खिड़की में नकल
निर्मल गुप्त
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खिड़की में नकल की अक्ल रहती है !
उल्लुओं का होना बनना और बाजार की डिमांड
छोटे जी क्यों पकड़े गये घ्
कहाँ है टोबा टेक सिंह घ्
भूकम्प आया तो क्यों आया
खिड़की में नकल की अक्ल रहती है !
आज राह चलते जब अचानक ज्योति से मेरी मुलाकात हुई तो उसका मुरझाया और बेरंग चेहरा देखकर मैं हत्प्रभ रह गई। पूछने पर उसने बताया कि उसका पति किसी दूसरी नारी के प्यार में उलझकर ज्योति पर अत्याचार करता था और अपने बच्चे की दैनिक आवश्यक्ताओं पर भी ध्यान नहीं देता था। उसकी व्यथा और दशा सुनकर मेरी आत्मा भी व्यथित हो गई।
सारे मुल्क ने देखा स कई कई बार देखा स इसलिए देखा क्योंकि देखने में कोई हर्ज नहीं था कि दीवारों में खिड़कियाँ होती हैं स सिर्फ होती ही नहीं वरन उसमें रहती हैं स दीवार के उस पार मूढ़़मति नकलची रहते हैं स दीवार के इस पार अक्लमंद नकल प्रोवाइडर रहते हैं स इसके आरपार हमारी शिक्षा प्रणाली और पूरा सिस्टम रहता है स सिस्टेमेटीक तरीके से रहता हैस इसमें सबकी अपनी—अपनी भूमिका होती है स समस्त अभिनेता अपने रोल को पूरी लगन और शिद्दत से निबाहते हैं स
खिड़कियों से केवल ताजी हवा और रौशनी ही नहीं आतीए इसमें से बुद्धिमत्ता का सर्टीफिकेट पाने का शार्टकट निकलता है स खिड़कियों की मुंडेरों पर कबूतरों की तरह टीक कर गुटरगूँ गुटरगूँ करने का हुनर आता है स जांबाजी दिखाने का मौका मिलता है स यह भी पता लगता है कि खिड़कियों की सत्ता केवल कम्प्यूटर की विंडोज तक सीमित नहीं है स नैटजनित आभासी संसार से इतर भी खांटी खिड़कियों की उपयोगिता बरकरार है स खिड़कियाँ कालजयी होती हैं स
एक वक्त था जब इन्हीं खिड़कियों की वजह से नैनों की विविध भावभंगिमा की रोशनाई से लिखे अ—श्य प्रेमगीतों का आदानप्रदान हो जाया करता था स अनेक लोग इन्हीं खिड़कियों के चलते सफल या असफल प्रेमी बने स सफल प्रेमी बच्चों के पापा हो गए और खिड़कियाँ उनसे दूर होती गयीं स असफल प्रेमी खिड़कियों से ताउम्र चिपके रह गए स
कम्प्यूटर पर डेरा जमाए विंडोज ने सूचना के आदानप्रदान को आसान बना दिया है स विद्यालयों की खिड़कियों ने नकल की अहमंयता कम नहीं होने दी है स सोशल मीडिया पर नकल की वायरल हुई फोटो ने नकल के कारोबार की ख्याति को ग्लोबल किया है स विंडोज के जरिये खिड़कियों को नया आयाम और व्यापक पहचान मिली है स सर्वशिक्षा अभियान को गति मिली है स रुखे सूखे अध्ययन मनन की सनातन परिपाटी में हींगए जीरे और लहसुन का स्वादिष्ट तड़का लगा है स
दीवार में खिड़की अरसे से रहती आई है स यह बात हिंदी साहित्य के अधिकांश पाठकों को पता है स जिन्होंने यह बात किसी वजह से नहीं सुनी उन्हें भी पता लग गया है कि दीवारों में बनी खिड़कियों की महती कृपा से बिना पढ़े लिखे ही लोग पढ़़े लिखे जैसे लगने लगते हैं स इन्हीं खिड़कियों के जरिये परीक्षा पर्चे में दिए सवालों के जवाब प्रकट होते हैं और उत्तर पुस्तिका पर जाकर खुद—ब—खुद चिपक जाते हैं स
कोई दीवार चाहे जितनी मजबूत हो लेकिन उसमें नकल करने और करवाने वालों के लिए सदैव एक जिंदा उम्मीद रहती हैस नकल की अक्ल बसती है स
उल्लुओं का होना बनना और बाजार की डिमांड
अमावस्या की वह रात बीत जायेगी जिसे दीपावली कहा जाता है। तब उल्लू राहत की साँस लेंगे। उल्लुओं की जान तांत्रिक अनुष्ठानों के चलते साँसत में जा फँसने की खबर है। लक्ष्मीजी के स्थाई वास हेतु तंत्र पूजा के लिए उल्लुओं की आजकल बाजार में बड़ी डिमांड है। कुछ नादान पकड़े जा चुके हैं। सयाने बच निकले हैं।
उल्लुओं का इस दुनिया में बने रहना जरूरी है। अनेक धंधे उन उल्लुओं के सहारे चलते हैं जो उल्लू होते हुए भी उस जैसे दिखते नहीं। उल्लू भी नहीं चाहते कि वे उल्लुओं जैसे दिखें क्योंकि उन जैसा दिखने में ही जोखिम है। दीवाली बोनान्जा के नाम पर कोई उल्लू की आँख से निर्मित बुरी नजर से बचाने वाला ताबीज बेच रहा है तो कोई उसके अस्थिपिंजर से मर्दानी ताकत बढ़़ाने वाला गंडा। कोई उसके खून से गंजी सिलवट पर केश की खेती लहलहाने वाले उर्वरक की मेक इन इण्डिया टाइप की दुकान जमाये है तो कोई उसके किसी अवयव से शर्तिया लड़का पैदा करने वाला मनीबैक गारंटी वाले नुस्खे की सेल। दुर्लभ सपने मुँहमागी कीमत पर तीज त्योहारों पर ही बिकते हैं।
पर्यावरणवादी रात—रात भर जाग कर उल्लुओं की निरंतर घटती जनसँख्या पर चिंतन करते हैं। सुबह होती है तो उनके चिंतन की डाल पर घर द्वारे से गुमशुदा हुई गौरेया आ बैठती है। दुपहर में वे विडालवंशियों की घटती संख्या पर जनचेतना जगाते हैं। शाम होते न होते उन्हें सफेद गर्दन वाले मुर्दाखोर गिद्ध याद हो आते हैं। रात में कोई विदेशी एजेंसी बताती है कि गिद्धों की संख्या बढ़़ने लगी है तो उनके माथे पर अंकित दुश्चिंताओं की लकीरें घटती हैं। कभी—कभी ही वे मुस्कराते हुए दिखते हैं। इससे पूर्व वे खुल कर हँसते हुए तब दिखे थेएजब आंसू बहाने वाले मगरमच्छों और रंग बदलने वाले गिरगिटों की जनसंख्या बढ़़ने की सूचना आई थी।
कुछ उल्लू जन्मजात होते हैं तो कुछ उल्लू बना डाले जाते हैं । समाज में जिसकी उपयोगिता होती है उनकी तादाद खुदबखुद बढ़़ती रहती है। चहचहाने वाली चिड़ियें लुप्त होती जा रही हैं पर इसकी किसी को फिक्र नहीं। वैसे भी पंछियों के कलरव की इस दुनिया को जरूरत नहीं। बाघ की अपेक्षा गीदड़ इस दुनिया में अधिक फिट हैं इसीलिए बाघ समाप्ति की कगार पर हैं और गीदड़ों की तमाम नस्लें बरकरार है।
गिद्धोंए गिरगिटोंए मगरमच्छोंए गीदड़ों और उल्लुओं की उपयोगिता हैए इसलिए वे हैं और रहेंगे।
छोटे जी क्यों पकड़े गये घ्
छोटेजी धरे गये। बाली में पकड़े गये। उनकी उम्र इतनी बाली भी न थी फिर भी। बरेली में पकड़े जाते तो कुछ और बात होती। वहां गिरे मिथकीय झुमके को खोजता हुआ कोई भी अपनी सुधबुध खोकर गिरफ्त में आ सकता है। बड़ेजी यह ढ़ूँढ़—ढ़कोल जैसा फिजूल का काम नहीं करते। उनके पास इस तरह का काम करने के लिए तमाम तरह के कारिंदे हैं। यही वजह है कि वह मस्त रहते हैं—एकदम रिलेक्स। वह दोस्तों के साथ घर की बैठक में बैठकर मजे से ष्पपलूष् खेलते है। वह लगातार जीतते जाते हैं। दोस्त लोग बड़ेजी के ताश कौशल पर हैरान हैं। अपनी जीत पर उनके ठहाके गली के बाहर नुक्कड़ तक साफ सुनाई देते हैं। बड़ेजी की बेगम पान के जोड़े के साथ धीरे हंसने की सलाह भिजवा चुकी हैं। मुलाजिम कान में बता आया है कि छोटा पकड़ा जा चुका है। श्जो पपलू नहीं खेलेगा वह पकड़ा ही जाएगाश् एकह कर वह इतनी जोर से हंसे कि दोस्त बिना वजह जाने उनकी हंसी—खुशी में शामिल हो लिये।
सारा ष्अंडरवर्डष् ताज्जुब में है कि छोटा ष्घरघुसराष् था फिर भी पकड़ा गया। बड़ेजी बिंदास रहते हैं। खाते पीते मौज करते हैं। दरियादिल इतने कि गुप्तचर भाइयों के प्रमोशन की खातिर जहाँ —तहां जाकर फोटो भी खिंचवा आते है। राशनकार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस बनवा कर उसकी फोटोस्टेट कॉपी उन्हें मुहेया करा देते हैं। बेगम को कह रखा है कि अपना कोई हिन्दुस्तानी भाईबंद जासूस या गोपीचंद आये तो उस बिना शर्बत पिलाये न जाने देना। बेगम मुंह सिकोड़ती तो कहते कि बेफिक्र रहो। वे भी बाल बच्चे वाले हैं। वे अपना काम करने में लगे हैंएजैसे हम। आप उनकी आवभगत करती रहें।
छोटा हमेशा छुप कर रहा। किसी को अपने होने की भनक तक न लगने दी। घर और भेष बदलता रहा। बंद कमरे की सिर्फ दीवारों पर ही नहीं दरवाजे पर लगी सिटकनी से लेकर बिस्तर पर बिछी चादर तक पर शक करता रहा। न कभी खुल कर हँसाए न कभी ढ़ंग से बोला। हरदम तीनसौ साठ डिग्री पर गर्दन घुमाता रहा। इसके लिए उसने गुपचुप गर्दन की सर्जरी तक कराई ताकि वह सरलता से चारों ओर घूम सके।
छोटा चौकस था। उसके पास रिवाल्विंग गर्दन थी। गोपनीय तंत्र था। फूंक—फूंक कर ष्चिल्डष् दूध को पीने का मंत्र जानता था। तमाम तीन तिकड़म का पता था। दबे पाँव चलने में कुशल थाए फिर भी वो पकड़ा गया। यदि कोई यक्ष होता तो वह यह सवाल जरूर उठाता कि छोटा ही कयों पकड़ में आया घ् इसका सीधा सादा जवाब यह है कि बड़ा बड़ा होता है और छोटा छोटा ही होता है। लेकिन यक्ष जैसे लोग ऐसे जवाबों से संतुष्ट नहीं हुआ करते।
मैं धर्मराज नहीं एकदम दुनियादार हूँ। लेकिन मुझे इस प्रश्न का सटीक उत्तर पता है। पकड़ा वो जाता हैए जिसके पास जनसंपर्क (पीआर) का चातुर्य नहीं होता। यह बात सब जानते हैं कि जो पकड़ा जाए वो नौसिखिया चोर और जो धरपकड़ से बच निकले वह डॉनए जिसे तमाम मुल्कों की पुलिस ढ़ूंढ़ती नहींए छुप्प्म—छुपाई का खेल खेलती है।
कहाँ है टोबा टेक सिंह घ्
वह कद में नाटा और शरीर से स्थूल है। वह फिजिकली छोटा मोटा है। उसे यकीन है कि वह लेखक कद्दावर है। एक दिन वह ऊँचे दरख्त पर कुल्हाड़ी लेकर जा बैठा और उसी डाल को काटने लगा जिस पर बैठा हुआ था। एक राहगीर ने पूछ लिया—अरे भाई यह क्या करते होघ् उसने प्रश्नकर्ता की ओर हिकारत से देखा। उसी तरह देखा जैसे महान लेखक अमूमन पाठक की तरफ देखते हैं। कहा—दिखता नहीं क्याघ् मैं पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलता हुआ यहाँ तक पहुंचा हूँ।
आप आखिर करना क्या चाह रहे हैंघ् जिज्ञासु राहगीर असल में राहगीर नहीं सुबह—सवेरे टहलने वाला है। उसने जिरह जारी रखी। मानिर्ंग वॉकर स्वभावतः दार्शनिक टाइप के होते हैं। वह बात में से बात निकालते जाते हैं और संवाद का सिरा कभी गुम नहीं होने देते।
आपके पास कैमरा हैघ् ऊपर से आवाज आई जो दरअसल सवाल की शक्ल में थी। श्आपके पास माइक हैघ् दूसरा सवाल भी पेड़ से नीचे उतरा।
राहगीर अचकचाया। उसने अपने बचाव के लिए जेब से मोबाइल निकाल लिया। पहले जिस तरह संकट प्रकट होने पर आम आदमी लाठी डंडा या पत्थर उठाता था अब मोबाईल उठा लेता है।
मैं समझ गया। आप फेसबुक वाले है । पेड़ से इस बार अनुमान नमूदार हुआ ।
—नहीं। मैं ब्लागर हूँ। क्या अपने पर्सनल ब्लॉग के लिए तस्वीर ले सकता हूँघ्उसके इस सवाल में सोशल मीडिया वाली जल्दबाजी है । राहगीर कम मानिर्ंग वॉकर कम ब्लॉगर ने गुलेल की तरह मोबाईल पेड़ वाले की और ताना और पूछाएआपका नामघ्पेड़ से कोई जवाब नहीं आया । उसने अपना सवाल बुलंद आवाज में फिर दोहराया। ऊपर वाला चुप रहा। जब तीसरी बार यही सवाल फिर आया तो पेड़ की कोटर में बैठे उल्लू ने आखें मिचमिचाते हुए बाहर झाँका और बतायारू वह अपनी निजी जानकारी अजनबियों से शेयर नहीं करता।
श्क्या आप उनके प्रवक्ता हैंघ्श्जमीन से उठा सवाल कोटर तक गया।
श्प्रवक्ता नहीं उनका वेल विशर। जब से आदमी आदमी की जान का दुश्मन बना है तब से हम उसके शुभचिंतक बन गये हैंश्। उल्लू ने बताया और फट से कोटर का दरवाजा बंद कर लिया ।
राहगीर ने हुम्म किया और बडबडाता हुआ अपने रास्ते चल दिया। उसने ब्लॉग पर सारा वाकया लिखा। पेड़ पर टंगे ष्छोटे मोटेष् की तस्वीर चस्पा की । उसे फेसबुक और टी्वटर पर शेयर किया। पोस्ट वायरल हो गयी। कुछ ही देर में पेड़ के नीचे मीडिया का जमघट लग गया।
पेड़ पर बैठे आदमी ने कुल्हाड़ी को बगल की डाल पर अटका दिया। जेब से कंघा निकाल कर बाल संवारे । कमीज का कॉलर दुरुस्त किया।
ष्आपका नामघ्ष् नीचे से पहला सवाल आया।
ष्सिर्फ काम की बात करेंष्। ऊपर से सुझाव मिला।
ष्आप वहां क्यों टंगे हैंघ्ष् किसी ने पूछा।
ष्इस असहिष्णु और क्रूर समय में लेखक यहीं सुरक्षित रह सकता हैष्ए जवाब मिला।
ष्कैसे कैसेघ्ष् अनेक प्रश्न एक साथ आये।
ष्पेड़ शरण देने से पहले मजहब नहीं पूछता। इसकी कोटर में रहने वाले उल्लू उदार हैं । मेरी पर्सनल फ्रीडम की कद्र करते हैंष्। ब्रेकिंग न्यूज—ब्रेकिंग न्यूजए पेड़ के नीचे चीख पुकार शुरू हुई ष्आपका नाम क्या है सरघ्ष् नीचे से ससम्मान गुहार हुई । मेरा नाम है बिशन सिंह वल्द सआदत हसन मंटो। मजहब जेड़ा नाम मुहब्बत।
ष्आप पेड़ पर बैठ कर क्या रहे हैंष्घ् सवाल में हैरानी थी।
ष्मैं अपना पिंड टोबा टेक सिंह ढ़ूंढ़ रहा हूँष्घ् आपको पता हो तो बताएंघ् आवाज में नमी थी जिसे सबने महसूस किया।
ष्आप आखिर कहना या करना क्या चाहते हैंघ्ष् मीडिया वालों ने पूछा।
ष्औपड़ दि गड़ गड़ अनैक्स दि बेध्यानां दि तुर दि दाल आफ दि बीफ ते कलबुर्गी ते अकादमी अवार्डष्। पेड़ की डाल पर बैठे आदमी ने तल्ख स्वर में कहा और कुल्हाड़ी से फिर वही डाल काटने लगा जिस पर वह बैठा था।
मेरा नाम बिशन सिंह नहीं... कबीर है... नहीं नही... कालिदास है। वह बुदबुदाता रहा। मीडिया वाले उसके डाल से गिरने या उतरने का इंतजार किये बिना आगे बढ़़ लिये।
भूकम्प आया तो क्यों आया
दिल्ली हिली । भूकम्प आया । यह पता नहीं कि कौन सी बात पहले हुई । अफगानिस्तान के हिन्दुकुश इलाके में हिंदुत्व के होने का पता पहले लगा या लुटीयन जोन में रखी अटकलों की लुटीया पहले छलकी । लेकिन कुछ न कुछ हुआ जरूर जो लोग बिना हिलेडुले एक दूसरे से पूछने लगे—व्हाट हैप्पिंड । फोन घनघना उठे । व्हाट्स एप पर चिंताओं की चीलें चिंचियाने लगीं । आशंकाओं की फिरकनी घूमने लगी। फेसबुक अचानक गुलजार हो गया। गुलजार जी का गीत याद आने लगा—इब्नबतूता पहन कर जूता। दिक्कत तब आ खड़ी हुई कि उनकी उलटबांसियों जैसी कविताओं को लेकर लोगों के भीतर फिट मैमोरी काडोर्ं ने बगावत कर दी। तब मुनव्वर राणा बहुत याद आये। पर समस्या यह पैदा हुई कि उनके अशआरों में से कौन से वाले याद किये जाएँ और किन्हें दरकिनार किया जाए । इस बंदे के बारे में यही पता नहीं कि वह आखिर कौन से पाले में खड़ा है । भूकम्प के खिलाफ या उसके समर्थन में ।
दिल्ली में भूकम्प आया तो भरी दोपहरी में आया। लंच टाइम के बाद तब आया जब शहर की औरतें डबल बैड पर लेट कर टीवी के रिमोट से घरेलू राजनीति के दांवपेंच सीखती हैं। आदमी अपने—अपने दफ्तरों में खाना खाकर ऊँघने के लिए मौका तलाशते हैं। दिहाड़ी मजदूर हमेशा की तरह काम में जुटे होते हैं। छोले भटूरे वाला काम निबटा कर कढ़़ाई मांजने की जुगत में होता है। चाय वाला व्यस्त रहता है। चायवाले अमूमन सबसे अधिक बिजी रहते हैं। उनके सपनों और बातों का भगौना हरदम खदबदाता रहता है।
भूकम्प आया तो सही। पर बेवक्त आया। इसे आना ही था तो कायदे से आता। पहले से बता कर आता। दरवाजा नॉक करके या गला खंखार कर आता। भलेमानस की तरह आता।
सोशल मीडिया वालों को तैयारी का मौका देता। उन्हें पहले से पता होता तो चाणक्य की तस्वीर के साथ अपने कथोकथन इधर—उधर चिपकाते। तुहर की दाल से भूकम्प का नाता जोड़ते। उत्तर भारत वाले बताते कि जब तक अरहर तुहर की दाल नहीं बनी थी तब तक भूकम्प आता भी था तो कितने सलीके से आता था।
खैर भूकम्प को आना थाए सो आ गया। रिक्टर स्केल पर चाहे जिस तरह से आया एधरती की सतह पर आकर ठिठक गया। कुछ दीवारेंएचंद पंखे और ड्राइंगरूम में रखे एकाध एक्वेरियम का पानी हिला कर चला गया। कुछ और चीजें भी हिली होंगी पर पूर्वसूचना न होने से सेल्फीवीर उनकी तस्वीर लेने से चूक गये।
अब सबको पता लग गया है कि अच्छा समय और भूकम्प कभी भी आ सकता है। इसलिए मोबाइल की बैटरी हर समय फुल रहनी चाहिए ताकि फेसबुक पर स्टेट्स फटाफट अपडेट किया जा सके। ऐसे मौकों के लिए अनमोल वचनों का रेडी स्टॉक डेस्कटॉप पर हिफाजत के साथ रखा होना जरूरी है। यही वह मौका होता है जब किसी को भी सराहा या गरियाया जा सकता है। भूकम्प से हानि हुई तो यह सरकार निकम्मी है। बच गये तो यह सरकार के सद्कर्म है। बाल ही बाल बचे तो इसका श्रेय खानपान की आदतएपूजा पद्धति या ऊपरवाले को दिया जा सकता है।
भूकम्प आने की भनक मिलते ही कुछ लोगों का तुरंत पता लग गया कि इसमें अतिवादी संगठनों द्वारा फैलाई गयी धार्मिक असहिष्णुता का हाथ है। भूकम्प से दिल्ली हिली है तो पूरे मुल्क के भीतर भी कुछ न कुछ विचलन हुआ ही होगा।
बिहार के अलावा अन्य राज्यों में इसका क्या असर हुआए यह बात जरा देर से पता लगेगी। अलबत्ता बिहार अपना हाल मतगणना वाले दिन बता देगा।
निर्मल गुप्त
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