Khoon Vinod Viplav द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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खून

विनोद विप्लव

जाड़े की एक रात अपनी क्लिनिक से घर लौट रहे एक डॉक्टर की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। लाश रात भर सड़क पर पड़ी रही और खूनी का कुछ पता नहीं चला।

‘......खूनी कौन था?'

‘देखिए इस मामले में हम कुछ कह नहीं सकते। दरअसल यह वारदात जिस इलाके में हुई, वह हमारे थाने में नहीं पड़ता। वह इलाका शहर का सबसे बाहरी इलाका है। पहले यह शहर उतना फैला हुआ नहीं था, लेकिन अब यह फैलकर काफी आगे तक चला गया है। वह इलाका हमारे थाने के अधिकार क्षेत्र से बाहर का है। सरकार को चाहिए कि या तो वह कोई नया थाना बताये या हमारे थाने का अधिकार क्षेत्र बढ़ाए।'

‘आप तो बता सकते हैं, हत्यारा कौन था? मैंने सुना है कि डॉक्टर साहब का खून आपकी दुकान के सामने हुआ।'

‘भाई साहब, आप मुझे मरवाना चाहते हैं? मैं तो भइया सीधा—सादा आदमी हूं। मुझे दुकान और घर—गृहस्थी चलानी है। मुझे जीने दो भाई! मेरी दुकान के सामने क्या—कुछ होता है, उससे मेरा क्या लेना—देना। यहां तो रोज कुछ—न—कुछ होता रहता है और जो कुछ इस दुनिया में होता है, वह सब किसी न किसी की दुकान, किसी के घर के आगे—पीछे या किसी की जमीन पर होता है। आप जिस खून की बात कर रहे हैं, उसे तो मैंने देखा भी नहीं। मैं तो उस दिन दुकान बंद कर घर चला गया था। हो—हल्ला, चीख—पुकार, भाग—दौड़ और गोली चलने की आवाज सुनी थी। मैंने समझा कि दंगा हो गया है— मोहल्ले में। यह सोचकर घर से निकला तक नहीं। अपनी जान की तो सबको फिक्र होती ही है न, क्याें भाई साहब? मुझे क्या मालूम कि मेरी दुकान के आगे क्या हुआ? वह तो मुझे दूसरे दिन पता चला। और एक बात कहूं भाई जी। मेरी दुकान के सामने तो यूं कहें पूरी दुनिया ही पड़ी है। इसका मतलब यह थोड़े ही है कि कहीं भी कुछ हो, उसका संबंध आप मुझसे जोड़ दें।'

‘आप बता सकते हैं, खूनी कौन था?'

‘अजी यहां तो रोज खून हो रहे हैं, कभी भावनाओं का तो कभी विश्वास का। एक खून हो तब तो कोई हिसाब रखें। लाखों हिन्दुओं की भावनाओं की खून रोजाना हो रहा है और हम सब चुप बैठे हैं और एक आप हैं कि एक आदमी का खून होने का रोना रो रहे हैं। कश्मीर में सैंकड़ों मेदिर तोड़ दिए गए और हजारों हिन्दू मौत के घाट उतार दिए गए— लेकिन आपके दिल में दर्द पैदा नहीं हुआ। अयोध्या में सैंकड़ों निहत्थे कार सेवकों को गोलियों से भून दिया गया। आप इन निर्दोष कार सेवकों के हत्यारों के खिलाफ कुछ क्यों नहीं करते? भगवान का नाम लेना और मंदिर बनाना कोई पाप है? अजी यहां तो इंसानियत और मानवता का ही खून कर दिया गया है और आप एक—दो लोगों की हत्या का रोना रो रहे हैं।'

यह हत्या जिस मोहल्ले में हुयी वह शहर के अंतिम छोर पर बसा है। इस शहर के मशहूर चिड़ैयाटाड़ पुल से उत्तर जाने वाली टूटी—फूटी, उबड़—खाबड़ और भीड़वाली सड़क पर वाहनों की टक्कर, लोगों के धक्के और सड़क पर पड़ी ईंटों और पत्थरों की ठोकर खाते हुए और जगह—जगह सीवर के गड्‌ढों में गिरने से बचते हुए अगर आप आधे घंटे तक पैदल या एक घंटे तक गाड़ी से चलें तब इस मोहल्ले तक पहुंच सकते हैं।

गर्मी में उबड़—खाबड़ गलियों में ठोकरें खाते हुए गिरते—गिरते और बरसात में गली में जमा पानी में छपाक—छपाक करते हुए आप इस मोहल्ले के किसी घर तक जा सकते हैं। वैसे गली नं.—तीन पर स्थित उस मकान तक जाने में गिरने—पड़ने या पानी में छपाक—छपाक करने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि गली का पहला मकान वही है।

इस मकान के निचले तल पर लोहे के ग्रिल लगे हैं। ग्रिल में अब ताला लगा रहता है। यह मकान डॉक्टर साहब का है लेकिन सुना है कि यह बिक चुका है। डॉक्टर साहब की हत्या के बाद उनकी पत्नी अपने बच्चों को लेकर मायके चली गई। वे वहीं रहती हैं। सुना है मकान बहुत कम ही कीमत पर बिक गया। डॉक्टर साहब ने इस मकान में कुछ ही महीने पहले से रहना शुरू किया था। पहले वे किराये के मकान में किसी दूसरे मोहल्ले में रहते थे। उन्होंने अपनी जिन्दगी की कमाई जोड़कर यहां जमीन खरीदी और यह मकान बनवाया। डॉक्टर साहब की हत्या के बाद लोगों में यह विश्वास फैल गया कि यह मकान मनहूस है और इस पर किसी आत्मा का साया है। पहले तो कोई भी इस मकान को खरीदने को तैयार नहीं हुआ इसलिए मकान में बहुत दिनों तक ताला पड़ा रहा। अब पता चला है कि किसी राजनीतिक पार्टी के लोगों ने इस मकान को खरीद लिया है। मकान में पार्टी की स्थानीय शाखा का कार्यालय होगा और पार्टी के युवा नेता तथा कुछ कार्यकर्ताओं का निवास भी। मकान की खरीद—बिक्री संबंधी कागजाती कार्रवाई पूरी हो चुकी है। मकान की शुद्धि के लिए हवन—पूजा होने के बाद इसमें पार्टी कार्यालय खुल जाएगा।

लोगों का कहना है कि इस मकान में आने के बाद से ही डॉक्टर साहब के बुरे दिन शुरू हो गए। इस मकान में आने के बाद वे कई तरह की समस्याओं से घिर गए। कई बार तो वे मौत के मुंह में जाते—जाते बचे। एक बार रास्ता पार करते समय वे तेजी से आते एक ट्रक से टकराते—टकराते बचे। एक बार फ्यूज बनाते समय उन्हें बिजली का तेज झटका लगा। वे घंटों बेहोश रहे। यह तो भगवान राम की महिमा थी कि वे बच गए। एक बार मकान की छत से सीढ़ियों से उतरते समय उनके पैर लड़खड़ा गए जिससे उनका एक पैर टूट गया और कूल्हे में गहरी चोट लगी। कई दिनों तक उनके पैर पर पलस्तर चढ़ा रहा। यहां आने के बाद उनकी पत्नी की तबीयत खराब रहने लगी।

नये मकान में आने के बाद वह कर्ज और आर्थिक संकट में फंस गये। उन्होंने अपनी जीवन भर की कमाई और कर्ज जोड़—जोड़ कर शहर के बाहर जमीन खरीदी थी। जब उन्होंने यह जमीन खरीदी थी तब इधर परती जमीन और खेत थे। उन्होंने यह सोचा था कि कुछ वर्षों में इस जमीन पर भी आबादी बस जायेगी। उस समय जमीन की कीमत कम ही थी। अब तो यह जमीन लाखों रुपये की हो गई है। उन्होंने कर्ज लेकर तथा अपने गांव की सम्पत्ति और जमीन बेचकर इस मोहल्ले में मकान बनवा लिया। शहर में अपना एक अच्छा सा मकान होने का सपना तो पूरा हो गया लेकिन उन पर कर्ज का बोझ भी लद गया।

इस मकान में आने के बाद उनका क्लिनिक भी पहले जैसा नहीं चलता था। पहले उनके क्लिनिक में हर तरह के मरीजों की भीड़ लगी रहती थी। गरीब से गरीब और अमीर से अमीर लोग उनसे इलाज करावाते। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे रोगियों से उनकी हैसियत के मुताबिक इलाज के पैसे लेते और सस्ती से सस्ती दवाईयां लिखते। कई बार तो वे गरीब लोेगों का इलाज मुफ्त में ही कर देते। किसी भी समय आप रोगी को देखने बुला लें, वे समय से पहुंच जायेंगे। उनका हाथ बहुत अच्छा था और रोगियों पर उनका इलाज जल्द असर दिखाता। लेकिन जब से उन्होंने मकान बदला तब से उनके क्लिनिक में भीड़ कम रहने लगी।

दरअसल पहले उनका क्लिनिक दूसरे मोहल्ले में था, जहां वे किराये के मकान में रहते थे। नये मकान में आने के बाद वे अपना क्लिनिक भी इसी मोहल्ले में ले आए। उन्हें उम्मीद थी कि नये मोहल्ले में भी उनका क्लिनिक ठीक—ठाक चलेगा और वे बिना किसी कठिनाई के कर्ज चुका सकेंगे। लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा ही। जब से उन्होंने मकान बदला, खासकर जब से क्लिनिक बदला तब से उनके यहां मरीजों का आना पहले की तुलना में काफी कम हो गया। बाद में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिससे उनके क्लिनिक में आने वाले मरीजों की संख्या बहुत ही कम रह गई। किसी दिन तो ऐसा भी होता कि वे मरीजों का इंतजार करते रह जाते।

यह डॉक्टर साहब का दुर्भाग्य रहा कि मकान और क्लिनिक बदलने के बाद ही शहर में दंगा हो गया। पहले उनका क्लिनिक जिसे मोहल्ले में था वह मुस्लिम बहुल था। इसलिए उनके क्लिनिक में आने वाले मरीजों में ज्यादातर मुसलमान ही होते थे। क्लिनिक के नयी जगह में आने के कारण उनके क्लिनिक में रोगियों की तादाद पहले से ही कम रहती थी। दंगा होने के कारण मुसलमान मरीजों की संख्या भी नहीं के बराबर ही रह गयी। एक—दो मुसलमान मरीज कभी—कभार आते थे जो या तो उनके पुराने परिचित होते या पुराने मरीज होते थे।

उनके क्लिनिक में कम रोगी आने का एक कारण यह भी था कि उनके क्लिनिक के निकट ही पंडित वैद्यराज जसराम ने भी अपना क्लिनिक खोल लिया था। वैद्यराम जसराम पूर्णतः धार्मिक व्यक्ति थे। ईश्वर के प्रति उनके मन में गहरी आस्था थी। वे श्री राम के परम भक्त थे। शरीर और आत्मा राम के रंग मेंं रंगी थी। उनके श्रीमुख से दिनभर में हजारों बार राम के नाम निकलते। उनका कहना था कि भगवान राम ने उन्हें सपने में दर्शन दिया और इस मोहल्ले में क्लिनिक खोलकर राम भक्तों के दुःख — तकलीफ दूर करने का आदेश दिया। उनके हाथ में राम की शक्ति निहित है। उनकी दवाईयां उसी संजीवनी बूटी की तरह कारगर हैं जिससे लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर हुई। उनका इलाज राम बाण है। कितना ही पुराना और जानलेवा रोग क्यों न हो, उनकी दवाईयां खाते ही रोग छूमंतर हो जाता है। वे कहते कि यह सब उनके हाथ का चामत्कार नहीं है, बल्कि भगवान राम की महिमा है।

उन्होंने अपने क्लिनिक का नाम भी ‘जय श्री राम क्लिनिक' रखा था और डॉक्टरी पैड पर सबसे ऊपर राम मंदिर का चित्र और राम की महिमा का बखान करती हुई एक चौपाई छपा रखी थी।

इस तरह नयी जगह में क्लिनिक का होना, शहर में दंगा होना और क्लिनिक के बगल में वैद्यराज जसराम की क्लिनिक का होना आदि ऐसे कई कारण थे जिनकी वजह से उनके क्लिनिक में रोगियों का आना कम हो गया था। हालांकि डॉक्टर साहब को उम्मीद थी कि एक—न—एक दिन उनके दिन जरूर बहुरेंगे और क्लिनिक पहले की भांति खूब चलने लगेगा। क्लिनिक में रोगी हो या नहीं डॉक्टर साहब पूरी मुस्तैदी के साथ सुबह दस बजे से देर शाम तक क्लिनिक में मौजूद रहते। सिर्फ दोपहर में ही क्लिनिक घंटे—दो घंटे के लिए बंद होता। कभी—कभी क्लिनिक नौ—दस बजे रात को ही बंद करते, उस दिन की तरह। बताने वाले कहते हैं कि उस दिन भी उन्होंने नौ बजे क्लिनिक बंद करना शुरू किया। जैसे ही वे बाहर निकले कुछ गुंडों ने उन्हें घेर लिया। वे किसी तरह गुंडों से अपने को छुड़ाकर घर की ओर भागने लगे। गुंडों ने उनका पीछा करना शुरू किया। वे पूरे रास्ते ‘बचाओ—बचाओ' चिल्लाते रहे और गुंडे उन्हें रगेदते रहे। वे एक गली में घुसकर अंधेरे में छिप जाना चाहते थे, लेकिन जैसे ही वे गली की ओर मुड़े, उनका पैर पत्थर से टकरा गया और वे लड़खड़ाकर गिर पड़े। गुंडों ने उन्हें पकड़ लिया और उनके सीने से पिस्तौल सटाकर गोली चला दी। गोली की आवाज और डॉक्टर साहब की चीख पूरे मोहल्ले में गूंज गई, लेकिन एक भी आदमी घर से बाहर नहीं निकला। लोग डर के मारे रजाई में दुबके रहे। जाड़े की रात में डर का साया और भी गहरा हो जाता है। डॉक्टर साहब की लाश रात भर ठंड में ठिठुरकर सुबह होते — होते बर्फ की तरह सख्त और सफेद हो चुकी थी और खून दूर—दूर तक फैल कर जम गया था।

खूनी का पता लगाने के लिए मैंने जमीन—आसमान एक कर दिया, मोहल्ले के लोगों से पूछताछ की। इस चक्कर में पुलिस—थाने का भी चक्कर लगाया, लेकिन मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। दरअसल न तो इसमें पुलिस को रूचि है और न ही मोहल्ले वालों को। अब आप ही बताइये कि जब कोई कुछ बताना ही नहीं चाहता तब मैं खूनी का कैसे पता लगाऊं। मैं न तो सी.आई.ए. या आई.एस.आई. का जासूस हूं और न ही कोई तीसमार खोजी पत्रकार हूं। मैं तो अदना से कहानीकार हूं। मैं लोगों से सिर्फ पूछ ही तो सकता हूं। यह लोगों की मर्जी है कि वे बताएं या न बताएं। अगर वे कुछ बताना न चाहें तब उन गुंडों की तरह मैं उनके साथ मार—पीट तो नहीं कर सकता या उन्हें जान से मार देने की धमकी तो नहीं दे सकता। ऐसी कोई बात तो है ही जिसकी वजह से वे कुछ बताना नहीं चाहत। हो सकता है उन्हें यह भय हो कि अगर उन्होंने मुंह खोला तो उन्हें डॉक्टर साहब की तरह निर्दयता से मार डाला जायेगा। अगर ऐसी बात है तो मुद्‌दा वाकई गंभीर है। अब आप यह तो नहीं चाहेंगे कि खूनी का पता लगाए जाने के चक्कर में एक निर्दोष व्यक्ति अपनी जान से ही हाथ धो बैठे। गुंडों का क्या ठिकाना— कब, कहां और किस बात पर किसकी जान ले लें।

यह अंतिम वाक्य डॉक्टर साहब की हत्या के मामले में पूरी तरह सही साबित होता है। सामान्य समझवाला आदमी भी इतना तो समझ ही सकता है कि डॉक्टर साहब जैसा भला और नेक दिल इंसान किसी को ऐसा क्या नुकसान पहुंचाएगा कि वह उनकी जान ही ले ले। इसलिए ऐसे भले मानुष के दुश्मन और कातिल का पता लगाने के साथ—साथ यह पता लगाना भी जरूरी है कि ऐसे निरापद इंसान का खून क्यों हुआ?

‘...... खून क्यों हुआ?'

‘देखिए जब तक खूनी पकड़ा नहीं जाता तब तक यह बता पाना बहुत मुश्किल है कि खून क्यों हुआ। इस थाने में हत्या, मारपीट और खून के रोज ही दर्जनों केस आते रहते हैं। सभी केस अलग—अलग तरह के होते हैं।......हर हत्या एक ही कारण से तो होती नहीं। वैसे इन मामलों में थोड़ी—बहुत समानता तो होती ही है। लेकिन इस आधार पर यह कहना तो बिल्कुल गलत होगा कि हत्या के सभी मामले एक जैस होते हैं। हत्या कई कारणों से हो सकती है। जैसे—आपसी रंजिश, पुरानी दुश्मनी, पैसे का चक्कर, धन—सम्पत्ति हड़पने का मामला, किसी औरत का चक्कर या गुंडागर्दी। इसलिए जब तक खूनी का पता नहीं चल जाता तब तक कोई यह कैसे बता देगा कि खून क्यों हुआ? क्योंकि यह तो खूनी को ही पता होगा कि उसने खून क्यों किया। वैसे तो इसकी एफ.आई.आर. भी दर्ज नहीं करायी गयी। इसलिए हम इस मामले की छान — बीन भी तो नहीं कर सकते। मेरी तो सलाह है कि आप इस चक्कर में पड़े ही नहीं, क्योंकि आपको कुछ हाथ लगने वाला नहीं है।'

‘खून क्यों हुआ? आप तो डॉक्टर......।'

‘भईया मैं क्या बताऊं? मुझे तो लगता है कि ये सब ईश्वर की माया है। गुंडे—बदमाश देश—विदेश में बढ़ते जा रहे हैं, ईमानदार और सीधे—सादे आदमी देश—दुनिया से उठते जा रहे हैं। इसके सिवा मैं और क्या कह सकता हूं?'

‘हत्या क्यों हुई?'

‘डॉक्टर साहब की हत्या से तो मेरा भाग्य में पक्का विश्वास हो गया है। जो भाग्य में लिखा है वह तो होकर ही रहेगा। अब डॉक्टर साहब के भाग्य में अगर यही लिखा था, तब हम क्या कर सकते हैं? भाग्य का लेख न कोई मिटा सकता है, न बदल सकता है।'

‘खून क्यों हुआ?'

‘मैं तो कुछ कह नहीं सकता। क्या कहूं? कुछ कहूंगा तो लोग विश्वास नहीं करेंगे। मैंने डॉक्टर साहब को इस मकान में आने से पहले समझाया था कि डॉक्टर साहब आप नये घर में प्रवेश कर रहे हैं। गृह प्रवेश से पहले पूजा—पाठ करवा लें। हवन—आग जलने से वातावरण शुद्ध हो जाता है। गंदी और दुष्ट आत्माएं भाग जाती हैं। मकान पवित्र हो जाता है। लेकिन डॉक्टर साहब तो आत्मा—परमात्मा में विश्वास करते नहीं थे। मेरी बात उन्होंने हंसी में उड़ा दी। अगर डॉक्टर साहब ने मेरी बात मान ली होती तब यह नौबत आती ही नहीं। अब तो भगवान से मेरी यही प्रार्थना है कि डॉक्टर साहब की आत्मा को मुक्त करे और उन्हें शांति प्रदान करें।'

‘खून क्यों हुआ?'

‘हरे राम हरे राम, सुबह—सुबह आपने मेरे सामने खून का नाम ले लिया। अभी तो मैं पूजा पर से उठा था। लगता है आज मेरा दिन खराब ही बीतेगा। आजकल लोगों का धर्म—कर्म से विश्वास ही उठ गया है। ये सब जो खून—खराबे और मारपीट हो रहे हैं, इसी का नतीजा है। लोग भक्ति—भजन में समय नहीं लगाते— खून और मारपीट में के पीछे पड़े रहते हैं। अब आपको क्या पड़ी है यह सब जानने की। जरा ईश्वर का ध्यान करते और भगवान से प्रार्थना करते कि डॉक्टर साहब की आत्मा को स्वर्ग में स्थान प्रदान करें तब डॉक्टर साहब की आत्मा के लिए अच्छा होता और आपके लिए भी। और कुछ नहीं तो आप राम मंदिर निर्माण के लिए चंदा ही जमा करते या कुछ कार सेवा करते तो हिन्दू धर्म का भला होता। लेकिन आप हैं कि.....।'

‘खून क्यों हुआ?'

‘मैं क्या बता सकता हूं। कोई पुलिस का आदमी तो हूं नहीं। डॉक्टर साहब से भी मेरा कोई घनिष्ठ संबंध नहीं था कि मैं इस मामले में ज्यादा जानने की कोशिश करता। मैं तो बहुत ही शांत और धर्मभीरू स्वभाव का आदमी हूं। इधर—उधर की बातों में ज्यादा पड़ता नहीं। मैं डॉक्टर साहब से एक बार ही मिला था वह भी सामाजिक कार्य के सिलसिले में। राम मंदिर के लिए चंदा लेना था, लेकिन उन्होंने नहीं दिया। अब यह तो अपनी——अपनी श्रद्धा की बात है। कोई जोर—जबर्दस्ती तो है नहीं। अब डॉक्टर साहब तो इस दुुनिया में हैं नहीं, इसलिए उनकी शिकायत करना मुझे सुहाता नहीं है। वैसे वह थे बड़े नेक और रहम दिल, लेकिन उन्हें धर्म के लिए भी कुछ योगदान करना चाहिए था। जब लोग इस धर्म युद्ध में खुलकर योगदान कर रहे हैं तब क्या आप इससे अलग—थलग रह सकते हैं। अगर आप हिन्दू हैं तो हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए आपको आगे आना चाहिए। क्या मैं गलत बोल रहा हूं?'

‘खून क्यों हुआ?'

‘मुझे तो समझ नहीं आ रहा है कि कोई क्यों उनका खून करेगा? लेकिन मौत का क्या ठिकाना? कब किसे अपने फांस में ले ले। मेरा तो मानना है भईया कि मौत जब आनी होगी, तब आकर रहेगी। कोई नहीं बचा पाएगा। मौत के बहाने अलग—अलग हो सकते हैं। हम बस से गिर कर मर सकते हैं, रेलगाड़ी से कटकर मर सकते हैं, पैदल चलते हुए मर सकते हैं। भूकंप में हजारों लोग चींटी की भांति मर जाते हैं, दंगे में लाखों लोग मरते हैं, महामारी में सैंकड़ों लोग तड़प—तड़प कर मर जाते हैं.....। मौत पर किसका बस चलता है। यहां तो हर तरफ मौत का तांडव है। किसकी मौत को याद करें, किसकी मौत पर आंसू बहाएं। मेरा तो मानना है कि चार दिन की जिन्दगानी है—इसे जितना जी लो वही बहुत है।'

‘खून क्यों हुआ? आप कुछ.....।'

‘देखिए महाशय! मैं दिल का साफ आदमी हूं। किसी से दुराव—छिपाव नहीं रखता। मैं डरता भी नहीं किसी से। लेकिन उस रात मैं इतनी गहरी नींद में सो रहा था कि गोली चलने की आवाज ही सुनाई नहीं दी, नहीं तो मैं जरूर बाहर आकर गुंडों के पीछे लग जाता। डॉक्टर साहब मेरे बहुत प्रिय थे। उनके लिए मैं जान भी दे सकता था, लेकिन नींद का क्या करूं। अब तो डॉक्टर साहब नहीं रहे। रोने से भी कुछ हासिल होने वाला नहीं। जिसने भी यह काम किया है, बहुत गलत किया है। लेकिन इसमें डॉक्टर साहब की ओर से भी गलती हुई। आप यह बात किसी को बताइयेगा नहीं। आपको अपना आदमी समझकर बता रहा हूं। सच तो यह है कि उन्होेंने खुद अपने गले में मौत का फंदा डाल लिया। देखिए भाई साहब आज जमाना बहुत खराब हो गया है। फूंक—फूंक कर कदम रखना पड़ता है। जीवन जीना रस्सी पर चलने की तरह है। काफी सतर्क रहना पड़ता है। अब देखिए दंगा हुआ। हिन्दू डॉक्टरों ने मुसलमानों का इलाज करना बंद कर दिया लेकिन डॉक्टर साहब फिर भी नहीं चेते। कुछ हिन्दू भाईयों ने उन्हें समझाया कि क्यों देश के दुश्मनों के लिए मरते रहते हो। दंगा होने पर वह हमें चट से जमीन में गाड़ देते हैं और हम उनकी भरपाई करें। कुछ लोगों ने उन्हें डराया—धमकाया भी कि वह मुसलमानों का इलाज न करें। डराने—धमकाने वाले लोग कोई उनके दुश्मन नहीं थे, वे उनका भला ही चाहते थे। मान लीजिए आपको कोई मुसलमान किसी रोगी को देखने के लिए अपने साथ अपने घर ले गया। अब इस बात की क्या गारंटी है कि वह आपको वहां से जिंदा लौटने को देगा। लेकिन डॉक्टर साहब माने नहीं, वह सबका इलाज करते रहे— हिन्दू—मुसलमान सब का। अब हिन्दू होने के नाते हिन्दू धर्म और हिन्दू भाईयों के प्रति फर्ज तो बनता ही है। उनकी बात मानने में हमारी ही तो भलाई है। लेकिन आप क्या कीजिएगा जब किसी की मति ही मारी जाए। अब पता नहीं डॉक्टर साहब का खून किसने किया, क्यों किया? लेकिन मैं तो यही कहूंगा कि डॉक्टर साहब ने जिंदगी को बहुत हल्के—फुल्के ढंग से लिया।'

अब तो आपको विश्वास हो चुका होगा कि मोहल्ले के लोगों से कुछ उगलवाना रेत में से तेल निकालने के समान है। लोग ऐसी बातें करते हैं कि सुनकर सिर धुनने का क्या, सिर फोड़ लेने का मन करता है। मति डॉक्टर साहब की नहीं, मेरी मारी गई थी जो कहानी के लिए इस विषय का चुना। यह पता लगाना तो खैर समुद्र में से सूई ढूंढने के समान मुश्किल साबित हुआ कि खूनी कौन है? अब यह भी पता नहीं चल पा रहा है कि खून क्यों हुआ? ऐसे में बिना कुछ बताए अगर मुझे कहानी समाप्त करनी पड़ रही है तो पाठकगण मुझे भला—बुरा नहीं कहेंगे—ऐसी मेरी गुजारिश है।