द्वारावती - 52 Vrajesh Shashikant Dave द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वारावती - 52

52


समय अपनी गति से प्रवाहित होता रहा। केशव को मिठापुर गए अनेक सप्ताह हो गए। इन दिनों में केशव के जीवन में क्या हुआ होगा उससे गुल अनभिज्ञ थी। वैसे तो गुल के जीवन में जो घटा उससे केशव भी अनभिज्ञ था। वास्तव में दोनों के जीवन में विशेष कुछ नहीं घटा था। 
प्रतिदिन प्रातः काल में गुल समुद्र तट पर आती, सूर्योदय को समुद्र की साक्षी में निहारती, कुछ मंत्रों का गान करती, भड़केश्वर महादेव के मंदिर जाती, आरती-पूजा-अर्चना-दर्शन करती घर लौट आती। प्रत्येक दिन उसे मन होता कि गुरुकुल जाकर केशव के विषय में किसी से बात करें, उसके विषय में कोई नूतन समाचार हो तो वह जानें। किंतु प्रत्येक बार वह स्वयं को रोक लेती। गुरुकुल पर दूर से दृष्टि डालकर घर चली जाती। केशव के बिना ही वह समय के प्रवाह में प्रवाहित होती रही, स्थिर सी, निश्चल सी, निर्लेप सी। 
इसी अवस्था में एक दिन प्रातः काल समुद्र तट पर समुद्र को कुछ मंत्र सुना रही थी गुल। तब सहसा उसके कान ने एक ध्वनि सुनी।“गुल, गुल।”
मंत्र गाते गाते वह रुक गई। ‘कौन है जो मेरा नाम ले रहा है? इस समय किसी का यहाँ होना, मेरा नाम लेना ….।’
उसके विचार को भंग करती हुई वह ध्वनि पुन: सुनाई दी। “गुल, गुल।” गुल ने मुड़कर देखा। सम्मुख केशव खड़ा था। 
गुल को अपने नयनों पर विश्वास नहीं हुआ। अपनी पलकें तीन चार बार खोली, बंद की। स्वस्थ होकर पुन: देखा। वह केशव ही था। वह सस्मित खड़ा था। दोनों हाथ पीछे छुपाकर रखे थे। 
“केशव तुम?” गुल के प्रश्न में प्रसन्नता भी थी, आश्चर्य भी था। 
“हाँ गुल। मैं केशव।” वह गुल के समीप आ गया। गुल दो चरण पीछे हट गई। 
“गुल, विश्वास करो। मैं केशव ही हूँ।”
गुल ने आँखों के संकेत से केशव का स्वागत किया। 
“केशव, कुछ क्षण प्रतीक्षा करो। मैं मेरा नित्य क्रम पूर्ण कर लूँ।”
“तुम विष्णु सहस्त्र का पाठ कर रही हो ना?” गुल ने मौन सम्मति दी। केशव रेत पर बैठ गया। गुल पुन: पाठ करने लगी। केशव उसे ध्यान से सुनने लगा। पाठ समापन के पश्चात गुल ने द्वारिकाधीश की पताका को नमन किया, केशव के समीप बैठ गई। 
“कैसे हो केशव? अध्ययन कैसा चल रहा है?”
“सकुशल हूँ। अध्ययन अपनी गति से चल रहा है। तुम कैसी हो? मां तथा पिताजी कैसे हैं?”
“सब कुशल हैं। अध्ययन में मन लग रहा है ना?” 
“मैं मन को अन्यत्र भटकने नहीं देता।”
“हाथ पीछे रखकर कुछ छिपा रहे हो। इस प्रकार तुम मेरा मन भटका रहे हो। क्या है हाथों में?”
“इतने दिनों के अध्ययन से मैंने कुछ नया सिखा है वह तुम देखना चाहोगी?”
“अवश्य।” 
केशव ने जो छिपाकर रखा था उसे गुल के समक्ष प्रकट कर दिया। एक पारदर्शक थेली को देख गुल ने पूछा, “क्या है इसमें?”
“एक जीवित मेंढक है इसमें।”
“जीवित है तो यह सुषुप्त क्यों है? जीवन के कोई संकेत क्यों नहीं दिख रहे?”
“इसे औषधि से अचेत कर दिया है।”
“इस औषधि के विषय में कुछ दिखाना चाहते हो?”
“नहीं। मैं कुछ अन्य बात दिखाना चाहता हूँ।”
“मुझे इस औषधि के विषय में जानना है।”
“जब किसी व्यक्ति की शल्य क्रिया करते हैं तब उसे अचेत करने हेतु इस औषधि का प्रयोग होता है। व्यक्ति जब अचेत होता है तब उस पर होने वाली शल्य क्रिया की पीड़ा से उसे बचाया जा सकता है।”
“तुम इस मेंढक पर शल्य क्रिया करने वाले हो?”
“हाँ। मैं इसे काटूँगा तथा उसके शरीर का….।”
“मेंढक की शल्य क्रिया क्यों करनी है? किस व्याधि से ग्रस्त है यह? क्या तुम शल्य चिकित्सक बन गए हो? तुम तो अंतरिक्ष विज्ञानी बनने गए थे?”
“मेंढक किसी व्याधि से ग्रस्त नहीं है और ना ही मैं शल्य चिकित्सक बन गया हूँ। अंतरिक्ष विज्ञान ही मेरा लक्ष्य है।”
“तो इस मेंढक को क्यों काटोगे?”
“मैं इसे चिरकर उसकी शरीर रचना तुम्हें दिखाऊँगा।”
“मेंढक के जिस भाग को काटोगे उस भाग को पुन: जोड़ दोगे ना?”
“पुन: जोड़ना मुझे नहीं आता।”
“तो मुझे तुम्हारे इस कार्य में कोई रुचि नहीं है।”
“किंतु एक बार ….।”
“देखो केशव, इस प्रकार तुम एक जीव की हत्या कर रहे हो। यह हिंसा है।”
“हमारे पाठ्यक्रम में जीव विज्ञान का विषय है। उसकी प्रयोगशाला में हमें उसे चिरना होता है।”
“क्यों?”
“यह सिद्ध हो चुका है कि मानव शरीर तथा मेंढक की शरीर रचना में अत्यंत समानता है। अतः यदि मानव शरीर की संरचना को समझना हो तो मेंढक की शरीर रचना का अध्ययन करना आवश्यक है।”
गुल कुछ क्षण विचार में पद गई। पश्चात बोली,“यह तो चित्रों के माध्यम से तथा ऐसे ढाँचे बनाकर भी समझा जा सकता है। इसमें इसे चीरकर मारने की क्या आवश्यकता है?”
“हो तो सकता है किंतु अभी तो यही हमारा पाठ्यक्रम है।चिरना इस लिए भी आवश्यक है कि जब विद्यार्थी आगे चिकित्सा विद्या का अध्ययन करे तब उसके मन में मानव शरीर पर शल्य क्रिया करते समय कोई भय ना हो, संकोच ना हो। उसे मानसिक रूप से तैयार करने के लिए ही यह सारा उद्यम होता है।”
“ऐसा पाठ्यक्रम रचने वाले महामूर्ख हैं, केशव। उसका अनुसरण करने वाले उससे भी बड़े मूर्ख हैं।तुम्हारी यह शिक्षा प्रणाली ही मूर्खता से पूर्ण है।और तुम भी उन मूर्खों की टोली में जा मिले हो केशव।”
“गुल, क्या कह रही हो? मैं मूर्ख हूँ?”
“हाँ। शत प्रतिशत मूर्ख हो तुम।”
“गुल, तुम मुझसे लड़ाई करने का मन बना चुकी हो क्या?”
क्षणभर मौन के पश्चात् स्मित के साथ गुल ने उत्तर दिया, “मूर्ख से लड़ाई क्या करनी? मैं तो केशव से मिलना चाहती थी किंतु केशव के स्थान पर कोई …।”
“गुल, स्पष्ट रूप से कहो कि तुम चाहती क्या हो?”
“यह बताओ कि क्या तुम अभी भी प्रतिदिन त्रिकाल संध्या करते हो?”
“हाँ। कितनी भी व्यस्तता होने पर भी मैंने उस क्रम को बनाए रखा है।”
“क्यों करते हो?”
“मेरी अटूट, अड़ग श्रद्धा एवं आस्था है उस कार्य में।”
“इस आस्था का कोई विशेष कारण?”
“उससे मुझे दिनभर की ऊर्जा प्राप्त होती है। यही सत्य है।”
“तो सत्य कहने का साहस क्यों नहीं है तुम में?”
“कौन सा सत्य? कैसा सत्य?”
“ओह। तो तुम्हें मुझे यह भी बताना पड़ेगा कि सत्य क्या है? सत्य कहने से पूर्व सत्य जानना, सत्य को समझना तथा सत्य का स्वीकार करना आवश्यक होता है। इसके लिए सत्य कहने से भी अधिक साहस चाहिए। सत्य यह है कि तुम किसी को बदलकर स्वयं बदल गए हो। किसी को मार्ग दिखाकर स्वयं भटक गए हो। इस सत्य को स्वीकार करने का साहस है तुम में?”
“है मुझ में इतना साहस। कहो जो कहना है।”
“क्या तुम चिकित्सक बनना चाहोगे?”
“नहीं।”
“तुम्हारी कक्षा में कितने विद्यार्थी हैं?”
“मेरी कक्षा में साथ विद्यार्थी हैं। किंतु यह कैसे सवाल, कैसी बातें कर रही हो तुम?”
“क्या साठ के साठ विद्यार्थी चिकित्सा अभ्यासक्रम में प्रवेश पा लेंगे?”
“नहीं अधिक से अधिक पाँच से सात विद्यार्थी सफल होंगे।”
“उन पांच सात में से कितने शल्य चिकित्सक बन पाएँगे?”
“कदाचित एक दो।”
“अर्थात् प्रति वर्ष तीन सौ मेंढक के वध के पश्चात केवल एक दो ही शल्य चिकित्सक मिलेंगे हमें। इन एक दो के लिए तीन सौ निर्दोष मेंढकों का वध क्यूँ? क्या इस सत्य को तुम देख सकते हो? समज सकते हो? स्वीकार कर सकते हो? इस प्रथा का विरोध कर सकते हो?”
गुल रुक गई। केशव गुल के एक एक शब्दों पर गहन विचार करने लगा।
“केशव, तुम्हारी स्मरण शक्ति क्षीण हो गई है। मैं तुम्हें स्मरण करवाती हूँ उस क्षण का जब तुमने ही मेरे पिताजी को मत्स्य आखेट से मुक्त करवाया था। स्मरण है तुम्हें?”
“गुल, तुम्हारी बातों को मैं भली भाँति समज गया हूँ। तुम्हारे इस तर्क पर, इस विचार पर मैंने कभी विचार ही नहीं किया। अन्य किसी ने भी नहीं किया। हमारी शिक्षा प्रणाली ने हमें तर्क करने से ही विमुख कर दिया है। किंतु मैं अब से मेंढकों की हत्या नहीं करूँगा, ना ही किसी को करने दूँगा।”
केशव ने अचेत पड़े मेंढक को मुक्त कर दिया, वहीं तट पर छोड दिया।
“यह क्या कर रहे हो तुम मेंढक के साथ?”
“इसे मुक्त कर रहा हूँ, जीवन दान दे रहा हूँ।”
“नहीं। इस अवस्था में तुम उसे मरने के लिए छोड़ दे रहे हो। इसे इस प्रकार पड़ा देखकर कोई भी प्राणी इसका आखेट कर देगा।”
“तो इसे समुद्र में प्रवाहित कर देता हूँ।”
“केशव, समुद्र का जल खारा होता है। मेंढक मीठे जल का जीव है।”
“कितना गहन, कितना सूक्ष्म विचार करती हो तुम गुल? मुझे इसे किसी मीठे पानी के तालाब में अथवा कुंड में छोड़ देना चाहिए।”
गुल ने सम्मति प्रदान की। दोनों मौन हो गए। समय के व्यतीत होने पर केशव लौट गया। गुल उसके पदचिन्हों को देखती रही। समुद्र की तरंगों ने उसे भी मिटा दिए।