भगवतगीता और विद्यार्थी जीवन
विद्यार्थीकाल किताबें पढ़ने का काल होता है और उसमें भी अच्छी अच्छी किताबें तो पूरा जीवन सुधार सकती है जैसे भगवतगीता। यह कोई धार्मिक पुस्तक नहीं है, हालांकि उसे हम हिंदू के धार्मिक ग्रंथ के रूप में जानते है पर उसमें जो बातें कही गई है वह किसी भी धर्म से परे है। उसे हम किसी भी धर्म में बांट नहीं सकते। भगवतगीता में तत्वज्ञान, मनोविज्ञान, प्रेरणात्मक संदेश और यहां तक की जीवन शैली का भी निरूपण किया गया है। विद्यार्थी जीवन उस कोमल पौधे की तरह है जिसे इन सभी चीजों से अगर सींचा जाए तो फलदार वृक्ष बनेगा। इसलिए भगवतगीता पढ़ाना विद्यार्थियों के लिए अति आवश्यक है जो विद्यार्थियों की सभी प्रकार की तृषा और जरूरत को पूर्ण करता है।
भगवतगीता और कुछ नहीं मूलरूप से एक गुरु और शिष्य का ही तो संवाद है। यह संवाद मोहरूपी अंधकार से प्रकाश की ओर प्रयाण है। महान योद्धा अर्जुन को जब अयोग्य स्थान और समय पर विषाद होता है तब जगद्गुरु श्रीकृष्ण उसका मार्गदर्शन करते है। विद्यार्थी काल भी ऐसी ही समस्याओं से घिरा हुआ है जिसका निराकरण आना बहुत ही जरूरी है जो एक मात्र भगवतगीता ही कर सकती है। भगवतगीता अत्यंत सरल भी है और कभी न समझ पाओ ऐसी मार्मिक भी। सबका अनुभव कहता है की जितनी बार आप भगवतगीता पढ़ते हो आपको हरबार नएपन का अनुभव होगा। गांधीजी कहते थे की जब भी में मुसीबत में पड़ा हूं तब गीता में ही समाधान मिला है। दुनिया के महान से महान लोगो ने भी भगवतगीता को सबसे सर्वोत्कृष्ट बताया है। यहां तक की विदेश में भी इसे पढ़ाया जाता है। कर्म का सिद्धांत, फल त्याग, आशाओं का विज्ञान यह सब भगवतगीता का सबसे अमूल्य योगदान है। जब कोई भी मनुष्य अर्जुन के जैसी परिस्थिति का शिकार होता है जब कर्म करने से ज्यादा न करने में प्रवृत्त हो, जीवन का सही लक्ष्य धुंधला हो या फिर जब हमारी बुद्धि किसी भी निर्णय करने के लिए सक्षम न हो तब यह भगवतगीता हमे वरदान की भांति हमारी सहाय करती है।
सबसे महत्व का गीता का संदेश कर्म फल का त्याग का सिद्धांत है। विद्यार्थियों के लिए शायद समझाना मुश्किल है। वह तो पहले फल को चुनते है फिर कर्म करते है ऐसे में कैसे कर्म के फल का त्याग करे। और इसलिए ही मन चाहा परिणाम न मिलने पर वह दुःखी होते है। यह समझना जरूरी है की हमारे सभी दुःख का एकमात्र कारण फल की इच्छा ही है। अगर अच्छा मिले तो अहंकार और मन चाहा न मिले तो क्रोध और ईषा को जन्म देते है। इसलिए कर्म करने में ही हमारा अधिकार है, कर्म के फल में नहीं ऐसा श्रीकृष्ण कहते है। आगे श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है, “मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।” अर्थात् हमे अकर्मण्यता आसक्ति में न हो। यह गीता का सबसे बड़ा संदेश है विद्यार्थियों के लिए क्योंकि अक्सर विद्यार्थी अच्छा परिणाम न आने पर या कर्म करने से पहले ही हार मान लेते है। जीवन में कई बार हमारी परिस्थिति भी अर्जुन की तरह ही हो जाती है जब हमारी परीक्षा की घड़ी हो तभी हम पीछे हट कर लेते है। विद्यार्थी का मन इतना मजबूत नहीं होता की वह हर चुनौती को सहन कर पाए। कई वैज्ञानिक संशोधन के अनुसार हर साल दसवीं और बारहवीं के परीक्षा के दौरान कुछ विधार्थी परीक्षा के पहले ही हार लेते है या परीक्षा के बाद अच्छा परिणाम न मिलने पर डिप्रेशन में चले जाते है। सभी मनोवैज्ञानिक बीमारी का इलाज भगवतगीता में है।
भगवतगीता में यह भी कहा गया है, “श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः, ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।” अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धा आवश्यक है और साथ में मन और इन्द्रियों को संयमित रखना भी अनिवार्य है। यह विद्यार्थियों के लिए सर्वश्रेष्ठ गुरुमंत्र है। ज्ञान चाहे कोई भी हो उसमें श्रद्धा यानी संपूर्ण समर्पण की आवश्यकता है।
विद्यार्थियों के कोमल मन को इस तरह तैयार होने पर वह किसकी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए सक्षम बन जाता है जैसे अर्जुन ने भगवतगीता सुनकर अपने कर्तव्य का निर्वाह किया था।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
श्रीमद्भगवद्गीता 2.47