मैं तो ओढ चुनरिया - 61 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 61

 

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

61


ग्यारह बजे से दोपहर हुई फिर शाम हो गई । पूरा दिन इंतजार करते करते बीत गया । धीरे धीरे अंधेरा छाने लगा । रात उतर आई पर अभी तक जरनैल का कोई पता न था । किससे पूछूं । कौन बताएगा । मन बुरी तरह से घबरा रहा था । रात की रोटी खाई जाने लगी । यहाँ इस घर में सात बजते बजते रोटी निपटा ली जाती है । सब रोटी खा कर दूध का गिलास पी पी कर सोने चले गये ।हमारे घर में पिताजी नौ बजे तक क्लीनिक पर मरीज देखते फिर घर आकर नहाते । ये माँ का बनाया नियम था – दिन भर न जाने किस किस को छूना पड़ता है । छूत अछूत , तरह तरह की बीमारी वाले लोग । नहा कर फिर घर की चीजें छुआ करो तो पिताजी आते ही स्नानघर में घुस जाते । माँ ने पहले ही बाल्टी पानी की भर कर रखी होती । पहनने के कपङे भीतर खूंटी पर लटके होते । पिताजी नही धो कर पूजा करते । तब तक मां अंगीठी दहका कर रोटी सेंकती । पिताजी और मैं रोटी खाते फिर हम सैर को जाते । लौटते हुए सोडा या कुल्फी या रबड़ी खाकर घर लौटते तब तक साढ़े दस बज चुके होते । फिर दूध पिया जाता .ग्यारह बजे के बाद हम लोग सोने जाते । यहाँ आठ बजे ही घर में अंधेरा छा गया । बत्तियां बुझा दी गई । हे भगवान घर का बेटा घर नहीं आया और सब कैसे निश्चिंत होकर सो रहे हैं । किसी को फिकर ही नहीं है ।
समय काटने के लिए मैंने अलमारी में रखी किताबें देखी । ज्यादातर किताबें पंजाबी की थी । पाँच सात अंग्रेजी की मिली तो मैंने वही उठाई । ये मार्कस के दर्शन पर आधारित किताब थी । मैंने चार पाँच पेज पढ डाले । तभी मेरे कमरे का कुंडा खटका । मैंने दरवाजा खोला । सड़क पर यही खड़े थे । ब्रैड पकौड़े एक लिफाफे में और दूसरे हाथ में खोए की बर्फी ।
ले पकौड़े खा ।
मैंने हाथ नहीं बढ़ाया – सुबह से कहाँ थे मैं पता है कितना परेशान हो गई थी ।
वो मैंने तुझे कुछ दिया नहीं था न तो तेरे लिए रिस्ट वॉच लेने फरीदकोट चला गया था । आज पाँच तारीख हो गई है तो पगार भी लेनी थी । वहाँ सब पार्टी मांगने लगे तो वह भी देनी पड़ी । तब तक शाम के साढे चार हो गए थे तो सोचा ,अब आ ही गया हूँ तो लगे हाथ क्लास भी लगा ली जाय । कालेज गया । दो क्लास लगाई फिर भाइए की दुकान पर सबको बर्फी और पकोङे खिलाए तो तेरे लिए भी ले आया । मुझे वही छोङ वे भीतर आंगन में गय़े और करीब पाँच मिनट बाद लौटे ।
आपका खाना ...
मैं तो खा आया । अभी भीतर खाना खाने ही तो गया था ।
मुझे भी खानी थी ।
तभी रोटी चार थी । मैं तो तीन ही खाता हूँ । अभी एक रोटी रखी है पर सब्जी दाल तो है नहीं । मैंने सारी खा ली । तूने अब तक क्यों नहीं खाई थी
आपसे पहले कैसे खाती
चल अब तू ये सारे पकौड़े खा ले । मैंने लिफाफा खोला । उसमें दो पकौड़े थे । मैंने एक लिया और लिफाफा उधर बढा दिया ।
मैंने तो दुकान में ही दो खा लिए थे । ये तू खा । मैंने वे दोनों ब्रैड खा कर पानी पिया और एक पीस बर्फी का लिया । बर्फी वाकई बहुत स्वाद थी । खालिस खोए की ।
ये हमारे फरीदकोट की सबसे मशहूर मिठाई है । भाइए की बर्फी पूरे इलाके में मशहूर है ।
तभी उन्हें याद आया । घडी तो पैंट की जेब में ही है । वे उठे और घडी निकाल लाए । घङी हालांकि लोकल मेड थी पर सुंदर थी । स्टील की चेन ।
खैर रात बीती । सुबह नहाने के लिए कपड़े निकालने लगी तो वह गठजोङ के दुपट्टे सामने आ गये । मैं वे दुपट्टे लेकर जेठानी के पास गई –
भाभी ये गठजोड़ के दुपट्टे तो उसी तरह बंधे हैं ।
भई अब इन्हे इसी तरह संदूक में रख दे । ये हमारा देवर तो कामरेड है । किसी रीति रिवाज को मानता ही नहीं । न तो उबटन लगवाया , न कंगना बांधा । वहाँ तेरे घर जाकर सेहरा पता नहीं कैसे बांध लिया । यहाँ से तो ऐसे ही गया था । वैसे भी अभी घर में सूतक पातक चल रहा है । सवा महीने तक कोई पूजा लगेगी नहीं ।
मैं कमरे में आई और वह दुपट्टे अपनी अटैची में रख दिए । तभी सासु माँ आई और मेरे हाथ में छ सात पर्चियां थमा दी । ये तेरी शादी का खर्चा है । राशन वाले , कपड़े वाले , सुनार का हिसाब । इसके पैसे तुम्हे देने हैं ।
मैं तो धम से पलंग पर बैठ गई । ये नहा कर आए तो मैंने बिना बोले वे सारे बिल पकङा दिए । इन्होंने सरसरी निगाह से देखे और अलमारी में बिछे अखबार के नीचे सरका दिए ।
कोई न धीरे धीरे सब दिए जाएंगे ।
हम खाना खाने भीतर गये तो मैंने रात मिली घडी सबको दिखाई ।
घडी का देखना था कि छोटी ननद ने रोना धोना मचा दिया – मुझे कोई नेग नहीं दिया और इस कल की आई को इतनी महंगी घड़ी ले दी ।
सास अलग नाराज । इतना लेन देन सिर पर है और इन्हें तोहफे सूझ रहे हैं । पूरे तीन घंटे ड्रामा चला । खूब कहा सुना गया । ये तो साइकिल उठा कर घूमने चल दिए । रह गई मैं । मुझे तो सुनना ही था । पिछले पाँच दिन का सारा गुस्सा उस दिन जी भर कर निकला ।
ये शाम को चार बजे लौटे । खेत में खेस लेकर सोए रहे । भूख लगी गाजर , शलजम और मूली जी भर कर खाई । अब लगा कि घर में शांति हो गई होगी तो चले आए । इस बीच मैंने अपना पर्स देखा था । ससुराल में मिले शगुन के रुपए तो मैंने साथ की साथ सासु को या ननद को पकड़ा दिए थे पर चलते हुए मायके से मिले शगुन मेरे पर्स में थे । कुल मिला कर साढे तीन सौ से ऊपर ही थे । मैंने उसमें से तीन सौ रुपए इनको पकङा दिए कि लो और बहन को दे दो । अगले दिन ये कोटकपूरा के बाजार में गय़े और सवा सौ की घङी खरीद लाए । बहन खुश हो गई ।
पर मेरा मन बहुत अशांत हो गया था । एक तो भाई की पढाई खराब हो रही थी । वह महताब बुआ के घर ही रहता । इधर थोड़ी देर के लिए कभी कभार आता । उसके आते ही देवर चिल्लाते – लो जी साला आ गया । तालियां बजाते और जोरों से हंस देते ।
वह रोता हुआ महताब बुआ के घर भाग जाता । शुरु मे एक दो बार नहाने और कपड़े बदलने के आता रहा फिर अपना बैग भी उधर बुआ के यहां ही ले गया । अब वहीं रहता । बुआ के दोनों बेटों के साथ उसकी पहले से जान पहचान थी तो उनके साथ खेलता रहता । ऊपर से आज वाला प्रसंग ...।
फिर माँ पिताजी से मैं कभी एक दिन के लिए भी नहीं दूर हुई थी तो वैसे ही मन बहुत उदास था । खाने की समस्या सबसे बड़ी थी । मुझसे खाने का एक कौर भी न खाया जाता । भूख लगती पर खाना देखते ही उबकाई आने लगती । तो मैंने धीरे से कहा – मुझे सहारनपुर जाना है ।
चलते हैं । मेरी अभी सात छुट्टियां बाकी हैं ।
मैं खुश हो गई और अटैची में कपङे जमाने लगी ।

 


बाकी फिर ...