सप्तम अध्याय
दूर हुआ भ्रम, जाग गई ज्यौं, अपने अस्त्र संभाले।
तोड़ा कुड़ी का दर्रा- पाठा,तब आगे के पथ हाले।।
सोचो क्या मनमस्त यहां, हर लीला है न्यारी।
चलते रहना ही जीवन है,कुछ करो नई तैयारी।।137।।
बन विकराल नौंन तब चल दी, दई पाषाणें तोड़।
खड़ा बेरखेरा कर जोड़त, करो कृपा, सब छोड़।।
आर्त अर्चना सुनी नौंन ने, सौम्य रूप अपनाया।
दोनों तरफ भरी हरियाली, प्रेम- प्यार बर्षाया।।138।।
आगे चली निहारत चहुदिस, बेरखेड़ा को कर पार।
भरका, खायीं बनाई लवणा, खोड़न के चहुं द्वार।।
आगे बढकर, लोहागढ़ की, बुर्जों से जा टकरानी।
लोहागढ़ का किला अजब, जो जाटों की छावनी।।139।।
सरिता तो सरिता होती है, खण्डर ही कर डाला।
गर्व भरा, गढ़ का गर्वीला, तोड़ा इसने ताला।।
यह लोहागढ़ है लोहागढ़ पर सरिता है सरिता।
तोड़े कई हिमालय इसने, रोक न पाए कर्ता।।140।।
खण्डहर और वीरान कर दिया, लोहागढ़ का रूप।
बरद हस्थदे, उसे बनाया, अपने ही अनुरूप।।
सद बुद्धि सद्ग्यान सभी को, झोली भर के बांटा।
प्रेम अंजली जिन फैलाई, उसको कभी न डांटा।।141।।
सरिता जल आचमन किएभए, महामूढ़ भी ज्ञानी।
चित्रकूट के तुल्य हो गई, लोहागढ़ की ही शानी।।
दे उपहार सभी को चल दई, मंगरौरा के पास।
प्रेमानन्द बनाए जिसने, अपने मनहर दास।। 142।।
नौंन नदी के पावन जल से, इन पाया बड़भाग।
श्री राधे- चरणारविन्द से, गहन हुआ अनुराग।।
सरिता जल प्रताप पाया इन, ब्रह्मलीन मन कीन।
प्रेमानन्द परम पद पा गए, सरित प्रभाव नवीन।।143।।
टोर चिरैया – संत मौनि जो, सरिता से सब पाए।
ब्रम्ह् मुहूरत आराधन कर, अपने धाम सिधाए।।
मंगरौरा से चलकर कुछ आगे, चौकी ग्राम अपनाया।
धन्य होगई लवणा यहांपर, सिंध मिलन जहां पाया।।144।।
लिए साधना लक्ष्य चली जो, पाया वह निज ठाम।
मिलन सिंधु का है अगम्य यह, जीवन का विश्राम।।
व्यग्र भावना सारी त्यागीं, शान्त सरित का रूप।
जैसे ब्रम्ह्लीन होने पर, मिटैं सकल, भव रूप।।145।।
देखा सिंध अगम धारा को, अहं हुआ सब दूर।
आज समझ पायी है लवणा, किसका है यह नूर।।
कहां मेरा अस्तित्व यहां है, सिंध – सिंधु है भारी।
मैं भी इसमें लीन हो चलूं, करूं सिंधु की त्यारी।।146।।
चरण शरण में लेटी जाकर, उर ले अगम सनेह।
कठिन साधना कर ही पाते, पावन प्रियतम गेह।।
विल्कुल, निश्चल, शान्त, विमल धारा सा पाया रूप।
सच में कठिन साधना से ही, सब मिलता अनुरूप।।147।।
नौंन सिंध में किया प्रवेश जब,, हो गई यहां अभेद।
एकाकार, यही है जीवन,जहां रहा नहिं, कोई द्वेत।
अगम्य रूप जीवन सरिता का, तुमको दिया दिखाय।
अगम अगोचर है जीवन क्रम, कहती हूं समुझाय।।148।।
सच जानो, जीवन का जीवन, है इसके अनुकूल।
परोपकारी- कर दो जीवन, मिट जाएं भव शूल।।
देख मुंहाना, यही मुआना, सब का ही होता है।
जीवन के अंतिम क्षण मिलता, जो जैसा बोता है।।149।।
हर जीवन के ही उद्गम में, अन्त छिपा पहिचानो।
सत्य, सनातन है नियती क्रम, मानो चाहे न मानो।।
हर पल है जिसका परिहित में, वह सच्चा जीवन है।
युग युग तक गाथा गाएगा, जन जीवन, जीवन है।।150।।
युगम किनारे हैं सरिता से, जीवन के पहिचानो।
इन में बंधकर जो चलता, सच्चा जीवन मानो।।
जिसने बांटी हो खुशहाली, शुष्क- हरित सरसाया।
युग के कुंठित जीवन को, लवण सरित हरषाया।।151।।
वंदन करना ही पड़ता है, इस प्रतिमा के आगे।
कितना क्या बतला पाएंगे, जो अब भी ना जागे।।
लघुता में पाओ विशालता, एक ब्रम्ह् कई विश्व।
अगम अगोचर एक अनुभूति, में होता सर्वश्व।।152।।
कठिन साधना का जीवन ही, सच्चा जीवन मीत।
अडि़ग स्वावलम्बन होता है, कभी नहीं भयभीत।।
अगम पंथ भी सुगम बने हैं, कर्मठता के आगे।
जीवन पथमें शंखनाद कर, सोने वाला जागे।।153।।
एक रूप हो लवणा – सिंधु, जा रहीं सागर पास।
रत्नाकर है परम शान्ति घर, पूरा ले विश्वास।।
सरिता की ही भांत सदां, जो चलता ही रहता है।
उसके सच्चे जीवन की ही, युग कहानी कहता है।।154।।
अब चल, कर विश्राम, चेतना को आराम मिलेगा।
प्रेम अंक में सदां विराजो, जीवन सुमन खिलेगा।।
सुन सरिता इतिहास मातु से, मिला बहुत आनंद।
मातु अंक बैठा-यूँ लगता,मिटे सकल छल –छन्द।।155।।
उपसंहार-भावांजली
अनंत धमी गंग, आप हो- अनंत धामी।
संतों का तप रूप, तपोवल अनंत धामी।
सरयूदास जी संत, अनंती रानी घाटी।
ले आए,निज धाम,सहस्त्रों नमो नमामी।।156।।
दर्शन कर सिय राम, शिवा शिव मंदिर आयीं।
पाकर अमित आशीष, गो- मुखी गंग कहायीं।
ली आज्ञा शिर धार, धारा बन पर्वत दौड़ीं।
सिद्धबाग कर सरसब्ज, बाजना – भू सरसायी।।157।।
लखेश्वरी के शिखर, रहीं जो अलख, भवानी।
संत जनों की आसपूर्ण करने, प्रकटी महारानी।
कोई न जाना भेद, अलख भी, लख में आयीं।
लखेश्वरी मां- गंगा बनी, यह अलख कहानी।।158।।
सिद्ध धाम, हरसी बंधामें, मध्ये पर्वत, चित्रकूट वत।
कई गुफाऐं इसमें गहरीं, सिद्ध साधू हैं इसमें कई शत।
हरसी बांध किया जिन पावन, भूरि सम्पदा धरनि बहाई।
पंचमहल अतिपावन कीना, जनजीवन जिसका श्रद्धानत।।159।।
टपकेश्वर धामी गंगा ने, नरवर को, नर वर करदीना।
अटलसागरमढ़ीखेरागिरिउदरे, मोहनी बंधाका मार्ग चीना।
चरणोदक शिव शिवाधाम का, सिंध सरितका ही रूपक है।
नरवर गढ का तपो-पुण्य ले, गंगा बन, नव पथ लीना।।160।।
मोहनीसागर हरसी बांध से, गंग बनी तुम ही नहर रूप ले।
सब धरती सरशब्ज बना दई, कई भौतिक धान्य, फसल दे।।
गुप्त लुप्त हो विन्ध्य घाटी में, गंगादास की, गएश्वरी भईं।
गोलेश्वर पर गोलेश्वरी बन, जन जन रोग हटैं, जल परसें।।161।।
वरकागांव, बराहना झाड़ी, अवधूत संत, तपस्या भारी।
झरना बन, घाटी में बहतीं, प्रकटी गोलारी बन न्यारी।
मकरध्वज पर मकरेश्वरी बन, बृहद शिलाओं से प्रकटीं हो।
तारणहार बनी हो जन की , जय जय कर रही जनता सारी।।162।।
सिया बावड़ी तुम्ही गंग हो, मधाखोह की पावन गंगा।
धुआंधाम मानस कुण्डी हो, बरई धाम, बरही खो गंगा।।
पानी वारी पनिहारी तुम, कई सिद्ध- धामी हो तुम तो।
नौंनंदा शिवधाम प्रकट हो, लवणाखार- नौंन बनी गंगा।163।।।
मद्दाघाटी के सिद्ध धाम पर, तुमने रूप जगाया आला।
सिद्धपुरा से चलीं लाड़ली, अमरौलताल भरा मतवाला।।
कई गांवौं, धमों का जल ले, रूप मेंगरा धारण कीना।
चरण दास घाटी चिनौरिया,बन गया रूप मेंगरा बाला।।164।।
कितनी गंगाऐं तुम में हैं, तुम हो ब्रम्ह्- कमण्डली न्यारी।
बहुती पावनतम तुम लवणा, लगतीं सबको प्यारी –प्यारी।
कितने रूपों के गुण गाऊं, लवणा-नौंन तुम्हीं हो अनुपम।
गंगे मां, तुमको सब अर्पण, सदां रहो ध्यानों, जगतारी।।165।।
मो. 9981284867
(इति)