मथुरा मथुरा नहीं रही एक प्रतीक बन गई, जिसने स्त्री –अस्मिता का प्रतीक . उसकी लड़ाई तो जीत ली गई, लेकिन वह उसी शोर-शराबे के बीच अकेली होती गई. अशोक और नुन्सी का साथ भी नहीं रहा . यूं तो बहुत दिनों तक सुर्ख़ियों में रहने से मथुरा की ओर लोगों को देखने की हिम्मत नहीं थी, लेकिन जैसे ही समय गुजरा मथुरा अकेली थी- हिंसक, कामुक, जातिवादी पुरुषों के बीच, स्त्रियाँ भी कहाँ थीं उसके साथ – चंद्रपुर और देसाइगंज में मजदूरी करती मथुरा का कोई इतिहास नहीं बन पाया,’ मैं ढूँढती रही उसे ईटों, पत्थरो और कंक्रीट के स्रोतों में, इस अनुमान से कि मथुरा ने मजदूरी की होगी, उनके इर्द -गिर्द !’ मैना भावुक थी .
‘ महिला आंदोलन की बहादुर महिलाएं जुटीं थीं वर्धा में, चंद्रपुर से १५० किलोमीटर दूर, किसी ने मथुरा को याद नहीं किया, उल्टा उन्हीं दिनों महिलाओं को गाली देने वाले धृष्ट पुलिस वाले को जेंडर समानता के प्रतीक के लिए ‘बोधि वृक्ष’ थमा दिया. आयोजक नेत्री महिला-अध्ययन संस्था की अध्यक्षा बना दी गई,’ मैना आक्रोशित थी.
तोता मैना की आँखों को सोख लेना चाह रहा था कि मैना ने उसे ऐसा करने से रोका.
‘ तो क्या तुम समाझ रहे हो कि मथुरा का बलिदान व्यर्थ गया. नहीं आख्यानों में जिस प्रकार एक निरंतरता बनती जाती है वैसा ही नैरंतर्य होता है मथुरा जैसी नायिकाओं की कहानियों में. इन कहानियों के टुकड़े कई जगह विखरे होते हैं, उन्हें सहेजना पड़ता है .’ मैना ने जैसे ही तोते को संबोधित किया उसके समर्थन में बोधिवृक्ष की एक शाखा बोली, ‘एक कहानी थी मेरे पूर्वज बोधिवृक्ष के इलाके में, ‘भगवतिया देवी की कहानी. मथुरा धीरे –धीरे लुप्त हो गई, भगवतिया, मुसहर भगवतिया, मथुरा की तरह पत्थर तोडने वाली भगवतिया संसद की एक सीट तक काबीज हो गई .’
‘ तो तुमने राजस्थान में क्या देखा,’ तोते ने मैना से पूछा . तोता अभी सिर्फ मैना को सुनना चाह रहा था, उसने वृक्ष की शाखा को नजरअंदाज कर दिया.
‘ अकेली और बहादुर लड़की, नट जाति की, आधी आदिवासी, सरकारी भाषा में ,नान ट्राइब- भवरी, नर्स भवरी देवी! अपनी आँखों में किशोर सपने संजोने शुरू किये थे उसने, नर्स की नौकरी भी उसके घर के लिए आई.ए.एस की नौकरी से कम न थी- घंटों निहारती रहती खुद को युनिफोर्म में, माँ बिना काजल उसे ड्यूटी पर जाने नहीं देती –कहीं किसी अपशकुन की नजर न लग जाये . माँ को कहाँ पाता था, कि सपने देखती लड़की को अपशकुनी नजरें लग चुकी थी.’ मैना अब राजस्थान की यादों में खोई थी.
‘ एक समारोह में आया था वह नेता, जहां लोक गीत गाती खूबसूरत भवरी उसकी गिद्ध नज़रों में आ गई. इस जाति की लडकियों को देखकर वैसे भी लार टपक जाया करती है, दबंग जातियों के मर्दों की. भवरी को बात –बात में टटोला था उसने. फिर मेरी दिलचस्पी इस बात में नहीं थी कि वह स्वयं गई उस दिन गेस्ट हॉउस या ले जाई गई, किडनैप की गई , हा जो कुछ भी हुआ उस दिन वह बलात्कार जरूर था. ‘
‘भवरी ने अपनी आरोपित कमजोरी को ही ताकत बना लिया. फिर तो बड़े –बड़े नेता उसके कदमों में लोटने लगे. भवरी भी अपनी जिंदगी के सपनों तार सहेजने शुरू कर दिये. परिवार की सुरक्षा, बच्चियों का भविष्य, अपने लिए लोक –गायिका का ख़िताब ! सबकुछ. धीरे –धीरे प्रौढ़ होती भवरी जिन पगडंडियों पर खुद चली थी, उनपर अपनी किशोर होती बेटियों को भेजना नहीं चाहती थी.’
‘ बेटियों के खुद्दार भविष्य का हिस्सा उसने मक्कार नेताओं के पहलू से छीन लाने को सोचा. हालाकि यह उतना आसान कभी नहीं था, वह बेटियों का उज्जवल भविष्य सुनिश्चित करने के पहले ही मार दी गई. इस कहानी में शेष, सत्ता, शक्ति और सेक्स से गुथा माहाख्यान है, जयपुर की ताजपोशी के लिए रचा गया महाख्यान!’ मैना की बातें तोता समझ नही पा रहा था,’
‘ कैसे सोचने लगी है मैना, देह के इस्तेमाल के रास्ते मुक्ति का कौन सा मंत्रजाप है यह ! तोता सर खुजलाने लगा .
‘ ये दबंग जातियों की महिलाएं भी विचित्र होती हैं,’ बोधिवृक्ष ने कहा. ‘ पता है मंत्री के पक्ष में उसकी बेटी खुलकर आई है. अपने को किसान पुत्री कहती है. बाप के करतूतों की सी.डी देखने के बाद भी कोई बेटी पीड़ित महिला के साथ न जाकर बाप की वकालत कर रही है, ‘ उसने जोड़ा.
मैना मुस्कराई भर.
बोधि वृक्ष के नीचे बैठी सभा
मैना और तोता का संवाद बोधिवृक्ष पर रह रही योगिनी ने सुना तो बोली कल रात हम एक सभा करते हैं. तुम दोनों भी आना. हमारी कहानियाँ नैरंतर्य में बनती हैं, कल कुछ पात्रों को मैं बुलाती हूँ, यहाँ, देर रात होगी सभा. योगिनी की यह तीसरी पीढ़ी थी इस समय उस वृक्ष पर. चुकी वृक्ष की शाखा बोध गया से लाइ गई थी, इसलिए इस योगिनी का परिवार यहाँ आ गया था, गया और आस –पास के इलाकों से तंत्र पद्धति के अवशेष आज भी शेष हैं.
मथुरा, भवरी, भगवतिया देवी , प्रियंका और उसकी माँ खैरलांजी से, योगिनी, तोता –मैना, गुजरात की पीड़ित महिलाओं ( उन्हें विशेष तौर पर बुलाया गया था) और अन्य श्रोताओं की सभा बैठी खुले असमान में. इशरत जहां नहीं आ पाई थी, उसकी आत्मा अपने केस की हलचलों पर नजर रखने के लिए गुजरात में ही रुक गई थी .
शमां मथिली शरण गुप्त के शब्दों में कुछ इस प्रकार बयान हो सकती है : ‘स्वच्छ चांदनी बिछी हुई थी अवनी और अंबर तल में’, भगवतिया देवी की अध्यक्षता में सभा शुरू हुई.
योगिनी ने सवाल किया , ‘ यहाँ उपस्थित आत्माएं कृपया बताएं कि उनकी कहानी जहां खत्म हुई थी, उसके बाद क्या हुआ? उसने मैना के प्रयासों की भूरी-भूरी प्रशंसा की, उसे नई पीढ़ी का महान शोधकर्ता बताया.
मथुरा ने बोलना शुरू किया तो सबकी निगाहें उसकी ओर उठीं, ‘ मैं जब से प्रतीक बन गई, मेरा संघर्ष और अधिक बढ़ गया, मैं अकेली होती गई, मेरी पीड़ा, मेरे आसुओं का सार्वजनिकीकरण नहीं हो सकता था. जो लोग मुझे प्रतीक बनाकर इतिहास की रचना में उतरे, उनके लिए मेरी जाति, मेरी आर्थिक हैसियत कोई मायने नहीं रखती थी. यह सब मेरी पीड़ा का ही हिस्सा थे . इतिहास की रचना के साथ संगठन और संस्थाएं अपने अगले एजेंडे पर निकल गईं.’
‘ इधर हमारे मर्द, पुरुष, जो उन दिनों अपनी जातीय पहचान के साथ अपने हक मांग रहे थे, आक्रामक थे –‘पैंथर’ की तरह सक्रिय थे , उनके सामने हम औरत थीं, गरीब औरत, जिसकी यौनिकता से उन्हें डर लगता था. उनके घरों को चलने के लिए हम जो सडकों पर आती थीं, श्रमदान करती थीं, सवर्णों , दबंगों के कामुकता का शिकार बनती थीं, वह हमारा हिस्सा था, और वे यदि इसपर विचलित भी थे तो हमारे अस्तित्व के लिए कम, अपने हरम में हमें कैद करने के लिए ज्यादा. हरम में शर्ते उनकी होतीं. हमारी कहानी खत्म थी, पैदा होने के साथ ही! मैं अपनी कहानी का विस्तार उन अपने घरों, अपने जाति की उन लड़कियों में देखती जो या तो मिशनरी के स्कूलों या बनवासी स्कूलों में जाती थीं, या सरकार द्वारा संचालित आश्रमशालाओं में.’
प्रियंका की रुआंसी आवाज ने सबका ध्यान खींचा, ‘ दीदी, कहाँ ले पाई आपकी कहानी विस्तार उन लड़कियों में भी. मैं भी आपकी नियति को ही भेज दी गई . बलात्कार का वह वीभत्स मंजर मैंने देखा, सहा और जला दी गई, पूरे परिवार के साथ,’ प्रियंका काँप रही थी . भवरी ने आगे आकार उसे कलेजे से लगा लिया .
‘ मैं पढ़ाई कर रही थी, अपना किस्मत लिखना चाह रही थी, यह गाँव के दबंगों, मुझसे खुद को ऊँचा मानने वाली जातियों के पुरुषों के साथ –साथ हमारे लोगों को भी नहीं रूच रहा था. हम से बदला लेने का वही आदिम तरीका अपनाया गया, दीदी इसके पहले कि मैं आपकी कहानी का विस्तार बनती मेरे सपने नष्ट कर दिये गये, मेरी यात्रा को वीभत्स विराम दे दिया गया.,’ भावुक प्रियंका के गालों को चूम कर मैना ने अपनी दोस्ती का उसे भरोसा दिया.
‘ और तब जब मुझे न्याय देने के लिए हमारी जाति के लोग सड़कों पर उतरे, मेरी पीड़ा जातीय पीड़ा का प्रतीक बन गई. मैं एक औरत नहीं रही दलित जाति की इज्जत की प्रतीक बन गई. मेरे सामने आज भी सवाल है कि जो महिलाएं, मथुरा दीदी, आपके लिए सड़कों पर उतरी थीं, वे मेरे मामले में गायब क्यों रहीं, वे विश्वविद्यालयों, संगठनों या पुस्तकालयों से बाहर क्यों नहीं आयीं, मेरी लड़ाई के लिए उतरे समूह के चेहरे मेरे अपनों के ही चेहरे क्यों थे, मेरी जाति और जाति-समूह के चहरे !’ प्रियंका के सवाल पर पूरी सभा ने एक दूसरे को देखा और फिर उनकी निगाहें एक नई आवाज की तरफ मुड गई.
वह भवरी बोल रही थी, ‘जिन महिलायों को तुम अपने लिए खोज रही थी प्रियंका वे सिर्फ पुस्तकालयों, विश्वविद्यालयों में ही कैद नहीं थी, क्या गुजरात की सड़कों पर उतरी महिलायों, अपने पतियों को निस्सहाय औरतों पर मर्दानगी सिद्ध करने के लिए जोश बढाती औरतों, की रगों में भी वही विशुद्ध रक्त नहीं दौड़ता है! प्रियंका के घर पर झंडा गाड़ने जाते मर्दों के लिए मंगलगान क्या उन औरतों ने नही गाये थे, और लौट कर आने के बाद विजय आरती नहीं की थी ?’ भवरी का चेहरा काँप रहा था.
‘ प्रियंका इस भ्रम से भी बाहर आ जाओ कि तुम्हारे दिखने वाले पुरुष चेहरे तुम्हारे अपने थे. वे तुम्हारे लिए नहीं, अपनी इज्जत का प्रतीक खड़ा करने आये थे . भवरी सख्त थी, ‘ हमें अपनी कहानी खुद लिखनी पड़ती है. कोशिश असफल हो सकती है , जैसे मेरी. मैंने उन दबंग पुरुषों, कामुक नेताओं की कामुकता को आइना ही तो दिखाना शुरू किया था. ठीक है कि मैं मार दी गई, धोखे में आ गई. जिन दिनों मैं पहली बार अपने स्त्री होने, दलित-आदिवासी स्त्री होने की औकात में सिमटा दी गई, जिन दिनों मेरे सपनों के पर क़तर दिये गये, उन्हीं दिनों मैंने तय किया था कि मैं अपनी कमजोरी को ही ताकत बनाऊँगी,’ भवरी का चेहरा दर्प से चमक रहा था.
‘ वो देखो कोई सिरफिरा चिल्ला रहा है, हमारे ऊपर ‘जारज कर्म’ की तोहमत लगा रहा है, हमें अपनी कहानी को इनके कैद से भी निकालना होगा,’ योगिनी ने घोषणा की.
मैना बेचैन टहलने लगी
लोगों ने पूछा, ‘ क्या हुआ इतनी बेचैन क्यों हो?’
‘ अभी –अभी मेघ के एक टुकड़े ने मुझे इशारा किया है कि भवरी के दरिंदे की बेटी उसके बचाव में खड़ी हुई है. अपने पिता को किसान बता रही है, अश्लील सी.डी देखने के बाद भी अपने पिता को फंसाया गया बता रही है. लेकिन मुझे लगता है कि ऐसी औरतों को, जो हमारे विरोध में खड़ी हैं, या कुछ, जो हमारे साथ होने या न होने की सुविधाओं से तय होती हैं, एक ही खांचे में नहीं देखनी चाहिए.’ मैना ने कहा
गुजरात से आई आत्माएं इसपर विरोध जताने लगीं. कई कोनों से आवाज लगती वे आत्माएं चिल्ला रही थीं, कि खांचे एक ही हैं, चहरे अलग –अलग .
मथुरा ने विरोध जताया , ‘ मेरे लिए सड़कों पर आई और अपने दडबों में लौट गई औरतों , प्रियंका की वीभत्स हत्या और बलात्कार के मुद्दे पर दडबों में ही छिपी औरतों, गुजरात की हैवानियत की प्रेरक औरतों और तथाकथित किसान पिता के साथ खाड़ी बेटी को एक खांचे में नहीं रखा जा सकता, मैना ठीक कहती है.’
‘ मेरे चरित्र पर छाती कुटती औरतों और मुझ पर अपने पिता के बेशर्म बचाव में आई दिव्या में क्या फर्क हो सकता है सखी मैना .’
योगिनी ने इस बहस का बीच बचाव किया, आसमांन की ओर देखकर उसने कहा कि अभी रात के दो बजे हैं, दिव्या सो रही होगी, मैं सोती दिव्या की चेतना को अपनी माया से यहाँ बुला सकती हूँ, उसी से पूछ लेते हैं सबकुछ.
जिस वक्त योगिनी ने दिव्या को सोते से वहाँ बोधि वृक्ष के नीचे बुलाया, उस वक्त गहरी नींद में सोयी विद्या सपना देख रही थी. अपने पिता के लिए अपनी आँखों में घोर उपेक्षा लिए दिव्या आज पहली बार उसके सामने अपने दलित प्रेमी का हाथ थामे खड़ी थी. पिता उसकी ओर गुस्से से बढ़ा, दिव्या ने अचानक से लड़के के होठों पर होठ रख दिये. पिता चिल्लाया अश्लील. दिव्या चीखी, ‘ तुम्हारी सी.डी से कम.’
जब वह तुम्हारी सी.डी से कम’ कह कर चीख रही थी तब तक उसकी चेतना बोधि वृक्ष की सभा में योगिनी की माया से खींच लाइ गई थी इसलिए वह चीख सभा में उपस्थित सबने सुना
दिव्या को भवरी ने हिकारत से देखा, दिव्या ने भवरी के पाँव श्रद्धा पूर्वक छुए. भवरी ने आश्चर्य से उसे देखा.
मैना ने सभा के आरोप दिव्या को सुनाया . दिव्या ने भवरी को देखा और संक्षिप्त उत्तर दिया , ‘ भवरी जी, आप का रास्ता भी वहीँ जाता था, जहां मैं जाना चाहती हूँ. आपने उस आतताई को उसके कामुकता और हैवानियत के जिस फांस में फंसाया था, उसे आइना दिखाया था, उस फांस के सहारे मैं अपनी मंजिल देख रही हूँ. मैं उसकी राजनीतिक विरासत भी उससे चीन लेना चाहती हूँ, जो उसके बाद वैसे ही किसी लम्पट के पास जानी थी .मैं प्रतीक होना नहीं चाहती लेकिन एक वर्ग की प्रतीक भी हूँ.’
दिव्या की चेतना को वापस भी जाना था, योगिनी उसे थोड़ी देर के लिए लेकर आई थी, इसके लौटने के पहले यदि अपने घर पर सोई दिव्या जाग जाती तो उसकी मृत्यु हो सकती थी.
सबकी निगाहें अध्यक्ष भगवतिया देवी की ओर थी. भगवतिया देवी, मुसहर जाति की सांसद, वह जाति जिसे नीतिश कुमार ने महादलित के खांचे में डाला, जाति जो अपनी सामजिक –सांस्कृतिक संरचना में दलित और आदिवासी दोनों समूहों के करीब बैठती है.
‘ हमारी कहानियाँ टुकड़ों में खत्म नहीं होतीं, हो भी नहीं सकतीं, होनी भी नहीं चाहिए. हमारी कहानियाँ गल्पात्मक महाख्यान नहीं होतीं है- जय –पराजय के दो छोर में बंधी, या पाप-पुण्य के गुटों में बंटी. टुकड़ों में हमारी कहानियां नैरंतर्य में चलती रहती हैं, चलती रहेंगी . सवाल है कि इन कहानियों में हम क्या और कैसे दर्ज हो रही हैं, हमें कोई और दर्ज कर रहा है, मथुरा की तरह, मेरी तरह या भवरी की तरह या खुद दर्ज हो रही हैं . लगभग समानांतर माहाख्यान की रचना तक टुकड़ों की कहानी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती रहेगी. ‘
कभी-कभी हम माहाख्यान में तब्दील होती दिख सकती हैं, जैसे उत्तर प्रदेश में मायावती का आख्यान , लेकिन वह समग्रता की रचना नहीं हैं. हमारी कहानियों का सफर जारी है –अच्छी या बुरी –इसे कोई धर्मज्ञाता धर्मवीर विभूतियों के आईने से तय नहीं होना है.’ भगवतिया देवी के अध्यक्षीय वक्तव्य के बाद सभा विसर्जित हुई. दिव्या उसी वक्त अपने शयनकक्ष में लौट गई और तोता –मैना कुछ दिनों के विश्राम के बाद कहानियों की तलाश में अगली यात्रा पर साथ-साथ निकल गये.
संजीव चन्दन
जन्म कार्तिक पूर्णिमा, १९७७ को जहानाबाद जिले के एक गांव में
कथादेश, साक्षात्कार, समवेद , पाखी सहित कई पत्रिकाओं, पत्रों में कहानियां प्रकाशित. समसामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में लेखन, आलोचनातमक आलेख नया ज्ञानोदय सहित कई पत्रिकाओं में प्रकशित
सम्प्रति स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच’ स्त्रीवादी पत्रिका के संपादक