परीक्षा-गुरु
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प्रकरण- ३
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संगतिका फल
लाला श्रीनिवास दास
सहबासी बस होत नृप गुण कुल रीति विहाय
नृप युवती अरु तरुलता मिलत प्राय संग पा य[5]
हितोपदेशे
लाला मदनमोहन भोजन करके आए उस्समय सब मुसाहब कमरे में मौजूद थे. मदनमोहन कुर्सी पर बैठ कर पान खानें लगे और इन् लोगों नें अपनी, अपनी बात छेड़ी.
हरगोविंद (पन्सारी के लड़के) नें अपनी बगल सै लखनऊ की बनी टोपियें निकाल कर कहा "हजूर ये टोपियें अभी लखनऊसै एक बजाज के यहां आई हैं सोगात मैं भेजनें के लिये अच्छी हैं. पसंद हों तो दो, चार ले आऊं ?"
"कीमत क्या है ?"
"वह तो पच्चीस, पच्चीस रुपे कहता है परन्तु मैं वाजबी ठैरा लूंगा"
"बीस, बीस रुपे मैं आवें तो ये चार टोपियें ले आना."
"अच्छा ! मैं जाता हूँ अपनें बस पड़ते तोड़ जोड़ मैं कसर नहीं रक्खूंगा" यह कह कर हरगोविंद वहां सै चल दिया.
"हुजूर ! यह हिना का अतर अजमेर सै एक गंधी लाया है वह कहता है कि मैं हुजूर की तारीफ सुनकर तरह, तरह का निहायत उम्दा अतर अजमेर सै लाता था परन्तु रस्ते मैं चोरी होगई सब माल अस्बाब जाता रहा सिर्फ यह शीशी बची है वह आपकी नजर करता हूँ" यह कह कर अहमद हुसेन हकीमनें वह शीशी लाला साहब के आगे रखदी.
"जो लाला साहब को मंजूर करनें मैं कुछ चारा बिचार हो तो हमारी नज़र करो हम इस्को मंजूर करके उस्की इच्छा पूरी करेंगे" पंडित पुरुषोत्तमदास नें बड़ीवजेदारी सै कहा.
"आपकी नज़र तो सिवाय करेले के और कुछ नहीं हो सक्ता मरज़ी हो; मंगवांय ?" हकीमजीनें जवाब दिया.
"करेले तुम खाओ, तुम्हारे घरके खांय हमको मुंह कड़वा करनें की क्या ज़रूरत है ? हम तो लाला साहब के कारण नित्य लड्डू उड़ाते हैं और चैन करते हैं" पंडित जी नें कहा.
"लड्डू ही लड्डूओं की बातें करनी आती हैं या कुछ और भी सीखे हो ?" मास्टर शिंभूदयाल नें छेड़ की.
"तुम सरीखे छोकरे मदरसे मैं दो एक किताबें पढ़ कर अपनें को अरस्तातालीस (Aristotle) समझनें लगते हैं परन्तु हमारी विद्या ऐसी नहीं है. तुम को परीक्षा करनी होतो लो इस कागज पर अपनें मन की बात लिखकर अपनें पास रहनें दो जो तुमनें लिखा होगा हम अपनी विद्या सै बता देंगे" यह कह कर पंडितजी नें अपनें अंगोछे मैं सै कागज पेनसिल और पुष्टीपत्र निकाल दिया.
मास्टर शिंभूदयालनें उस कागज पर कुछ लिखकर अपनें पास रख लिया और पंडितजी अपना पुष्टीपत्र लेकर थोड़ी देर कुंडली खेंचते रहे फ़िर बोले "बच्चा तुमको हर बात मैं हंसी सूझती है तुमनें कागज मैं 'करेला' लिखा है परन्तु ऐसी हंसी अच्छी नहीं"
लाला मदनमोहन के कहनें से मास्टर शिंभूदयाल नें कागज खोलकर दिखाया तो हकीकत मैं 'करेला' लिखा पाया अब तो पंडितजी की खूब चढ़ बनी मूछों पर ताव दे, दे कर खखारनें लगे.
परन्तु पंडितजी नें ये 'करेला' कैसे बता दिया ? लाला मदनमोहनके रोबरू आपस की मिलावट सै बकरी का कुत्ता बना देना सहजसी बात थी परन्तु पंडित जी का चुन्नीलाल और शिंभूदयाल सै ऐसा मेल न था और न पंडितजी को इतनी विद्या थी कि उस्के बल सै करेला बता देते. असल बात यह थी कि पंडित जीनें कागज पर काजल लगा कर पुष्टिपत्र मैं रख छोड़ा था जिस्समय पुष्टिपत्र पर कागज रख कर कोई कुछ लिखता था कलम के दबाव सै काजलके अक्षर दूसरे कागज पर उतर आते थे फ़िर पंडितजी कुंडली खेंचती बार किसी ढब सै उस्को देखकर थोड़ी देर पीछे बता देते थे.
"तो हुजूर ! उस गंधीके वास्तै क्या हुक्म है ?" हकीमजीनें फ़िर याद दिलाई.
अतर मैं चंदनके तैल की मिलावट मालूम होती है और मिलावट की चीज बेचनें का सरकार सै हुक्म नहीं है इस वास्तै कह दो शीशी जप्त हुई वह अपना रस्ता ले" पंडितजी शीशी सूंघ कर बीच मैं बोल उठे.
"हां हकीम जी ! आपकी राय मैं गन्धी का कहना सच है ?" लाला मदनमोहननें पूछा.
"बेशक, अंदाज सै तो ऐसा ही मालूम होता है आगे खुदा जानें" हकीमजी बोले.
"तो लो यह पच्चीस रुपे के नोट इस्समय उस्को खर्च के वास्तै दे दो. बिदा पीछे सै सामनें बुलाकर की जायगी" लाला मदनमोहन नें पच्चीस रुपे के नोट पाकट सै निकाल दिये.
"उदारता इस्का नाम है", "दयालुता इसे कहते हैं", "सच्चे यश मिलनेंकी यह राह है", "परमेश्वर इस्सै प्रसन्न होता है", चारों तरफ़ सै वाह-वाह की बोछार होनें लगी.
"ये बहियाँ मुलाहजे के वास्तै हाजिर हैं और बहुत सी रकमों का जमाखर्च आपके हुक्म बिना अटक रहा है जो अवकाश हो तो इस्समय कुछ अर्ज करूं ?" लाला जवाहरलाल नें आते ही बस्ता आगे रखकर डरते, डरते कहा.
"लाला जवाहरलाल इतनें बरस सै काम करते हैं परन्तु लाला साहब की तबियत, और कागज दिखानें का मोका अबतक नहीं पहचान्ते" लाला मदनमोहन को सुनाकर चुन्नीलाल और शिंभूदयाल आपसमैं कानाफूसी करनें लगे.
"भला इस्समय इन्बातोंका कौन प्रसंग हैं ? और मुझको बार, बार दिक करनें सै क्या फायदा है ? मैं पहले कह चुका हूँ कि तुम्हारी समझमैं आवै जैसे जमा खर्च करलो. मेरा मन ऐसे कामों मैं नहीं लगता" लाला मदनमोहन नें झिड़ककर कहा और जवाहरलाल वहां सै उठकर चुपचाप अपनें रस्ते लगे.
"चलो अच्छा हुआ ! थोड़े ही मैं टल गई. मैं तो बहियोंका अटंबार देखकर घबरा गया था कि आज उस्तादजी घेरे बिना न रहैंगे" जवाहरलाल के जाते ही लाला मदनमोहन खुश हो, हो कर कहनें लगे.
"इन्का तो इतना होसला नहीं है परन्तु ब्रजकिशोर होते तो वे थोड़े बहुत उलझे बिना क़भी न रहते" मास्टर शिंभूदयाल नें कहा.
"जब तक लाला साहब लिहाज करते है तब ही तक उन्का उलझना उलझाना बन रहा है नहीं तो घड़ी भर मैं अकल ठिकानें आजायगी" मुन्शी चुन्नीलाल बोले.
"हुजूर ! मैं लाला हरदयाल साहब के पास हो आया उन्होंनें बहुत, बहुत करकै आपकी खैरोआफ़ियत पूछी है. और आज शामको आपसै बागमैं मिलनें का करार किया है" हरकिसन दलाल नें आकर कहा.
"तुम गये जब वो क्या कर रहे थे ?" लाला मदनमोहन नें खुश होकर पूछा.
"भोजन करके पलंग पर लेटे ही थे आपका नाम सुनकर तुर्त उठ आए और बड़े जोश सै आपकी खैरोआफ़ियत पूछनें लगे"
"मैं अच्छी तरह जानता हूँ वे मुझको प्राण सै भी अधिक समझते हैं" लाला मदनमोहननें पुलकित होकर कहा.
"आपकी चाल ही ऐसी है जो एक बार मिल्ता है हमेशेके लिये चेला बन् जाता है" मुन्शी चुन्नीलालनें बढ़ावा देकर कहा.
"परन्तु क़ानूनीबंदे इस्सै अलग हैं" मास्टर शिंभूदयाल ब्रजकिशोर की तरफ़ इशारा करके बोले.
"लीजिये ये टोपियां अठारह, अठारह रूपमैं ठैरा लाया हूँ" हरगोविंदनें लाला मदनमोहनके आगे चारों टोपियें रखकर कहा.
"तुमनें तो उसकी आंखोंमैं धूल डालदी ! अठारह, अठारह रूपे मैं कैसे ठैरालाये ? मुझको तो बाईस, बाईस रुपे सै कमकी किसी तरह नहीं जंचती" लाला मदनमोहननें हरगोविंद का हाथ पकड़कर कहा.
"मैनें उस्को आगेका फायदा दिखाकर ललचाया और बड़ी बड़ी पट्टियें पढाईं तब उस्नें लागत मैं दो, दो रुपे कम लेकर आपके नाम ये टोपियें दीं हैं".
"अच्छा ! यह लाला हरकिशोर आते हैं इन्सै तो पूछिये ऐसी टोपी कितनें, कितनें मैं लादेंगे ?" दूरसै हरकिशोर बज़ाज को आते देखकर पंडित पुरुषोत्तमदासनें कहा.
"ये टोपियें हरनारायण बज़ाज के हां कल लखनऊ सै आई हैं और बाजार मैं बारह, बारह रुपे को बिकी हैं पर यहां तो तेरह तेरह मैं आई होंगी" हरकिशोर नें जवाब दिया.
"तुम हमें पंदरह, पंदरह रुपे मैं लादो" हरगोविंद नें झुंझला कर कहा.
"मैं अभी लाता हूँ. तुम्हारे मनमैं आवै जितनी लेलेना"
"ला चुके, लाचुके लानें की यही सूरत है ?" हरगोविंद नें बात उड़ानें के वास्तै कहा.
"क्यों ? मेरी सूरत को क्या हुआ ? मैं अभी टोपियां लाकर तुम्हारे सामनें रखेदेता हूँ" हरकिशोर नें हिम्मत सै जवाब दिया.
"तुम टोपियें क्या लाओगे ? तुम्हारी सूरत पर तो खिसियानपन अभी सै छा गया !" हरगोविंद नें मुस्कराकर कहा.
"मुझको नहीं मालूम था कि मेरी सूरत मैं दर्पण की खासियत है" हरकिशोरनें हँसकर जवाब दिया.
"चलो चुप रहो क्यों थोथी बातें बनाते हो ?" मुन्शी चुन्नीलाल रोकनें के वास्तै भरम मैं बोले.
"बहुत अच्छा ! मैं टोपी लाये पीछे ही बात करूंगा" यह कह कर हरकिशोर वहां सै चल दिये.
"यहां के दुकानदारों मैं यह बड़ा ऐब है कि जलन के मारे दूसरेके माल को बारह आनेंका जांच देते हैं" मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा.
"और किसी समय मुकाबला आपड़े तो अपनी गिरह सै घाटा भी दे बैठते हैं" मास्टर शिंभूदयाल बोले.
"न जानें लोगों को अपनी नाक कटा कर औरों की बदशगूनी करनें मैं क्या मजा आता है" हकीमजीनें कहा.
"और जो हरगोविंद कुछ ठगा आया होगा तो क्या मैं इन्के पीछे उस्का मन बिगाडूंगा" लाला मदनमोहन बोले.
"आपकी ये ही बातैं तो लोगों को बेदाम गुलाम बना लेती हैं" मुन्शी चुन्नीलालनें कहा.
"कुछ दिन सै यहां ग्वालियर के दो गवैये निहायत अच्छे आए हैं मरजी हो दो घड़ी के वास्तै आज की मजलिस मैं उन्हें बुला लिया जाय" हरकिसन दलालनें पूछा.
"अच्छा ! बुलाओ तुम्हारी पसंद हैं यो ज़रूर अच्छे होंगे" मदनमोहननें कहा.
"लखनऊ की अमीरजान भी इन दिनों यहीं है इस्के गानें की बड़ी तारीफ सुनी गई है पर मैंनें अपनें कान सै अब तक उस्का गाना नहीं सुना" हकीमजी बोले.
"अच्छा ! आपके सुन्ने को हम उसे भी यहां बुलाये लेते हैं पर उस्के गानें मैं समा न बंधा तो उस्के बदले आपको गाना पड़ेगा !" लाला मदनमोहन नें हंस कर कहा.
"सच तो ये है कि आपके सबब सै दिल्ली की बात बन रही है जो गुणी यहां आता है कुछ न कुछ ज़रूर ले जाता है आप ना होते तो उन बिचारों को यहां कौन पूछता ? आपकी इस उदारता सै आपका नाम बिक्रम और हातम की तरह दूर दूर, तक फैल गया है और बहुत लोग आपके दर्शनोंकी अभिलाषा रखते हैं" मुन्शी चुन्नीलाल नें छींटा दिया.
इतनें मैं हरकिशोर टोपी लेकर आ पहुँचे और बारह, बारह रुपे मैं खुशी सै देनें लगे.
"सच कहो तुमनें इस्मैं अपनी गिरह का पलोथन क्या लगाया है ?" शिंभूदयाल नें पूछा.
"पलोथन लगानें की क्या जरुरत थी मैं तो इस्मैं लाला साहब सै कुछ इनाम लिया चाहता हूँ" हरकिशोर नें जवाब दिया.
"मुझको टोपियें लेनी होती तो मैं किसी न किसी तरह सै आपही तुम्हारा घाटा निकालता पर मैं तो अपनी ज़रूरतके लायक पहलै ले चुका" लाला मदनमोहन नें रूखाई सै कहा.
"आपको इस्की कीमत मैं कुछ संदेह हो तो मैं असल मालिक को रोबरू कर सक्ता हूँ ?"
"जिस गाँव नहीं जाना उस्का रास्ता पूछना क्या ज़रूर"
"तो मैं इन्हें ले जाउं ?"
"मैंनें मंगाई कब थी जो मुझसै पूछते हो" यह कहक़र लाला मदनमोहननें कुछ ऐसी त्योरी बदली कि हरकिशोर का दिल खट्ठा हो गया और लोग तरह, तरह की नकलै करके उस्का ठट्ठा उड़ानें लगे.
हरकिशोर उस्समय वहां सै उठकर सीधा अपनें घर चला गया पर उस्के मन मैं इन् बातोंका बड़ा खेद रहा.