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“केशव तुम स्वयं को सिध्ध कर देना। मेरी शुभकामना।” मंत्रगान प्रतियोगिता से पूर्व गुल ने केशव का उत्साह वर्धन किया।
केशव केवल स्मित देकर चला गया। स्पर्धकों की दीर्घा में अपने आसन पर जाकर बैठ गया। समग्र सभा मंडप का निरीक्षण करने लगा। साथी प्रतियोगियों पर द्रष्टि डाली।
‘इतने सारे स्पर्धक? दो सौ से अधिक। ढाई दिवस तक चलेगा यह उपक्रम। तीसरे दिवस मध्याह्न के पश्चात विजेताओं के नाम घोषित किए जाएंगे। पुरस्कार दिये जाएंगे। किसी एक को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया जाएगा। वह किसी मिथ्याभिमान में स्वयं को सबसे उच्च मानने लगेगा। उसकी ख्याति देस देसांतर में प्रसर जाएगी।
इस प्रसंग के साक्षी बनने इतने सारे पत्रकार भी आए हैं। वह बड़े बड़े लेख लिखेंगे। कुछ दीवस तक इनकी चर्चा होती रहेगी। पश्चात उसके सब कुछ भुला दिया जाएगा। कोई ज्ञान की बात नहीं करेगा। देस के इन महान ग्रन्थों पर कोई नहीं लिखेगा, कोई नहीं बोलेगा। संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार पर कोई निर्णयात्मक कार्य नहीं होगा। यह सारा श्रम-परिश्रम व्यर्थ है। इस उपक्रम से किसी का लाभ नहीं होगा। ना देस का, ना ग्रन्थों का, ना गुरुकुल का, ना ज्ञान का, ना संस्कृत भाषा का, ना किसी छात्र का तथा ना ही किसी आचार्य का। व्यर्थ है, सब कुछ व्यर्थ है।’ केशव मन ही मन बोलता रहा।
सहसा प्रकट रूप से बोल पड़ा, “सब कुछ अर्थ हिन है, दंभ है, प्रपंच है। इसे रोक दो, रोक दो।”
केशव की ध्वनि इतनी प्रचंड थी कि वह समग्र सभा मंडप पर छा गई। समग्र सभागण केशव के प्रति आकृष्ट हो गया। सर्व अचंभित थे। साथी प्रतियोगियों में से किसी ने त्वरा से स्थिति का संज्ञान लिया तथा स्थिति को नियंत्रण करने हेतु सभी को शांत करने के लिए हाथ जोड़ विनती करने लगा। सभागण धीरे धीरे शांत होने लगा।
वह केशव के समीप गया।
“बंधु, सब कुछ ठीक तो है ना? जलपान करोगे?” उसने केशव को जल का पात्र धर दिया। केशव उसे देखता रहा। धीरे धीरे स्वस्थ होता गया। उस साथी के प्रति स्मित करते हुए कहा।
“धन्यवाद बंधु। क्षम्यताम।”
केशव अपने स्थान पर बैठ गया, वह साथी भी।
***
प्रतियोगिता के दो दिवस सम्पन्न हो गए। सभी प्रतियोगियों ने अपने कौशल का प्रदर्शन किया। अनेक छात्रों ने सभा का तथा निर्णायक गण का मन मोह लिया। प्रत्येक सुंदर अभिव्यक्ति पर सभा ने छात्रों का अभिनन्दन किया, साधुवाद किया, उत्साह वर्धन किया, प्रसन्नता व्यक्त की। कौन सा प्रतिभागी श्रेष्ठ होगा उस विषय पर सभा में चर्चा होने लगी। प्रत्येक ने अपने अपने दृष्टिकोण से किसी न किसी का विजेता के रूप में चयन कर लिया।
तीसरे दिवस की प्रतियोगिता का प्रारम्भ हो गया। आज द्वारका के गुरुकुल के छात्रों के उपरांत बनारस के छात्रों की प्रस्तुति होने वाली थी। सर्व प्रथम बनारस के छात्रों ने प्रस्तुति की। अद्भुत तथा अनूठी प्रस्तुति देखकर सभी पुरानी प्रस्तुतियों को सभागण भूल गया। बनारस ही श्रेष्ठ है ऐसा मत सभी का बनने लगा।
अंतिम प्रस्तुति का समय आ गया जो कि द्वारका गुरुकुल के छात्रों की थी। एक के पश्चात एक छात्र मंच पर आने लगे, प्रस्तुति करने लगे तथा प्रेक्षकों से प्रशंसा प्राप्त करने लगे। जैसे जैसे द्वारका गुरुकुल की प्रस्तुति होती रही, प्रेक्षकों के मत बदलने लगे। बनारस गुरुकुल पर द्वारका गुरुकुल प्रभावी होने लगा। दोनों ही प्रस्तुतियां इतनी अनूठी थी कि दोनों में से किसी एक को श्रेष्ठ मानना कठिन हो रहा था।
केवल अंतिम प्रस्तुति बाकी थी। केशव का नाम उद्घोषित हुआ। उसे मंच पर जाना था। वह द्वारका गुरुकुल का सर्वोत्तम छात्र था। सभी उसे सुनने के लिए उत्सुक थे, उत्साहित थे, अधीर थे। स्भागण शांत हो गया, प्रतीक्षा करने लगा। सभी केशव को खोजने लगे।
केशव अपने आसन से उठा, मंच पर गया, सभी को नमन किया।
“महाभारत का यूध्ध केवल अठारह दिवस चला था। यूध्ध का अंत यूध्ध भूमि में नहीं हुआ था। इसी प्रकार मेरे मन में भी पिछले अठारह दिवस से एक यूध्ध चल रहा है। महाभारत के यूध्ध से अधिक तुमुल है यह यूध्ध। उस यूध्ध के अंत का निर्णय निश्चित था। किन्तु मेरे इस यूध्ध का अंत अनिश्चित है।” केशव कह रहा था, सभी उसे पूर्ण निष्ठा से सुन रहे थे। सभी के लिए यह प्रस्तुति अनपेक्षित थी। अभी तक सभी ने बिना किसी अन्य शब्द कहे सीधे ही अपनी प्रस्तुति प्रारम्भ कर दी थी। केशव किसी विशिष्ट पूर्वभुमिका बांध रहा होगा ऐसी धारणा सभी ने बांध ली। सभी की रुचि बढ़ती गई।
“किन्तु समय के किसी एक बिन्दु पर प्रत्येक यूध्ध का अंत करना पड़ता है। कोई भी यूध्ध अनिश्चित काल तक नहीं चल सकता। आज इस मंच पर, समय के इस बिन्दु पर, मेरे अन्तर्मन के यूध्ध का अंत करना होगा।”
सभी के मन में कौतुक होने लगा। उससे थोड़ा कोलाहल हुआ। निर्णायकों के मध्य संकेतो से कुछ बात हुई। एक निर्णायक ने केशव को रोका, “केशव तुम्हें ज्ञात हो होगा कि प्रतियोगिता के नियम अनुसार तुम्हें अपनी प्रस्तुति केवल चार मिनिट में ही पूर्ण करनी है। तुम डेढ़ मिनिट व्यय कर चुके हो। तुमसे आग्रह किया जाता है कि इस बचे समय में तुम अपनी प्रस्तुति पूर्ण करो।”
“आप सभी का सम्मान करते हुए कहता हूँ कि मुझे मेरे लिए उपलब्ध समय का संज्ञान है। मैं आप सभी का क्षमाप्रार्थी हूँ क्यों कि मैं ईस प्रतियोगिता से अपना नामांकन निरस्त करता हूँ। धन्यवाद।” केशव मंच छोडकर जाने लगा।
“केशव, रुको। एक क्षण के लिए रुको।” मुख्य निर्णायक ने कहा। “इस प्रकार मंच तक आकर स्वयं को प्रतियोगिता से पृथक करना अनुचित है, अपमान भी है। किन्तु यह प्रतीत होता है कि निश्चय ही तुम किसी बात पर चिंतित हो। क्या तुम तुम्हारी उस चिंता को, उस व्यथा को इस मंच से व्यक्त कर सकते हो?”
केशव मुडा। मंच के मध्य आ गया,
“ मैं आपका धन्यवाद करता हूँ। किन्तु मेरी चिंता व्यक्त करने का यह उचित मंच है? यह मंच का उद्देश्य भिन्न है, मेरी चिंता भिन्न है। अत: इस मंच का उपयोग मैं नहीं करूँगा। किन्तु मेरी चिंता से मैं आप सभी को इस प्रतियोगिता के उपरांत अवश्य परिचय कराऊँगा।इस समय मुझे क्षमा भी करें तथा अनुमति भी दें।”
केशव मंच छोड़ गया। सभागार विचलित हो गया, अनियंत्रित होने लगा।