Kutte ki Dum Dharmendra Nirmal द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Kutte ki Dum

कुत्ते की दुम

छोटूू.......।

लड़खड़ाती हुई एक धीमी सी आवाज चोर की तरह इधर उधर झॉकती हुई घर में घुसी और बरामदे में बैठी मॉ के कानों से टकरा ही गयी।

मॉ सूपे में चॉवल लिए कंकड़ चुन रही है।

फेर आ गे रोगहा हॅ ..— मॉ सूपे में चावल को अंगुलियों से फैलाते हुए बुदबुदायी।

तोला का करना हे वो — मॉ के पास बैठी पूजा फुसफुसायी और दबी नजरों से छोटू को देखने लगी। कहीं उसने सुन तो नहीं लिया।

छोटू कोने में रखे सोफे पर बडे आराम से बैठा अपनी हथेली पर धीरे धीरे अपनी दूसरी हथेली को चला रहा है। मानों वह कोई हस्त रेखा का ज्ञाता हो और हाथ की रेखाओ को पढ़ने के पहले हथेली से सहलाकर रेखाओं को उभारने का प्रयास कर रहा हो।

त का बिहिनिया बिहिनिया ले चिल्लई ए—मॉ सिर झुकाए बैठी सूपे पर यंत्रवत हाथ चला रही है।

तैं चुपचाप रहि डोकरी — पूजा ऐेसी बातें कर कभी कभी अपने संग नानी का मन बहला लिया करती है मगर आज ऐसा नहीं हुआ।

मॉ से रहा नहीं गया — का रोज रोज पियई खवई ए।

तैं जानत हस पीएच बर बलावत हे — इस बार पूजा झल्लायी।

पूजा की नजरे छोटू की ओर है । कहीं वह सुन तो नहीं रहा है।

पहले तो पूजा को केवल शक था कि छोटू ने कुछ नहीं सुना है लेकिन अब पूजा ही नहीं पूरे घर को विष्वास हो गया कि उसने कुछ नहीं सुना है। वह अब भी ज्ञान की मूर्ति बना ध्यानमग्न बैठा हुआ है। शांत ! मौन।

वैसे तो छोटू के पास भुन्नु से घृणा करने का कोई भी कारण मौजूद नहीं है लेकिन अब उसने ठान लिया है कि वह शराब को बिलकुल हाथ नहीं लगाएगा। अभी नहीं कभी नहीं। छोटू भुन्नु को भी बता चुका है कि वह शराब छोड़ रहा है। भुन्नु ने ही जिद करके उसे कल एक की जगह दो पैग पिला दी।

अरे, आखरी बार तो पी रहे हो यार , कौन सा मार रोज रोज पीओगे अब।

छोटू ना नही कर सका।

अबे, पता है , भाभी का पॉव भारी है —चखने को उंगली से चॉटते हुए छोटू बोला।

पार्टी तो बनता है भाई — भुन्नु ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया।

अरे इसमें भी बोलने वाली बात है यार !

नहीं ! नहीं !! बधाई हो दोस्त, बधाई हो।

धन्यवाद ! और गिलास उठाकर गटागट खाली करने लगा।

सोच रहा हॅू गिफ्‌ट में क्या दूॅ — खाली गिलास रखते हुए छोटू ने भुन्नु की राय जाननी चाही।

उसमें सोचने वाली क्या बात है बॉस , समय तो आने दो पहले। तू तो ऐसे बात कर रहा है कि कब बबा मरे कब बरा भात खाए।

बजट तो बनाना पड़ता है भाई। पहिली बार घर में कोई नया मेहमान आ रहा है। स्वागत तो करना पड़ेगा न।

ठीक है ठीक है.....भुन्नु फिर से पैग बनाने लगा।

अबे, समझता भी नहीं है यार ! यही तो टेंषन है, लड़की हुई तो पायल ले दूॅगा और लड़का हुआ तो.....अब प्रष्नवाचक मुद्रा में वह भुन्नु को देखने लगा —'तो' ... बोल न बे !

इस 'तो' का भुन्नु के पास कोई जवाब नहीं था।

अक्सर छोटू के 'तो' का भुन्नु के पास कोई जवाब नहीं होता। भुन्नु ही क्यों छोटू के घर में भी उसके 'तो 'का कोई तोड़ नहीं होता। छोटू अपने दोस्तों और भाइयों में सबसे ज्यादा पढ़ा लिखा है और तेज दिमाग वाला भी। लेकिन कहते है न आदमी का अच्छी बातें करना ही काफी नहीं होता वरना अच्छी बातें तो किताबों और दीवारों में भी लिखी हुई मिल जाती है।

हूॅ समय तो आने दे — छोटू आधी हॅसी हॅसता है।

झूमते हुए भुन्नु ने बात की दिषा बदल दी — बचपन भी क्या जिंदगी होती है यार। जरा सा पें ....कर दिए सारी मॉगे पूरी। .....जो जी में आए करो, क्यों।

चल बता , तेरा नाम भुन्नु कैसे पड़ा। तू बता अब। छोटू को चढ़ने लगी अब।

मालूम, बचपन में न अपनी मॉगे लेकर ऑचल पकड़े मॉ के पीछे पीछे घूमा करता था पें ऐं....पें ऐं....— भुन्नु बच्चों का सा मुॅह बनाकर नकल उतारता है — किसी के बुलाने पर नहीं आता था। मेरे दादा कहते — दिन भर भौंरे की तरह भुन भुन करता रहता है। तेरा नाम भुन्नु होना चाहिए और मैं भुनेसर से भुन्नु हो गया।

अचानक भुन्नु ने देखा छोटू का सिर हिलने लगा है बोला नहीं मगर मन में जरूर आया —' लो अब हो गया न काम। धीरे धीरे दोनों वहीं निढाल हो गए।

सुबह सबेरे एक छोटी चिकोटी सी गाल में कटी तब छोटू की नींद फुर्र हुई। उसकी नजरों ने तलाषा कमरे में तो कोई नहीं है सिवाय खिड़की से होकर अंदर घूस आई सूरज की किरणों के। जो अब भी उसकी बगल में खेल रही हैं। वह अपने को मुस्कराने से नहीं रोक पाया। उसे अपने आप में अच्छा और कुछ बदला बदला सा महसूस हो रहा है। उसके अंदर कुछ नाच रहा है। संभवतः वह लत छोड़ने की खुषी है। वह कुछ देर यूॅ ही सोचता लेटा रहा। चलो ! अच्छा ही होगा। कम से कम एक कलंक तो सिर पर से मिट जाएगा। रोज रोज उसी कारण घर में किचकिच अलग। फिर अकस्मात उसके कानों में एक उड़ता हुआ जुमला जो कल टकराया था आज फिर से कान के द्वार को खटखटा रहा है। आजकल चौराहे में लोग कहा करते है —देखत हौ रे ! गुरूजी ल अउ गुरूजी के टूरामन ल देखौ। छोटू के भीतर कुछ धसकता जा रहा है । आसपास के गॉवों में कितने प्रसिध्द है बाबूजी अपनी रामायण मंडलियों में टीका के कारण। अब तो वे टीकाकार से प्रतियोगिताओं में निर्णायक के पद पर सुषोभित होने लगे है।। लोग उनका नाम कितने आदर से लेते है। हवा के एक ताजे और हल्के झोके ने उसे विचारो के कमरे से उठाकर बाहर धकेला। उसने देखा किरणें दानें चुगती गौरैया सी चहकती फुदकती उसके बिस्तर से थोड़ी दूर हो गई है। अभी अभी तो नहा धोकर बैठा है वह।

कल रात उसे बहुत चढ़ गई थी। उसे तो यह भी नही पता कि पड़ोस का मुन्ना और विनोद बेहोषी की हालत में उसे घर छोड़ गए। दो पैग के थोड़ी देर बाद क्या हुआ उसे कुछ नहीं पता। वह अपने दिमाग पर बहुत जोर दे देकर याद करने की कोषिष कर रहा है। हॉ , थोड़ा थोड़ा याद आ रहा है । देर रात उसे पेषाब लगी थी जोर की । उठने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था वह। जैसे तैसे उठकर बाथरूम की तरफ गया। लघुषंका से फारिग होकर लौट रहा था कि किसी चीज से टकराया था वह।

उसे कुछ कुछ याद है। उसके मुॅह में ठण्डे पानी के छींटे पड़े थे। हल्की सी ऑख खुलने पर उसने देखा। मॉ बाबूजी उसे उठाकर बिस्तर पर डाल रहे हैं। बाबूजी हॉफते हुए बड़बड़ा रहे हैं — इस उम्र में जो हमें सम्हालते उसे हमें सम्हालना पड़ रहा है, यही दिन देखना बाकी रह गया था और एकाएक बाबूजी की खॉसी बढ़ गयी थी। मॉ शायद किसी कोने में बैठी रही होगी भीगी बिल्ली की तरह दुबककर। संभवतः रो रही होगी। रोएगी भी क्या बेचारी ! बहाने के लिए ऑसू भी नहीं बचे होंगे ऑखों में। उसे सूझ नहीं रहा होगा कि वह अपने सुहाग को देखे कि गोद को। बेटे को समझाए तो बेटा नाराज , जरा सा मुॅह क्या खोले कि पति के धारदार लंबे चौड़े भाषण —तेरे लाड़ और शह ने ही बिगाड़ा है सबको। यही संस्कार सिखाए है तुने बच्चों को। कमा खा नहीं सकते तो कम से कम ढंग से रहना तो जानते। तमाषा बनाकर रख दिया है। खुद इज्जत कमाना नहीं जानते तो मेरी बनी बुनाई इज्जत पर कीचड़ उछालने पर क्यों तुले हुए है ये लोग। उस समय मॉ की हालत दो पाटो के बीच फॅसी गेहूॅ की तरह होती है। गेंहू क्यों ? घुन कहे तो भी अतिषयोक्ति नहीं होगी। इस्पाती जवान बेटे को शराब पी रही है और मॉ को घुन खाए जा रही है। ऐसे समय में मॉ अक्सर मुॅह पर पट्‌टी बॉध लेती है। बॉधे भी क्यों न। जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो बाजार का क्या दोष ? कोई जबरदस्ती थोड़े मुॅह में उड़ेल देगा भला। हाय री किस्मत ! मॉ का मन करता है कि दहाड़ मारकर रोऍ , मगर परिस्थियों की दीवार इतनी मजबूत हो गई है कि हर दहाड़ अंदर ही दम तोड़ देती है।

छोटू ..... फिर वही आवाज।

अब की बार मॉ से नहीं रहा गया —कोन ए चिल्लावत तो हे रे।

मॉ ने जानबूझकर भुन्नु का नाम अपनी जुबान पर नहीं आने दिया। मॉ को उसके नाम से घिन होने लगी है। उसका नाम लेते हुए उसके अंतस में कहीं 'किच्च सी' होने लगती है।

मॉ की बात छोटू को हजम नहीं हुई। अक्सर मॉ की बातों से उसका छोटा मगज जाग उठता है। मॉ की बातें हमेषा कड़वी लगती है। मॉऍ अक्सर ऐसी कड़वी घॅूंट पिलाती है जब संताने बीमार हो चले। वे अपने अनुभवों की पोटली से यह तथ्य निकालती है कि दवाई जितनी कड़वी होती है उतनी ही असरदार होती है। मगर छोटू के संबंध में उसके सारे अनुभव अनुमानों ने मानों आत्महत्या कर ली है।

कहती है — कमीने लोग बुलाकर ले जाते है रोज रोज पीना बस। बस इसी बात पर छोटू को चिढ़ आती है। मॉ मेरे दोस्तों को क्यों बकती है। बुरा मै हूॅ तो मुझे गाली देना चाहिए ,मारना है मुझे मारे पीटे न।

मॉ का कहना भी अनुचित नहीं है, बेटे को समझाते समझाते थक हार गयी तो अब सिवााय बड़बड़ाने के कर भी क्या सकती है बेचारी।

अब तक छोटू का हस्तरेखा ज्ञान व ध्यान दोनों चरमसीमा पर आ पहुॅचा था। मॉ की बातें सुन वह भी कहीं नौ दो ग्यारह हो गया। उसका चेहरा दुर्वासा रिसि की तरह तमतमा उठा। उसकी तनी हुई भौंहे देखकर मॉ पूजा और पूरे घर को समझ में आ गया कि वह सारी बातें सुन रहा था , यहॉ तक कि भुन्नु के पुकारने की आवाज भी। सबको एक बारगी यह भय सताने लगा कि वह शाम को जरूर पीकर आएगा और इस कनफूसी बात पर फिर से लड़ेगा।

अक्सर ऐसा होता आया है। आड़ी तिरछी सीधी किसी भी बात का जवाब छोटू जब तत्काल नहीं देता तब उस समय का उसका मौन मानो तूफान के पूर्व की शांति सिध्द होती है। वह पीने के बाद घर में उसी बात को लेकर लड़ाई करता है। पीयकड़ू लोगों की आदतें ऐसी ही होती है। बिन पीए होते है तो चूहे की तरह बिल में दूबके हुए से रहते हैं, मुॅह से एक भी बोल नहीं फूटता। पीए कि बस ...पूछो ही मत। गीदड़ भी पीने के बाद शेर हो जाता है। दिल खोलकर सच बोलता है और डंके की चोट पर बोलता है। तभी तो बोतल का पैसा मैं देता हॅू कहने पर जब भुन्नु ने हॅसते हुए टॉंट मारा था कि क्या बात है ? लॉटरी लगी है क्या ? उसने कहा था — भॉंजी के लिए दवाई लेना था। दीदी ने पैसे दिए थे पर मैंने रकम डायरी में नामे लिखवा कर पैसे इधर भसका लिए। उस दिन दोनों ने छककर पी थी। घर में उस दिन हंगामा भी खूब मचा था। मॉ के मन की रही सही आषा उसी दिन पूरी तरह चरमराकर टूटी थी। पहले तो छोड़ दिया हूॅ कहकर उॅगलियों में मुष्किल से चार दिन गुजारता। पॉचवे दिन फिर शुरू। इस बार पखवाड़ा बीत चुका था। न ही पी रहा था न फालतू घूम फिर रहा था। अपने काम से मतलब रखता। सबसे अच्छी बातें करता। भला चंगा और सुंदर लगने लगा था। मॉ खुष थी। कभी कभार शंका सिर उठाने की कोषिष करती कि क्या पता ? मगर मॉ के इरादे उसका फन तुरंत कुचल देती — नहीं ! नहीं !! अब ऐसा नहीं होगा। इस बार बहुत दिन हो गए। मन ही मन आषीष देती —खुस रहव बेटा जिंहॉ रहव बने सुग्घर खावव कमावव। बेटे ने उस दिन ''बने सुग्घर'' कमाया। सोलहवें दिन ऐसे पीकर आया। मॉ को मॉ और बाप को बाप नहीं जाना। सबकी मॉ— बहन एक कर दी। ऐसे लोगो का क्या भरोसा ? रात की बातें सुबह याद नहीं रहती। सच पूछो तो मॉ ने उसी दिन से छोटू के लिए अपने आपको मरी हुई मान ली है।

छोटू छटपटाते हुए बाहर निकला। उसकी छटपटाहट सभी को स्पष्ट दिखाई दे रही है। सब के सब एक छटपटाहट लिए दूसरी छटपटाहट को जाते हुए देख रहे हैं। छटपटाहट बाहर भीतर दोनों जगह। एक दृष्य दूसरी अदृष्य। मॉ जाते हुए छोटू को मन ही मन कोसते घूर रही है — जा कोट कोट ले पी के आ जाबे फेर। पूजा मॉ का मन ताड़ गयी। बोली अब मामा ने पीना छोड़ दिया है। मॉ चॉवल का सूपा चलाते हुए घूरी जैसे कह रही हो — कुत्ते की पूॅछ कभी सीधी हो सकती है भला। पता नहीं पर परसो वही बता रहा था — पूजा ने मॉ का मन रखा। कहते हुए मन तो पूजा का भी डॉवाडोल हुआ कि छोटू को ऐसा कहते तो आज चार दिन हो गए और ऐसा सत्रह सौ साठ बार हो चुका है।

मॉ के अपने शब्दकोष में अब कम से कम छोटू के नाम से विष्वास शब्द ऐसे रेखांकित हो गया है जिसे वह जानना करना तो चाहती है लेकिन सुनना नहीं चाहती और न ही मानना चाहती है। पहले वह आषा का दामन थामें इस अतल विचार की गहराई में अकेले निःषंक उतर जाया करती थी कि शायद.... अगर कहीं ऐसा हो जाए लेकिन अब उसे पूरी तरह समझ में आ गया है कि शायद और अगर से जिन्दगी नहीं चलती। मॉ के लिए विष्वास अब घर घर और कंठ कंठ में रखे रचे बसे तुलसी के उस मानस की तरह हो गया है जिसे सब जानते सुनते हुए भी बार बार सुनना चाहते है। सुनते भी है , गुनते भी है लेकिन जीवन में ढालने में असहाय हो जाते हैं।

छोटू बाहर निकलकर देखा दरवाजे पर भुन्नु पहरा दे रहा है।

क्या बे ? छोटू के मुख से बोल नहीं फूटे लेकिन उसके अंदाज से भुन्नु समझ गया।

चल न आते हैं — बोलने के साथ साथ भुन्नु ने सिर हिलाकर कुछ इषारा किया।

नहीं यार मेरे सिर में बहुत दर्द है — सिर पर हाथ रगडते हुए छोटू ने असहमति जताई।

भुन्नु मुस्कुराया— उतारा मॉग रहा है क्या ?

...............।

कल ज्यादा चढ़ गई थी ?

तो बे , आखरी बार है आखरी बार है कहकर पूरी टंकी ही भर दिए थे।

छोटू की हॅसी में भुन्नु ने अपनी मुस्कुराहट मिला दी। वह तो आदी है आधी डिस्पोजल षराब में पानी मिलाने का। अब भी कुछ अलग क्या किया है ?

बहुत थोड़ी देर के लिए सन्नाटा वहॉ रूका फिर चला गया। छोटू इधर उधर कर घर के भीतर धीरे से झॉका और जेब में हाथ डाले चलने लगा। भुन्नु भी अपने हाथ हिलाते उसके साथ हो लिया।

जब वे दोनों ऑखो से ओझल होने को हुए। गली के मोड़ ने इषारे से बताया कि ये लोग किधर जा रहे है। घर का दरवाजा मुॅह फाड़े यही सोचता रहा— मॉ सच कहती है , कुत्ते की दुम कभी सीधी हो सकती है भला।

धर्मेन्द्र निर्मल