ये इश्क़ नहीं आसां - संजीव पालीवाल राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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ये इश्क़ नहीं आसां - संजीव पालीवाल

लगभग 3 साल पहले कॉलेज के मित्रों के साथ जोधपुर और जैसलमेर घूमने के लिए जाने का प्रोग्राम बना। जहाँ अन्य दर्शनीय स्थानों के साथ-साथ जैसलमेर के शापित कहे जाने वाले गाँव कुलधरा को भो देखने का मौका मिला। लोक कथाओं एवं मान्यताओं के अनुसार जैसलमेर में कुलधरा नाम का एक पालीवाल ब्राह्मणों का गाँव था जो राजस्थान के पाली क्षेत्र से वहाँ आ कर बसे थे। उन्होंने कुलधरा समेत 84 गांवों का निर्माण किया था। कहा जाता है कि 19वीं शताब्दी में घटती पानी की आपूर्ति के कारण यह पूरा गाँव नष्ट हो गया।एक अन्य मान्यता  यह भी है कि जैसलमेर के अय्याश एवं अत्याचारी दीवान सालम सिंह द्वारा उन्हें इस हद तक पर शोषित, प्रताड़ित एवं अपमानित किया गया कि उससे तंग आ कर एक रात संयुक्त पंचायत के बाद सभी 84 गांवों के बाशिंदे अचानक अपना सब कुछ वहीं छोड़, गाँव खाली कर के चले गए।  किवंदंतियों के अनुसार कि उस गांव में छोड़ी गई दौलत पर जिस किसी ने अपना हाथ साफ़ किया, वो बरबाद हो गया। तब से यह गाँव शापित कहलाता है। दोस्तों..आज कुलधरा के इस शापित कहे जाने वाले गाँव की बात इसलिए कि आज मैं यहाँ जिस उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ, उसे इसी कहानी को केंद्र में रख कर एक प्रेम कहानी के रूप में लिखा है लेखक संजीव पालीवाल ने। इससे पहले वे दो थ्रिलर उपन्यास लिख चुके हैं।इस उपन्यास के मूल में कहानी है एक कहानीकार/यूट्यूबर अमन और जैसलमेर के एक होटल की मालकिन अनन्या के बीच पनप रही प्रेम की। तो दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है अमन की नाराज़गी झेल रहे उस व्यवसायी पिता राज सिंह चौधरी की, जिसकी कंस्ट्रक्शन कम्पनी जल्द ही अपना आईपीओ लाने वाली है और इससे संबंधित ज़रूरी कागज़ात पर उन्हें अपने बेटे के हस्ताक्षर चाहिए। मगर उनके लाख चाहने के बावजूद भी उनसे अलग रह रहा अमन उनके पास लौट कर आने को राज़ी नहीं है कि वह अपनी बीमार माँ की मौत का ज़िम्मेवार अपने पिता को मानता है। साथ ही इस उपन्यास में कहानी है बैंक से लोन के रूप में बड़ी रकम उधार ले चुकी उस मजबूर अनन्या की जो इस वक्त 'करो या मरो' की परिस्थिति में इस हद तक फँस चुकी है कि लोन चुकता ना कर पाने की स्थिति में बैंक द्वारा उसका होटल कुर्क कर लिया जाएगा। इस उपन्यास में लेखक कहीं जैसलमेर के किले के वैभवशाली इतिहास से अपने पाठकों को रूबरू करवाते नज़र आते हैं तो कहीं उनके शब्दों के ज़रिए जैसलमेर के महल से सूर्योदय के नज़ारे का आनंद साक्षात प्रकट होता दिखाई देता है। कहीं जैसलमेर के किले को लाइव फोर्ट का दर्ज़ा दिया जाता दिखाई देता है कि इस किले बारहवीं शताब्दी से लगातार लोग रहते आ रहे हैं तो कहीं महल के सुरक्षा प्रबंधों से पाठकों को अवगत कराया जाता नज़र आता है। इसी उपन्यास में कहीं जैसलमेर के शापित गाँव कुलधरा सहित पालीवालों के सभी 84 गाँवों के इतिहास के बारे में जानने का मौका मिलता है तो कहींपोखरण के नज़दीक भादरिया राय माता मंदिर में बनी एशिया की सबसे बड़ी भूमिगत लाइब्रेरी से लेखक अपने पाठकों का परिचय करवाते नज़र आते हैं। कहीं जैसलमेर के किले में स्थित उस सात मंज़िले शीशमहल की बात होती दिखाई देती है जिसकी उपरली दो मंज़िलों को तोड़ने का आदेश जैसलमेर के महाराजा ने इस वजह से दिया था कि उसकी ऊँचाई उनके किले से भी ज़्यादा हो गयी थी।इसी उपन्यास में कहीं हमारे देश में पालीवालों द्वारा व्यर्थ बह जाने वाले बरसाती पानी को बचा कर रखने की मुहिम के रूप में पहले पहल रेन हार्वेस्टिंग शुरू किए जाने की बात का पता चलता है तो कहीं ठाकुर जी के उस ऐतिहासिक मंदिर के बारे में पढ़ने को मिलता है जहाँ पर सालिम सिंह के अत्याचारों से आहत पालीवालों की आख़िरी पंचायत हुई थी। जिसके बाद 84 गाँवों के पालीवालों ने एक साथ सारा इलाका छोड़ दिया था। सीधी-साथी इस प्रेम कहानी में दर्ज कुलधरा गाँव और पालीवालों के इतिहास को अगर उस समय के घटनाक्रम एवं किरदारों के द्वारा स्वयं अपने शब्दों में फ्लैशबैक के ज़रिए बयां किया जाता तो उपन्यास और ज़्यादा प्रभावी एवं दमदार बनता। बेहद सावधानी के साथ की गयी प्रूफरीडिंग के बावजूद भी इस उपन्यास में मुझे कुछ कमियाँ दिखीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 12 में लिखा दिखाई दिया कि..'अमन का मन कर था कि इससे बात करता रहे' यहाँ ''अमन का मन कर था कि' की जगह 'अमन का मन कर रहा था कि' आएगा। पेज नंबर 42 में लिखा दिखाई दिया कि..'जैसे पूरी कायनात को समटे लेना चाहती हो अपनी आगोश में'यहाँ 'समटे लेना चाहती हो' की जगह 'समेट लेना चाहती हो' आएगा तथा 'अपनी आगोश में' में की जगह 'अपने आग़ोश में' आए तो बेहतर।इसके बाद पेज नम्बर 65 में लिखा दिखाई दिया कि..'क्या आपको पता है कि हम लोग, यानी पालीवाल रक्षाबंधन का त्योहार क्यों नहीं मानते'यहाँ 'त्योहार क्यों नहीं मानते' की जगह 'त्योहार क्यों नहीं मनाते' आएगा। पेज नम्बर 100 में लिखा दिखाई दिया कि..'ज़िन्दगी को दखने के दो ही नज़रिये हैं'यहाँ 'दखने' की जगह 'देखने' आएगा। पेज नंबर 141 में दिखा दिखाई दिया कि..'पूछो भी तो कई जवाब नहीं मिलता था'यहाँ 'कई जवाब' की जगह 'कोई जवाब' आएगा। 170 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है eka ने और इसका मूल्य रखा गया है 170/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।