दादी की मुसकान Dr Sunita द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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दादी की मुसकान

दादी की मुसकान

डा. सुनीता

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कोयना के घर में उसके मम्मी-पापा और भाई के अलावा दादा-दादी भी रहते हैं। कोयना और आशु का बचपन दादी की गोद में ही बीता है। यहाँ तक कि पिछले साल तक को दादी ही दोनों बच्चों को स्कूल बस में बिठाने और फिर दोपहर में वापस लेने जाती थीं।

अभी पिछले साल से उनके घुटनों में दर्द रहने लगा है और सर्दियों में तो यह और भी बढ़ गया है। दवाई चल रही है। कोयना की मम्मी उनकी खूब सेवा करती हैं। नियम से दवाई देती हैं और मालिश भी कर देती हैं। रात में गरम पानी से सेक देती हैं। पर बुढ़ापे के रोग हैं, आते हैं तो फिर जाने का नाम नहीं लेते।

पिछले साल तक तो दादी एकदम ठीक-ठाक थीं। बैठे-बैठे सब्जी काट देती थीं। मम्मी कपड़े धोतीं, तो वे रस्सी पर डाल देतीं। फिर उनकी तह कर देतीं। और कभी-कभी मन होता तो सबके लिए खस्ता मट्ठियाँ बना देतीं। सर्दियों में उनकी बनाई गुड़ की पिन्नियों का तो जवाब नहीं। खत्म होने से पहले ही और बना देतीं। पापा की तो जान हैं ये पिन्नियाँ। बचपन से जो खाते आ रहे हैं। और फिर कभी-कभी बैगन का भुर्ता भी। अहा, क्या स्वादिष्ट होता है! उँगलियाँ चाटते रह जाओ।

सुबह-ही-सुबह कोयना और आशु को सात बजे बस पकड़नी होती थी। तैयार ही मुश्किल से हो पाते दोनों। खाने की कहाँ फुर्सत! सो दादी हाथ में पराँठा रोल करके दोनों के पीछे घूमतीं और खिलाकर ही उन्हें चैन पड़ता।

ऐसी प्यारी स्नेहिल दादी अब घुटनों के दर्द की वजह से लाचार सी हो गई थीं। सुबह-शाम कोयना की मम्मी रसोई में व्यस्त रहतीं। ऐसे में दादी अपने छोटे-छोटे कामों के लिए कोयना या आशु को ही पुकारतीं।

आशु हालाँकि छोटा था, तीसरी कक्षा में ही था, पर दादी को कभी मना नहीं करता था। हालाँकि उसे दादी की चीजें मिलतीं बहुत देर से थीं। उसके लिए दादी का चश्मा ढूँढ़ना होता, तो दस मिनट तो आराम से लगते। दादी इतने में तीन-चार बार पूछ चुकी होतीं, आशु जवाब देता, “दादी ढूँढ़ रहा हूँ। अभी मिल जाएगा। बस, दो मिनट रुको।”

आशु के दो मिनट में न जाने कितने मिनट बीत जाते। पर आखिर उसे चीज मिल ही जाती और वह दादी को दे देता। दादी थोड़ा तो झुँझलातीं, देरी की वजह से, पर उसके सिर पर हाथ भी फेरतीं, “शाबाश, मेरे बेटे, खूब पढ़ो-लिखो, बड़े आदमी बनो।”

आशु मंद-मंद मुसकराते हुए, अपने काम में लग जाता।

*

कोयना अब बड़ी हो रही थी। वह आठवीं क्लास में थी और चाहती तो मम्मी की मदद कर सकती थी। पर एक तो स्कूल का काम इतना ज्यादा होता कि मुश्किल से ही पूरा होता, दूसरे उसकी इच्छा भी नहीं होती थी घर के काम करने की। स्कूल का काम खत्म होते ही टीवी खोलकर बैठ जाती थी। फिर तो उसे वहाँ से उठाना मुश्किल हो जाता, फिर चाहे कितना ही छोटा सा या जरूरी काम हो।

रात को खाने के समय मम्मी चाहतीं कि कोयना दादी और दादाजी को गरम-गरम खाना खिला दे, यानी उन्हें थाली दे आए और फिर फुलके दे आए। पर कोयना झट से टीवी के आगे से उठती और फटाक से दोनों थालियाँ उठा, लापरवाही से दादी और दादाजी को दे आती। ऐसे में कभी-कभी सब्जी या दाल छलक जाती ओर थाली कुछ गंदी भी हो जाती, पर उसे परवाह नहीं थी। उसे तो इस बात पर गुस्सा आता कि उसे उठाया ही क्यों गया टीवी के आगे से?

हारकर मम्मी ही और फुलके देकर आती और फिर थाली भी उठा लातीं। कोयना को इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि उसकी मम्मी दिन भर सबके लिए कितने काम करती हैं।

शनिवार या इतवार की छुट्टी के दिन कोयना कभी-कभी शाम को रीना के घर भी चली जाती थी। रीना उसी की क्लास में पढ़ती थी।

रीना के कमरे में ही टी.वी. भी था। दोनों सहेलियाँ खूब गप-शप करतीं। बीच-बीच में रीना कभी पानी लाती, कभी बिस्कुट, नमकीन, कभी चिप्स भी। कभी-कभी उसकी मम्मी पकौड़े भी बना देतीं, तो वे दोनों बड़े मजे से खातीं।

इसी बीच कोयना ने यह भी नोट किया कि जब भी एक-दो बार दादी ने बुलाया, तो वह झट से भागकर दादी के पास गई, मानो उसके कान उधर ही लगे हुए थे। कोयना को थोड़ी खीज भी हुई कि रीना बीच-बीच में उठकर क्यों जाती है, कोई और क्यों नहीं जाता?

रीना बोली, “दादी, के घुटनों में दर्द रहता है न, इसलिए वे जल्दी से उठकर चल-फिर नहीं सकतीं। उनके छोटे-मोटे काम हम कर देते हैं। दादी ढेर सा आशीर्वाद देती हैं और बहुत खुश हो जाती हैं। उन्हें खुश देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता है।”

यह सुनकर कोयना मन-ही-मन कुढ़ रही थी कि कैसी मूर्ख है। मैं तो बीच में उठकर ऐसे कभी न जाऊँ!

एक दिन रीना की दादी और कोयना की दादी दोनों घर के सामने वाले पार्क में मिल गईं। रीना और कोयना भी साथ थीं। वे बैंच पर बैठी बड़ी फुरसत से बातों में मशगूल थीं। कोयना की दादी रीना की दादी को कल ही टीवी में सुने मुरारी बापू के प्रवचनों के बारे में बड़े भावूपर्ण ढंग से बता रही थीं। वह बात खत्म हुई, तो बात आजकल के बच्चों पर चल पड़ी कि बच्चे पहले की तरह कहना ही नहीं मानते। सुनना ही नहीं चाहते।

इतने में ही कोयना की गेंद लुढ़कते हुए दादी की बेंच के नीचे पहुँच गई। कोयना भागती हुई गेंद उठाने आई थी। जैसे ही वह बैंच के पास पहुँची, उसे सुनाई पड़ा। दादी कह रही थीं, “कुछ भी हो, हमारी कोयना तो औरों के मुकाबले बहुत अच्छी है। किसी काम के लिए मना नहीं करती। हाँ, कभी-कभार पढ़ रही हो तो बात अलग है।”

कोयना एक पल के लिए ठिठककर रह गई और दादी की ओर देखने लगी। दादी की आँखों में सहज मुसकान थी, मानो वे उस पर स्नेह बरसा रही हों। कोयना भी मुसकराई और गेंद लेकर भाग गई।

उस दिन घर लौटकर रात में सोते हुए दादी से कोयना ने पूछा, “दादीजी, मैं तो आपके कोई काम नहीं करती, क्योंकि टीवी देखते हुए बीच में उठना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। कोई बीच में बुलाए तो मुझे बहुत गुस्सा आता है। फिर रीना की दादी से आप मेरे बारे में इतनी अच्छी बातें क्यों कह रही थीं?”

“कोई बात नहीं बेटी! तू तो मेरी बहुत लाडली बेटी है, आज नहीं तो कल, कभी तो तू इस बात को समझ ही जाएगी न। अब मेरे घुटने काम नहीं करते, तुम्हीं बच्चे तो मेरा सहारा बनोगे न। मुझे अगर सहारे की जरूरत होगी, तो तुझे ही बुलाऊँगी न! मैं अगर गिर पड़ूँ तो क्या तू भागी हुई नहीं आएगी मुझे उठाने, बोल? आएगी न?...”

“हाँ!” कोयना को बड़ा पछतावा हो रहा था। उसके मुँह से बस छोटी-सी ‘हाँ’ ही निकली। अब तक वह दादी को कितना तंग करती आई है। और दादी हैं कि...बस मीठे-मीठे प्यार की बारिश किए जा रही हैं, किए जा रही है। उसने दादी के गले में प्यार से बाहें डाल दीं और धीरे से कहा, “दादी, अब मैं आपके किसी काम के लिए मना नहीं करूँगी।” और उसकी आँखों से दो बूँदें चूँ पड़ीं।

“हट पगली, मैंने यह सब तुझे रुलाने के लिए थोड़े ही कहा था। चल हँस दे, हँस दे!”

दादी उसे गुदगुदाने लगीं, तो रोते-रोते कोयना खिलखिला उठी। उसे खिलखिलाते देख, दादी के चेहरे पर भी मुसकान तैर गई।

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