सन्यासी -- भाग - 15 Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

सन्यासी -- भाग - 15

जब जयन्त चक्कर खाकर धरती पर गिर पड़ा तो वीरेन्द्र भागकर उसके पास आया,उसे सम्भालने के लिए,साथ में उसने एक और लड़के की भी मदद ली,फिर दोनों जयन्त को सहारा देकर काँलेज तक ले गए और उसे एक पेड़ की छाँव में बैठाकर पानी पिलाया,तब वीरेन्द्र ने जयन्त से पूछा..."तू! ठीक तो है ना!""हाँ! मैं ठीक हूँ",जयन्त ने जवाब दिया..."लेकिन तू ऐसे अचानक चक्कर खाकर कैंसे गिर पड़ा मेरे भाई!",वीरेन्द्र ने जयन्त से पूछा...."वो मैंने परसों रात से खाना नहीं खाया,इसलिए शायद चक्कर आ गया होगा",जयन्त ने वीरेन्द्र से कहा..."तूने परसों रात से खाना नहीं खाया.....मगर क्यों?",वीरेन्द्र ने जयन्त से हैरान होकर पूछा..."परसों रात से कल शाम तक मैं लखनलाल के साथ था,उसकी बेटी को खोजने में उसकी मदद कर रहा था, लेकिन वो बेचारी इस हालत में मिलेगी ये मैंने कभी नहीं सोचा था और आज लखनलाल भी इस दुनिया से मुँह मोड़कर चला गया,शायद उन दोनों की मौत का जिम्मेदार मैं ही हूँ,मैं उस सुमेर सिंह से ना उलझता तो शायद आज दोनों बाप बेटी जिन्दा होते",और ऐसा कहकर जयन्त रो पड़ा....तब वीरेन्द्र ने उसे गले लगाकर उसे दिलासा देते हुए कहा..."जय! तू अपना फर्ज निभा रहा था,तू उन दोनों की मौत के लिए खुद को कुसूरवार मत समझ,तू तो बस लखनलाल की मदद कर रहा था,मेरे भाई ! ये सब तेरी वजह से नहीं हुआ है""लेकिन वो दोनों तो मर गए ना!",जयन्त ये कहते हुए दोबारा रो पड़ा...."अब रोना बंद कर,चल कुछ खाकर आते हैं,नहीं तो तुझे ऐसे ही चक्कर आते रहेगें",जयन्त ने अभी अपनी बात पूरी ही की थी कि तभी अनुकम्पा वहाँ पर आकर उन दोनों से बोली...."तो आप दोनों यहाँ पर हैं,मैं ने पूरा काँलेज छान मारा लेकिन आप दोनों मुझे कहीं नहीं मिले""कुछ देर पहले तक हम दोनों काँलेज में नहीं थे",वीरेन्द्र ने अनुकम्पा से कहा..."काँलेज में नहीं थे तो कहाँ गए थे आप दोनों",अनुकम्पा ने वीरेन्द्र से पूछा...."वो काँलेज के चपरासी लखनलाल ने आत्महत्या कर ली है,इसलिए वहाँ चले गए थे",वीरेन्द्र बोला...."ओह...लेकिन उसने फाँसी क्यों लगा ली",अनुकम्पा ने वीरेन्द्र से पूछा...तब वीरेन्द्र ने अनुकम्पा को पूरी बताई और फिर वो अनुकम्पा से बोला...."और ये जनाब उन दोनों की मौत के लिए खुद को कुसूरवार ठहरा रहे हैं""लेकिन जयन्त बाबू! इसमें तो आपकी कोई गलती नहीं है,आप तो बस लखनलाल की मदद कर रहे थे", अनुकम्पा ने जयन्त को दिलासा देते हुए कहा..."यही तो मैं भी इसे इतनी देर से समझा रहा हूँ,लेकिन ये माने तब ना!",वीरेन्द्र ने अनुकम्पा से कहा..."जयन्त बाबू! आप उन दोनों की मौत के लिए जिम्मेदार नहीं हैं,उन दोनों की मौत का जिम्मेदार तो वो इन्सान है जिसने लखनलाल की बेटी के साथ ऐसा घिनौना काम किया है,इसलिए सजा का हक़दार वो है आप नहीं",अनुकम्पा जयन्त से बोली..."वही तो मैं भी कह रहा हूँ और इसी चक्कर में जनाब ने परसों रात से खाना नहीं खाया और अभी कुछ देर पहले गश खाकर धरती पर गिर पड़े",वीरेन्द्र ने अनुकम्पा से कहा..."ओह..सच में! परसों रात से आपने कुछ नहीं खाया,तब तो आपको अभी इसी वक्त कुछ खा लेना चाहिए, नहीं तो इस तरह से तो आप बीमार पड़ जाऐगें",अनुकम्पा जयन्त से परेशान होकर बोली..."हाँ! वही तो ,इसलिए तो मैं इसे कुछ खिलाने के लिए लिवाएँ लिए जा रहा था",वीरेन्द्र ने अनुकम्पा से कहा..."उसकी कोई जरूरत नहीं है,मैं अपने साथ में खाना लाई हूँ,जयन्त बाबू वही खा लेगें"   और ऐसा कहकर अनुकम्पा ने अपना बैग खोलकर खाने का डब्बा निकाला और जयन्त के सामने रखकर बोली...."लीजिए! खा लीजिए,प्याज के पराँठे और अचार है""रहने दीजिए अनुकम्पा जी ! मैं ये खाना नहीं खा सकता,मेरा कुछ भी खाने को दिल नहीं कर रहा",जयन्त ने अनुकम्पा से कहा...."ओए...सुन! अब ज्यादा नखरे मत दिखा,चुपचाप खा ले,नहीं तो फिर मुझसे बुरा कोई ना होगा", वीरेन्द्र ने गुस्से से जयन्त से कहा..."हाँ! जयन्त बाबू! खा लीजिए ना!,खाना ना खाने से आपकी सेहद बिगड़ जाऐगी और अगर आपकी सेहद बिगड़ गई तो फिर आप लखनलाल को न्याय कैंसे दिलवाऐगें",अनुकम्पा ने जयन्त से कहा..."हाँ! जयन्त! अनुकम्पा सही कह रही है,अगर तुझे जीतना है तो फिर खुद को मजबूत करना होगा,तन से भी और मन से भी,खाना छोड़ने और यूँ मायूस बैठने से कुछ होने वाला नहीं है,सच्चाई के रास्ते में ऐसे उतार चढ़ाव तो आते रहते हैं तो इसका मतलब ये तो नहीं है कि तू आँसू बहाने लग जाएँ,उठ और खुद को साहसी बना,हार मत मान,तू जयन्त है और हमेशा तेरी ही जय होगी क्योंकि तू सच्चाई के रास्ते पर चल रहा है", वीरेन्द्र ने जयन्त से कहा...."हाँ! जयन्त बाबू! वीरेन्द्र बाबू सही कह रहे हैं,अगर आप यूँ हिम्मत हारकर बैठ जाऐगें तो उधर बेईमानी करने वालों के हौसले बुलन्द हो जाऐगें और फिर वो तो यही चाहते हैं कि आप हार मान ले,जिससे उनकी करतूतें सबके सामने ना आ पाएँ",अनुकम्पा जयन्त से बोली...."हाँ! शायद तुम दोनों सही कह रहे हो,मैं इस तरह से हार नहीं मान सकता,मुझे उन लोगों को सबक सिखाना ही होगा,अगर मैं अपराधियों को उनकी सजा नहीं दिलवा पाया तो लखनलाल और फागुनी की आत्मा को कभी शान्ति नहीं मिलेगी",जयन्त ने वीरेन्द्र और अनुकम्पा से कहा...."ये हुई ना बात और अब अच्छे बच्चों की तरह खाना खा लीजिए,फिर ठण्डे दिमाग़ से सोचिए कि आप उन मुजरिमों को कैंसे जेल भिजवा सकते हैं जिन्होंने ऐसा घिनौना काम किया है",अनुकम्पा जयन्त से बोली....."हाँ! मैं भी अनुकम्पा जी की बात से सहमत हूँ",वीरेन्द्र बोला....   और फिर क्या था,वीरेन्द्र और अनुकम्पा के समझाने पर जयन्त को उनकी बातें समझ में आ गईं,फिर उसने खाना खाया और विचार करने लगा कि आगें ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे अपराधियों को उनके किए की सजा मिल सकें,उस दिन दिनभर अनुकम्पा और वीरेन्द्र जयन्त के साथ रहे,फिर काँलेज खतम हो जाने के बाद जयन्त पुजारी जी के पास पहुँचा,जहाँ वो अकसर अपनी उलझनों को सुलझाने के लिए जाया करता था....वो मन्दिर पहुँचा तो वृद्ध पुजारी जी सदैव की भाँति समझ गए कि जयन्त किसी उलझन में है इसलिए उन्होंने जयन्त से पूछा...."क्या हुआ जयन्त!,कुछ पूछना चाहते हो""जी! बहुत उलझन में हूँ,समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ,मैं अपराधबोध से ग्रसित हूँ ,मुझे लगता है कि मेरी वजह से ही उन दो निर्दोषों की जान चली गई है,समझ में नहीं आता कि स्वयं को कैंसे उबारू उस घटना से",जयन्त ने वृद्ध पुजारी जी से कहा..."ओह...तो ये बात है""जी! हाँ!",जयन्त बोला..."लेकिन पहले मुझे पूरी बात तो बताओ,तब तो मैं तुम्हारी समस्या का समाधान कर पाऊँगा",वृद पुजारी जी ने जयन्त से कहा...   और फिर पुजारी जी के कहने पर जयन्त ने उन्हें विस्तारपूर्वक सारी बात बता दी....




क्रमशः....

सरोज वर्मा....