जग्गू जैसा कोई नहीं Dr Sunita द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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जग्गू जैसा कोई नहीं

जग्गू जैसा कोई नहीं

डा. सुनीता

*

पुराने समय की बात है, हरसू गाँव में पंडित शिवशंकर रहते थे। वे बूढ़े हो चुके थे। घर-परिवार में कोई और नहीं था। गाँव के अपने बड़े-से घर में अकेले ही रहते थे। दिन भर वे यहाँ-वहाँ घूमा करते थे। घर लौटने पर उन्हें बिखरा और अस्त-व्यस्त घर मिलता तो वे कुछ परेशान-से हो जाते। सोचते, “अब इस उम्र मैं क्या-क्या करूँ?”

शिवशंकर ने सोचा, “घर के कामकाज में मुझे बड़ी परेशानी होती है। अगर किसी को मदद करने के लिए रख लूँ, तो बड़ा आराम हो जाएगा।”

उन्होंने गाँव के लोगों से इस बात की चर्चा की। एक किसान हरिभान उसका दोस्त था। उसने कहा, “सुनो भाई, पड़ोस के गाँव में एक गरीब लड़का है, जग्गू। उसके माँ-बाप नहीं हैं। चाहो तो उसे मदद के लिए रख लो। इससे उसका भी रहने-खाने का कुछ इंतजाम हो जाएगा।”

बात शिवशंकर को भा गई। कुछ दिन बाद ही जग्गू उनके पास काम के लिए आ गया। वह बड़ा मस्तमौला और बातूनी किस्म का था। हर वक्त हँसता ही रहता। पर शिवशंकर जो काम बताते, वह कर देता था। उनके गाय-बैलों की भी देखभाल करता था। उससे शिवशंकर को वाकई बड़ा चैन पड़ा। उन्होंने सोचा, “अब तो मेरे दुख कट जाएँगे। घर के कामकाज में बड़ा आराम हो जाएगा। लड़का जरा बातूनी ज्यादा है, पर इससे मुझे क्या?”

फिर जग्गू का हँसोड़पना भी शिवशंकर को पसंद था। उसकी बातें सुनकर अकसर वे खुद भी हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। इससे घर में उन्हें अकेलापन नहीं महसूस होता था और उनका मन लगा रहता था।

पर मुश्किल यह थी कि जग्गू बातों में जितना तेज था, उतना काम में नहीं। थोड़े दिनों में वह और भी ढीठ हो गया। जो काम उसके मन का होता, उसे कर देता। बाकी काम पड़े रहते। शिवशंकर पूछते, “ओ रे जग्गू, आज घर की ठीक से सफाई क्यों नहीं की?”

जग्गू बात बनाता हुआ कहता, “अरे मालिक, क्या बताऊँ, मैं घर की सफाई करने लगा, उसी समय जाने कहाँ से एक चूहा और एक बिल्ली आ गई। पूरे घर में दोनों दौड़ते रहे। आगे-आगे चूहा, पीछे-पीछे बिल्ली। मैं जिधर सफाई करने जाऊँ, वहीं आकर दोनों उछल-कूद मचाने लगते। बड़ी मुश्किल से डंडा लेकर उन्हें भगाया। मगर वे इधर से भागते, तो उधर से आ जाते। दोनों ने मुझे खूब नाच नचाया। बस, इसी में सारा वक्त निकल गया। तो फिर मैं सफाई कब करता?”

शिवशंकर समझ गए कि जग्गू बहाना बना रहा है, पर उसका सुनाया किस्सा उन्हें इतना मजेदार लगा कि वे ठठाकर हँस पड़े।

अब तो जग्गू को अच्छा तरीका मिल गया। अकसर वह आधे काम करता, बाकी छोड़ देता। शिवशंकर पूछते, तो कोई न कोई मजेदार किस्म का बहाना बना देता। सुनकर शिवशंकर हँसने लगते और उनका सारा गुस्सा काफूर हो जाता।

पर जब बार-बार यही सब होने लगा, तो शिवशंकर खीजने लगे। कभी-कभी गुस्से में जग्गू को डाँट भी देते। पर जग्गू चिकना घड़ा था। उसकी चतुराई के आगे उनकी कुछ चल नहीं पाती थी। धीरे-धीरे हालत यह हुई कि जग्गू के एक से एक बेजोड़ बहानों ने उनकी नाक में दम कर दिया।

फिर जग्गू की एक और खराब आदत यह थी कि वह चटोरा बहुत था। जीभ पर उसका नियंत्रण नहीं था। शिवशंकर घर में खाने की जो भी चीजें लाते, वे दो-तीन दिन में खत्म हो जाती। और फल होते तो उसी दिन खत्म हो जाते थे। खाने-पीने की कोई बढ़िया चीज सामने दिख जाए, तो जग्गू रह ही नहीं सकता था। झटपट चोरी करके खा लेने में उसे कोई बुराई नहीं नजर आती थी। और यह उसकी ऐसी अजीब आदत थी, जिससे वह मजबूर था।

इतना ही नहीं, जग्गू चोरी करके इन चीजों को खाने के बाद सरासर झूठ भी बोल देता था। शिवशंकर को बूँदी के लड्डू बड़े पसंद थे। एक बार एक मित्र ने उन्हें दावत पर बुलाया। बढ़िया भोजन के बाद शिवशंकर चलने लगे तो मित्र ने उन्हें दो-ढाई सेर बूँदी के बड़े अच्छे और ताजा लड्डू भेंट किए।

लड्डू इतने अच्छे थे कि देखकर शिवशंकर का मन प्रसन्न हो गया। वे घर में बूँदी के लड्डू लेकर आए और उन्हें डिब्बे में रख दिया। सोचा, हफ्ता भर नाश्ते में आराम से खाएँगे। उनमें से दो लड्डू उन्होंने जग्गू को भी दिए। जग्गू ने ऐसे स्वादिष्ट लड्डू पहले कभी नहीं खाए थे। खाते ही उसकी आँखों में अनोखी चमक आ गई। उत्साह से बोला, “वाह मालिक, वाह! ये तो कमाल के लड्डू हैं। मैंने ऐसे बढ़िया लड्डू तो कभी नहीं खाए।”

शिवशंकर ने मुसकराकर कहा, “इसीलिए तो लाया हूँ। मेरे एक मित्र को पता है कि मुझे लड्डू पसंद हैं। उसी ने बनवाकर दिए हैं। चलो, हफ्ते-दस दिन के नाश्ते का प्रबंध हो गया।”

पर दो दिन में ही वे सारे लड्डू साफ हो गए। तीसरे दिन उन्होंने सुबह-सुबह लड्डू खाने के लिए डिब्बा खोला, तो देखकर चौंक गए। डिब्बा एकदम खाली था।

शिवशंकर ने खीजकर जग्गू से पूछा, “अरे भई जग्गू, लड्डू तो इतने सारे थे। इतनी जल्दी कैसे खत्म हो गए?”

इस पर जग्गू ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, “मालिक, मैं क्या जानूँ? जरूर बिल्ली ने देख लिया होगा। वही सारे लड्डू खा गई होगी।...बड़ी दुष्ट है। अगर मुझे दिखाई दे गई, तो मैं उसे ऐसा छकाऊँगा कि याद रखेगी।”

अब शिवशंकर पहरा तो नहीं दे सकते थे न। वे भला जग्गू की बात का क्या जवाब देते! थोड़ा-सा डाँट-फटकारकर बोले, “अब ज्यादा बातें न बताओ। मुझे अच्छी तरह पता है, कौन-सी बिल्ली मेरे इतने सारे लड्डू खा गई?”

पर जग्गू भी कम नाटककार नहीं था। भोला बनकर बोला, “फिर तो मालिक, देर न कीजिए। बस, आप एक बार मुझे दिखा दें कि वह कौन-सी बिल्ली है। मैं उसे छोड़ूँगा नहीं।”

इस पर शिवशंकर अपना-सा मुँह लेकर रह गए।

*

अगले दिन शिवशंकर बड़ा-सा केले का गुच्छा लाए, पर शाम तक वह गुच्छा पार हो गया। उन्होंने उसमें से सुबह एक या दो केले खाए थे, पर शाम को घर में केले उन्हें नजर ही नहीं आए।

शिवशंकर हक्के-बक्के! उन्होंने जग्गू से पूछा, तो वह हैरान होकर बोला, “केले...! कौन से केलों की बात कह रहे हैं मालिक? आप क्या सुबह केले लाए थे? मैंने तो देखे नहीं। जहाँ आपने रखे थे, वहीं देख लीजिए। जरूर पड़े होंगे। मुझे तो यही नहीं पता कि केले आप लाए भी थे या नहीं!”

शिवशंकर खीजकर बोले, “अरे, रखने कहाँ थे? मैंने तो सुबह आले पर ही रखे थे। पर वहाँ तो अब हैं नहीं। पूरा गुच्छा था। क्या दीवार उन्हें निगल गई?”

जग्गू गंभीर मुद्रा बनाकर बोला, “अरे मालिक, कैसी बातें कर रहे हैं आप भी! भला दीवार कैसे निगल सकती है? मेरा खयाल है, दीवार तो बिलकुल नहीं निगल सकती एक दर्जन केलों को। हाँ, मुझे लगता है, जरूर चूहों ने खा लिए होंगे। वैसे भी चूहे इतने ज्यादा हैं इस घर में कि मैं तो उन्हें भगाता-भगाता परेशान हो गया। अब तो आप ही कुछ करिए, वरना ये तो रोज-रोज केले का पूरा गुच्छा खा लेंगे और आप भूखे रह जाएँगे।”

शिवशंकर समझ गए कि जग्गू चालाकी दिखा रहा है। चोरी करके भी कुछ न जानने का नाटक कर रहा है। वे भीतर ही भीतर झुँझलाकर रह गए। जग्गू को वे निकाल भी नहीं सकते थे, क्योंकि घर और बाहर के सभी काम तो वही करता था।

ऐसे किस्से एकाध दिन छोड़कर होते ही रहते। शिवशंकर थोड़ा झुँझलाते, फिर चुप रह जाते। चाहकर भी वे जग्गू को रोक नहीं पा रहे थे। फिर कुछ दिन बाद की बात है, शिवशंकर हलवाई की दुकान से आधा किलो दही लेकर आए। वे घर में जब घुसे तो उन्होंने दही के दोने वाला हाथ पीछे छिपा रखा था, ताकि जग्गू देख न ले और पूछ न ले कि वह क्या लाया है?

पर जग्गू की निगाह बड़ी तेज थी। उससे वह दही का दोना कैसे छिपता? उसने बड़े भोलेपन से पूछा, “मालिक, आप दोने में क्या लाए हैं?”

अब तो शिवशंकर फँस गए। पर वे बताना नहीं चाहते थे कि वे दही लाए हैं। उन्होंने बहाना बनाया, “वो ऐसा है जग्गू, कि मुझे रोज थोड़ा-सा चूना खाने की आदत है। इसलिए मैंने सोचा इकट्ठा ले आता हूँ, कई दिन चल जाएगा।”

जग्गू ने तुरत-फुरत बात बनाई, “अरे वाह मालिक, फिर तो बात बन गई। आज सुबह ही मैं भी पान के पत्ते लाया था, पर चूना मेरे पास नहीं था। आप थोड़ा सा चूना दे दें तो मैं पान पर लगा लूँगा। बिना चूने के पान का स्वाद नहीं आता।”

“मैंने इसे तेरे लिए नहीं खरीदा है।” शिवशंकर ने उसे डाँटा और कहा, “जा, जाकर गायों को वापस ले आ, शाम हो गई है। मुझे ज्यादा परेशान मत कर।”

अब दही कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि उसकी सुगंध न पहचानी जाए। जग्गू तुरंत समझ गया कि पंडितजी दही लेकर आए हैं। मुझे न देनी पड़े, इसलिए झूठ बोल रहे हैं कि वे चूना लेकर आए हैं। वह मन ही मन बोला, “ठीक है, अब मैं भी देखता हूँ कि यह दही कैसे बचती है!”

शिवशंकर ने घर के भीतर आकर वह दोना जग्गू से छिपाकर छींके पर रख दिया। फिर वे घर के सामने बने बगीचे की ओर निकल गए। वे यह देखना चाहते थे कि जग्गू ने बगीचे की अच्छी तरह सफाई की है या नहीं।

बगीचे में जाकर शिवशंकर ने देखा कि यहाँ तो जरा भी सफाई नहीं हुई। उन्होंने जगह-जगह गिरे हुए पीले पत्ते और टूटी डालियाँ उठाने तथा पौधों में पानी देने के लिए जग्गू से कहा था। पर जग्गू ने तो कुछ किया ही नहीं।

यह देखकर शिवशंकर को बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने वहीं से कड़कती आवाज में जग्गू को बुलाया। जग्गू दौड़ता हुआ आया। बोला, “क्या बात है मालिक? आप कुछ गुस्से में लग रहे हैं।”

शिवशंकर ने कहा, “गुस्सा न करूँ तो क्या करूँ? जरा बताओ तो, आज तुमने कितनी देर बगीचे की सफाई की है?”

जग्गू ने डरकर थर-थर काँपने का नाटक किया। बोला, “मालिक, आज तो मुझे बगीचे की सफाई करने का बहुत ही कम समय मिला। असल में गायों को खूँटे से बाँधने में ही सारा वक्त निकल गया। मैं एक को बाँधता था तो दूसरी भाग जाती थी। फिर उसे पकड़कर लाता तो तीसरी भाग जाती थी। भागते-भागते मेरी टाँगें दुखने लगीं। बड़ी मुश्किल से वे काबू में आईं। बस, उन्हें पकड़कर लाने में ही सारा समय निकल गया मालिक!”

जग्गू के चतुराई भरे झूठ को सुनकर शिवशंकर अपने क्रोध पर नियंत्रण न रख पाए। उन्होंने गुस्से में उसे डाँटना शुरू कर दिया। बोले, “मैंने तो यह सोचकर तुझे रखा था कि कुछ मदद हो जाएगी। पर अब तो लगता है, मैं पहले ही ज्यादा सुखी था। तू किसी काम-काज का नहीं है, उलटे तेरे आने से मेरी मुसीबतें और बढ़ गई हैं। इसलिए तू जितनी जल्दी यहाँ से जा सकता है, चला जा और आगे से कभी अपनी शक्ल मुझे मत दिखाना।”

*

शिवशंकर ने पहली बार जग्गू को इस बुरी तरह डाँटा-फटकारा था। वरना तो वे उसकी शरारतों को हँसकर ही सह जाते थे।

जग्गू इस डाँट-फटकार को सह न सका। वह बोला, “मालिक, बस करिए। इस डाँट-फटकार से तो मर जाना ही अच्छा है। इससे तो अच्छा है कि मैं चूना खाकर तुरंत मर जाऊँ।”

यह कहकर उसने लगभग दौड़ते हुए छींके से दोना उतारा और जल्दी-जल्दी दही निगलने लगा।

शिवशंकर चिल्लाते रह गए, “अरे-अरे, क्या कर रहा है जग्गू? इसमें चूना है, इसे मत खा। नहीं तो...नहीं तो तू बचेगा नहीं। अनर्थ हो जाएगा, एकदम अनर्थ!”

“मालिक, अब जो होता है, हो। जब आप ही इतने नाराज हैं, तो मेरे जीने से क्या फायदा? इससे तो अच्छा है कि मैं मर ही जाऊँ।...वैसे भी इस दुनिया में मेरा है ही कौन?” कहकर जग्गू बड़े मजे में दही खा रहा था। थोड़ी देर में ही उसने दही का पूरा दोना साफ कर दिया।

शिवशंकर हक्के-बक्के रह गए। उन्हें जग्गू पर बेहद गुस्सा आ रहा था। एक बार तो उन्होंने सोचा कि वे जग्गू को घर से निकाल बाहर करें, क्योंकि उसकी वजह से हर पल उन्हें खीजना और परेशान होना पड़ रहा था। पर फिर सामने बैठे जग्गू पर उनकी नजर गई, जिसके हाथों और चेहरे पर जगह-जगह दही लिपटी हुई थी। और चेहरे पर अजब-सी हँसी।

जग्गू का यह रूप शिवशंकर के मन में गड़ गया। वे सोचने लगे, “जग्गू बच्चा ही तो है। कब से यह बेचारा अनाथ बच्चा दाने-दाने को तरस रहा है। इसीलिए तो मनपसंद चीज दिख जाए तो खुद को रोक नहीं पाता। पर मैं खीजने की बजाय प्यार से समझाऊँ और इसका खयाल रखूँ, तो यह क्यों नहीं बदलेगा?”

उस दिन के बाद से शिवशंकर जग्गू को बिलकुल बेटे की तरह प्यार करने लगे। जो चीज उसे अच्छी लगती, खुद लाकर देते और कहते, “बेटे, यह मैं तेरे लिए लाया हूँ। तू जी भरकर खा ले।”

जग्गू को पहली बार ऐसा प्यार मिला था। उसकी आँखें छलछला आईं। उसने पंडितजी से कहा, “मालिक, आपने मुझे बेटा कहा है, तो मैं भी जी-जान से काम करूँगा। आपको कभी परेशान नहीं होना पड़ेगा।”

उस दिन के बाद जग्गू मन लगाकर काम करने लगा। हालाँकि उसका हँसोड़पन वैसा ही बना रहा, जिससे शिवशंकर ही नहीं, अड़ोसी-पड़ोसी भी उसकी बातें सुनकर हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। फिर मुसकराकर कहते, “सचमुच जग्गू जैसा कोई नहीं!”

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