द्वारावती - 65 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

द्वारावती - 65

65
                                    
“ओह, यह कथा है गुल से पंडित गुल बनने की?” गुल की कथा देख, स्तब्धता में उत्सव बोल पडा।
“एक अबोध कन्या की जीवन यात्रा ! जिसने उसे पंडित गुल बना दिया। इस यात्रा को देखते देखते रात्रि व्यतीत हो गई। ब्राह्म मुहूर्त प्रारम्भ हो चुका है।मैं इस प्रवाह में इतना प्रवाहित था कि मुझे समय का संज्ञान ही नहीं रहा। समय जैसे एक नदी हो और मैं उसमें स्नान करता रहा। इसमें डुबकी लगाने पर मैं निर्मल हो गया हूँ। गुल, तुम्हारा यह जीवन वृतांत ….।”
“उत्सव? तुम ने मुझे कुछ कहा? तुम रात्रि भर सोए नहीं?” 
“गुल? तुम? तुम यहाँ क्या कर रही हो?” गुल को प्रत्यक्ष देख उत्सव अचंभित हो गया।
“मैं तो यहीं हूँ।”
“कब से?”
“अभी से। किंतु तुम रात्रि भर जागते रहे हो? क्या कर रहे हो?”
उत्सव की दृष्टि अनायास ही गगन के उस बिंदु को देखने लगी जहां उसने गुल के जीवन प्रवास को देखा था। 
“गुल अभी तो इस बिंदु पर थी। और अभी प्रत्यक्ष यहाँ खड़ी है। तो उस बिंदु पर कौन है?” स्वतः बोल पड़ा। वह उस बिंदु को ध्यान से देखता रहा, “किंतु अब वहाँ कोई नहीं है, कुछ नहीं है। है केवल शून्य। रात्रि भर मैंने जो देखा था वह अब ब्रह्मांड के किस बिंदु के साथ तद्रूप हो कर विलीन हो गया?”
“उत्सव, क्या हुआ? तुम क्या बोले जा रहे हो? क्या तुम किसी दुविधा में हो?”
“मैं? यहाँ। नहीं, वहाँ ….।” उत्सव ने बोलना चाहा किन्तु बोल नहीं सका। 
“रात्रि भर जागने से तुम थक़ गए हो केशव। अब विश्राम कर लो। मैं तारा स्नान आदि कर्म सम्पन्न कर आती हूँ।” गुल समुद्र की तरफ़ जाने लगी। 
“रुको गुल।” वह रुक गई। प्रश्नार्थ भाव से उत्सव को देखा। 
“अनेक रात्रि जागने पर भी मैं नहीं थकता किंतु कभी कभी बीते हुए वर्षों की यात्रा यदि एक ही रात्रि में देखनी पड जाय तो कोई भी मनुष्य थक सकता है।”
“तो तुम्हारे जीवन के व्यतीत हुए वर्षों के स्मरण ने तुम्हें अवश्य ही कोई गहन घाव दिए हैं जिसके कारण तुम थके हुए प्रतीत हो रहे हो।”
“नहीं गुल। बात मेरे व्यतीत वर्षों की नहीं है, अपितु तुम्हारे व्यतीत वर्षों की है।”
“मेरे वर्ष?”
“हाँ गुल। मनुष्य अपने विगत वर्षों से इतना नहीं थकता जितना वह अपने किसी के अज्ञात विगत वर्षों को देखता है, जानता है, जीता है तब थकता है।”
“तुम क्या कह रहे हो?”
“गुल, तुम्हारे जीवन के व्यतीत वर्षों को रात्रिभर मैंने देखा है।”
“मेरा जीवन? क्या देखा है मेरे जीवन के विषय में?”
“समुद्र के तट पर जन्मी एक अबोध कन्या का केशव से मिलन से लेकर पंडित जगन्नाथ के द्वारा तुम्हें पंडित गुल का सम्मान प्रदान करने तक के तुम्हारे व्यतीत वर्षों को मैंने देखा है।” 
“कहाँ देखा? कैसे देखा?”
उत्सव ने क्षितिज के उस बिंदु की तरफ़ अंगुलि निर्देश किया जहां अभी अभी वह चित्रपट उसने देखा था। 
“वहाँ देखो। उस बिंदु पर देखो।” गुल ने वहाँ देखा। 
“वहाँ? वहाँ तो रात्रि के अंधकार के उपरांत कुछ भी नहीं है।” 
“नहीं है, किंतु था। वहीं था। सब कुछ था। तुम्हारे जीवन की प्रत्येक क्षण, प्रत्येक घटना, प्रत्येक प्रसंग को मैंने साक्षात देखा है।”
“अवश्य ही तुम्हें कोई भ्रम हुआ है अथवा मेरा परिहास कर रहे हो।”
“नहीं गुल। किसी भ्रम से भ्रमित होने की अवस्था को मैं कहीं पीछे छोड़ चुका हूँ। और सन्यासी कभी किसी का परिहास नहीं करते। इन बातों को तुम भली भाँति जानती हो। मेरा विश्वास करो। मैंने सब कुछ देखा है।”
“तो कोई प्रमाण दो।” 
“प्रत्यक्ष प्रमाण देता हूँ। तुम्हारे पिता की हत्या, माँ का घर छोड़ कहीं चला जाना, पंडित जगन्नाथ को ‘न’ तथा ‘न:’ का भेद बताना। कौन सी बात का प्रमाण रखूँ?” 
गुल स्तब्ध थी। 
“केशव के साथ कन्दराओं की गुफा में जाना, उसी गुफा में रक्षण लेकर रात्रि भर मृत्यु से बचना, केशव का बांसुरी बजाना? किस प्रमाण को प्रस्तुत करूँ?”
गुल के हृदय के स्पंदन तीव्र होने लगे।
“समुद्र को गीता का मर्म सुनाना अथवा केशव का तुम्हें उसके स्मृति चिन्ह के रूप में बांसुरी भेंट देना?”
“बस, उत्सव। मुझे कोई प्रमाण नहीं चाहिए। मैं स्वीकार करती हूँ कि तुम्हें मेरे जीवन की पूर्ण यात्रा विदित हो चुकी है। बस इतना बता दो कि तुम्हें यह सब किसने बताया?”
“वह तो मैं नहीं जानता। किंतु जिसे इस विषय में पूरा ज्ञान है, जिसने तुम्हारे जीवन की प्रत्येक क्षण को साक्षी भाव से देखा है उसने ही यह सब बताया होगा। बताया नहीं है, दिखाया है।” 
गुल ने कोई उत्तर नहीं दिया।
“कौन हो सकता है, गुल?”
“समुद्र, तट, रेत, तरंगें, पवन, महादेव, द्वारिकाधीश, श्वेत पंखी आदि सभी ने मेरे जीवन को क्षण प्रतिक्षण देखा है। किंतु यह सब कैसे बात कर तुम्हें सब कुछ बता सकते हैं?”
“कदाचित समय ही सभी के जीवन का प्रामाणिक साक्षी होता है। सम्भव है कि स्वयं समय ने स्वयं को रोककर मुझे यह सब दिखाया हो !”   
“समय। उत्सव, समय की लीला बड़ी मायावी होती है।”
गुल ने गहन श्वास लिया, उत्सव ने स्मित किया। 
“तुम मेरे जीवन के विषय में सब कुछ जान चुके हो ….।”
“सब कुछ नहीं। तुम्हारे पंडित होने तक ही जान सका हूँ मैं।पश्चात उसके क्या हुआ, मैं नहीं जानता। समय ने मुझे यह नहीं बताया।”
“तुम वह भी जानना चाहते हो?”
“नहीं। मुझे कोई रुचि नहीं है।”
“क़िसमें रुचि है तुम्हारी?”
“मुझे मेरे प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो उसमें। जो तुम्हारे पास है, जो तुम्हें मुझे देने हैं।”
“वह भी मिलेंगे। किंतु उससे पूर्व तुम्हें अपने विषय में बताना होगा। यहाँ आने का प्रयोजन कहना होगा।”
“यह समय तुम्हारे नित्य कर्म का है। यही तुम्हारी प्राथमिकता है।”
 गुल चली गई। उत्सव सूर्योदय की प्रतीक्षा में क्षितिज के किसी बिंदु को देखता रहा।