मोन मेढक hhh द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मोन मेढक

चलो यहां आओ मेरे प्यारे मेंढक, आके बैठो मेरे पलंग के नीचे आख़िर आज क्यों छुपे हुए हो अलमारी के पीछे ? क्या कोई चोर है तुम्हारे मन में या कोई बड़ी उलझन आन पड़ी है तुम्हारे जीवन में !

कुछ अनमने उदास से जान परते हो, रौशनी में जाकर अपनी लंबी जीभ से लपककर कीड़े क्यों नही खा आते?

तुम अब भी मौन हो। कहीं तुम्हारी उदासी के पीछे उस मेंढकी का हाथ तो नहीं जो कल छोड़ गई थी तुम्हें किसी और के लिए? ना जानें उसे क्या दिखा उनमें जो तुम्हारे में नही, मुझे तो तुम सब एक से ही लगते हो। मुझसे कोई कुछ कहता भी तो नहीं बस छोड़कर चले जाते हैं। तुम तो उसके अपने थे?

तुम्हें छोड़ गई वो क्योंकि तुम कुरूप हो; जन्मजात कुरुप। कल को मन बदले उसका या फिर उसे धोका मिले वहां तो वापस भी आ सकती है लेकिन वो वापसी तुम्हरे लिए तभी होगी यदि उसके रास्ते में तुम टाई बांधे कुत्ते की तरह जीभ लटकाए हांफते हुए इंतजार में बैठे मिलोगे; वरना नहीं।

मेरे एकाकी के साथी क्यों कुछ कहते नहीं! पता है नए लोगों से बातें करना मुझे बहुत पसंद है, लेकिन बीच में ही वे हां... हम्म.. करके बातें खत्म कर देना चाहते है। शायद इसलिए क्योंकि मैं मेरे मन की बातें करने लग जाता हूं न कि उनके।

तुम अब भी मौन हो ! क्या मेरा फोन चाहिए तुम्हें?

अच्छा, मैं तुम्हारे लिए नया ला दूंगा। मुझे तो बुरी लत

लग गई है फोन की पर तुम मत लगाना। अब भी चुप हो क्या मेरा ही फोन चाहिए ? अच्छा, ये लो मैं अलमारी के निचे ही सरकाए देता हूं.... पर देर रात तक चलाते मत रहना। अब ये फोन भी तुम्हारा है और आंखें भी सो ख्याल रखना......! अरे यह क्या तुम फोन के उपर ही बैठे चला रहे हो। इतने करीब से फ़ोन चलाना ठीक नहीं। जल्द आंखें खराब हो जायेंगी तुम्हारी। फिक्र है बस इसलिए कहता हूं। नाराजगी में भले न बोलो आज मुझसे लेकिन तुम्हारे लिए जो बुरा है उसमे मैं समझाता रहूंगा। अब हल्की नींद सी आ रही है। बिना फोन के देर रात तक जगा नहीं जाता मुझसे; तुम भी सो जाना समझे....!

आज सुबह जल्दी जग गया था सोचा क्यों न बाहर घुम आया जाए। जो पिताजी कभी न कर पाए वो मेरे मेंढक दोस्त ने कर दिखाया..!

पूरब में क्षितिज पर पसरी लालिमा उगते सूरज का सम्मान करने पहले से मौजूद थी।

ठंडी मंद-मंद हवाएं शरीर को गुदगुदाके खूब रोमांचित कर रही थीं। पेड़ों के झुरमुट से गर्दन निकालकर जहां- तहां चिड़िया चहचहा रहे थे। आकाश में पंछियों के झुंड मनोरम आकृति बनाते उड़े चले जाते थे। ऐसा जान पर रहा था आज प्रकृति संपूर्णता में है और मैं इसका एक अभिन्न अंग !

मन में आया आज घर जाके मेंढक दोस्त को इन सब के लिए धन्यवाद करूंगा। पैरों में नादानी लिए आह्लादित मन से, विचारों की सागर में डूबते-उतरते घर को आ गया।

हाय.. य..... य.. य! घर के दरवाजे से लगकर एक सांप मेरे मेंढक दोस्त को आधा निगले हुए वहां लोट पोट रहा था। दोस्त त मोटा पेट और पिछले दो टांग ही बहार छटपटा रहे थे।
रहे थे।

सोचा बचाऊं उसे लेकिन एक विषैले सांप से मित्र की रक्षा कैसे की जाए?

इसलिए खुद को समझाने लगा --

किसी जीव के मुख से आहार छीनने का मुझे कोई अधिकार नहीं अथवा मैंने कौन सा चेहरा देखा कि मेरा ही मित्र हो, किसी अनजान के लिए खतरा क्यों मोल लूं? और इस तरह मैं सांप को वहीं खड़े खड़े मेरे मेंढक दोस्त को पुरी तरह निगलते देखता रहा। पहले फूला हुआ पेट फिर पिछले दोनों पसरे हुए टांग सब उसके मुख में समा गए देखते देखते।

आहार ग्रहण करने के बाद सांप को आलस्य ने घेर लिया। वह दरवाजे के पास पेट फुलाकर वहीं लेटा रहा। मैं उस सुस्त पड़े सांप को एक छड़ी के सहारे उठाकर दूर सड़क किनारे छोड़ आया..!

कितना अच्छा था मेरा मेंढक दोस्त! हमारी अच्छी बनती थी।

मेरी सब बातें चुपचाप सुनता था। एक प्रेमिका थी उसकी सो भी छोड़ गई। सच ही एक कुरुप का जीवन दुःख का सागर होता है!

मित्र, नारी सब बारी-बारी छोड़ जाते हैं और सा संपत्ति क्या थी बस मेरे घर में आलमारी के नी + थोड़ी सी जमीन! अब उसका इस संसार से चले ही

सांप की दूर छोड़कर इन्हीं विचारों की उहापोह में खोया वापस घर को आ गया था। अब अकेलेपन में मुझे मेरे फ़ोन की याद आई और लपककर मैं अपने कमरे में गया। अलमारी के नीचे झांका तो फोन अब भी वहीं पड़ा था लेकिन अब वो चलाने वाला नहीं था वहां...। कभी कुछ मांगा नहीं मुझसे जो एक फोन लिया वो भी पीछे छोड़कर चला गया।

मैं फोन उठाकर झाड़ते हुए पीछे की ओर मुड़ा ही था कि आवाज आई "टर्र..र..र.. र!" लेकिन आलमारी के नीचे से नही, पलंग के नीचे से!