मैं तो ओढ चुनरिया - 62 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 62

 

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

62

 


पूरी रात मैं आज के घटनाक्रम पर विचार करती रही । बिना किसी कसूर के मिली गालियां । फिर घड़ी मिल जाने पर खुशी । हमारे घर तो छोटी से छोटी चीज भी किसी के लिए आती तो वह दिन सबके लिए त्योहार का दिन होता । प्रसाद बनता । ठाकुर जी को भोग लगता । सब लोग मीठा खाते और खुश होते । पर यहाँ तो हर बात अलग थी । धिन निकलते ही मैंने अटैची में मैंने सिले अनसिले बहुत सारे कपड़े रख लिए । सोचा मायके में बैठ कर सिल लूंगी । कम से कम पहनने लायक कपडे तो हो जाएंगे । भाई को बताया तो वह भी खुश हो गया । पिछले पाँच दिन से वह भी परेशान हो रहा था ।मन लग नहीं रहा था और वह जबरदस्ती मन लगाने की कोशिश कर रहा था ।
कोटकपूरा से सहारनपुर एक ही गाड़ी जाती थी , वह भी पैसेंजर जिसे लोग लाहौरी गड्डी कहते थे । वह कोटकपूरा से शाम सात बजे चलती और सुबह सुबह दिन चढते चढते सहारनपुर पहुँचा देती । वह दिन उत्तेजना और घबराहट में जैसे बीता , बखान नहीं हो सकता । शाम को महताब बुआ मिलने आई तो साथ में भाई का बैग भी ले आई । महताब बुआ ने कहा – मैं तो कल खाने के लिए बुलाने वाली थी । इतवार का इंतजार कर रही थी ताकि आराम से रोटी सब्जी बनाई जा सके । खुल कर बातें की जा सकें । चलो कोई ना , वापिस आओगी तो बुला लूंगी ।
आखिर राम राम करते शाम के साढ़े पाँच बज गये । रोटी बनी । मुझसे तो खाई ही नहीं गई । छ बजते बजते रिक्शा दरवाजे पर आ लगा । हम लोग रिक्शा में सवार हुए तो सासु ने पाँच पतासे , दो लड्डू और दो रुपए शगुन दिया । एक रुपया भाई को भी मिला ।
वे जाने के मुङी फिर लौट आई - सुन , पायल कहाँ है जो हमने बरी में दी थी ।
वह तो कमरे में अलमारी में है । मुझे तो एक पायल माँ ने और एक मामा ने दी थी , वहीं पहनी है ।
पायल निकाल कर दे दे । वह छोटी के मायके की है , उसे वापस करनी है ।
मैं रिक्शा से उतरी । अपने कमरे में गई जिसे ये सारे लोग बैठक कहते थे , अलमारी खोल कर पायल निकाल लाई और उन्हें पकडाई । फिर इंतजार करने लगी कि अब कौन सा हुक्म सुनाया जाएगा ।
और ये हार संभाल कर रखना । एक ही हार है । इसी हार से चार बेटे ब्याहे गये । बाकी चार भी इसी से ब्याहने है ।
मन तो हुआ कि गले से हार उतार कर पकङा दूँ पर मायके शादी के बाद पहली बार जा रही थी । वहाँ सारे रिश्तेदार , खास कर मामियां और पड़ोसी स्पैशल पूछते – ससुराल वालों ने क्या चढाया तो क्या दिखाती ।
इसलिए मन मार कर गुस्सा पीकर फिर से रिक्शा पर सवार हुई । रिक्शा चला तो मन में सुख का एहसास हुआ । लगा , रुकी हुई सांस दोबारा चल पङी है । ठंडी हवा के झोंको ने तन मन छुआ तो ताजगी का अहसास हुआ । करीब दस मिनट में हम स्टेशन जा पहुँचे थे । तब सहारनपुर का एक टिकट तेरह रुपए का आता था तो तीन टिकट खरीदे गये । सही सात बजे गाड़ी प्लेटफार्म पर आ लगी तो हम गाड़ी में सवार हुए । गाड़ी में बहुत भीड थी । सवारियां तीन लोगों वाली बर्थ पर पाँच छ बैठी थी । कुछ औरतें बर्थ के बीच के फर्श पर चादरें बिछा कर बैठी थी । लङके दरवाजे पर भीङ किए थे । जैसे तैसे एक सीट बैठने के लिए मिली तो मैं वहाँ बैठ गई । भाई को अपनी गोदी में बिठा लिया । आठ बजे गाड़ी बठिंडा स्टेशन पर आ लगी । यह बहुत बड़ा जंक्शन था । यहाँ रेल करीब चालीस मिनट रुकती थी । तो यहाँ पूरी आलू खरीदे गए । एक प्लेट में दो पूरी और दोना भर आलू की सब्जी । दो प्लेट हम दोनों भाई बहन ने खाई । मन अभी और मांग रहा था पर संकोच के मारे कहा नहीं गया । चलो आज रात की बात है , सुबह अपने घर जाकर तो पेट भर कर खाना ही है ।
बठिंडा से गाड़ी निकली तो लोग ऊंघने लगे । थोड़ी देर में ही डिब्बे के अधिकांश लोग सो गए । मैं खिड़की से बाहर देखने की कोशिश कर रही थी पर बाहर इतना घना अंधेरा था कि कुछ सुझाई नहीं दे रहा था । तभी ट्रेन में जोर जोर से मार पीट होने लगी । एक दुबला पतला सा युवक हाय हाय चिल्लाता हुआ पिट रहा था और एक तगड़ा जवान सिक्ख उसे बुरी तरह से लात घूसों से पीट रहा था । सोए हुए लोग उठ गए और हक्के बक्के इस माजरे को समझने की कोशिश कर रहे थे । आखिर एक आदमी ने मुँह खोला – ओए हुआ क्या बता तो सही । मैली चादर की तरह से धोए जा रहा है
जवान ने मुंह बिचकाया – ये रांझा बनने चला था । मैं बनाता हूँ इसे रांझा ।
पता चला उस युवक के साथ उसकी बहन भी सफर कर रही थी । सीट मिली नहीं तो तौलिया नीचे बिछा कर कोई किताब पढ रही थी कि एक मुङी सी पर्ची उसकी किताब पर आ गिरी । उसने ऊपर की बर्थ पर लेटे भाई की ओर देखा – क्या है लाज ?
बहन ने वह कागज उसी तरह भाई की ओर बढा दिया ।
पर्ची पर लिखा था – तुम बहुत सुंदर हो ।
एक तो सरदार ऊपर से फौजी । जवान नीचे उतरा और उस युवक की गरदन पकड ली । दे मुक्का , दे थप्पड़ ... लोगों को पता चला तो कई उत्साही फौजी का हाथ बटाने आगे बढ़े । अपनी शामत आते देख वह युवक चलती ट्रेन से कूद कर अंधेरे में लापता हो गया । अब ट्रेन में गरमागरम बहस चल पड़ी । आज की युवा पीढ़ी मे बढ रही अनैतिकता । संस्कारों का अभाव हो गया है । अपनी माँ बहन के अलावा कोई और औरत बर्दाश्त नहीं होती । औरतें सुरक्षित नहीं है ।
अजी ऐसे लोगों की इसी तरह से छित्तर परेड होनी चाहिए तब बाकी लोगों को अकल आएगी ।
मैं तो कहता हूँ , देखते ही गोली मार देनी चाहिए ।
बातें दो घंटे से कम तो क्या चली होंगी । फिर धीरे धीरे माहौल सामान्य हो गया ।
काका जी आप फौजी हो न । पोस्टिंग कहाँ है ।
आपने सही पहचाना पापाजी । मैं अंबाले छावनी में पोस्टेड हूँ ।
घर बार बाल बच्चे ।
अभी डेढ़ साल पहले शादी हुई है । माँ बाबू जी फरीदकोट में रहते हैं । अभी बीबी फैमली वे में है तो बहन को साथ ले जा रहा था ।
ठीक है ठीक है । बहन का साथ होगा तो बहु का दिल भी लगा रहेगा ।
सभी लोग आपस में दो तीन की टोली में घरेलू बातें करने लगे । बातों में वक्त का पता ही नहीं चला और अंबाला आ गया । फौजी लङके ने सब बड़ों के पैर छुए । बराबर वालों से हाथ मिलाया । सामान उठा कर बाहर चला । साथ ही उसकी बहन सब को हाथ जोङ कर सत श्री अकाल बुलाती चली गई । सबको ऐसा लगा जैसे परिवार का कोई सदस्य कहीं दूर जा रहा हो । फिर लोग स्टेशन से चाय बिस्कुट खरीदने में व्यस्त हो गये ।

बाकी फिर ...