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मत नाराज़गी ओढ़िए, बिछाइए,
चंद दिन को आए हैं, मुस्कुराइए!
परेशान हो उठती हूँ जब देखती हूँ छोटी छोटी बातों में संवाद से तकरार होने लगती है। मैंने, तूने - - - तू, तेरा ! मुझे लगता है कि हमारा नाम भी केवल पुकार व पहचान के लिए ही है।इसमें 'मैं' की गुंजाइश कहाँ है?
बहुत बार मन में आता है कि आख़िर हूँ कौन मैं? पाँच तत्वों से निर्मित एक देह भर! वह भी अपनी कहाँ दोस्तों! जो हमारे भीतर हैं, प्राकृतिक रूप से हमें मिले हैं, उनका कोई स्वरूप है कहाँ? वे केवल अहसास भर हैं जैसे पवन का झौंका जो दिखाई नहीं दे सकता लेकिन महसूस किया जा सकता है।
करुणा---इसके आकार का भी कहाँ कोई आधार है, अहसास ही इसको जिलाए रखता है।
प्रेम - - - जिसमें न अभिमान है, न अहसान! बस एक छुअन भर! जो आँखों से दिल में उतरती चली जाती है और मन के भीतर चलने वाले उपद्रवों को महसूस करती हैं।
यह प्रेम किसी विशेष तमगे का पक्षधर नहीं है। यह हर मन में, नसों में रक्त के रूप में बहता रहता है।
जीवन का सबसे सुंदर रंग प्रेम है ये ऐसा रंग है जिसमें हर कोई रंगना चाहता है, इसमें जीना चाहता है। जिस घर में प्रेम नहीं है, श्रद्धा नहीं है, विश्वास नहीं है फिर वह घर खुशियाँ नहीं समेट पाता। समेट नहीं पाएगा तो बाँटेगा कैसे? इंसान वही जो विश्वास, प्रेम के धागे से सबको बांधे रखतो है। यदि विश्वास टूट गया तो प्रेम के धागे भी टूट जाते हैं।
ये रंग जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर चढ़े हों, हर रिश्ते में हों। इस रंग को बदरंग मत होने दें । अपने विश्वास को कम मत होने दें। धन कम हो जाएगा तो आएगा, चिंता मत करना लेकिन आपका आपस प्रेम कम हो जाएगा तो वापसी कठिन ही है।उसकी चिंता होनी आवश्यक है ।
यदि हम किसी काम में सफल नहीं हो पा रहे हैं तो इतनी बड़ी बात नहीं यदि हम बार बार प्रयास करेंगे तो ज़रूर सफ़ल हो जाएंगे लेकिन यदि प्रेम की डोर में गांठ पड़ गई तब मामला खटाई में ही समझें।. कोई भी रिश्ता क्यों न हो, स्नेह की दरकार रखता है, मुस्कान की इच्छा रखता है, अपनेपन की अपेक्षा रखता है। बस, इतनी सी तो बात है और वह हमारी बुद्धि और विवेक पर आधारित है।
हमअपने रिश्तों को बनाकर चल रहे हैं तो निश्चित रूप से हम सफल हैं लेकिन इसके लिए त्याग करना होगा। अपने हितों की आहुति देनी पड़ेगी। यदि स्वयं अपेक्षा करते हैं, मांग करते हैं कि सामने वाला हमारे रे लिए कुछ न कुछ करता रहे, तो प्रेम टिकेगा नहीं। टिकेगा तो केवल एक बात पर जिसको मैं अपना कहता हूँ , चाहे वह माँ है, पिता है, भाई है, बंधु है, सखा है, प्रेमी है, कोई भी हो, मैं उसके लिए क्या कर सकता हूँ? मैं उसे क्या दे सकता हूं? बल्कि यहाँ तक हो कि उसकी पीड़ा को शब्दों के बिना ही समझ सकें।
मन में सबके प्रति एक स्नेहिल भाव बना रहे। यह भाव असंभव नहीं है केवल इसका अहसास मन में बना रहे कि किसी को भी दर्द न मिले उसको दु:ख न मिले उसे पीड़ा न मिले। हम उस देश के वासी हैं जहाँ प्रेम व आदर को सर्वोपरि माना जाता रहा है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः के विचारों से ओतप्रोत हम सबके कल्याण में अपना कल्याण देखते हैं। सबका पेट भरा हो यह हमारे मन का भाव रहता है।
हम दूसरों के प्रति यह भावना रखेंगे तभी हमारा प्रेम निर्मल, पवित्र, स्नेहिल है अन्यथा कब और रंग आए, कब गए कौन जाने।
इक प्यार का नग़मा है, मौजों की रवानी है । ज़िंदगी और कुछ भी नहीं, हम सबकी कहानी है । इसलिए आइए जीवन में उन रंगों को बिखरने की कोशिश करेंं जो रंग जीवन में उत्सव की भाँति अनुपम, उत्कृष्ट बने रहें।
प्रेम कभी वृत्त में नहीं रह सकता, उसे दरकार है खुले आकाश की।
सस्नेह
डॉ प्रणव भारती