बॉलीवुड गया फिल्म बनाने Review wala द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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बॉलीवुड गया फिल्म बनाने

सपने पे सपना आये जा रहा  था . कि मैं फिल्म बना रहा हूँ हीरो बन गया हूं आदि 

पर एक दिन ऐसा हुआ कि... 
मेरी लॉटरी लग  ही गई  पांच करोड़ की, अब क्या करूँ, सोचने लगा। 

बहुत सारा कैश डाला अटैची मे और चल पड़ा बॉलीवुड 


मुझे हमेशा से लगता था कि मेरी शक्ल अच्छी है और मैं पोस्ट ग्रेजुएट भी हूँ। इसके अलावा, मैंने कई कहानियाँ भी लिखी हैं। इन सबके आधार पर, मैंने सोचा कि मैं हीरो बन सकता हूँ। इस सोच के साथ, मैंने कुछ डिरेक्टरों से मिलने का निर्णय लिया।

मैंने एक दिन कुछ डिरेक्टरों के साथ मीटिंग रखी। मीटिंग के दौरान, मैंने उन्हें बताया कि मेरी शक्ल अच्छी है और मैंने एक्टिंग का डिप्लोमा भी किया है। मैंने उन्हें यह भी बताया कि मेरा सपना है कि मैं एक दिन हीरो बनूँ। 

डिरेक्टरों ने मेरी बातें ध्यान से सुनी और मेरे आत्मविश्वास की सराहना की। उन्होंने मुझे कुछ सुझाव दिए और कहा कि मुझे अपने अभिनय कौशल को और निखारने की जरूरत है। उन्होंने मुझे कुछ ऑडिशन के बारे में भी जानकारी दी, जहाँ मैं अपनी प्रतिभा दिखा सकता हूँ।

,मुझे लगता  ही था कि  मेरी शक्ल अच्छी है, पोस्ट ग्रेजुएट हूँ ही, 
    कई स्टोरी भी लिखी हैं...  हीरो ही बन जाता हूँ, यह सोच के डिरेक्टर लोगों से मीटिंग रखी। 
     मैंने बताया कि शक्ल अच्छी है, एक्टिंग का डिप्लोमा है, हीरो बनना है। अब मामला कुछ और मोड़ ले चुका था, एसा लगा.. 
      मुझे लात मार के भगाने वाले ही थे कि किसी ने मेरी अटैची मे से निकलते  हुए नोट देख लिए... 
     "अरे आपका काम हो जाएगा, कितना लगा सकते है? अब आता हूं अगले विषय पर.. 
फिल्मी जीवन की शुरुआत

जब मैंने पहली बार फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा, तो मुझे नहीं पता था कि आगे क्या होगा। एक दिन, एक प्रोड्यूसर ने मुझसे पूछा, "अरे आपका काम हो जाएगा, कितना लगा सकते है?" मैंने जवाब दिया, "जी, दो करोड़ तो..."। मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि वे मुझ पर टूट पड़े। लाइन लग गई और वे रोल पे रोल ऑफर करने लगे।

मैंने सोचा, "टैलेंट का क्या?" मैंने उनसे पूछा, "कैसे देखोगे आप?"
 "शर्ट उतारो, " कह कर मेरी chest आदि का नाप लिया। 
बेल्ट पहनाई, कमर इधर उधर करवाई, घटिया डायलॉग बुलवाये, बस हो गया।

     टैलेंट की पहचान

टैलेंट की पहचान करना आसान नहीं होता। यह सिर्फ एक्टिंग स्किल्स तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें आपकी मेहनत, डेडिकेशन और सही मौके का भी बड़ा हाथ होता है। मैंने अपने टैलेंट को निखारने के लिए कई ऑडिशन दिए, वर्कशॉप्स में हिस्सा लिया और खुद को हर दिन बेहतर बनाने की कोशिश की।) 
मेरे पेसे की बदौलत ब्रेक मिल ही गया... 

    पहला ब्रेक

मेरे पहले ब्रेक का दिन आज भी याद है। वह एक छोटा सा रोल था, लेकिन मेरे लिए वह बहुत महत्वपूर्ण था। उस दिन मैंने सीखा कि कोई भी रोल छोटा या बड़ा नहीं होता, बल्कि उसे निभाने का तरीका महत्वपूर्ण होता है। 


धीरे-धीरे, मेरी मेहनत रंग लाई और मुझे बड़े रोल्स मिलने लगे। हर फिल्म के साथ, मैंने कुछ नया सीखा और अपने टैलेंट को और निखारा। इंडस्ट्री में अपने पैर जमाने के लिए मुझे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन मैंने कभी हार नहीं मानी।

अब अगला काम किया करवाया गया यानी 
     स्टोरी लिखवाई गई, दस लाख लग गए, चालीस लाख मे ऑफिस लिया गया। यह एक दिलचस्प कहानी है। 


जब मैंने अपनी स्टोरी लिखवाने का निर्णय लिया, तो मुझे पता था कि यह एक आसान काम नहीं होगा। मैंने एक प्रसिद्ध लेखक से संपर्क करवाया गया और उनसे अपनी कहानी लिखवाने की बात की। लेखक ने अपनी फीस दस लाख रुपये बताई। यह एक बड़ी रकम थी, लेकिन मुझे अपनी कहानी को सही तरीके से प्रस्तुत करने का जुनून था।एक प्रसिद्ध फिल्मी कहानी लेखक, जिनका नाम रोहित था, ने एक नई फिल्म की पटकथा लिखने का प्रस्ताव स्वीकार किया। लेकिन इस बार, उन्होंने एक विशेष मांग रखी - उन्हें एक पांच सितारा होटल में ठहरने की आवश्यकता थी। 

रोहित का मानना था कि एक शानदार और आरामदायक वातावरण उनकी रचनात्मकता को बढ़ावा देगा। उन्होंने निर्माता से कहा, "इस कहानी को लिखने के लिए मुझे एक ऐसी जगह चाहिए जहां मैं पूरी तरह से अपने विचारों में डूब सकूं। एक पांच सितारा होटल का माहौल मुझे वह शांति और सुविधाएं प्रदान करेगा जो मुझे इस काम के लिए चाहिए।"

निर्माता ने रोहित की मांग को स्वीकार किया, करते केसे नहीं, अखिर फिल्म का सवाल था 
   उन्हें शहर के सबसे प्रतिष्ठित पांच सितारा होटल में ठहरने की व्यवस्था की। होटल में पहुंचते ही, रोहित ने अपने कमरे की खिड़की से बाहर देखा और शहर की चमकती रोशनी और हरियाली को निहारा। यह दृश्य उनके मन को शांति और प्रेरणा से भर गया।

होटल के कमरे में, रोहित ने अपने लैपटॉप को खोला और लिखना शुरू किया। हर सुबह, वह होटल के बगीचे में टहलते और ताजगी भरी हवा में गहरी सांस लेते। होटल के रेस्तरां में स्वादिष्ट भोजन का आनंद लेते हुए, उनके मन में नई-नई कहानियों के विचार उमड़ने लगे।

होटल के स्टाफ ने भी रोहित की रचनात्मकता को समझते हुए उन्हें हर संभव सुविधा प्रदान की। उनके कमरे में हर समय ताजे फूल और उनकी पसंदीदा किताबें रखी जातीं। रोहित ने महसूस किया कि इस विशेष माहौल ने उनकी लेखन प्रक्रिया को और भी प्रभावी बना दिया है।

कुछ हफ्तों के भीतर, रोहित ने अपनी कहानी पूरी कर ली। यह कहानी न केवल उनकी पिछली कहानियों से बेहतर थी, बल्कि इसमें एक नई ताजगी और गहराई भी थी। huh.. देखते 

इस प्रकार, रोहित की मांग ने न केवल उनकी रचनात्मकता को बढ़ावा दिया, बल्कि एक उत्कृष्ट फिल्मी कहानी को जन्म दिया। क्या 

लेखक ने मेरी कहानी को बड़े ही मनोयोग से लिखा। हर शब्द में मेरी भावनाओं और अनुभवों को उकेरा गया। जब कहानी पूरी हुई, तो मुझे लगा कि यह मेरी मेहनत और संघर्ष का सही प्रतिबिंब है।

इसके बाद, मैंने अपने व्यवसाय के लिए एक नया ऑफिस लेने का निर्णय लिया। मैंने एक शानदार ऑफिस देखा, जिसकी कीमत चालीस लाख रुपये थी। यह ऑफिस मेरे सपनों का ऑफिस था, और मैंने इसे खरीदने का निर्णय लिया। 

इस पूरे प्रक्रिया में, मैंने अपनी मेहनत की कमाई को निवेश किया। यह सब मेरे खर्च पर हो रहा था, लेकिन मुझे गर्व था कि मैं अपने सपनों को साकार कर रहा था। एक डर तो था ही क्योंकि रिस्क अधिक था. 


     अब रोज़ मेरे फिल्मी ऑफिस मे गुंडे, मवाली, निक्कमे लोगों का तांता लग गया। एक लड़की भी आने लगी जो ऑफिस का काम देखती थी। आपके फिल्मी ऑफिस में अब रोज़ाना गुंडे, मवाली और निक्कमे लोगों का जमावड़ा लगने लगा है। ये लोग अक्सर बिना किसी काम के आते हैं और माहौल को खराब करते हैं। इसी बीच, एक लड़की भी आने लगी जो ऑफिस के कामकाज को संभालती है। वह अपने काम में निपुण है और ऑफिस के सभी कार्यों को व्यवस्थित तरीके से करती है। उसकी उपस्थिति से ऑफिस का माहौल थोड़ा सुधरने लगा है, लेकिन गुंडों और मवालियों की वजह से अभी भी समस्याएं बनी हुई थी. 

   क्या क्या देखने को मिला, आगे बताता हूँ यह तो मुझे पता चल ही गया था ,साफ  साफ लग ही रहा था कि जब तक माल है तो टाल है, यानी जब तक मेरे पास माल है तो यह सब जोकरों की तरह मेरे आगे पीछे   घूमते रहेंगे।  एक बात और हो रही थी कि प्रोडयुसर लोग ...लगता था किसी यूनियन या ग्रुप के सदस्य थे और बार बार किसी से मेरी आने वाली फिल्म की जानकारी उसे देते थे और उससे कुछ आर्डर लेते थे। अच्छी तरह समझ नही पा रहा था मैं, खैर..
    
       मेरा अंतर्मन कहता था  कि इस दुनिया मे कई  गुंडा किस्म के आदमी थे जिन्हें  भाई भी कह सकते थे। यह भाई उन लोगो के गैंग लीडर तो थे ही, नये कलाकारों को भी इन  भाईयों की अनुमति के बिना कुछ करने की इजाज़त नही थी। 
     फंस चुका था पर हारने  या वापिस जाने की अब स्थिति नहीं थी.. कम से कम मैं तो वैसा नही हूँ, जो भी हो 
 
      अब मेरी फिल्म की शूटिंग शुरू होने ही वाली थी..
एक बात बताता हूँ कि फिल्मों में आपको जैसा दिखता है वैसा बिलकुल नहीं होता।अपना सब कुछ दांव पर लगा कर बच्चे यहाँ आते है, छोटे बड़े शहरों से और सपने भी लाते है साथ में.. 

    एक दो उदाहरण देता हूँ... 
तड़क-भड़क वाले सारे कपड़े चोर बाजार से से या सस्ते मार्किट से खरीदे जाते हैं..सौ रूपए की कमीज़ को दो हजार का  बता कर अकाउंट में दिखाया जाएगा , यानी दो करोड़ की फिल्म बनेगी, सौ करोड़ दिखाया जाएगा। 

   मनी लॉन्ड्रिंग के लिए तो सबसे अच्छी जगह है बॉलीवुड वाले पांच हजार के खर्च को पांच लाख बना  के दिखाएंगे।मनी लॉन्ड्रिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अवैध रूप से प्राप्त धन को वैध धन में बदलने की कोशिश की जाती है। बॉलीवुड में मनी लॉन्ड्रिंग के कई मामले सामने आए हैं, जहां फिल्मों के बजट को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:

   मनी लॉन्ड्रिंग के तरीके
   फर्जी खर्च फिल्मों के निर्माण में फर्जी खर्च दिखाकर काले धन को सफेद किया जाता है। उदाहरण के लिए, किसी फिल्म के सेट या प्रॉप्स पर खर्च को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है।काले पैसे की लॉन्ड्रिंग का तो यह स्वर्ग है..यानि काले पैसे को सफेद बनाने का, एक हजार के के खर्च को  दस हजार या उससे भी ज्यादा दिखाया  जाएगा , बाजार के सामान को डिजाइनर समान करके पेश किया जाएगा और एक नकली जीवन पेश किया या  दिखाया जाएगा.
   शेल कंपनियां शेल कंपनियों के माध्यम से धन का लेन-देन किया जाता है। ये कंपनियां केवल कागजों पर होती हैं और इनका असली उद्देश्य काले धन को सफेद करना होता है।
   . विदेशी निवेश विदेशी निवेश के नाम पर काले धन को सफेद किया जाता है। इसमें विदेशी बैंकों में धन जमा किया जाता है और फिर उसे वैध निवेश के रूप में वापस लाया जाता है¹.


 बॉलीवुड में मनी लॉन्ड्र
क्या और कैसे होती है? इस केस में सजा, आदि नहीं होती, सब के सब ऊपर वालों से मिले होते हैं. 
    ,यहाँ पर ख्वाब तो सबके टूटते ही रहते हैं हजारों लाखों में से दो-तीन ही  कलाकार बन  पाते हैं ,जो नही बन पाते वो  जूनियर कलाकार के रूप में इधर-उधर घूमते हैं ,

    मुझे बताया गया कि नई हीरोइन को  पचास लाख दिए जाएंगे वह कोई नई उभरती कलाकार थी जो अभी अभी आई थी, 
नाम था सुनीता। शूटिंग शुरू होना एक बहुत बड़ी बात होती है, स्पॉट बॉय से लेकर हीरोडिरेक्टर तक के लिए एक खास दिन। 
    अब शुरुआत की गई मेरे लिखे हुए गाने से जिसे पहले से ही संगीत बद्ध किया जा चुका था
  पहली चार लाइन इस तरह से थी... 

ज़ुल्फ़ों मे मुह छुपा के ज़रा मुस्कुराइये
        वो ज़ुल्म बन्दे पे आप फिर से ढाईये
सूखी हुई शाखों में ज़रा गुल खिलाईये
        खुश्क विरानों को फिर से ज़रा मेहकाइये

       अब सुनीता की ज़ुल्फें तो ज़रा छोटी थी तो हाँग कोंग से खास बड़ी लम्बी विग मंगवाई गई थी। 
      एक और बीमारी होती होती है डैरेक्टर लोगों को, कि सारे के सारे सीन सिंक होने ही चाहिए, चाहे इसके लिए पूरा पूरा दिन लग जाए, यानी ज़ुल्फ़ उड़ने की टेमिंग् और हवा के झोंके में  सेटिंग होनी ही चाहिए, पुलिस तभी पहुंचेगी जब आठ दस किलोमीटर की रेस हो चुकेगी, वगैरह) 
(क्या फर्क पड़ेगा अगर ठीक समय पर ज़ुल्फ़ न हिली या उसका बादल नही बना, मेरी समझ में नही आया, न ही आयेगा, डेरेक्टर का ही फाइनल say होता है, कोई कुछ नही कर सकता इसमे। ) 

    आउट डोर शूटिंग थी तो अधिक पॉवर के पंखे नही मिले, हवा के झोंके का इंतज़ार करना पड़ता था। हवा के झोंके आ नही रहे थे और सब चाय नाश्ते मे ही मस्त होते रहे। 
     (पाठक लोग, अगर आप एक दो घण्टे की शूटिंग देख लेंगे तो फिल्म देखने का नाम नहीं लेंगे, मेरा दावा है।) 

    सब लोगों को तो शूटिंग दिख रही थी और मुझे बिल दिख रहा था, दो लाइनों के गाने की शूटिंग हुई और मेरा बिल आ गया  ढाई लाख का। यह सब पता होता तो शुरू ही नही करता, अब तो चारा नही था मेरे पास कोई भी, दे दिया सर ओखली मे तो खाने ही पड़ेंगे डण्डे ...अपना तो दिवाला ही निकलने वाला था इस फिल्म में। 
मेरे फिल्म को मैनेज, और निर्देशित कर रहे थे रेलवानी जिन्हे काफी अनुभव था। उनके बारे में मशहूर था कि वो नई फिल्मो मे नये कलाकार लाते थे और हेरोइन से भी बोल्ड तरह के रोल की अपेक्षा रखते थे। 

    एक दिन गुंडो का एक दल आ गया रेलवानी के ऑफिस मे और कुछ खुसर पुसर होने लगी, मुझे लगा कि कुछ रुपयों की मांग हो रही है। 
       पता चला कि हर निर्माता को एक से लेकर दस लाख या ज्यादा भी गुंडों के एक या दूसरे ग्रुप या गैंग को देना ही पड़ता है , (यही लोग आते थे रुपयों के लिए मगर पता नही किसको, कहाँ जाता था पैसा?) 
       
       रेलवानी ने साफ तौर पर तो कुछ नही बताया पर लग रहा था कि वो बताते हुए डर रहे  थे ..." साई,अगर नही दिया तो... " अपने गले की ओर इशारा किया जैसे कोई काट डालेगा, और अजीब सी आवाज़ भी निकाली
      मुझे समझ आया और लगा कि हर महीने एक दो लाख का तो फटका लग ही जाएगा, अगर फिल्म बनानी है, रिलीज करवानी है। और आप भी जानते है न कि तालाब में रह कर मगर मछ से बैर हो नहीं सकता न! 

     गुंडा गर्दी और हर तरह के अपराध का अड्डा है बॉलीवुड, यह तो मैं समझ चुका था। अब बात यही थी कि क्या इस कोयले की कोठरी में रह कर मैं अपने को कालिख से बचा पाऊँगा? और यह भी कि मुझे गैंग को कितना हफ्ता देना पड़ेगा, कब कब और किस किस को , मेरा मन विद्रोह कर रहा था पर दिल चाहता था कि अपने फिल्म को आगे बढ़ाता जाऊँ और रिलीज़ भी करूँ, अजीब सी उलझन मे पड़ गया था मैं
मैंने झोला Suitcase उठाया और भागा स्टेशन की ओर.. आज तक वापस न गया