मैं तो ओढ चुनरिया - 7 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 7

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय सात

साढे चार बजे के अंधेरे में बसअड्डे से निकली बस ने इधर फगवाङा पार कर होशियारपुर की सङक पर पैर रखा , उधर सूरज ने अपने कंबल से थोङा सा मुँह बाहर निकाला । होशियारपुर पहुँचते ही सूरज अपनी रश्मि के साथ सैर पर चल पङा था । ड्राइवर ने बस एक ढाबे पर लगाई – भई दस मिनट रुकेंगे यहाँ । थोङी नींद की खुमारी उतार लें । तुम लोग भी मुँह हाथ धो लो । चाय पी लो पर सही दस मिनट में सीट पर बैठे मिलना । लोग आधे सोये आधे जागे अपनी सीटों पर अधलेटे हो रहे थे । अभी तक नींद से उबरे नहीं थे । कंडक्टर ने ड्राइवर की बात दोहराई तो हङबङाकर बस से नीचे उतर गये । सामने एक टिन की छतवाले ढाबानुमा आकार के बाहर एक आदमी चाय उछाल उछालकर फेंट रहा था और एक पहाङी मुंडु भाग भाग कर कांच के गिलास जग से भरकर गाहकों तक पहुँचा रहा था । इस भागदौङ में उसके माथे पर पसीना छलक आया । पर उस सबसे बेपरवाह वह भागकर चाय पहुँचाता । खाली कप या गिलास नल पर लेजाकर धोता । इस बस के यात्री भी उन बुजुर्ग हो चले लकङी के बैंच कहलाए जानेवाले तख्तों पर बैठ गये । ढाबे की बनतर के विपरीत खालिस दूध में बनी चाय बहुत स्वादिष्ट थी । एक कप चाय पीकर सारे लोग सही दस मिनट में बस में सवार हो गये । इस भोर की मसालेदार चाय ने सबकी सुस्ती भगा दी थी ।
बस चली तो लोग जोश से भर उठे । जोतांवाली माता तेरी सदाई जय - किसी ने जयकारा लगाया तो दूसरी ओर से फङकता हुआ जयकारा आया – बोल साचे दरबार की जय । आगे से आवाज आई – जयकारे वाले को मीठियां मुरादां – बोल माई सुच्चियां जोतांवाली माता तेरी जयजयकार । उसके साथ ही किसी ने ढोलक और चिमटा निकाल लिया । फिर तो भेंटों का दौर चल पङा । लोग भगति के रस में गोते लगाते गहरे खड्ड खाइयां सब भूल गये । सब जयकारे बुला रहे थे जो चिंतपुरणी माँ के भवन पर जा के ही रुके । बसवाले ने बस किसी धर्मशाला के आंगन में ही रोकी थी । लोगों ने अपने अपने लिए कमरे लिए । कुछ लोग पुश्तैनी पंडितों के घर रुके । नहा धोकर सब लोग माँ के दर्शन करने गये । यहाँ माता का नाम चिन्तपुरनी है ।
चिंतपुरनी यानि सभी चिंताएं हरने वाली माँ , पुराणों और कथाओं में माँ छिन्नमस्तका कहलाती हैं । छिन्नमस्तका अर्थात कटे हुए सिर वाली , वह देवी जिसके सिर नहीं है ।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार ऐसा विश्वास किया जाता है कि माँ चंडी ने चंड , मुंड दानवों को उनकी विशाल राक्षस सेना के साथ मार गिराया । सभी दुष्टों पर विजय के उपरांत, उनके दो भैरवियों अजया और विजया ने माँ से अपनी प्यास बुझाने की प्रार्थना की थी। यह सुनकर चंडी ने अपना मस्तिष्क छिन्न कर लिया और अपने रक्त से दोनों की प्यास बुझाई । इसलिए सती का नाम यहाँ छिन्नमस्तिका पड़ा।
लोग दूर दूर से माँ के द्वार पर आते हैं । माँ की पिंडी के दर्शन करते हैं । माँ से मन की व्यथा कहते हैं । माता उनकी हर परेशानी दूर करती है । माँ यहाँ पिंडी रूप में विराज रही हैं । यहाँ साल में तीन बार मेले लगते हैं । पहला चैत्र मास के नवरात्रों में, दूसरा श्रावण मास के नवरात्रों में, तीसरा अश्विन मास के नवरात्रों में। नवरात्रों में यहां श्रधालुओं की काफी भीड़ लगी रहती है। वैसे तो यहाँ पूरा साल यात्री आते रहते हैं ।
यह मंदिर भी माँ सती के 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है । पुराणों के अनुसार यहाँ सती के चरण कट कर गिरे थे । यहाँ तंत्र साधना होती है और बलि देने की परम्परा भी है । इस मंदिर का इतिहास पांडवों से जोङा जाता है ।
परंतु वर्तमान स्वरूप में मंदिर चौदहवीं शताब्दी में भगत माई दास द्वारा स्थापित किया गया है । इस मंदिर में दर्शन करके हमने नारियल चढाया । चूनर चढाई । फिर धर्मशाला में आकर माँ ने अपने थैले से खाने का सामान निकाला । पिताजी के लिए यह हैरानी की बात थी – ये तूने कब बनाया और कब थैले में डाला ।
माँ ने मुस्कुराते हुए मठरी , बालूशाही पिताजी को दी । खाकर हम सो गये । दिन ढलने से पहले ही हम तैयार हो गये और ज्वाला माँ के दर्शन करने चल पङे । साथ वाले दल के सदस्य पहले माँ बगलामुखी के मंदिर दर्शन करने जा रहे थे । उन्होंने हमें भी अपने साथ ले लिया ।
बगलामुखी माता 10 महाविद्याओं में से एक है। बगलामुखी देवी अपने भक्तों की गलतफहमी और भ्रम को अपने खडग से दूर करती है। इसके अलावा उत्तर भारत में इन्हें पिताम्बरा माँ के नाम से भी बुलाया जाता है। यह माना जाता है कि बगलामुखी मंदिर में हवन करवाने का विशेष महत्व है, जिससे कष्टों का निवारण होने के साथ-साथ शत्रु भय से भी मुक्ति मिलती है। द्रोणाचार्य, रावण, मेघनाद इत्यादि सभी महायोद्धाओं द्वारा माता बगलामुखी की आराधना करके अनेक युद्ध लड़े गए। नगरकोट कांगङा के महाराजा संसार चंद कटोच भी प्राय: इस मंदिर में आकर माता बगलामुखी की आराधना किया करते थे, जिनके आशीर्वाद से उन्होंने कई युद्धों में विजय पाई थी।
तभी से इस मंदिर में अपने कष्टों के निवारण के लिए श्रद्धालुओं का निरंतर आना आरंभ हुआ और श्रद्धालु नवग्रह शांति, ऋद्धि-सिद्धि प्राप्ति सर्व कष्टों के निवारण के लिए मंदिर में हवन-पाठ करवाते हैं। हर पल यहाँ मंत्रोंच्चारण होता रहता है ।
माँ का यहाँ भव्य और विशाल मंदिर बना हुआ है । और माँ की मनमोहक तेजस्वी प्रतिमा आकर्षक हैं ।
चिंतपुरनी माता के मंदिर ,भरवई से ज्वालाजी एक घंटे का रास्ता है । इसे ज्वालामुखी मंदिर भी कहते हैं । यहाँ माता अग्नि की लौ के रूप में विराजती है । इसे प्रत्यक्ष देवी कहा जाता है । मंदिर में माता की नौ जोत अपनेआप बिना तेल बाती के निरंतर जल रही हैं । इन्हें माँ के नौ रूप माना जाता है जो इस प्रकार हैं - महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका ।
कहते हैं , यहाँ माँ सती की जीभ गिरी थी । इसलिए यह स्थान भी 51 शक्तिपीठों में से एक है । संसार के सारे साइंनटिस्ट मत्था मार रहे पर कोई इन ज्योतियों का राज नहीं ढूँढ पाया । कहते है कि बादशाह अकबर भी यहाँ आया था । पहले वह भी इसे पुजारियों की भीङ इकट्ठा करने की चाल ही समझा था । उसने जोतों पर तवे ठुकवा दिए , जोत तवा फाङकर प्रकट हो गयी तो उसने नहर गिराई । पूरा मंदिर पानी से भर गया । पानी उतरा तो ज्योत जल रही थी । अकबर नंगे पाँव दरशन करने आया और सवा मन सोने का छतर चढा गया । वह छतर आज भी मंदिर में पङा है । और नहर मंदिर के साथ बहती है । रात को सबने माँ की शयन आरती देखी ।
लोग जहाँ तहाँ खङे बैठे माँ की महिमा गा रहे थे और साथ ही बीच बीच में यह चर्चा भी चल रहे थे कि ये दोनों लङकी पैदा होने पर मन्नत पूरी करने आए हैं । सुननेवाले का मुँह हैरानी से खुला रह जाता ...अच्छा ! हैं ! सच्ची मुच्ची !