जीवन सरिता नौन - ३ बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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जीवन सरिता नौन - ३

 प्रथम अध्‍याय

पंचमहल और गिर्द स्‍थली, अब कब होगी गुल्‍जार।

कई दिनौं से प्रकृति यहां की,करती रही विचवार।।

विनपानी बेचैन पशु-जन,खग कुल आकुल होते।

डीम-डिमारे खेत यहां के,विन पानी के रोते।।1।।

बहैं अनूठी वयार यहां,पतझड़ का गहरा साया।

पर्वत के प्रस्‍तर खण्‍डों से,गहन ताप ही पाया।।

कोयल, कीर, पपीहा यहां पर,मन से कभी न गाते।

लगता, इनके जन्‍म भूमि से,रहे न कोई नाते।।2।।

राजा-कृषक, श्रमिक सब ही का,एक पाबस आधार।

पावस, मावस-सी अंधियारी,कैसे – कब ? उद्धार।।

जीव जन्‍तु, तृण , द्रुमादिक,सबका जीवन पानी।

बिन पानी, हरियाली गायब,सब धरती अकुलानी।।3।।

प्रकृति जानती है, जीवों के,सब जीवन का राज।

कहो कबै भुयीं धन्‍य होयगी,प्रकटै सरित सुकाज।।

धरनी, कृषक, जीव – जन्‍तौं का,जीवन मन हरषाने।

पर्वत – दर्दौ को लेकर कब,झरना लगैं बहाने।।4।।

धर्मधरा की पावन भू – को,कब मिल है वरदान।

नव सरितासमृद्धि बनकर,कबैं बने पहिचान।।

करने को मनमस्‍त,भगीरथी- सी, गंगा कब आए

जिससे ही प्‍यारी अपनी यह, गौरव – गरिमा पाए।।5।।

पावस की मनमानी मैंदन,धरने, धरती – धीर।

 कबजीवन हर्षाने प्रकटै,सरिता हरने पीर।।

लगता, यहां करुणा की धारा,वह निकलेगी आज।

 यहां वहाने गौरव- सौरभ ,कहती जीवन राज।। 6।।

 

लगतीं हैं किबदन्‍ती सच सीं, जनश्रुति जन-मन बाली।

मानो- ईश्‍वर इच्‍छा प्रकटी, बोलत प्रकृति निराली।।

प्रकृति कहो या ईश्‍वर, वे तो, मंगल ही करते हैं।

जन जीवन, गुल्‍जार करन को, अपने पग धरते हैं।।7।।

चिंतन में, जग हेतु वसा हो,तहां कहानी अद्भुत देखीं।

पर्वत का हृद चीर पृकट भयीं, कई जलधारायैं लेखीं।।

अद्भुत प्रभु के सभी कार्य हैं, जग भी जान न पाया।

कैसे – क्‍या हो गया धरा पर, समझ न आई माया।।8।।

इसी भाव को लिए जहां पर, कई सरिताएं दौड़ीं।

अबनी का श्रंगर करत ही, नई आशाएं जोड़ी।।

करुणा का अवतार यही है, जिसको माना जाता।

जिसका सुन्‍दर रूप, जहां का, कण कण हीगाता।।9।।

कारण विन नहीं कार्य कभी भी, होते देखे भाई।

प्रकृति का व्‍यवहार यही है, सनातन रीति सुहाई।।

जन जीवन दुख देख, प्रकृति सिद्धान्‍त बताता।

उसके निवारण हेतु, अंश- अवतरण कहाता।। 10।।

जब – जब संकट दिखे, प्रकृति लिए रूप घनेरे।

जिसे अवतरण कहा, आर्त जन जब – जब टेरे।।

इस जग का भूगोल,  बहुत ही विस्‍तृत है भाई।

क्‍या कब कहां हो जाए, उसे कोई जन न पाई।।11।।

नद – नदियों के लेख, यही सबको बतलाते।

प्रकट कहां से होंय, कहां सुख – सौरभ नाते।।

इन भावों का भाव, लबण सरिता ने पाया।

प्रकटीं पर्वत निकट, सिया बाई, युग गाया।112।।

ताप तपी जब गिर्द की अबनी, तृण तरु मुरझाए।

आग उगलते, पहाड़-पहाड़ी, तृषित जीव अकुलाएं।।

वृष तरणि तपा तेज ले,अपनी सहत्रौं किरणपसारी।

अंगारे बरसे अंबर से, मच गई तहां, तब हाहाकारी।।13।।

घर, परिवार, त्‍याग दए मोहना, सहसाई, पेहसाई।

सिकत ताप, सिकरावली भारी, डबका से बतराई।।

बचा सकत, बाग वाले बाबा, बाग भकूला वाले।

घोरे घाट सुमिरौ बजरंगी, भंवरपुरा बचाने वाले।।14।।

जड़वत भई जड़ेरू देखो, रटत रही, हीरा भुमियां।

बचा लेउ बालक देब बाबा, जल रही सारी दुनियां।।

मंद बहत मद्दा खोह झरना, नया गांव घबराया।

कैसी दशा, बसौटा हो गई, रेंहटा रेंहट चलाया।।15।।

कारे देब, जखौदा रटता, लौंदू पुरा और बंजारा।

बेर – बेर टेरत बेरखेरा, शरण चराई निहारा।।

श्‍याम श्‍याम रट रहा श्‍यामपुर, दौरार दौड़त पाया।

देखत रही ददोई सब, कुछ भी समझ न आया।।16।।

दंग खड़ी कैमाई देखत, पत्‍थर, पर्वत सब हाले।

थर्र थर्र कांप रही चराई, पड़ गए प्राणन लाले।।

शिर धर सिरसा टेरत कारस, महाराम पुर स्‍वामी।

बचा लेउ अब तो सिया स्‍वामी, करते सभी नमामी।।17।।

जड़ – जंगम, घबड़ाये भारी, हिल गए पर्वत सारे।

त्राहि। त्राहि मच गई धरा पर, जन जीवन हिय हारे।।

 ताप तपन पर्वतहिले, चटके, स्रोत निकल तहांआए।

 निकले उसी बाव़डी होकर मीठा जल बावडी का पाए।।18।।

जड़ जंगम, स्‍याबर सबका, रक्षण प्रभु ने कीना।

यौं ही लगा,इसी बावडी ने, अमृतजल दे दीना।।

 इक झांयीं सिया सी मृगाजल में, लोग जान न पाए।

लुप्त हो गई इसी बाव़डी, यह संत जन रहे बताए।। 19।।

जंगल,जन- जीवौं हितार्थ, प्रकटी तहां, गंगा आई।

सब जन जीवी मिलकर, करतेस्‍तुति मन भाई।।

सिया बाबड़ी गंग, नाम धरा,सब संतन ने उसका।

प्रकटी- गंगा भू-लोक, सुयश छाया जग जिसका।।20।।