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मैं तो ओढ चुनरिया - 11

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय 11

उस दिन के बाद से माँ और पिताजी के बीच तनाव आ गया था । पिताजी का अहम उनको झुकने नहीं दे रहा था । माँ दोनों वक्त रोटी बनाती और चुपचाप थाली पिताजी के सामने रख देती । पिताजी चुपचाप रोटी खाते और काम पर चले जाते । माँ सारी रात मुझे आँचल में लिए रोती रहती । मैं उस दर्द को महसूस कर रही थी पर क्या करती ।कुछ करना चाहती थी ,पर एक दस महीने की बच्ची के मन की बात कौन सुनता । इसी माहौल में तीन दिन बीत गये ।
एक दिन सुबह माँ खाना बना रही थी । पिताजी नहा धोकर काम पर निकलने के लिए तैयार हुए और चारपाई टेढी कर हाथ धोकर रोटी खाने बैठे । मां चारपाय़ी पर थाली में रोटी रखकर चली गयी । मैं धीरे धीरे खिसकती हुई पिताजी की मंजी के पास आई और बांही पकङकर खङी हो गयी , पिताजी ने मुस्कुराकर मुझे देखा और पूछा – रानी रोटी खानी है ?
मेरा हौंसला बढा । मैंने हाथ बढाकर रोटी थाली से खींच ली और मुँह में डालने लगी ही थी कि रोटी हाथ से नीचे मिट्टी में गिर गयी । माँ रोटी लेकर भागी । - आप यह रोटी मत खाओ जी , इसमें मिट्टी लग गयी है ।
मेरे हाथ वाली रोटी को झाङ झूङ कर देखा और रोटी का टुकङा बदल दिया । मैंने देखा –पिताजी ने मां के हाथ से मिट्टी लगी रोटी लेकर अपने मुँह में डाल ली । सब इतनी जल्दी हो गयाकि कुछ समझ ही नहीं आया । पिताजी ने माँ से पानी ले आने को कहा । माँ दौङकर घङे से पानी ले आई । रोटी खाकर पानी पी कर पिताजी तो काम पर निकल गये । माँ एक बार फिरसे रोने लग गयी ।
ये माँ भी अजीब प्राणी होती है । खुश होती है तो रोती है , दुखी होती है तो रोती है । सिवाय रोने के और कोई काम ही नहीं । रो रोकर लाल हुई आँखें लिए माँ ने मुसकुराने की कोशिश की और घर के काम धंधे में लग गयी ।
शामको पिताजी जलेबी और रबङी का दोना लेकर आये थे । माँ ने अपने ठाकुरजी को भोग लगाया और फिर हमने जलेबी रबङी में डुबो डुबो कर खायी । माँ और पिताजी में समझौता हो गया था । मैं बहुत खुश थी । एक पल में पिताजी के पास जाती और अगले ही पल माँ के आँचल में छिप जाना चाहती । एक साथ दोनों को हँसते खिलखिलाते देखने का सुख अभूतपूर्व था , एकदम अनिवर्चनीय । मैं इस आनंद को खोना नहीं चाहती थी इसलिए रात देर तक दोनों के साथ खेलती रही तब तक जब तक कि मेरी आँखें बंद नहीं हो गयीं और मैं बेबस होकर नींद की गोद में नहीं चली गयी ।
अगले दिन बङे मजे से बीते । रोज मेरे दिन पिताजी से लाड लङाते हुए निकलते और माँ और पिताजी के साथ खेलते हुए थककर रात होती । पिताजी खाना खाकर काम पर निकल जाते तो मैं माँ के साथ खेलती रहती ।
आग लगने की घटना से माँ बहुत डर गयीं थीं । वे मेरा एक पल भी साथ न छोङती । कपङे सिलना उसने बिल्कुल छोङ दिया था । कोई जबरदस्ती दे भी जाता तो मेरे सोने के बाद ही मशीन लेकर बैठ पाती और मेरे उठते ही मशीन कमरे के एक कोने में चली जाती ।
जो दो पैसे बनते , माँ उन्हें सम्हाल कर रख लेती । किसी बुरे वक्त के लिए । किसी वक्त जरुरत को पूरा करने के लिए । पिताजी की सखत हिदायत थी कि कोई काम नहीं करना है । रानी पल जाए फिर सोचना जो करना है ,कर लेना पर रानी की कीमत पर बिल्कुल नहीं । यहाँ तककि घर का काम भी अब बिखरा रहता , माँ भी मेरी चिंता में पगलायी रहती । इसके बावजूद मुझे कुछ न कुछ हुआ रहता । कभी सर्दी ,कभी जुकाम और कभी दस्त । माँ रसोई में से कुछ न कुछ खरल करके शहद के साथ चटाती रहती । पङोसनें कहती – देखते की आँख ऐसे ही तंग करती है , अभी इसके एक दो बहन भाई हो जाते तो बिल्कुल ठीक रहने लगती ।
इसी तरह ढाई तीन साल बीत गये । एक दिन पिताजी ने आकर बताया कि उनकी नौकरी एक महीना पहले ही छूट गयी थी । नहर बन गयी तो स्टाफ को कम कर दिया गया । बहुत से लोग बेरोजगार हो गये । एक महीना जैसे तैसे घर चलाया पर अब खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है । इस बीच एक महीने से कोई नयी नौकरी की जुगाङ में लगा था पर नहीं मिल रही । वाकयी परेशान करने वाली खबर थी । मकान का किराया पाँच रुपए था । और पाँच रुपए का महीने भर का दूध आता था । इसके अलावा राशन भी खरीदना होता । कुल मिलाकर पंद्रह रुपए से कम का खर्च होना ही था ।
आखिर एकदिन माँ और पिताजी ने सहारनपुर जाकर बसने का फैसला किया । तुरंत पुरंत में कुछ सामान बाँधा गया । कुछ सामान जो फालतू लगा , उसे बेच दिया गया । कुछ सामान पङोसियों को बाँट दिया गया और फिर एक दिन माँ और पिताजी सामान से लदे फंदे मुझे गोद में लिए सहारनपुर की गाङी में बैठे और सहारनपुर के स्टेशन पर जा उतरे ।
सहारनपुर में हालात काफी कुछ बदल गये थे । घर में नयी मामी अब पुरानी हो चुकी थी । नानी ने तिलकनगर में डेढ सौ गज जगह में दो कमरों का घर बना लिया था और किराये से बच गये थे । मामा की डाकघर में पोस्टमैन की नौकरी पक्की हो गयी थी । सबसे छोटे मामा किसी आईसक्रीम की फैक्टरी में कुल्फी बनाते और पूरा दिन कुल्फी बेचा करते । बीच वाले मामा किसी प्राइवेट स्कूल से नौवीं की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे । मौसी के लङके सबके सब ज्वालापुर जा बसे थे ।
माँ ने सामान रिक्शा में लदवाया और पुराने किराये वाले घर में जा उतारा । रिक्शा मीरकोट पहुँचा तो गली में घुसते ही चारों ओर से खिङकियाँ ,दरवाजे खुल गये । आओ बिटिया कह कर पूरे मोहल्ले ने बेटी और दामाद को सिर माथे पर ले लिया ।

बाकी अगली कङी में ...

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