एक थीं लच्छो चाची Dr Sunita द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक थीं लच्छो चाची

एक थीं लच्छो चाची

डा. सुनीता

*

नन्ही नीना से अगर कोई पूछता कि उसे दुनिया में सबसे अच्छा क्या लगता है, तो वह बखटके कहती—नानी...नानी का गाँव।

सच! पूरे साल भर वह नानी के पास... नानी के गाँव जाने के लिए ऐसे तरसती, जैसे यही उसका स्वर्ग हो, यही उसका सपना। हर साल गरमी की छुट्टियों में पूरा एक या डेढ़-महीना वह नानी के पास रहती थी। और ये दिन ऐसे होते थे, जब उसकी कल्पना को पंख लग जाते थे। मन परियों की तरह आसमान में उड़ता-सा रहता!

सारे दिन बस खेल, धमाचौकड़ी, घुमक्कड़ी...शरारतें...या फिर बातें। इतनी बातें कि उसका खजाना कभी चुकता ही नहीं था। नानी कभी-कभी ऊबती, परेशान भी होतीं। कभी-कभी उसकी बातों का जवाब देते-देते ऊँघने भी लगतीं। पर नीना को तब भी नानी अच्छी लगती थीं, बहुत अच्छी।

नानी इतनी कहानियाँ सुनाया करती थीं, खूब लंबी-लंबी कहानियाँ कि उनका कोई ओर-छोर ही नहीं था। कई-कई दिनों तक उनका एक किस्सा या कहानी पूरी होती। और फिर वे कितनी अच्छी-अच्छी बातें भी सिखाया करतीं। माँ से जो बातें कहते, पूछते डर लगता, नीना नानी से बेखटके पूछती, घुल-मिलकर वे बातें कर लेती। और बातों का खजाना एक बार खुलता तो न नीना को उसे बंद करना याद रहता और न नानी को।

फिर नानी उसे पूरे गाँव में घुमाया भी करती थीं। नानी की उँगली पकड़ उसने सालवन गाँव की सभी गलियाँ, जोहड़, मंदिर, और सालवन के किसी जमींदार का बनवाया हुआ पुराना ऐतिहासिक किला भी देख लिया। देखते-देखते पूरे गाँव से वह परच गई। और गाँव में सभी उसे प्यार करने लगे थे।

पर इनमें सबसे अजीब थी लच्छो चाची। नानी उसे कहतीं—‘करमे की बहू।’ पूरा गाँव ही उसे इसी नाम से जानता। और उसके बारे में तरह-तरह की बातें किया करता था, कि ‘करमे की बहू बड़ी सख्त है...!’ ‘करमे की बहू बड़ी कंजूस है। मजाल है कि किसी बच्चे की हथेली पर उसने कभी एक फूटा बताशा भी रखा हो। पैसे की तो कोई कमी नहीं है, फिर भी...!’

नन्ही नीना को बहुत अजीब लगता। वह नानी से ही उलझ पड़ती, “ये आप बार-बार करमे की बहू...करमे की बहू क्यों कहती हो नानी! मैं तो कभी करमे को देखा नहीं। आप चाची को उसके नाम से नहीं बुला सकतीं क्या?”

नानी एक क्षण के लिए अवाक रह गई थीं। फिर प्यार से उसे अपनी छाती से चिपकाकर बोलीं, “पग्गल है तू भी नीना। इतना भी नहीं जानती, गाँव में तो ऐसे ही चलता है। किसी को उसके नाम से बुलाना तो बेइज्जती मानी जाएगी न!”

“वाह! नाम क्या इतना गंदी चीज है? फिर नाम रखते ही क्यों हैं?” नीना ठुनककर पूछती और नानी मुसकराकर टाल जातीं। या फिर कभी-कभी, “चल शैतान, भाग...!” कहकर उसे थप्पड़ दिखाने लगतीं।

बहरहाल, तभी उसे पता चला कि जिस करमे के नाम से रात-दिन ‘करमे की बहू’ को बुलाया जाता है, वह करमा तो अब है नहीं। उसे गुजरे कोई आठ-दस साल हो गए। करमे की बहू विधवा है।

“हाँ, करमे की एक छोटी-सी परचूनी की दुकान थी। वही अब करमे की बहू चलाती है। फिर कुछ साहूकारी का भी काम है। उधर रुपए देती है इससे गुजारा हो जाता है बेचारी का!” नानी ने बताया। और यह भी कि करमे की बहू का नाम लच्छो है।

“अरे वाह, तब तो मैं ‘लच्छो चाची’ कहकर बुलाया करूँगी।” नीना ठनठनाकर बोली।

फिर अचानक उसे कुछयाद आया। बोली, “अच्छा नानी एक बात बताओ इतनी कंजूस क्यों है लच्छो चाची?”

“क्यों...क्या हुआ! तुझे कैसे पता?” नानी जैसे चौंक उठीं।

“अरे, इसमें क्या मुश्किल बात है? मुझे तो खुद ही पता चला गया।” नीना बोली, “परसों आपने मुझे लच्छों चाची की क्यारी से पोदीना लाने के लिए कहा था। तो पहले तो लच्छो चाची बोलीं—‘तोड़ ले नीना। हाँ, ज्यादा मत लियो...!’ फिर एकाएक उन्हें जाने क्या सूझी, बोली—‘रुक नीना, रुक, तू सब गड़बड़ कर देगी, मैं देती हूँ।’ कहकर फौरन भीतर गईं और कैंची ले आई।...कैंची से ऊपर-ऊपर के पत्ते ऐसे काटकर दिए कि कहीं एक पत्ता भी ज्यादा न चला जाए।”

सुनकर नानी को हँसी आ गई। बोलीं, “तू समझती तो है नहीं पग्गल!...वो अकेली है ना, तो मन में हमेशा बुढ़ापे का डर समाया रहता है। इसीलिए एक-एक पैसा दाँत से पकड़ती है। लोगों ने उसे परेशान भी कम नहीं किया। देवरों ने सारी जमीन हड़प ली।...बस, एक छोटी-सी दुकान है और रहने को एक कोठरी। उसी के आगे थोड़ी जमीन में सब्जियाँ उगाकर अपना गुजारा करती है।...कसूर उसका नहीं है नीना। उसके मन में भय बैठ गया है कि सारी दुनिया उसे लूट लेगी।”

“क्या मैं भी?” कहते-कहते नन्ही नीना की आँखें हैरानी से फैल गईं।

“चल-चल, तू बातें बहुत करती है।” कहते-कहते नानी नकली गुस्सा दिखाने लगीं और बात टाल गईं।

उस दिन के बाद नीना की उत्सुकता बढ़ती ही चली गई। कैसी हैं लच्छो चाची, क्यों इतना रूख बोलती हैं? क्यों मैं उनसे प्यार से बोलूँ, तो भी मुझसे ठीक से बात न करेंगी?

अब नानी घर की कोई जरूरी चीज लेने करमे की बहू के पास भेजती तो, नीना दौड़-दौड़कर जाती। प्यार से कहती, “अच्छी चाची, थोड़ी हलदी दो, थोड़ी चीनी दो। थोड़ा जीरा भी...!” नानी जो पैसे देतीं, लच्छो चाची को सँभालकर दे आती। या फिर कहती, “अपनी उधार की कापी में लिख लो चाची। नानी खुद आकर दे जाएँगी।” या फिर कभी-कभी कहती, “आप अब हमारे घर तो आती ही नहीं है चाची?”

“किसलिए? क्या करूँगी तुम्हारे घर?” लच्छो चाची रूखा-सूखा चेहरा लेकर पूछतीं, तो नीना ठुनककर कहती, “नानी से बातें करने, और किसलिए...? मैं भी तो सुनती हूँ आपकी बातें, मुझे अच्छा लगता है।”

*

गाँव के सब बच्चे लच्छो चाची से कुछ न कुछ माँगते ही थे। कभी बताशा, कभी गुड़, कभी सौंफ...! लच्छो चाची चिढ़तीं और कुढ़कर दो-एक दाने उनकी हथेली पर रख देतीं। पर नीना ने कसम खा ली थी, वह लच्छो चाची से कभी कुद नहीं माँगेगी। ऐसा ही सिखाया था उसकी नानी ने।

लेकिन आश्चर्य! एक दिन नीना लच्छो चाची की दुकान से सामने लेकर चलने लगी, तो अचानक उन्होंने टोका। कहा, “रुक नीना, ये ले...!” कहकर खांड चीनी का बना एक सुंदर-सा हाथी उसके थैले में डाल दिया।

“न...न, चाची, नानी ने यह तो नहीं मँगाया।” नीना ने अचकचाकर कहा।

“तू ले ले ना। मैं दे रही हूँ। इसके पैसे थोड़े ही लूँगी।” लच्छो चाची ने लाड़ से कहा।

“नहीं चाची, नानी ने कहा है, किसी की चीज मुफ्त में नहीं लेनी चाहिए।” नीना बोली।

“नानी, नानी, नानी...! क्या नानी सब कुछ है, मैं कुछ नहीं?” लच्छो चाची ने थोड़ा तुनककर कहा।

“लच्छो चाची, आप बहुत अच्छी हैं...पर थोड़ी कंजूस हैं!” पता नहीं कैसे नीना के मुँह से निकल गया। कहते ही घबरा गई, कहीं लच्छो चाची उसकी पिटाई न कर दें।

“कंजूस...! कौन कहता है?” लच्छो चाची का चेहरा अचानक सफेद पड़ गया।

“सब कहते हैं—सारे गाँव के बच्चे...!” नीना ने कहा।

“नहीं-नहीं, मैं कंजूस कहाँ हूँ। बस लालची बच्चे मुझे अच्छे नहीं लगते। तू ले ले, तुझे जो भी चाहिए। ये देख, खांड के कितने अच्छे-अच्छे खिलौने हैं। हाथी, घोड़ा, हिरन, चिड़िया, ढोलक...कल ही शहर से लाई हूँ। उठा ले, तुझे जितने भी चाहिए।” लच्छो चाची ने कहा।

“नानी से पैसे लाऊँगी, तब...!” कहकर नीना ने घर की और दौड़ लगा दी।

उसके बाद तो न जाने क्या चमत्कार हुआ कि लच्छो चाची नीना को खूब प्यार करने लगीं। उससे खूब हँस-हँसकर बातें करतीं। कभी प्यार से छाती से चिपका लेतीं।

गरमी की छुट्टियाँ खत्म होने को थीं। एक दिन नीना ने लच्छो चाची को बताया कि उसकी माँ और बाबूजी अब उसे लेने आने वाले हैं और जल्दी ही शहर चली जाएगी। सुनकर लच्छो चाची एकदम उदास हो गईं। आँखें खोई-खोई-सी। पूछा, “तुझे गाँव अच्छा नहीं लगता?”

नीना बोली, “अच्छा लगता है। तभी तो हर साल गरमी की छुट्टियों में आती हूँ। अगले साल फिर आऊँगी।”

“तू मेरे पास रह जा—यहीं सालवन में। मैं तुझे अच्छी तरह पढ़ाऊँगी। खूब प्यार करूँगी!” कहते-कहते चाची की आँखें भर आईं।

“माँ-बाबूजी गुस्सा करेंगे।” नीना ने कहा। फिर कुछ सोचकर बोली, “अगली बार आऊँगी, तो सारे दिन आपके पास बैठूँगी। आपकी बातें सुनूँगी।...ठीक है ना?”

उस दिन नीना लच्छो चाची से मिलकर घर आई, तो उसका मन पुलक रहा था। सोचती, ‘कितनी अच्छी तो हैं लच्छो चाची। फिर पता नहीं लोग उन्हें क्यों बुरा कहते हैं?’

अगले हफ्ते नीना की माँ और बाबूजी आए, तो नीना की खुशी का ठिकाना न था। उसने उन्हें गाँव की ढेर-ढेर-सी बातें बताईं। और लच्छो चाची के बारे में भी कि वे उसे कितना चाहती हैं।

अगले दिन शहर चलने की तैयारियाँ होने लगीं, तो नीना चुपके से खिसक गई। सीधी पहुँची अपनी लच्छो चाची के पास। बोली, “चाची, चाची, में जा रही हूँ।”

लच्छो चाची उसे घर के अंदर ले गई। फिर एक पीतल का डिब्बा निकाला। उस डिब्बे के अंदर छोटा-सा एक गुलाबी-सा डिब्बा था। उसके अंदर से दो चमचम चमकते चाँदी के कड़े निकालकर नीना की ओर बढ़ाते हुए बोली, “जरा पहन के देख तो नीना, कैसे लगते हैं?”

“नहीं-नहीं, मैं क्यों पहनूँ?” नीना ने चौंककर कहा।

“पहन तो सही...!” कहते-कहते लच्छो चाची की आवाज भर्रा गई।

नीना ने कड़े पहने तो पहले तो लच्छो चाची दूर से ही प्यार से उसे देखती रहीं, फिर प्यार से पास खींच लिया। बोलीं, “तू अच्छी है नीना, बहुत अच्छी। मेरी अच्छी बेटी, तूने उसकी याद दिला दी...!” कहते-कहते लच्छो चाची की आँखें भर आईं।

“किसकी चाची...? किसी बात कर रही हो?” नीना ने पूछा, तो पता चला लच्छो चाची की भी एक छोटी-सी बेटी थी मुनकी। डेढ़ साल की थी कि तेज बुखार आया और खत्म...! लच्छो चाची बता रही थीं, तो उनके गालों पर आँसू ढुलक रहे थे।

नीना अपलक उन्हें देखे जा रही थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था, वह क्या कहे, क्या नहीं? मुश्किल से उसके मुँह से निकला, “रोओ नहीं, चाची!”

और लच्छो चाची ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसके गाल चूम लिए थे। रोती हुई आवाज में बोलीं, “तो फिर तू इन्हें नहीं लौटाएगी...नहीं लौटाएगीं ना?”

“अच्छा, ठीक है!” नीना ने बड़ो जैसी समझदारी से कहा, “अब तो खुश हो जाओ चाची।” और सचमुच लच्छो चाची मुसकरा दीं।

*

उसके बाद अगले दो सालों की गरमी की छुट्टियाँ निकल गईं, नीना गाँव जा ही नहीं पाई। तीसरे बरस गई, तो गाँव में सब मिले, नहीं मिलीं तो बस लच्छो चाची। नानी ने संजीदा होकर बताया, “नीना, तुझे बहुत याद करती थी। बहुत...! कह रही थी अगर मैं मरने से पहले एक बार नीना को देख लेती तो...!”

नानी बता रही थीं, “तुझे चिट्ठी लिखने की सोची थी, पर इतनी जल्दी खेल खत्म हो गया। डॉक्टर के आने से पहले ही...!”

फिर नानी को अचानक कुछ याद आया। बोलीं, “पर तूने क्या जादू कर दिया था उस पर नीना, कि तेरे जाने के बाद उसका स्वभाव एकदम बदल गया। गाँव के बच्चों से ऐसे हँस-हँसकर बोलती—जैसे सभी उसके बेटे-बेटियाँ हों। वह पहले वाली ‘कंजूस करमे की बहू’ तो न जाने कहाँ चली गई!”

नीना क्या कहे? उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मगर जो वह कहना चाहती थी, उस कथा को उसी आँखों से टप-टप टपकते आँसुओं ने पूरा कर दिया था।

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