मैं तो ओढ चुनरिया - 63 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 63

 

63

 

गाङी अंबाला स्टेशन पर करीब बीस मिनट रुकी । लोगों ने स्टेशन पर चाय पी । आखिर गाङी ने सीटी दी । स्टेशन पर बिखरे लोग ,प्लेटफार्म के बैंच पर बैठे चाय की चुस्कियां लेते लोग भागे और भाग भाग कर अपने डिब्बे ढूंढने लगे । एक - दो मिनट में ही प्लेटफार्म पर की सारी भीङ डिब्बों में समा गई । इसी के साथ एक लंबी विसल देकर ट्रेन सरकने लगी । लोग हांफते हुए आए और अपनी जगह पर आकर टिक गए । पहले वाली आधे से ज्यादा सवारियां अपना गंतव्य आने के चलते ट्रेन से जा चुकी थी । यहाँ आकर कई नई सवारियाँ उसमें सवार हो गई । इन सवारियों में एक सत्रह अट्ठारह साल का नवयुवक भी था । उसके साथ दो घूंघट में लिपटी औरतें भी थी । साधारण सूती धोती में लिपटी हुई । एक औरत ने एक थैले में शायद कपङे डाल कर बगल में दबाए हुए थे और दूसरी औरत एक अस्थि कलश थामे थी । मिट्टी की छोटी सी कुजिया । उस पर लाल रंग का कपङा मौली से बंधा हुआ । अस्थि कलश देखते ही सारी सवारियों की सहानुभूति उमङ पङी –
आओ बहन जी , यहाँ बैठो ।
एक पचास के लगभग उम्र वाले आदमी ने उठ कर अपनी सीट की तरफ इशारा किया ।
जी भाई जी , बस इनके लिए सीट चाहिए थी । हम तो खङे होकर भी सफर कर लेंगे । - औरत ने मटकी सीट पर टिका दी और आंसू पौंछने लगी ।
यह देख कर एक अन्य पुरुष ने भी अपनी सीट छोङ दी –
आप बैठो बहन । मुझे तो जमनानगर तक ही जाना है । अभी पौन घंटे भर में पहुँच जाएंगे । आपका सफर लंबा है ।
वे दोनों औरतें सिमट कर उस एक सीट पर बैठ गई । मटकी पर हाथ टिका लिया । धीरे धीरे बातें होने लगी । पता चला – मरने वाला उस औरत का पति था । पैंतालिस छयालिस साल की उम्र रही होगी । बुखार आया था । दो तीन दिन तो परवाह ही नहीं की । तुलसी अदरक की चाय पीते रहे । काम पर जाते रहे । जब बुखार नहीं उतरा तो डाक्टर को दिखाया । उसने कहा डेंगु हुआ है । ग्लूकोज लगाया गया । हर तीन घंटे पर टीके लगाए पर वे चार दिन ही जिए । अचानक ही मर गए ।
च्च च च । बच्चे तो अभी छोटे ही होंगे ।
जी छोटे ही हैं । चार बेटियां थी । बङी वाली का पार साल ही ब्याह किया है । छोटी ही ब्याह दी । मुश्किल से सत्रह की हुई थी । दसवीं पास करते ही विदा कर दी । अभी तीन का ब्याह बाकी है । एक इस लङके से बङी है । उसने इसी साल दसवीं की है । दो छोटी हैं । पता नहीं , सब कैसे पार लगेंगी ।
औरत ने धीमे सुर में रोना शुरु कर दिया । साथ वाली औरत की भी आँखें भर आई – मत रो भाभी । रो कर क्या बनेगा । एक दिन का रोना है क्या । जिंदगी भर का रोना दे गया भाई ।
तुम ननद हो इसकी ।
हाँ जी ।
भाई ने पहले तीन बहनें ब्याही । हमारे पिता जी भी चालीस पार करते ही चल बसे थे । अब ये अपनी बच्चों और बाकियों को यूं ही बेसहारा छोङ गया । ये बच्चा दसवीं के पेपर दे रहा है । इस पर सारी गिरस्थी आ गिरी । बेचारा बच्चा । कैसे संभालेगा इतनी बङी गिरस्थी ।
बच्चा कहा जाने वाला लङका इन सब बातों से घबरा कर गेट पर जाकर खङा हो गया था ।
लोग हमदर्दी से भर उठे । सब अपनी बीती या आँखों देखी बातें सुनाने लगे । ये अनहोनी तो हर घर की कहानी थी । सबके पास ऐसी अनगिनत कहानियां थी । किसी का भाई दुनिया छोङ कर जा चुका था तो किसी की बहन । कोई साले की बात सुना रहा था । औरतें भी रोना भूल उनकी बातों में उलझ गई । मुझे इस समय बाबा फरीद का एक श्लोक याद आया –
मैं जाण्या दुख मुझको , दुख समाया जग ।
कोठे चढ चढ देख्या , घर घर इहो अग्ग ।।
बाबा फरीद कहते है , जब तक मैंने बाहर निकल कर नहीं देखा था , मैं यही समझता था कि दुख केवल मुझे है । और मैं अपने दुख से दुखी रहता था । लेकिन यह दुख तो सारे संसार में समाया हुआ है । जब मैंने छत पर चढ कर चारों ओर देखा तब पता चला कि यह आग तो हर घर में जल रही है ।

वाकई कौन सा ऐसा परिवार है जहाँ अकालमृत्यु न हुई हो । मुझे अपनी जेठानी याद आई । बेचारी मुश्किल से पैंतीस छत्तीस साल की होगी । बच्चे अभी छटी और चौथी में हैं । एक छोटे वाला तो अभी स्कूल डाला ही नहीं है और जेठ जी चल बसे । अनपढ औरत है । नाम लिखना भर जानती है । पढना बिल्कुल नहीं आता । कोई और काम भी नहीं जानती । पर जब तक सांस चल रही है तब तक जीना तो पङेगा ही । यही सब सोचते पता ही नहीं चला कि कब सरसावा पीछे छूट गया ।
बस दस मिनट और । ज्यादा से ज्यादा पंद्रह मिनट । फिर गाङी सहारनपुर पहुँच जाएगी । सहारनपुर जहां मेरा घर है , मेरे माताजी हैं पिताजी हैं । सारा गली मौहल्ला अपना है । वहाँ जाते ही सबसे पहले तो पेट भर कर खाना खाना है ।
माँ से कहूँगी मेरे लिए आलू के परांठे बना दो या फिर आलू की सब्जी के साथ पूरियां । मन भर कर खाऊंगी फिर सहेलियों से मिलने जाऊँगी । मामा और मामी से मिलने भी जाना पङेगा । माँ से भी ढेर सारी बातें करनी हैं । अखबार भी पढने हैं । वहाँ तो पंजाबी के अखबार ही आते हैं जो मुझे पढने ही नहीं आते । पिछले आठ दिन से कोई अखबार ही नहीं पढा । तो कम से कम उनके स्पैशल वाले पेज तो पढ ही लूँगी । अचानक ये ऊपर के बर्थ से नीचे उतरे - चलो सहारनपुर आने वाला है ।
मैंने गोद में आराम से सो रहे भाई को उठाया – उठो कन्हैया । घर आ गया । वह एकदम हङबङाया हुआ आँखें मसलने लगा – कहाँ है । मुझे तो दिखाई नहीं दिया और दोबारा गोद में आने के लिए मचलने लगा ।
मेरे पैर और टांगें सारी रात उसे गोद में लिए रहने की वजह से अकङ गई थी तो मैंने पैर फैला कर सीधे किए । खङे होने में मुझे दो मिनट लगे । पैर पर जोर देकर मैं खङी हो गई । फिर हम धीरे धीरे खङे लोगों में से रास्ता बनाते हुए दरवाजे की ओर बढे । तब तक सहारनपुर का प्लेटफार्म दिखने लगा था ।

 


बाकी फिर ...