मैं तो ओढ चुनरिया - 60 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 60

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

60


कमरे में आकर मैंने बाल संवारे । मांग में सिंदूर लगाया । माथे पर सिंदूर की ही बिंदी लगाई और सिर ढक कर कुर्सी पर बैठ गई कि अब कोई चाय नाश्ते के लिए पूछने आएगा लेकिन आधे घंटे तक कोई नहीं आया । तब तक दिन निकल आया था ।
दिन निकलने के साथ साथ पूरे घर में कानाफूसी शुरु हो गई ।
“ कैसी बेसहूरी बहु है । पहले ही दिन पहने हुए कपङे उतार कर गुसलखाने में फेंक दिए । कोई और धोने आएगा क्या ?” पूरे घर के लोग मुँह ढक कर हँस रहे थे ।
बङी जेठानी लपकती हुई आई – “ सुन वें कपङे ...”।
“ वे तो मैंने धो कर नल पर टांगे थे । पता नहीं था कहाँ फैलाने हैं “ ।
मैं भागी बाथरूम में । मेरा सूट राख में लथपथ नीचे फर्श पर बिखरा हुआ था । आँखों में आँसू आ गए – ये क्या हुआ !
खैर कपङों पर दो तीन बार साबुन लगाया । तीन चार बार पानी से खंगाले तब जाकर राख निकली । एक बार फिर से पानी से निकाल कर निचोङ कर आँगन में बंधी तार पर फैलाए । वो हुआ यूं कि घर के मर्दों में से कोई नहाने घुसा होगा । किसी औरत की नहाई बाल्टी में कैसे नहाता तो राख से बाल्टी रगङ कर मांजी होगी । कपङे गिरा कर टूटी भी मांज कर तब नहाया होगा । तो ... ।
खैर जो होना था वह तो हो चुका था । मैं बहुत देर तक सुन्न हुई बैठी रही फिर मैं इंतजार करने लगी कि आज तो कोई रीति रिवाज होगी पर वह सारा दिन ऐसे ही बीत गया । हाँ बीच बीच में पास पङौस की औरतें और रिश्तेदार मुँह दिखाई के लिए आती रही । वे मुझे देखती और एक रुपए का सिक्का थमा देती । शुरु में तो थोङा अजीब लगा , मात्र एक रुपया । इनकी बुआ ने मेरा असमंजस देखा – बहु , तेरी सास बरतती ही एक रुपए से है तो वही व्यवहार चला आ रहा है । तू एक रुपया और रख ले ।
नहीं बुआ जी , मेरे लिए तो आपका एक रुपया ही सौ के बराबर है । मैंने झुक कर उनके पैर छू लिए ।
उन्होंने आशीषों की बारिश कर दी थी । बाद में मैंने सुना कि उन्होंने अपनी भाभी से भी मेरे संस्कारों की बहुत तारीफ की थी ।
इस दिन एक और बात बहुत अच्छी हुई । दोपहर में मैं अपने कमरे में लेटी हुई थी कि एक दस साल के बच्चे ने दरवाजे पर दस्तक दी – मैं आऊँ ।
दरवाजा तो खुला है । आ जाओ । चले आओ ।
वह डरते डरते भीतर आय़ा और उछल कर पलंग पर बैठ गया ।
तू हमारे आने से तंग तो नहीं होती ?
मैं तंग क्यों होउंगी भला । बल्कि मैं तो सोच रही थी कि तुम मुझसे दोस्ती करने अभी तक आए क्यों नहीं ?
वो सारे कहते थे , तुम पढी हो तो किसी से बात नहीं करती ।
किसने कहा , मुझे तो बातें करना पसंद है ।खास कर तुम जैसे बच्चों से ।
वह खुश हो गया ।
तुम्हें पता है , तुम्हारी सगाई मेरे साथ भी हुई थी । तेरे पापा मुझे दस रुपए देकर गए थे ।
अच्छा , यह सब मुझे तो पता ही नहीं था । फिर तुम बरात लेकर क्यों नहीं आए – मैं मजे ले रही थी ।
ये लोग मुझे लेकर ही नहीं गए । मैं बहुत रोया फिर भी साथ नहीं ले गए ।
ये तो बहुत बुरा हुआ । वरना मेरी शादी तुमसे हो जाती ।
तुझे साहिबां सुनाऊँ ।
सुनाओ पर पहले अपना नाम तो बता दो ।
मेरा नाम हनी है । सरदार हरविंदर सिंह चौहान । मैं सेंट सोल्जर स्कूल में पांचवी क्लास में पढता हूँ । होस्टल में रहता हूँ ।
अच्छा , ब्रेव ब्वाय । मुझे सुन कर हैरानी हुई । मात्र नौ दस साल का बच्चा और होस्टल !
फिर घर कब आते हो ?
छुट्टी में ।
मैं हैरान परेशान उस बच्चे का मासूम सा चेहरा देखती रही । बेचारा माँ भाई बहनों के बिना होस्टल के अनुशासन में कैसे रह पाता होगा ।
चेहरे पर जबरदस्ती मुस्कान लाकर मैंने उसे कंधे से पकङा - अब गाना सुनाओ ।
उसने एक कली छेङी । वह मटक मटक कर गाना गाता रहा । दो पंक्तियां गाता फिर नया गीत छेङ देता । आवाज बहुत सुरीली थी । पंजाबी गाने के बोल तो मुझे समझ नहीं आ रहे थे पर लय और सुर बहुत अच्छे थे । मैंने अपने पर्स से उसे दो टाफियां निकाल कर दी तो वह और जोश में आ गया । उसने मिर्जा गाया ।
अचानक मुझे लगा कि परदे के पीछे कुछ बच्चे खङे हैं तो मैंने उन्हें पुकारा । मेरी आवाज सुनते ही सारे बच्चे दौङ गए पर दो लङकियां भीतर आ गई । इन दोनों में से एक मेरी जेठानी की बेटी थी और दूसरी ननद की । दोनों लङकियां सांवली सलोनी बहुत प्यारी थी ।
इस तरह इन तीन बच्चों से मेरी दोस्ती हो गई । इन बच्चों ने कहानी सुनाने की मांग रखी तो मैंने इन्हें परियों की कहानी सुनाई । कहानी इन्हें बहुत पसंद आई । रात को फिर से नयी कहानी सुनाने का वादा करके कहानी सुनाने से छुट्टी मिली ।
अचानक हनी ने कहा – मैं आपको मामी नहीं कहूंगा ।
ठीक है , मत कहना । पर क्या कहोगे ।
भाभी ।
ठीक ।
तुम मेरे जितनी हो न ।
मैं हंस दी - आज तुम लोगों ने खाना नहीं खाना । ग्यारह बजे से यहीं बैठे हो । और अब चार बज गए । तुम लोगों के मामा कहाँ गए । दस बजे से दिखाई नहीं दिए ।
पता नहीं । कहाँ गया । होगा यहीं कहीं ।
बच्चे बाहर दौङ गए पर दो मिनट बाद ही छोटी थाली में लड्डू और शक्करपारे लेकर आ गये ।
रोटी नहीं मिलती । ये ही खाने पङेंगे ।
तुम भी खाओ । - उन्होंने मुट्ठी भर मिठाई मेरी ओर बढाई ।
इन बच्चों से मिल कर सचमुच बहुत अच्छा लगा । मेरा अपना भाई और मामा के बच्चे इसी आयुवर्ग के थे तो इन सबसे घुलने मिलने में समय नहीं लगा । बचपन तो वैसे ही मस्त होता है । मिठाई खत्म करके हम खेलने लगे ।
अकङ बकङ बंबे बो । चिङिया उङ । इसी तरह के कई खेल खेले गए । कई छोटे बङे खेल । फिर वे इन खेलों से बोर हो गए तो बाहर भाग गए ।
मैं कुछ देर उसी तरह पलंग पर बैठी रही फिर लेट गई और अपनी जिंदगी में आए इन बदलावों को समझने की कोशिश करने लगी ।
कहाँ मायके में हम कुल चार जीव थे । मैं अपने पिता की बेहद लाडली । घर में जो होता , मेरी सलाह से होता । हर चीज पहले मुझे दिखाई जाती । रसोई में जो भी बनता , मेरी पसंद का बनता । यहाँ परिवार में छोटे बङे मिला कर चालीस पचास जन । इस घर में मर्दों से भी कोई न पूछता कि आज क्या खाओगे तो घर की बहुओं से कौन पूछता । जो बनता , जैसा बनता वही सब खाते । घर में तीन बहुएं पहले से थी और मेरा नंबर चौथा था और अभी चार बेटे ब्याहने को थे । इसी तरह सात आठ पोते पोतियां थे । भरा पूरा परिवार और उस परिवार में मुझे अपनी जगह तलाशनी थी ।
हे भगवान ! नैया कैसे पार लगेगी । लगेगी भी या बीच भंवर के ही डूब जाएगी ।

 

बाकी फिर ...