फत्तू हलवाई Kishore Sharma Saraswat द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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फत्तू हलवाई

फत्तू हलवाई

 

बसंतपुर दूर-दराज के ग्रामीण इलाके में स्थित एक छोटा सा क़स्बा था। कहने को तो यह नाम वसंत-ऋतु का पर्याय हो सकता है, परंतु वास्तव में फसल के समय को छोड़कर वर्ष भर यहाँ पतझड़ ही रहता था। बाज़ार के नाम पर छोटी-बड़ी कुल मिलाकर दो दर्जन दुकानें थीं। गणेशी लाला, फत्तू हलवाई और रोडू नाई पूरे कस्बे में बहुत प्रसिद्ध थे। एक बार जो भी उनकी दुकानों पर आकर बैठता था, वह बातों में इतना डूब जाता था कि उसे वहां से उठने का ख्याल तक नहीं आता था। बाजार के उत्तर में और कुछ दूरी पर लोगों की सुविधा के लिए एक छोटा डाकघर, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, एक माध्यमिक विद्यालय और एक पुलिस स्टेशन फूलों के गुलदस्ते की तरह एक दूसरे से सटे हुए थे। न कोई शोर था, न कोई हंगामा। बिल्कुल शांत माहौल बना रहता था I फत्तू हलवाई के अलावा किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी। स्कूल बंद होने के बाद फत्तू हलवाई के लिए मुसीबत का समय जरूर आ जाता था। उसकी आगे की ओर निकली  हुई  तोंद लड़कों के लिए मज़ाक का सबब थी । उसे देखते ही वे ऊँचे स्वर में गाने लगते:

'फत्तू लाला की ढोलक, दस किलो लड्डू की गोलक ।'

फत्तू हलवाई ये व्यंग्यात्मक बातें सुनकर क्रोधित हो जाता था। लेकिन आज बार-बार उकसाने पर भी वह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुआ I बल्कि उसने उन लड़कों पर ही व्यंग्य करना शुरू कर दिया, जो उसे छेड़ रहे थे I वह मुस्कुराते हुए अपनी तोंद पर अपना दाहिना हाथ घुमाते हुए बोला :

‘अरे! हरामखोरों, तुम पढ़-लिखकर भी गधे ही रह गए हो। यह कोई ढोल नहीं है I यह तो  फत्तू लाला का पेट है, जो ज्यादा बैठने से फूल गया है I फिर वह ज़ोर से हँसा और बोला:

'मुझे सब मालूम हो गया है। तुम गधों के साथ बैठ कर पढ़ते हो, इसलिए उनके सुर में सुर मिला कर गाते हो ।'

फत्तू लाला का बदला हुआ रूप और अपने ऊपर हुए इस अचानक हमले को देखकर लड़के सहम गए। अपनी कमजोरी का एहसास होने पर वे लज्जित हो गए । अत: उन्होंने वहां से प्रस्थान करने में ही अपनी भलाई समझी ।

इस घटना को बीते पच्चीस साल हो गए थे I वे शरारती लड़के अब जवान हो चुके थे I कुछ तो अच्छी शिक्षा ग्रहण करके उच्च पदों पर आसीन हो चुके थे । समय की करवट के साथ फत्तू हलवाई का स्वरूप भी बदल चुका था । वह अब पचहत्तर वर्ष का हो गया था। दंतहीन होने के कारण वह लडडू को लद्दू कहने लगा था । उसकी आँखों पर मोटे शीशे का चश्मा विराजमान हो चुका था। सिर के बाल सफेद हो गये थे I बाहर की ओर निकला हुआ पेट सिकुड़ कर रीढ़ की हड्डी से चिपक गया था। वह अपने दाहिने हाथ में पकड़ी छड़ी का सहारा लेकर लोगों के पीछे धीरे-धीरे स्कूल की ओर चल रहा था। वह वहां पर समारोह देखने के लिए नहीं, बल्कि उसकी अध्यक्षता करने वाले व्यक्ति को देखने के लिए उत्सुक था। ऐसा होना अप्रत्याशित नहीं था I फत्तू हलवाई को सबसे ज्यादा चिढ़ उसी से होती थी। लेकिन आज कोई द्वेष नहीं बल्कि भूले हुए क्षणों की एक उत्कट याद थी, जो उसे उस ओर ले जा रही थी। वह जानता था कि मासूम बच्चों की शरारतों में व्यंग्य से ज्यादा हास्य का भाव होता है। यही भावना उसे बार-बार दुर्व्यवहार सहने पर भी ख़ुशी का एहसास कराती रहती थी । इन्हीं विचारों में खोया हुआ फत्तू हलवाई जब सामने देखता है तो खुद को एक विशाल तंबू के नीचे खड़ा पाता है।

मंच पर कई लोग ऐसे थे, जो फत्तू हलवाई के लिए अजनबी थे। लेकिन उसका उनसे कोई लेना-देना नहीं था I उसकी बूढ़ी आंखों का सपना तो वह शख्स था, जिसे देखने वह आया था। जब चश्मे के शीशे से कुछ धुंधला दिखाई देने लगा तो उसने अपने दाहिने हाथ से उसे चेहरे से हटाया I फिर कमीज के कोने से चश्मा साफ किया और दोबारा चेहरे पर लगा लिया I फिर  उठकर मंच का बारीकी से निरीक्षण करने लगा I लेकिन उसकी भूली-बिसरी यादों का नायक नजरों से ओझल ही  रहा I अंततः बेचारा बैठ गया।

अपनी बारी के अनुसार वक्ताओं ने माइक के सामने आकर अपना भाषण दिया और फिर अपनी सीट पर बैठ गये I अब बारी थी मुख्य अतिथि के भाषण की, जिसका सभी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। जैसे ही उद्घोषक ने माइक के सामने आकर उनका परिचय दिया तो तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा वातावरण गूंज उठा। मानो फत्तू हलवाई का सपना सच हो गया हो । सफेद कपड़े पहने एक युवक अपनी सीट से उठा और माइक के पास आकर बोलने लगा :

‘आदरणीय प्रधानाचार्य जी एवं स्टाफ के सभी सदस्यगण, मेरे प्यारे भाइयों-बहनों, बुजुर्गों एवं बच्चों! आज मुझे जो खुशी मिली है वह शायद पहले कभी नहीं मिली है । पूछोगे क्यों ? इसकी वजह यह है; मैं अपने बचपन को फिर से अपने अंदर महसूस कर रहा हूं। मेरी शिक्षा का पहला चरण इसी स्कूल के परिसर से गुजरा है । आज यहां आकर मैं बीते दिनों के उसी शरारती लड़के जैसा महसूस कर रहा हूं, जिसे मेरे सहपाठी नरेंद्र नहीं बल्कि राजा कहा करते थे। फर्क सिर्फ इतना है कि जैसे मैं अब बड़ा हो गया हूं, बसंतपुर का यह शहर भी बड़ा होकर एक शहर बन गया है I दो कमरों की छोटी सी इमारत न रहकर इस स्कूल ने भी अपना स्वरूप बदल लिया है। उस समय यह विद्यालय भगवान की दया पर निर्भर था। जब भी मौसम का मिजाज बदलता था, छात्र घर जाने के लिए स्वतंत्र हो जाते थे।'

यह कहते हुए वह भावुक हो गए और यह भी भूल गए कि उनके व्याख्यान का विषय क्या था। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह फिर बोले :

'इसे संयोग कहें या हमारे मज़ाक का कारण I इस स्कूल में तत्कालीन मुख्य अध्यापक जी के स्थानांतरण के पश्चात् एक नए मुख्य अध्यापक जी यहाँ आए। वह इस शहर के थानेदार के रिश्तेदार थे । उन दोनों की सहमति से हमारी पांचवीं कक्षा को थाने के पिछवाड़े की ओर बने पशुबाड़े में बैठने की जगह मिल गई।'

अपने सामने बैठे दर्शकों की ओर दाहिने हाथ की तर्जनी से इशारा करते हुए फिर कहने लगे :

‘क्या आप इस मैदान के तीन तरफ लगे इन पेड़ों को देख रहे हो? इन्हें उसी वर्ष में लगाया गया था I उस समय इस मैदान के चारों ओर कोई चारदीवारी नहीं थी। अक्सर आवारा पशु  यहां घूमते रहते थे और इन पौधों को नुकसान पहुंचाते रहते थे। संयोगवश उसी वर्ष इस विद्यालय में एक चपरासी की नियुक्ति हुई I जिसका नाम कनसुख लाल था। उसकी आवाज़ ध्वनि विस्तारक यंत्र की तरह बहुत तेज़ थी, लेकिन कानों से वह बहरा था। स्कूल से कुछ दूरी पर कुम्हारों के चार-पाँच परिवार रहते थे I जिनके पास बड़ी संख्या में गधे थे। इस स्कूल के मैदान में हर दिन कुछ गधे घुस आते थे। कनसुख लाल पूर्ण कर्तव्यपालक सेवक था । वह अपने दाहिने हाथ में एक लंबी लाठी लेकर उन गधों को घेरकर पशुबाड़े की ओर ले आता और पूरी ताकत से चिल्लाते हुए बोलता :

'अरे ओ पांचवीं वालो! पशुबाड़े का गेट खोल दो । मुझे इन हरामियों को सबक सिखाना हैI अगर इन्हें आज ठीक नहीं किया तो मेरा नाम कनसुख लाल नहीं है ।'

‘और फिर गधे भी क्लास की शोभा बढ़ाने हमारे बीच में आ जाते। यह क्रम प्रतिदिन निर्बाध रूप से चलता रहता था। शनिवार का दिन था I इस दिन दोपहर बाद का समय गीत, संगीत और मनोरंजन के लिए निर्धारित होता था। उस दौरान पाँचवीं कक्षा की प्रभारी लगभग चौबीस या पचीस साल की एक मैडम थीं, जो मृदुभाषी और बहुत बुद्धिमान थीं I वह स्वयं को मैडम के बजाय बहिन जी कहलवाना पसंद करती थीं। भक्ति रस और वीर रस की कविताएँ सुनाई जा रही थीं, जिन्हें पूरी कक्षा के छात्र ध्यान से सुन रहे थे। वीर रस की कविता का पाठ सुनकर एक गधा भी जोश में आ गया। वह अपने चारों पैर पटकते हुए उठ खड़ा हुआ और फिर पूरी ताकत से अपनी कर्कश आवाज निकालने लगा। अचानक खुशियां गम में बदल गईं I गधा अपनी दोनों पिछली टांगों को चारों ओर घुमाने लगा। बहिन जी, विद्यार्थियों के साथ एक कोने में दुबक गईं। सौभाग्य से फत्तू हलवाई उधर से गुजर रहा था। गधे की कर्कश आवाज ने उसे उस ओर झाँकने पर मजबूर कर दिया। अंदर का मंजर बेहद भयावह था I उसने बिना देर किये गेट खोल दिया I इससे पहले कि फत्तू हलवाई संभल पाता, गधे ने उसे एक तरफ धकेल दिया और वहां से भाग निकला। फत्तू का चेहरा चमक उठा। उसने शरारती लड़कों को सबक सिखाने का नुस्खा ढूंढ लिया था।'

जैसे ही फत्तू हलवाई ने मंच से अपना नाम सुना, वह खड़ा हो गया और उस तरफ देखने लगा। तभी एक साथ कुछ आवाजें सुनाई दीं:

'कहाँ जा रहे हो बाबा जी? बैठ जाओ।'

यह सुनकर वह दुःखी मन से जहाँ खड़ा था वहीं बैठ गया। मुख्य अतिथि ने वृद्ध की ओर देखा और फिर सामने बैठे लोगों की ओर देखते हुए बोला:

'यह छोटी सी घटना मेरे जीवन में बदलाव का कारण है। बहिन जी बहुत उदास हो गईं  थीं । वह दुःखी मन से बोली:

‘यह कैसी विडंबना है? आजादी के दस साल बाद भी हम पशुबाड़े में बैठकर पढ़ाई कर रहे हैं। हम इस पशु जीवन से कब मुक्त होंगे? मेरे प्यारे विद्यार्थियों, आज से प्रतिज्ञा करो, यदि आपमें से कोई भी अपने जीवन में योग्य बन जाए तो अपने इस विद्या के मंदिर को पर्याप्त कमरों वाला अवश्य बनवाना, ताकि आज जो घटना घटी है वह दोबारा न दोहराई जा सके।'

ये शब्द कहते-कहते उसकी आंखें भर आईं। मैंने उसी दिन से प्रण कर लिया था कि मैं बहिन जी की इच्छा पूरी करुँगा। मेरे प्रिय सज्जनों, आज वह शुभ घड़ी आ गई है। मैं पच्चीस लाख रुपये का यह चेक इस स्कूल के भवन निर्माण के लिए उपहार स्वरूप दे रहा हूं।'

यह शब्द सुनते ही पूरा माहौल तालियों की आवाज से गूंज उठा I जब समारोह समाप्त हुआ तो वहां से प्रस्थान करते समय लोग उस सज्जन की उदारता की चर्चा करने लगे। धीरे-धीरे पूरा टेंट खाली हो गया। जलपान का कार्यक्रम चल रहा था, लेकिन फत्तू हलवाई निर्जीव मूर्ति की भाँति दूर से उन्हें देख रहा था। उसके पास से गुजर रहे एक युवक ने पूछा:

‘बाबा, आप यहाँ अकेले क्यों बैठे हो? अब समारोह ख़त्म हो चुका है I यहाँ बैठने से क्या फायदा I अपने घर जाओ। वैसे भी अब हम यह तंबू हटाने वाले हैं ।'

फत्तू हलवाई कुछ नहीं बोला I उसने चुपचाप अपने दाहिने हाथ से छड़ी उठाई और फिर उठकर बाहर चला गया। स्कूल के प्रांगन से बाहर निकलकर वह गेट के सामने रुक गया। तब तक कारों का काफिला उसके करीब पहुंच चुका था I रास्ते में बुजुर्ग को खड़ा देखकर ड्राइवर चिल्लाया:

‘अरे ओ बाबा!  यहाँ क्या ढूंढ रहे हो? क्या तुम इस दुनिया से जाना चाहते हो?’

‘मुझे राजा से मिलना है।‘ फत्तू हलवाई ने कांपती हुई आवाज में कहा।

‘आप कौन हैं? आप उससे क्यों मिलना चाहते हैं?' ड्राइवर के बगल में बैठे व्यक्ति ने प्रश्न  किया।

‘मैं फत्तू हलवाई हूं। मैं उनसे मिलऩा चाहता हूं।'

ड्राइवर के पीछे बैठे सज्जन यह बातचीत सुन रहे थे। उन्होंने नीचे उतरकर फत्तू हलवाई को गले लगाया और फिर बोले:

‘बाबा, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुम्हारा वही राजा हूं जो तुम्हें परेशान करता था।'

‘अरे! मैं तुम्हें क्यों माफ कर दूँ? मैं अब उन दिनों के लिए तरस रहा हूं I काश! वो दिन फिर लौट आते I’ यह कहते-कहते फत्तू हलवाई की आंखें भर आईं।

 

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