जि स दिन सूबेदार राजिंदर सिंह की पेंशन मुकर्रर हुई तो वो बहुत परेशान थे। ऐसा लगता था कि जिंदगी का सबसे बड़ा सहारा ही जाता रहा। सूबेदार ने अपनी सारी उम्र फ़ौज में काटी थी। न जाने कितनी जंगों में जान पर खेल कर आधे दर्जन तमगे हासिल किए थे। कितनी ही छावनियों की ख़ाक छानी थी। अपनी बहादुरी और मुस्तैदी से न जाने कितने अफ़सरों की खुशनूदी हासिल की थी। मामूली सिपाही से जमादार और जमादार से सूबेदार मुकर्रर हुए थे। फ़ौज का कोई ऐसा काम नहीं था जिसमें उन्होंने अपना सिक्का न बिठाया हो। निशाने बाजी में हमेशा नंबर अव्वल। चाहे छावनी में चांद मारी हो या फ्रंट पर दुश्मन के खिलाफ लड़ाई। सूबेदार राजिंदर सिंह का निशाना कभी ख़ता नहीं हुआ था। अपने सिपाहियों को परेड कराते तो एक साथ काम करने वाली मशीनें बना देते। उनका अपने रंगरूटों और सिपाहियों से हमेशा यही कहना होता था। 'एक साथ कदम उठाओ। जवानी एक साथ कांधे से कांथा मिलाओ, सीना तानों ऐसे जैसे फ़ौलाद की दीवार। लेफ़्ट राइट... लेफ्ट राइट'
पहली जंग-ए-अजीम में राजिंदर सिंह बिलकुल जवान था। जवानी के जोश में ऐसे लड़ता था जैसे मस्त हाथी। इराक़, अरब, जर्मनी, फ्रांस। जंग के कितने ही मैदानों में उसने अपनी बहादुरी के झंडे गाड़े थे उसे कितने ही मैडल मिले थे। उसके अंग्रेज अफसरों ने उसकी पीठ ठोंकी थी। जब वो वापस आया था तो उसको कहा गया कि वो चाहे तो फौज छोड़कर अपने गांव में खेती बाड़ी कर सकता है। उसकी जंगी ख़िदमात के ईनाम में उसको जमीन भी अलॉट हुई थी।
नौजवान जमादार ने अपने कैटन से कहा था। 'अभी तो यही इरादा है साहब कि गांव जा कर पहले शादी करूं और फिर खेती बाड़ी में अपने बाप का हाथ बटाऊं।' मगर कैप्टन ने कहा, 'वेल जमादार अभी तुम्हारा तीन महीने का छुट्टी बाक़ी है। तुम घर जा सकता है। तीन महीने के अंदर हमको बोलेगा कि आर्मी छोड़ना मांगता है तो हम छोड़ देगा। नहीं तो तुम इधर वापस आ सकता है। हम तुमको अपनी रेजिमेंट में रखेगा जो फ्रंटियर जाने वाली है।"
ये सुनकर नौजवान जमादार सिर्फ मुस्कुरा दिया था। उसने सोचा था हमारे साहब को क्या मालूम कुलवंत कौर क्या चीज है। भला कोई ऐसी लड़की से ब्याह करने के बाद घर छोड़कर फ़ौज में जा सकता है? कुलवंत उनके ही गांव के पेंशनर सूबेदार रणजीत सिंह की बेटी थी। कुलवंत जिसकी राइफल की नाली जैसी काली-काली आंखें थीं और जिसके बाजू ऐसे गदराए हुए थे जैसे आर्मी की डबल-रोटी और जिसकी जबान ऐसे चलती थी जैसे मशीन गन और जिसकी याद हर फ्रंट की हर ट्रेंच में राजिंदर सिंह के साथ-साथ ऐसे चलती थी जैसे हर रेजिमेंट के साथ सीपरजाएंड माईनरज का दस्ता चलता है।
मगर छह बरस के बाद जब वो अपने गांव पहुंचा और उसके सब रिश्तेदार और दोस्त उससे मिलने, जंग के हालात सुनने और उसके मां-बाप को उसकी खैरियत से वापसी पर मुबारकबाद देने घर आए। तब उसकी आंखें कुलवंत को ही ढूंढती रहीं। जब सब अपने-अपने घर चले गए तो उसने अपनी मां से पूछा, 'मां। कुलवंत नज़र नहीं आई। और तब उसकी मां ने उसे वो सब कुछ बता दिया जो तीन बरसों से उससे छुपाते आए थे और जिसके बारे में उसके मां-बाप ने जान-बूझ कर किसी ख़त में जिक्र नहीं किया था कि ये ख़बर पढ़कर न जाने वहां मैदान-ए-जंग में बेटा क्या कर बैठे और राजिंदर को मालूम हुआ कि कुलवंत के ब्याह को तो तीन बरस हो चुके हैं। उसकी शादी करीब के गांव में एक नौजवान ठेकेदार बख्तावर सिंह से हो गई है और अब तो उसकी गोद में एक बच्चा खेलता है।
ये सुनकर राजिंदर कुछ नहीं बोला। उसे ऐसा महसूस हुआ कि शादी की शहनाइयां जो बरसों से उसके कानों में गूंज रही थीं अब दूर होती जा रही हैं... यहां तक कि वो याद के धुंदलके में खो गई और उनकी बजाय बिगुल की आहनी चीख दूर से पुकारती हुई क़रीब आती गई और उसके शऊर में हजारों बम ब-यक-वक़्त फट पड़े।
और अगले रोज सुबह सवेरे ही वी वर्दी पहन कर वापस जाने को तैयार हो गया। मां-बाप ने घबराकर सबब पूछा तो उसने सिर्फ इतना कहा, 'बस दो दिन ही की छुट्टी मिली थी। कल हमारी रेजिमेंट फ्रंटियर के लिए रवाना हो रही है।'
फ्रंटेकर रजबक, जमरूद और दर्श-ए-ख़ैबर की छावनियां। कितने ही बरस उसने कोशिश की किसी पठान की गोली उसका सीना चीर कर इस कमबख्त जान-लेवा वाद का गला घोंट दे जो अब तक उसके दिल को नर्से में लिए हुए है। पर न जाने क्यों हर गोली उससे कतरा के निकल गई।
आसाम, बर्मा की सरहद, जंगल, मलेरिया, उसके कितने ही साथी जो गोलों और गोलियों से न मरे थे मामूली बुखार का शिकार हो गए। मगर राजिंदर को मौत न आई।
दूसरी जंग-ए-अज़ीम में राजिंदर ने कहां-कहां मौत को तलाश नहीं किया? मिस्र और लीबिया के लक़्क़-ओ-दक रेगिस्तान कोहिमा और बर्मा की पहाड़ियां। मिलाया के जंगल और दलदल। उसके सीने पर तमसे लगते रहे। जमादार से वो सूबेदार हो गया। उसकी दाढ़ी में सफ़ेद बाल चमकने लगे। मगर जितने भी जख्म उसे लगे उनमें कोई भी कारी न साबित हुआ। और एक याद का घाव अंदर ही अंदर सताता रहा यहां तक कि दूसरी जंग-ए-अजीम भी खत्म हो गई। हिंदोस्तान आजाद हो गया। मुल्क की तक़सीम हो गई और राजिंदर सिंह को पेंशन
दे दी गई। छावनी में ये उसका आखिरी दिन था। वो N.C.O.S के मेस में अकेला बैठा बे-तकजुही से रेडियो सुन रहा था पर एक जानी बूझी आवाज हिंदुस्तानियों को एक नई जंग के लिए ललकार रही थी।
'ये जंग किसी बैरूनी दुश्मन के खिलाफ नहीं है बल्कि अंदरूनी दुश्मनों के खिलाफ़ है...'
राजिंदर सिंह के फ़ौलादी हाथ की पकड़ अपनी राइफल पर और भी मजबूत हो गई।
'ये जंग है जहालत के खिलाफ़...
'ये जंग है मुफ़लिसी और बेकारी के ख़िलाफ़....
'ये जंग है बीमारी के खिलाफ
'इस जंग में खंदकें नहीं खोदी जाएंगी। कुएं खोदे जाऐंगे।'
'इस जंग में अपनी हिफ़ाज़त के लिए संगीन फ़सीलें नहीं बनाई आएंगी, स्कूलों और हस्पतालों की दीवारें खड़ी की जाएंगी।"
'ये जंग बंदूकों और तलवारों, मशीन गनों और बमों से नहीं, हलों और कुदालों और ट्रैक्टरों और बुल्डोजरों से लड़ी जाएगी।"
राजिंदर सिंह की समझ में कुछ आया और कुछ नहीं आया। उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसके लिए वे नई जंग भी ऐसी ही है जैसी और आम जंगें जो उसने अब तक लड़ी थीं।
वो अरबों से, तुर्कों से, जर्मनों और इतालवियों से और फिर जापानियों से लड़ा था। हालांकि उसको उनसे कोई दुश्मनी नहीं थी। सिर्फ़ इसलिए लड़ा था कि ये उसके आफसरों का हुक्म था और आज उसका सबसे बड़ा अफ़सर उसे इस नई जंग के लिए ललकार रहा था। मगर अब भी सूबेदार राजिंदर सिंह को ये यक्रीन नहीं था कि ये जंग उसकी अपनी जंग है और उसके अपने दुश्मनों के खिलाफ है। उसके दिमाग़ में और उसके दिल में एक अजीब तन्हाई का, एक अजीब अंधेरे का एहसास था। जैसे काली रात में कोई सिपाही जंगल में रास्ता भूल जाए और उसे ये न मालूम हो कि दुश्मन की फ़ौज किधर है। आज उसे अपनी रेजिमेंट से छुट्टी मिल जाएगी। इसके बाद वो कहां जाएगा, क्यों जाएगा, कहां रहेगा, क्या करेगा। मां, बाप दोनों मुद्दत के मर चुके थे अब गांव में उसका कौन है। जिसके पास वो जाए।
इतने में उसे किसी के नए फौजी जूतों की खट-खट सुनाई दी। सूबेदार ने देखा कि एक नौजवान रंगरूट जिसके नर्म-नर्म सर के बाल पगड़ी से बाहर निकले हुए थे और जिसके चेहरे पर दाढ़ी की जगह अभी सिर्फ सुनहरी रुआं ही उगा है। जो पहली बार वर्दी पहन कर अजीब-अजीब लग रहा है और जिसकी निगाहें इधर-उधर किसी को ढूंढ रही हैं। और न जाने उसे कैसे ये महसूस हुआ कि उसने इस लड़के की कहीं देखा है।