मेरा अपना सुकून ...
ढूंढता रहा मैं सुकून जीवन के हर एक रेशे में
कभी ढूँढा उसे धुएं में, तो ढूँढा कभी मैंने नशे में
ढूंढता रहा सुकून मैं हर एक पेशे में ...
कभी ढूँढा नाजायज खर्चे में
तो कभी ढूंढा बेवजह चर्चे में
ढूंढता रहा मैं सुकून हर एक पर्चे में ...
ढूँढा कभी उसे अपनी शिकायत में
ढूँढा कभी उसे किसी वाकयात में
ढूंढता रहा सुकून मैं हर रवायत में ...
ना मिला सुकून मुझे कभी किसी चीज में
ना ढूंढ पाया मैं उसे कभी किसी खीज में
ढूंढता रहा सुकून मैं हर एक बीज में ...
यारों में ढूँढा, ढूँढा उसे मैंने मित्रों में
ना मिला रंगो में,नाही किन्ही चित्रों में
ढूंढा मैंने सुकून कई पुराने पत्रों में ...
खूब बातें की, खूब रोया, खूब हसाया, खूब बोया
खूब दिया, खूब बांटा,अभी तक सुकून नहीं मैंने पाया
आधी उम्र निकल गयी, सारा वक़्त कर दिया मैंने जाया ...
भटकता रहा में अब तक, सुकून ढूंढता ही रहा
मृगतृष्णा की ख़ोज में आगे आगे चलता ही रहा
ढूंढता रहा सुकून, मैं वक़्त के साथ बहता ही रहा ...
पर अब कुछ कुछ मुझे समझ में आ रहा है,
सुकून कहाँ मिलेगा, मुझे एक सुराग मिला है
सुकून यहीं कहीं है, मेरे आसपास ही है
ज्यादा दूर नहीं, बस यहीं पास पास ही है
सुरेश कर्वे
किस्मत का धनि
०६ नवंबर २०१५