मनस्वी - भाग 11 Dr. Suryapal Singh द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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मनस्वी - भाग 11

अनुच्छेद-ग्यारह
                           चिड़िया उड़ गई

रात का पिछला प्रहर। पंखे की गति थोड़ी तेज हो गई है। मनु की भी साँस बढ़ गई है। माँ की आँख खुलती है। वह जाकर मनु को देखती है। मनु की बढ़ी साँस देखकर नर्स को बताती है। नर्स को भी झपकी लग गई थी। झटके से उठती है। आकर मनु को देखती है। आक्सीजन लगाती है। साँस कुछ नियमित होती है।
         'मुझे बचा लेना भगवानजी।' मनु के मुख से निकलता है। माँ विचलित हो जाती है। नर्स डॉक्टर को बुला लाती है। वे आकर देखते हैं। 'मुझे बचा लेना डॉक्टर चाचू ।'
          मनु का आज का निवेदन उन्हें भी विचलित कर देता है। साँसों को नियंत्रित करने का वे पूरा प्रयास करते हैं। कुछ नियंत्रित होती है। वे आपात कक्ष से फिर अपने कक्ष में चले जाते है।
          साँस नियंत्रित होते होते फिर अपनी रफ्तार पकड़ लेती है। नर्स दौड़कर डॉक्टर साहब को पुनः बुला लाती है। वे जाँचते हैं। आक्सीजन नली को देखते है।
       मनु की साँसे कह रही हैं... डॉक्टर चाचू... बचा लेना.......मुझे....माँ.. .ब....चा ले...ना.... मुझे ।... भगवानजी पापा.....दादी... बाबा. ..बचा.. लेना..... चाचू........सांसों का बढ़ना जारी रहता है। डॉक्टर अपनी हर तरकीब लगाते हैं। माँ विह्वल.....।
    साँसों का खेल जारी..... 
    डॉक्टर की हर तरकीब को धता बताते हुए। माँ कभी भगवानजी से कभी डॉक्टर साहब से प्रार्थना करती है।
'बचा लो डॉक्टर साहब... कोई भी ढंग निकालो.... हमारी मनु को बचालो।' माँ दुखी....। मनु की साँसें बढ़ती जा रहीं। माँ हैरान..... साँसे और तेज होती जाती हैं।
        माँ विकल...। साँसे हैं कि सामान्य होने का नाम नहीं ले रहीं..... डॉक्टर, नर्स सभी हैरान.....। माँ आकुल....। साँसें उसी गति से..... डॉक्टर की कोई युक्ति काम न आती हुई। माँ और विकल.....।
        सुबह हुई। सफाई कर्मी अपने काम में लग गए। थोड़ी हलचल..... चहल-पहल। लोगों का आना जाना.....। मनु की साँसें तेज की तेज ।... यह क्या ? साँस बन्द !
आँख खुली की खुली ।
       चिड़िया उड़ गई।.... साँस का खेल खत्म।
       माँ का होश गुम ।.... डॉक्टर हतप्रभ... नर्स के मुख से आह......। नियति का खेल या..... प्रकृति का विधान ।
        क्या उसकी आत्मा देख रही है..... माँ कितनी विह्वल है ?... नर्स आँख बन्द करती है। लगता है मनु शान्त लेटी है। चेहरे का तेज वैसा ही दमकता हुआ ।
         माँ की आँखों से आँसू झरते रहे। असहाय विह्वल... विकल...।
         पिता घर से रुपये लेकर चले.. निश्चिन्त... बेटी ठीक हो जायगी.. . डॉक्टर साहब जो दवा लिखेंगे... उसका प्रबंध हो जायगा।
         ट्रेन भाग रही है। पिता ट्रेन में बैठे हुए मनु के स्वस्थ होने की कामना करते हुए। मन मनु में ही लगा है। रात में पूरी नींद सो नहीं पाए। एक झपकी आ जाती है।..... मनु उड़ रही है। अनन्त आकाश में.....। झपकी टूटते ही गाड़ी बादशाह बाग स्टेशन पर पहुँचती है। वे भागकर टेम्पू में बैठते हैं। मेडिकल कालेज पर उतरकर जल्दी से ट्रामा सेन्टर में बच्चों के आपात कक्ष की ओर भागते हैं।
          मनु को बाहर बरामदे में स्ट्रेचर पर देखते ही मन हाहाकार कर उठा। माँ की घिघ्घी बँधी। कहाँ वे मनु के लिए योजनाएँ बना रहे थे कहाँ ?...........
          क्षण भर में सब कुछ उलट गया। उन्हें भी स्वस्थ होने में समय लगा। फोन से उन्होंने ग्यारह उन्चास पर मनु के बाबा को फोन किया। सीमा, किरन को भी। जिसने सुना वही सकते में।
          बाबा ने छोटे भाई और उनकी पत्नी को साथ लिया। लखनऊ की ओर भागे। उमाकान्त का फोन, 'क्या करूँ?' 'लखनऊ पहुँचकर सूचित करूँगा।' बाबा बताते रहे। विशाल फैजाबाद से पहुँचने के लिए कसमसाते रहे। अम्मा, राम कुमार, बिन्दु को देर से सूचना मिली। तीनों लखनऊ पहुँचने के लिए छटपटाकर रह गए।
           लखनऊ पहुँचते पाँच बज गया। सीमा नीरज, चुलबुल, अंशुल थोड़ा पहले पहुँच गए थे। यही तय पाया गया कि यहीं गोमती तट पर ही उसे मिट्टी दे दी जाय। उमाकान्त को भी बताया गया। अब कल आओ। आज समय से पहुँच नहीं पाओगे। विशाल बार बार पूछते रहे। उनसे से भी कहा गया-अब पहुँच नहीं पाओगे।
            गोमती तट पर बैकुण्ठधाम। मनु वहीं सो गई सदा के लिए। आखिर सबको माटी में मिलना है। पंचतत्वों से बना शरीर माटी में ही मिल गया। मनु को मिट्टी में सुलाते आठ बज गए। चेहरा अब भी दीप्त, जैसे अभी सोई है। उठ पड़ेगी। गुजरात से पुष्पा का फोन। उसे सान्त्वना दी गई।
         लखनऊ से घर के लिए प्रस्थान। घर पहुँचते ग्यारह बज गए। सीमा, मालती ने मनु की माँ-प्रीती को सँभालने की कोशिश की। 
माँ व्यथित है। घर पर लोग आ जा रहे हैं। ज्यों ज्यों लोगों को जानकारी होती है, आते हैं, शोक प्रकट करते हैं। माँ के मन से मनु कैसे बाहर हो सकेगी ? जिधर भी दृष्टि डालती है मनु का चेहरा ही दिखाई पड़ता है। दिन रात.... आँसुओं से भीगी आँखें।
        छिपी छिपान खेलती अभी आ जायगी मनु.... पर मनु तो अनन्त आकाश में चली गई .. अब कैसे लौटेगी ?
           माँ को लगता है मनु लौट आई है। कहती है-'माँ तुम मुझे रोक नहीं पाई। मैं तो पंछी थी। तुम्हारा पिंजरा मजबूत नहीं था। मैं उसे तोड़कर चली आई.... अब पछताओ नहीं.... अपनी ज़िन्दगी देखो... रोओ नहीं... कब तक रोओगी?.... हँसना सीखो.... मैं मुस्करा रही हूँ... तुम भी मुस्कराओ। पापा को भी सँभालो ।..... तुम्हें सँभालते वे स्वयं परेशान हो उठेंगे।..... अब मैं जीवात्मा हूँ... बिल्कुल निश्चिन्त... वह सब तो शरीर की बातें थीं। शरीर कभी न कभी जर्जर हो ही जाता है। तुम्हीं बताओ जर्जर पिंजरे में कैसे रहती ? खुश रहने के अलावा तुम्हारे पास कोई अच्छा विकल्प नहीं है..... इसीलिए खुश रहो.... मेरी ही तरह। मेरी तरफ देखो कितनी खुश हूँ मैं। सब कुछ भुला दो. ।'
पर मनु की इस सीख पर चलना क्या इतना सरल है? ग्यारह वर्ष सात महीने जिसे अपने सीने से चिपकाकर सुलाया उसे भूल पाना इतना सहज तो नहीं ।...... माँ का दुखी होना... अवसाद से घिर जाना..... समय ही बंद करा पाएगा। समय को भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। दादी अपने घर के आसपास घूमती हुई मनु को ही ढूँढ़ने लगती हैं........
        बाबा अब किसी से पानी नहीं माँगते। किससे माँगें ?..... मनु अब कहाँ है? कभी कभी कोई बच्चा घर में आ जाता है। उससे पानी माँगते हुए भी 'मनु' ही निकल जाता है।



अनुच्छेद-बारह

उपराम

(1)

बाबा मुझको जाना ही था, 
सबको तनिक दुखाना ही था। 
क्या कर पाती जर्जर तन से, 
अन्तिम रास रचाना ही था। 
तन के आगे मन क्या करता, 
कच्ची कली, सुखाना ही था। 
माँ से कहना पीर भुलाएँ, 
तन को अवनि समाना ही था। 
पिता थके से घर आएँगे, 
हँसकर उन्हें हँसाना भी था। 
पाया प्यार असीमित घर में, 
छोड़ वही घर आना ही था। 
घर के लिए न कुछ कर पाई 
चटपट का पर्वाना ही था। 

(२)

माँ तेरी गोदी में पलकर 
इतनी बड़ी हुई थी मैं। 
तूने पलकों में ही सेया
तेरी छुई मुई थी मैं ? 
इतना स्नेह कौन दे पाया 
हारिल की लकड़ी थी मैं। 
भूल सको तो भूलो माँ तुम 
पंछी फुर्र हुई हूँ मैं। 

(३)
माँ तुझे मैं क्या बताऊँ ? 
प्यार का जो कर्ज़ 
तेरा क्या करूँ कैसे चुकाऊँ ?
कर्ज़ मेरा या तुम्हारा 
कौन जाने, क्या बताऊँ? 
प्यार इतना पा चुकी हूँ 
अब उन्हें कैसे गिनाऊँ ? 
एक इच्छा बची मन में 
कहो तो तुम को सुनाऊँ? 
हृदय तेरे बैठकर कुछ 
ज़िन्दगी मैं गुनगुनाऊँ । 
और मन उमड़े तुम्हारा 
गति पकड़ते, देख पाऊँ।


(४)

चाहती थी माँ 
तुम्हारे साथ मैं भी 
ज़िन्दगीभर 
गुनगुनाती । 
पर नियति का खेल 
ही कुछ और था 
जो कुछ हुआ 
कैसे बताती ?
जानती हूँ दुःख 
तेरा सगा होकर 
अब रहेगा। 
सुख किनारे ही कहीं 
चिपका रहेगा 
माँजता है दुःख 
मन को चित्त को भी 
अर्चना के लिए 
तेरे पग निकलते 
देख पाती।