मेला Kishore Sharma Saraswat द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मेला

मेला

 ‘'अम्मा जी। अम्मा जी।'

‘'क्या बात हो गई है बेटा? क्यों इतने ज़ोर से बार-बार पुकार रहा है?' माँ घबरा कर भागती हुई गली में निकल आई और बोली।

‘'अम्मा जी! मैं भी मेला देखने के लिए जाऊँगा। हमारी गली के सभी लड़के और लड़कियाँ आज मेला देखने के लिए जा रहे हैं।'

‘'न बेटा न, तू कहीं नहीं जाएगा।'

‘'क्यों अम्मा जी,  मैं क्यों नहीं जाऊँगा?'

‘'देख एक तो तू अभी छोटा है। ऐसी भीड़-भाड़ वाली जगह जाकर कुछ भी हो सकता है। दूसरे आज तेरे पिता जी भी घर पर नहीं है। पीछे से उन्हें पता चलेगा तो मुझ पर नाराज़ होंगे। और फिर बेटा मेरे पास पैसे भी तो नहीं हैं। बिना पैसों के क्या करेगा वहाँ पर जाकर I'

‘'मुझे नहीं चाहिये पैसे। पैसों के बिना क्या मेला नहीं देखा जा सकता। सब बच्चे जा रहे हैं। वे मुझ पर हंसेंगे और तरह-तरह की बातें कहकर मुझे चिढ़ाएंगे। तब मैं क्या कहूँगा? आखिर बात तो आप पर ही आएगी। जाने दो न अम्मा जी। मैं आगे से फिर कभी ज़िद नहीं करूंगा।' नन्हा हिमांशु आँखों में आंसू लाकर गिड़गिड़ाया।

आखिर माँ का कोमल हृदय पसीज गया। बोली:

‘'बेटा मेरे पास तो सिर्फ आठ आने (पचास पैसे) हैं। मेले में कुछ खा लेना। मैं नत्थू से कह देती हूँ। वह उम्र में बड़ा है तेरा ख्याल रखेगा। बाकी सम्भल कर रहना I किसी अजनबी से कुछ मत लेना वहाँ पर।'

‘'मैं ऐसा ही करूंगा अम्मा जी।' हिमांशु माँ को सान्त्वना देता हुआ बोला। हिमांशु की खुशी का अब कोई ठिकाना नहीं रह गया था। गली में जो भी मिलता सभी से कहता फिरता मैं भी मेले में जा रहा हूँ। आखिर इंतजार की घड़ी खत्म हुई। गाँव से लड़के-लड़कियों की टोली मेला देखने के लिए निकल पड़ी। सभी के चेहरों पर खुशी थी और चाल में एक मस्ती। हिमांशु उम्र में सब से छोटा था, परन्तु फिर भी कदम से कदम मिला कर चल रहा था। प्रति वर्ष जयेष्ठ मास के तीसरे रविवार को माँ चण्डी के अराधना दिवस के रूप में इस मेले का आगाज़ होता था। मन्दिर से कुछ दूरी पर आम के पेड़ों का एक बाग था, सो इस महीने झुलसती तपिश से बचने के लिए यहीं पर दुकानों को सजाया जाता था। गाँव से इस स्थान की दूरी होगी कोई लगभग सात मील। परन्तु खुशी और उल्लास के क्षणों में यह दूरी नगण्य थी। गंतव्य पर पहुँच कर सभी एक जगह एकत्रित हो गए। सर्वसम्मति से निर्णय हुआ कि मेले में आपस में बिछुड़ने के पश्चात सभी इस स्थान पर एकत्रित हो जाएं, ताकि वापसी के समय कोई पीछे न छूट जाए। तत्पश्चात अपने-अपने साथियों के साथ टोली बनाकर सभी अलग-अलग हो गए। क्योंकि नत्थू को हिंमाशु का पैरोकार बनाया गया था, इसलिये वह भी मेले का आनन्द उठाने के लिए हिमांशु को साथ लिए दुकानों में सजे सामान को निहारता हुआ आगे की ओर बढ़ने लगा। सामने आइस-क्रीम बेचने वाले की रेहड़ी थी। नत्थू ने पूछा: ‘

'आइसक्रीम खायेगा? ‘

'नहीं, मुझे आइस-क्रीम अच्छी नहीं लगती।'

ऐसा कहने में हिमांशु की मजबूरी थी। वह जानता था कि उसकी जेब में केवल आठ आने ही हैं। नत्थू ने दो आइसक्रीम ली और हिमांशु द्वारा इनकार करने पर भी उसके हाथ में आइसक्रीम की कोन् थमा दी। बेचारा बेशक उम्र में छोटा था, परन्तु यह उसके अहम पर एक प्रहार था। उसे अपनी मजबूरी पर ग्लानि होने लगी थी। आइसक्रीम खाने के पश्चात वे आगे की ओर बढ़ने लगे। तभी चुपके से हिमांशु आम के पेड़ की ओट में जाकर छुप गया। अपनी बातों का हुंकार न पाकर नत्थू ने पीछे मुड़कर देखा तो हिमांशु नदारद था। नत्थू के होश उड़ गए। वह बदहवास हुआ चारों ओर नज़र दौड़ाने लगा। परन्तु हिमांशु कहीं भी दिखाई नहीं दिया। आखिर परेशान होकर वह उसे ढूंढता हुआ आगे की ओर निकल गया। आम के पेड़ के पीछे से निकलकर हिमांशु अकेला ही लोगों अथाह भीड़ में शामिल हो गया। एक जगह लोग घेरा बना कर खड़े थे। उसे कुछ दिखाई नहीं दे पा रहा था कि यहाँ पर क्या हो रहा है। किसी तरह आगे निकलने में कामयाब हुआ तो उसने देखा कि उसकी अपनी उम्र के लड़के झूला झूल रहे हैं और उनके अभिवावक हंसते हुए अपने हाथ हिला-हिलाकर उनकी हौसला अफजाई कर रहे हैं। उसके मन में आया कि काश उसकी अम्मा और पिताजी भी उसके साथ होते तो वह भी इन बच्चों की तरह झूले का आनंद लेता। झूले वाले की पैनी निगाहों ने उसे देख लिया था। वह उसके नजदीक आकर पूछने लगाः ‘

'झूले पर बैठोगे बेटा?'

‘   'कितने पैसे लगेंगे?' उसने प्रश्न किया।

'आठ आने।' वह बोला I

 वह माँ के पैसे किसी भी सूरत में खोना नहीं चाहता था। अतः बोला: ‘ 'नहीं, मुझे झूले पर बैठकर डर लगता है।'

 वह वहाँ से निकलकर आगे चल पड़ा। सामने हलवाई की दुकान थी। गर्म-गर्म जलेबी की खुशबू हर एक को अपनी ओर लुभा रही थी। हिमांशु को अब भूख सताने लगी थी। उसका मन किया कि वह उन आठ आनों की जलेबी खा ले। परन्तु अपने हाथ में पकड़े पैसे उसने पुनः अपनी जेब में डाल लिए। मेरी अम्मा के पास पैसे नहीं हैं। नहीं-नहीं मैं इन्हें खर्च नहीं करूंगा।

इधर-उधर भटकते हुए काफी समय हो चुका था। प्यास से उसका गला सूखने लगा था। वह पानी की तलाश में घूमने लगा। आखिर उसे एक कुआँ दिखाई दिया। दो सेवक रहट के डंडे को आगे से पकड़कर कुएँ के चारों ओर घूम रहे थे I जिससे चैन पर लगे छोटे-छोटे डिब्बों से पानी निकलकर सीमेंट से बनी एक टंकी में जमा हो रहा था। इस टंकी में थोड़े-थोड़े फासले पर नल लगे हुए थे। हिमांशु ने पानी पीने की कोशिश की परन्तु खाली पेट पानी गले से नीचे नहीं उतर रहा था। भूख के साथ-साथ अब थकावट भी शरीर पर भारी पड़ने लगी थी। वह लड़खड़ाता हुआ उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पर सभी को एकत्रित होने के लिए कहा गया था। काफी समय से अकेले बच्चे को यूँ बैठा देखकर एक अधेड़ उम्र का आदमी उसके पास आया और पूछने लगाः ‘

'क्या नाम है बेटा तेरा?'

'हिमांशु I' उसने उत्तर दिया। ‘

'किस जगह के रहने वाले हो?' वह फिर बोला।

मीठी-मीठी बातों में उसने हिमांशु को अपने बस में करके उससे सभी बातें पूछ ली। तत्पश्चात हंसता हुआ बोला: ‘

'वाह बेटा! अपने मामा को ही भूल गया। तू मुझे नहीं पहचानता? पहचानेगा भी कैसे? मामा जो अभी तक बहन के घर पर गया ही नहीं। दरअसल बात यह है बेटा, मैं कई वर्षों से, इतनी तो तेरी उम्र भी नहीं होगी बाहर ही रहा। मेरा काम ही कुछ ऐसा है कि एक बार घर से निकल गया तो वापस आना मुश्किल हो जाता है। अच्छा बेटा! यह बतला तेरा चेहरा क्यों मुरझा रहा है? कुछ खाया-पिया भी है, कि नहीं?'

 हिमांशु ने धीरे से गर्दन हिला दी।

मैं तो बेटा तेरे कहने से पहले ही समझ गया था। तू यहीं पर बैठ, मैं तेरे खाने के लिये कुछ लेकर आता हूँ।'

एक लिफाफे में वह कुछ खाने की वस्तुएँ लेकर आया और हिमांशु को साथ लेकर मेले की परिधि से बाहर की ओर चलने लगा।

'मामा जी! आप किधर जा रहे हो?'

‘'तुम्हारे घर, और कहाँ। इधर मेरी गाड़ी खड़ी है। उसमें बैठकर आराम से खा लेना। फिर मामा और भांजा, दोनों आराम से चलेंगे। बहन को मिल भी आऊँगा और तुझे घर पर भी छोड़ आऊँगा। दोनों काम एक साथ हो जाएंगे। क्यों ठीक है न?'

‘'हाँ, ठीक है।'

कथित मामा ने जीप के पास पहुँचकर हिमांशु को जीप में पिछली ओर बैठा दिया और स्वयं आगे बैठकर जीप चलाने लगा। जीप को विपरीत दिशा में जाती हुई देखकर हिमांशु चिल्लाया:

 ‘   'मामा जी! आप किधर जा रहे हो?  हमारे घर का रास्ता तो उस ओर से जाता है।'

उसने बिना कोई शब्द बोले हिमांशु की ओर नज़र घूमा कर देखा और फिर उसी दिशा में आगे बढ़ने लगा। मामा जी के इस रूखे व्यवहार को देख कर हिमांशु घबरा गया। वह बार-बार उसे जीप रोकने की जिद करने लगा। उसे हिमांशु की यह हरकत अच्छी नहीं लगी। उसने जीप को रोका और फिर झुक कर अपनी सीट से नीचे से एक बड़ा सा चाकू निकाला। फिर पीछे की ओर मुड़ कर उसे खोला और हिमांशु को धमकाता हुआ गुर्राया:

'पिल्ले की औलाद अपनी भौं-भौं बंद करेगा कि नहीं? या फिर मुझे ही तेरा कोई इंतजाम करना पड़ेगा I'

ये मेरा मामा नहीं हो सकता। भय के मारे हिमांशु की आवाज़ बैठ गई। उसकी आंखों से मोटे-मोटे आंसू टपकने लगे। वह अपने मन ही मन उस पल को कोसने लगा जब उसने अपनी माता जी का कहना नहीं माना था और जिद करके मेले में चला आया था। अर्ध बेहोशी की अवस्था में उसकी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा था। उसका मन किया कि वह दहाड़ मार कर रोये। परन्तु भय के कारण उसकी आवाज बाहर नहीं निकल पा रही थी। कुछ सोचने या करने की हिम्मत समाप्त हो चुकी थी। वैसे भी उस दुष्ट के आगे वह कर भी क्या सकता था। उसका वर्तमान और भविष्य दोनों अंधकार में थे। तभी अचानक गाड़ी यकबयक रूक गई। उस दुष्ट ने इंजन चालू करने की काफी कोशिश की परन्तु नाकामयाब रहा। आखिर झुँझलाकर उसने हिमांशु की ओर तीखी नज़रों से देखा और फिर दरवाजा खोलकर नीचे उत्तर गया। चारों ओर नज़र दौड़ाई, आस-पास कोई नहीं था। निश्चिंत होकर उसने जीप का बोनट ऊपर उठाया और इंजन के पूर्जों को गौर से जांचने लगा। जांचने-परखने के पश्चात उसने अपने बाएँ हाथ से ढ़ीले पड़े डाइनमो को ऊपर की ओर उठाया और बोनट की बगल से गर्दन टेढ़ी करके बोला:

‘'ओ लड़के! मेरी सीट के नीचे चाबियाँ और पेचकश पड़े हैं। उन्हें उठाकर लाना।'

कांपते हुए हाथों से उसने सामान उठाया और अपनी कुहनी से धक्का देकर दरवाजे को एक ओर किया। परन्तु इस हरकत में वह अपना संतुलन खो बैठा और जमीन पर गिर पड़ा। उसके हाथ से सामान बिखर कर दूर जा गिरा।

‘'साला! गधे की औलाद। तेरे दो घूँसे पड़ जाएं तो तेरी होश ठिकाने आ जाए। उठा उन अपने बापुओं को जल्दी-जल्दी।' वह हिमांशु को गालियाँ बकने लगा। बेचारा डर से कांपता हुआ बिखरे सामान को उठाने लगा। इस क्रिया में उसकी जेब से पैसे नीचे गिर गए।

‘'मेरे पैसे गिर गए हैं।' उसके मुँह से अनायास ही निकला। ‘

'बाद में उठा लेना अपनी रेजगारी।' वह धमकाता हुआ बोला।

    हिमांशु ने उसे चाबियाँ और पेचकश पकड़ाए और फिर अपनी चवन्नियाँ ढूंढने लगा। तभी उसे अपने पैरों के नीचे बालू रेत दिखाई पड़ी। कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। उसने आँख बचाकर जीप की ओर देखा। वह दुष्ट झुक कर इंजन को ठीक करने में व्यस्त था। हिमांशु ने अपने दाएँ हाथ से बालू रेत की मुट्ठी भरी और चुपके से जाकर रेत को उस दुष्ट की आँखों में फेंक दिया। हाय! की आवाज के साथ उसने औजार छोड़ कर दोनों हाथों से अपनी आँखों को ढांप लिया। दूर भागने का समय नहीं था। हिमांशु ने चारों ओर नज़र दौड़ाई। थोड़ी दूर किसानों के खेत में धान की पराली का ढ़ेर लगा हुआ था। वह भाग कर उस ढ़ेर के नीचे छुप गया। उस आदमी ने अपने हाथों से टटोल कर जीप में से पानी की बोतल उठाई और अपनी आँखें साफ कीं। फिर चारों ओर देखा। उसे हिमांशु कहीं भी दिखाई नहीं दिया। उसे शंका हुई कि कहीं वह लड़का किसी के आगे इस घटना को जाहिर न कर दे। इसलिये वह उस जगह से तुरंत भागना चाहता था। इंजन में आई खराबी को ठीक करने के पश्चात वह वहाँ से रफूचक्कर हो गया। दोबारा उस आदमी द्वारा पकड़े जाने के भय से हिमांशु उस पराली के ढ़ेर में ही दुबका रहा। अंधेरा हो चला था और वह मासूम अपनी एक छोटी सी गलती का खमियाज़ा भुगतने के लिये उस निर्जन स्थान पर भूखा-प्यासा, बिलकुल अकेला पड़ा था।

उधर गाँव के लड़के और लड़कियाँ जब घर वापिस जाने के लिये इकट्ठा हुए तो हिमांशु को अपने बीच में न पाकर काफी चिंतित हुए। अब क्या किया जाए? उसके घर वालों को क्या जवाब देंगे?  सब को यही चिंता सताये जा रही थी। मेले की सारी खुशी सभी के चेहरों से गायब हो चुकी थी। नत्थू को सभी उसकी लापरवाही के लिये कोसने लगे। आखिर तय हुआ कि टोलियाँ बनाकर उसे मेले में ढूंढा जाये। शाम हो चली थीI लोगों की भीड़ भी छंटने लगी थी। थक-हारकर सभी उसी स्थान पर पुनः एकत्रित हो गये। एक बुजुर्ग सा दिखने वाला आदमी अपनी लाठी के सहारे उनके नजदीक से गुज़र रहा था। वह भी शायद मेला देखने के पश्चात अन्य लोगों की तरह अपने घर वापस जा रहा था। भाग्यवश एक लड़की ने उस आदमी से पूछ लिया: ‘

'बाबा जी, आपने कोई अकेला, छोटी उम्र का लड़का तो नहीं देखा?'

लड़की के इस प्रश्न को सुनकर वह बुजुर्ग रूक गया और बालक का हुलिया पूछने लगा। उन द्वारा बतलाए गए विवरण को सुन कर वह बोलाः

‘'शायद यह लड़का मैंने देखा था। एक आदमी इसी जगह पर बैठकर उससे कुछ बातें कर रहा था और फिर वे दोनों यहाँ से उठकर चले गए। मैंने उन दोनों को एक जीप से उस ओर बनी कच्ची सड़क से जाते हुए देखा था।'

‘'किस समय?'

‘'समय का तो बेटा मुझे पूरा ज्ञान नहीं है, परन्तु देर काफी हो चुकी है ।

बाबा का धन्यवाद करने के पश्चात् वे काफी समय तक इस विचार में डूबे रहे कि अब आगे क्या किया जाए। घर वापस जाने पर अपने घर वालों के हाथों पिटना लाज़मी था। अतः यह निर्णय हुआ कि बाबा द्वारा बतलाये गए रास्ते पर भी उसे ढूंढने की एक कोशिश करली जाए। अंधेरा हो चला था, सो रोशनी के लिए उन्होंने एक टार्च खरीद ली। लड़कियों के पास दो लड़कों को बैठाकर बाकी लड़के उस कच्ची सड़क पर आगे की ओर आपस में बतियाते हुए उस पराली के ढेर के नजदीक पहुँचे तो आवाजें सुनकर हिमांशु और घबरा गया। भय के मारे वह उस ढेर में और आगे की ओर सरकने लगा और इस हरकत में वह दूसरी ओर निकलकर नीचे जा गिरा। जब उसे अपनी भूल का एहसास हुआ तो वह तुरंत उठकर पुनः उस ढेर में घुसने लगा। टार्च की रोशनी में एक लड़के की नज़र उस आकृति पर पड़ गई। सभी लड़के उस ओर भागे। उनके वहाँ पर पहुँचने से पहले ही हिमांशु पराली के ढेर में छुप चुका था। उसे छुपते हुए तो सभी ने देख लिया था, परन्तु वह कौन है और उसे कैसे बाहर निकाला जाए यह एक समस्या थी। सोच विचार करने के पश्चात उन्होंने पुकारना शुरू किया: ‘

'हिमांशु! हिमांशु!! बाहर निकल आओ। ये हम हैं। घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है।'

आखिर उनकी तरकीब रंग लाई। हिमांशु ने उनकी आवाजें पहचान ली थी। वह रेंगता हुआ पराली के ढेर से बाहर निकल आया और रोने लगा। सभी उसको हौसला देने लगे। उसकी आप बीती सुनकर उनके रोंगटे खड़े हो गए। परमात्मा का शुक्रिया अदा करने के पश्चात उन्होंने कसम खाई की इस घटना का जिक्र घर पर कोई नहीं करेगा और साथ ही हिमांशु को भी नसीहत दी कि भविष्य में वह ऐसी गलती फिर कभी नहीं दोहरायेगा। देर रात को जब वे घर पहुँचे तब कहीं जाकर घर वाले चिंता से मुक्त हुए। परन्तु असली कहानी तो अब भी उनकी समझ से दूर थी।

*******